19.9.23

विश्वकर्मा योजना पिछड़ों के लिये सौगात या झांसा

kp singh-

भाजपा और इण्डिया गठबंधन के बीच तू डाल डाल मैं पात पात का खेल चल रहा है। एक शह देता है तो दूसरा काट निकालकर उल्टी शह दे डालता है। इस बाजी में कौन जीतेगा इसका नतीजा तो 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद सामने आयेगा। फिलहाल तो लोग इस रोमांचक और रोचक लड़ाई का मजा ले रहे हैं। वैसे लड़ाई में भी दोनों तरफ कई पैंच हैं जिससे खेल का सस्पेंस और बढ़ गया है। ताजा पेंच डालने की कारीगरी नीतिश कुमार ने दिखाई है ऐंकरों के बहिष्कार के मुद्दे पर। बताया तो यह गया था कि इण्डिया की मुंबई में हुयी बैठक में सर्वसम्मति से इस बहिष्कार का फैसला लिया गया था। जिसमें भले ही नीतिश कुमार खुद मौजूद न रहे हों लेकिन उनके प्रतिनिधि तो थे और उन्होंने भी शायद यही कहा था कि जो पंचन की राय वही उनकी राय है। फिर नीतिश कुमार को इत्तेफाक कैसे हो गया। ऐसी प्रायोजित नाराजगी के पीछे कोई न कोई रहस्य होता है। क्या नीतिश के रूठने के पीछे यह तो रहस्य नहीं है कि विपक्षी एकता के लिये शुरूआत उन्होंने की, पूरे कुनबे को उन्होंने जोड़ा लेकिन अब वे अलग थलग से हैं। उन्हें वह भाव नहीं दिया जा रहा जिसकी अपेक्षा थी। शायद वे विपक्षी गठबंधन के संयोजक पद को पाने के तलबगार थे भले ही खुले तौर पर उन्होंने यह कहा हो कि उन्हें संयोजक बनने की कोई हसरत नहीं है। पर लगता यह है कि एक ओर वे बड़प्पन भी ओढ़े रखना चाहते थे दूसरी ओर चाहते थे कि अन्य लोग समझदारी दिखाकर उनके गले में संयोजक बनाने की माला डाल दें पर किसी ने उनका नाम भी नहीं लिया। शरद यादव ने तो अपनी यह नियति स्वीकार कर ली है पर संभवतः नीतिश इसे पचा नहीं पा रहे। फिलहाल जो भी हो उनके और पत्ते अभी आगे खुलेंगे। नीतिश जी बड़े महीन नेता हैं। हालांकि उनके सामने एनडीए में जाने का विकल्प अब नहीं रह गया है लेकिन इण्डिया के गांधी या जयप्रकाश बनने का चांस भी उनके हाथ नहीं आ रहा। इस कुंठा में इण्डिया के लिये अगर उन्होंने फिदाइन बनने की ठान ली हो तो क्या आश्चर्य है बतर्ज खेलेंगे नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे।


