-डॉ. अशोक कुमार गदिया
विश्व पटल पर नजर दौड़ाएं तो पायेंगे कि भारत विश्व का सबसे युवा देश है। भारत की कुल आबादी लगभग 140 करोड़ है। इसमें लगभग 80 करोड़ युवा हैं। जबकि भारत की जनसंख्या ढाई प्रतिशत की दर से हर साल बढ़ रही है और रोजगार की व्यवस्था लगभग शून्य है। आज भारत सरकार, भारतीय समाज एवं भारतीय परिवार के लिये सबसे बड़ी चुनौती अपने देश के युवाओं को ठीक से पढ़ा-लिखाकर अच्छा प्रशिक्षण देकर उसे रोजगार के काबिल बनाना है। हमारा प्रत्येक युवा ठीक से रोजगार से जुड़ा हो, उद्यमी हो या पेशेवर हो या व्यापारी हो। हर युवा भारत की मुख्यधारा का हिस्सा हो और हमारी सकल आय में थोड़ा या ज्यादा योगदान देता हुआ दिखे, यह हम सब लोगोें का सपना है। फिर वह देश में काम करे या विदेश में काम करे इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। इसी स्वप्न के पूरे होने पर ही हम विश्व की सबसे बड़़ी अर्थ व्यवस्था बन सकते हैं और हम विश्वगुरु बनने का लक्ष्य भी पुनः प्राप्त कर सकते हैं। इस स्वप्न को पूरा करने के लिये हमें सबसे पहले अपना ईमानदारी से आंकलन करना होगा।
क्या कहता है भारतीय सर्वेक्षण
भारतीय सर्वेक्षण के आंकड़ों पर निगाह डालें तो पाएंगे कि सन् 2022-23 के दौरान मासिक औसत बेरोजगारी की दर 7.6 प्रतिशत रही है। मई माह में भारत में बेरोजगारी की दर लगभग 7 प्रतिशत थी। मार्च 2023 में बेरोजगारी 8.4 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। जबकि ग्रामीण क्षेत्र में बेरोजगारी दर 7.5 प्रतिशत रही और छंटनी का कुल प्रतिशत 39.8 रहा।
राज्यवार बेरोजगारी के आंकड़े
राज्यवार बेरोजगारी के आंकड़ों पर नजर डालें तो सबसे अधिक बेरोजगारी हरियाणा राज्य में 26.8 प्रतिशत दर्ज की गई। राजस्थान में 26.6, जम्मू एवं कश्मीर में 23.1 प्रतिशत, सिक्किम में 20.7 प्रतिशत, बिहार में 17.6 प्रतिशत और झारखंड में 17.5 प्रतिशत बेरोजगारी दर रही।
उपभोक्ता मनोभाव
उपभोक्ता मनोभाव का व्यापार एवं उद्योग-धन्धों पर बड़ा असर होता है। यदि यह वृद्धि करता है तो बाजार में वस्तुओं एवं सेवाओं की मांग बढ़ती है। उससे रोजगार बढ़ता है। उपभोक्ता मनोभाव की मासिक वृद्धि दर 2.68 प्रतिशत रही है। सन् 2023 में उपभोक्ता मनोभाव 89.18 प्रतिशत पर दर्ज किया गया है जबकि 2020 में यह 105.3 प्रतिशत था। यानि कि हम अभी अपनी उपभोक्ता मांग को कोरोना से पूर्वकाल तक नहीं पहुँचा पाये हैं। सन् 2023-24 की सकल आय वृद्धि का अनुमान भारत का 5 से 6 प्रतिशत के बीच का है।
क्या है स्थायी समाधान-
सवाल उठता है आखिर बेरोजगारी की समस्या स्थायी क्यों होती जा रही है और इसका समाधान क्या है? आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद से भारत का सार्वजनिक क्षेत्र लगातार सिमट रहा है। ऐसे में रोजगार पैदा करने का दारोमदार निजी क्षेत्र पर है। निजी क्षेत्र मुनाफे के लिए काम करता है। निवेश तभी करता है, जब मुनाफे के साथ लागत की वापसी का भरोसा हो। मुनाफा तभी होगा, जब बाजार में मांग हो। मांग तब होगी, जब लोगों की जेब में पैसा हो। बाजार में आज मांग की स्थिति मंदी हो चली है। मांग पर पहली बड़ी मार नोटबंदी और दूसरी जीएसटी के कारण पड़ी। रही-सही कसर महामारी ने पूरी की। इस महामारी से 40 करोड़ से अधिक औपचारिक श्रमिक गहन गरीबी में चले गये। अर्थव्यवस्था में 30 फीसदी और रोजगार में 40 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले लघु एवं मध्यम यानी एमएसएमई क्षेत्र की इकाइयों पर ताले लगने लगे।
17,452 इकाइयां बंद हुईं-
सरकार की तरफ से फरवरी 2023 में राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में दिए गए आंकड़े के अनुसार, वित वर्ष 2019-20 से लेकर वित वर्ष 2022-23 तक 17,452 से अधिक एमएसएमई इकाइयां बंद हो गईं। सर्वाधिक 10,655 इकाइयां अकेले 2022-23 में बंद हुईं। सरकार ने मौजूदा वित्त वर्ष के बजट में एमएसएमई क्षेत्र के लिए 22,140 करोड़ रुपए का आबंटन किया है, जिसका परिणाम आना अभी बाकी है।
रूस-यूक्रेन युद्ध का असर-
रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण आपूर्ति श्रंृखला बाधित हुई तो महंगाई चरम पर पहुंच गई। मांग को नीचे लाने में इसका भी बड़ा योगदान है। मांग न होने से विनिर्माण क्षेत्र नई क्षमता जोड़ना तो दूर की बात, अपनी मौजूदा स्थापित क्षमता का भी इस्तेमाल नहीं कर पा रहा है। ऐसे में नौकरियों की सृजन प्रक्रिया पर विराम-सा लग गया है।
72 प्रतिशत देश कृषि पर आधारित-
भारत में रोजगार मुहैया कराने के लिहाज से कृषि क्षेत्र महत्वपूर्ण है। भारत की लगभग 72 प्रतिशत जनता कृषि पर निर्भर है। अर्थव्यवस्था का यह इकलौता क्षेत्र है, जो घाटे के बावजूद बंद नहीं होता। यहां श्रमशक्ति का लगभग 45-50 फीसद हिस्सा रोजगार पाता है। कृषि क्षेत्र में ज्यादातर रोजगार मौसमी होते हैं। फिर भी इस क्षेत्र को अधिक प्रोत्साहन और समर्थन दिया जाए तो भारत में बेरोजगारी की समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है। सरकार के लिए यह प्राथमिकता का क्षेत्र होना चाहिए। लेकिन स्थिति इसके उलट है। मौजूदा वित्त वर्ष के बजट में कृषि क्षेत्र का आबंटन घटाकर कुल बजट का 2.7 फीसद कर दिया गया, जबकि 2022-23 में यह आबंटन कुल बजट का 3.36 फीसद था। धनराशि के मामले में हालांकि आबंटन पिछले वित्त वर्ष के संशोधित अनुमान के मुकाबले 4.7 फीसद अधिक है। लेकिन पिछले वित्त वर्ष के बजटीय प्रस्ताव से सात फीसद कम। दूसरी तरफ कुल श्रमशक्ति के लगभग 12 फीसद हिस्से को रोजगार देने वाले विनिर्माण क्षेत्र के लिए सभी सुविधाएं सुलभ हैं। वर्ष 2016 में आइबीसी कानून लाया गया, सितंबर 2019 में कारपोरेट कर 30 फीसद से घटाकर 22 फीसद कर दिया गया है और महामारी के बीच उत्पादन आधारित प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना लाई गई। मौजूदा वित्त वर्ष के बजट में पूंजीगत निवेश का आबंटन बढ़ाकर 10 लाख करोड़ रुपए किया गया तो उसका एक बड़ा हिस्सा परोक्ष रूप से बड़ी कंपनियों को मदद पहुँचाने के लिए है। निजी क्षेत्र फिर भी नौकरियां पैदा नहीं कर पा रहा है।
इस समस्या से निजात पाने के उपाय
1-स्कूल से लेकर कॉलेज एवं विश्वविद्यालय तक हाथ के कामों को सिखाया जाए और उनके प्रति सम्मान का भाव पैदा किया जाए।
2-शारीरिक श्रम का मूल्य मानसिक श्रम से ज्यादा रखा जाए, जिससे हाथ के कामों के प्रति युवा आकर्षित हो, इसे अच्छा काम समझे और इसको करते हुए गर्व महसूस करे।
3-छोटे उद्योग, कुटीर उद्योग, घरेलू, सुरक्षा गार्ड, मरम्मत, रखरखाव आदि कार्यों को कार्पोरेट सेक्टर से बाहर करना चाहिए।
4-इन कामों को व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से या व्यक्तियों के समूह के रूप में करें, जिसे हम सहकारी समिति बनाकर भी कर सकते हैं।
5-बड़े औद्योगिक क्षेत्रों में हमें अधिक से अधिक लोगों को उपयोग में लाने की व्यवस्था करनी चाहिए।
6-विश्वभर में यह जनमत बनना चाहिए कि मशीनीकरण न्यूनतम हो और मानव का उपयोग अधिकतम हो। थोड़ी कार्यकुशलता कम भी होगी तो भी यदि अधिक से अधिक व्यक्ति बड़े एवं छोटे रोजगार से जुड़ेंगे तो यह कदम मानवता के हित में होगा।
7- नीति-नियंताओं को इस नीतिगत विफलता पर नए सिरे से मंथन करना चाहिए और रोजगार पैदा करने वाले क्षेत्रों को समर्थन देकर बेरोजगारी की समस्या का स्थायी समाधान खोजना चाहिए।
जब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं तो स्वाभाविक रूप से महात्मा गांधी का ‘‘हिन्द-स्वराज’’ याद आता है। अतः हमें मानवता के कल्याण के लिए पुनः गांधी के विचारों की ओर ही लौटना होगा। सरकारी स्तर पर नई शिक्षा नीति-2020 का यदि अक्षरशः पालन किया जाए तो इस समस्या को काफी हद तक दूर किया जा सकता है।
(लेखक मेवाड़ विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं)
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