बात हो रही थी भाजपा और इण्डिया के बीच शह मात के खेल की। इण्डिया ने घोषणा कर दी है कि जातिगत जनगणना को वह अपनी चुनावी रणनीति का मुख्य मुद्दा बनायेगा। पहले भाजपा इतरा रही थी कि उसने पिछड़ों और दलितों को भी धर्म के रंग में इतना रंग लिया है कि विपक्ष अब उन्हें कितना भी भड़काये वे उसके मोह पाश में बंधे रहेंगे। लेकिन अब ऐसा नहीं है। भाजपा को भी दिखाई देने लगा है कि बहुजन में अपनी इयत्ता को लेकर पहले जैसी चेतना ठाठें मारने लगी है। इसलिये भाजपा की पेशानी पर बल पड़ गये हैं। उसे लग रहा है कि कहीं जातिगत जनगणना का मुद्दा उसे ले डूबने का कारण न बन जाये। इस समय दलित तो भाजपा को इस बात को लेकर सशंकित हैं कि बाबा साहब का बनाया हुआ जो संविधान उनके लिये गीता और बाइबिल जैसा दर्जा रखता है मोदी उसे बदल न डालें। इसलिये भाजपा को लेकर उसका स्वभाव प्रतिशोधपूर्ण होने लगा है नतीजतन जहां पहले जगदीप धनखड़ और किरन रिजजू के माध्यम से यह दलील स्थापित करायी जा रही थी कि सरकार को संविधान में सब कुछ बदलने का अधिकार है, मूल स्वरूप को अक्षत रखने जैसी किसी बाध्यता से चुनी सरकार बंधी नहीं हैं वहीं अब वह इस विमर्श से किनारा करने लगी है ताकि दलितों को फिर से साधा जा सके तो पिछड़े जातिगत जनगणना के मुद्दे पर सतर्कता दिखा रहे हैं। प्रतीति यह है कि जातिगत जनगणना या सर्वे के परिणामों का सबसे अधिक लाभ पिछड़ों से जुड़ा हुआ है क्योंकि इससे पिछड़ों की आबादी देश की कुल आबादी में 50 फीसदी से ज्यादा साबित हो सकती है तो इसी अनुपात में सरकारी नौकरियों में आरक्षण लेने का हक उनके लिये बन जायेगा। पिछड़ों के जातिगत जनगणना को लेकर इस उत्साह से भाजपा को भी चैकन्नेपन से काम करना पड़ रहा है क्योंकि भले ही संघ प्रमुख मोहन भागवत ने यह कह दिया हो कि आरक्षण तब तक बना रहना चाहिये जब तक कि सामाजिक भेदभाव जारी है लेकिन अंतरात्मा में भाजपा आरक्षण की व्यवस्था को सिरे से खत्म करना चाहती है। बढ़ाना तो दूर की बात है। पिछड़ों के माध्यम से आरक्षण को बढ़ाने का जो दबाव आने वाला है उसी को रोकने के लिये संघ प्रमुख ने आरक्षण के हिमायती होने का अभिनय रचा है ताकि इस ऐहसान में पिछड़े फिलहाल और मुंह न खोलें। दूसरी ओर मोदी सरकार निजीकरण को बढ़ाकर और लेटरल इंट्री जैसी तजबीजों के माध्यम से आरक्षण को अर्थहीन कर रही है। आरक्षण से उसे सबसे ज्यादा दिक्कत यह है कि सरकारी नौकरी जिस वर्ग के पास ज्यादा आती है उसमें आत्मविश्वास और अधिकार चेतना बढ़ जाती है जो कि वर्ण व्यवस्था के उद्देश्यों के खिलाफ है। इस कारण मोदी सरकार ने पिछड़ों को बरगलाने हेतु विश्वकर्मा योजना का शोशा छोड़ा है जिसमें 18 तरह के कामों के परंपरागत कामगारों को 3 लाख रूपये तक का ऋण मात्र 5 प्रतिशत ब्याज पर उपलब्ध कराने का सब्जबाग दिखाया गया है। इरादा यह है कि इस प्रलोभन में पिछड़े प्रशासनिक दबदबा बनाने की भूंख भूल जायें, सरकारी नौकरियों की मांग न करें बल्कि अपने पुस्तैनी पेशे में ही पिसते रहें जिसमें वर्ण व्यवस्था के नाते अपमानित होना और बेगार करना उनकी नियति रही है। जाहिर है कि अब यह लड़ाई जातिगत जनगणना बनाम विश्वकर्मा योजना की हो गयी है जबकि 3 लाख रूपये मात्र का कर्जा ऊंट के मुंह में जीरा के बराबर है जिससे किसी घर की खुशहाली का दावा करना सिर्फ एक मजाक है। लेकिन फिर भी अगर मोदी सरकार पिछड़ों की इतनी हमदर्द है तो उसे नौकरियों में उसकी भागीदारी की सुरक्षा के लिये भी कोई ठोस गारंटी करनी चाहिये। क्या वह इसकी कोई पहल करेगी।

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