((छात्र राजनीति के दिनों में जब सांस्कृतिक मोर्चे से जुड़ा था, गोरख पांडेय को खूब गाता था। दस्ता की टीम के साथियों के साथ कुछ वक्त गुजारने को मिला तो उनसे गोरख पांडेय, धूमिल, पाश जैसे कवियों और उनकी जिंदगी के बारे में जानने को मिला। इनकी रचनाओं को नाटकों, गीतों और पोस्टरों को हिस्सा बनाया गया। गोरख की ज्यादातर रचनाओं को हम लोग गाते थे, ढपली के साथ, गांव-गांव में जाकर। कविता पोस्टरों पर लिखकर कैंपस के बाहर-भीतर चिपकाते थे। जब नेट पर गोरख की रचनाओं को देखा तो उनकी एक भोजपुरी रचना को आप लोगों के सामने लेने के लिए बेचैन हो उठा। पढ़िए और बूझिए...जय भड़ास, यशवंत सिंह)
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कविता संग्रह का मुखपृष्ठ: स्वर्ग से बिदाई
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सूतन रहलीं सपन एक देखलीं
सपन मनभावन हो सखिया,
फूटलि किरनिया पुरुब असमनवा
उजर घर आँगन हो सखिया,
अँखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा
त खेत भइलें आपन हो सखिया,
गोसयाँ के लठिया मुरइआ अस तूरलीं
भगवलीं महाजन हो सखिया,
केहू नाहीं ऊँचा नीच केहू के न भय
नाहीं केहू बा भयावन हो सखिय,
मेहनति माटी चारों ओर चमकवली
ढहल इनरासन हो सखिया,
बैरी पैसवा के रजवा मेटवलीं
मिलल मोर साजन हो सखिया ।
-गोरख पांडेय
(रचनाकाल : 1979)
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कोई ग़म ना करो...
दर्द कैसा भी हो, आंख नम ना करो
रात काली सही, कोई ग़म ना करो
इक सितारा बनो, जगमगाते रहो
ज़िंदगी में सदा मुस्कुराते रहो
बांटनी है अगर, बांट लो हर खुशी
ग़म ना ज़ाहिर करो तुम किसी पर कभी
दिल की गहराई में, ग़म छुपाते रहो
दुख का सागर भी हो, मुस्कुराते रहो
अश्क अनमोल हैं, खो ना देना कहीं
इनकी हर बूंद है, मोतियों से हसीं
इनको हर ‘रियाज़’ से तुम चुराते रहो
ज़िंदगी में सदा मुस्कुराते रहो
-रियाज़
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सदा देती है खुशबू, चांद तारे बोल पडते हैं।
नज़र जैसी, नज़र हो तो नज़ारे बोल पड़ते हैं॥
तुम्हारी ही निगाहों ने कहा है हमसे ये अक्सर।
तुम्हारे जिस्म पर तो रंग सारे बोल पड़ते हैं॥
महक जाते हैं गुल जैसे सबा़ के चूम लेने से।
अगर लहरें मुखातिब हों, किनारे बोल पड़ते हैं॥
ज़ुबां से बात करने में जहां रुसवाई होती है।
वहां खामोश आंखों के इशारे बोल पड़ते हैं॥
छुपाना चाहते हैं उनसे दिल का हाल हम लेकिन।
हमारे आंसुओं में ग़म हमारे बोल पड़ते हैं॥
तेरी पाबन्दियों से रुक नही सकती ये फ़रियादें।
अगर हम चुप रहें तो ज़ख्म सारे बोल पड़ते हैं॥
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आज मौसम बड़ा बेईमान है
बड़ा बेईमान है आज मौसम
आने वाला कोई तूफान है,
कोई तूफान है, आज मौसम...
क्या हुआ है, हुआ कुछ नहीं है
बात क्या है, कुछ पता नहीं है
मुझसे कोई खता हो गयी हो तो
इसमें मेरी खता कुछ नहीं है
खूबसूरत है तू, रूत जवान है
काली काली घटा डर रही है
ठंडी आहें हवा भर रही है
सब को क्या क्या गुमा हो रहे हैं
हर कली हम पे शक कर रही है
फूलों का दिल भी कुछ बदगुमान है
ऐ मेरे यार, ऐ हुस्नवाले
दिल किया मैने तेरे हवाले
तेरी मर्जी पे अब बात ठहरी
जीने दे चाहे तू मार डाले
तेरे हाथों में अब मेरी जान है
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वो अपने चेहरे में ....
वो अपने चेहरे में सौ अफ़ताब रखते हैं
इस लिये तो वो रुख़ पे नक़ाब रखते हैं
वो पास बैठे तो आती है दिलरुबा ख़ुश्बू
वो अपने होठों पे खिलते गुलाब रखते हैं
हर एक वर्क़ में तुम ही तुम हो जान-ए-महबूबी
हम अपने दिल की कुछ ऐसी किताब रखते हैं
जहान-ए-इश्क़ में सोहनी कहीं दिखाई दे
हम अपनी आँख में कितने चेनाब रखते हैं
--हसरत जयपुरी
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ये कौन आ गई दिलरुबा महकी महकी
ये कौन आ गई दिलरुबा महकी महकी
फ़िज़ा महकी महकी हवा महकी महकी
वो आँखों में काजल वो बालों में गजरा
हथेली पे उसके हिना महकी महकी
ख़ुदा जाने किस-किस की ये जान लेगी
वो क़ातिल अदा वो सबा महकी महकी
सवेरे सवेरे मेरे घर पे आई
ऐ "हसरत" वो बाद-ए-सबा महकी महकी
--हसरत जयपुरी
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मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं...
(आज दिल्ली में रिमझिम बारिश है, मौसम ठंडा-ठंडा है, ऐसे में कुछ मूड नहीं कर रहा है। लड़ाई-झगड़े की बातें बहुत हो लीं, अब थोड़ा रुमानी होने का मन कर रहा है, बचपन के और गांव के दिन याद आ रहे हैं, जब बरसाती पानी वाली गली में इतनी स्पीड से पैरों से पानी उड़ाते थे कि अगल-बगल वाले गंदे हो जाते थे और वे हमें मारने को दौड़ाते थे फिर हम लोग उसी तूफान गति से भागते थे....उन्हीं दिनों की याद कर गोपालदास नीरज की एक कविता पेश कर रहा हूं....वीर रस में...यशवंत)
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..
हैं फ़ूल रोकते, काटें मुझे चलाते..
मरुस्थल, पहाड चलने की चाह बढाते..
सच कहता हूं जब मुश्किलें ना होती हैं..
मेरे पग तब चलने मे भी शर्माते..
मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे..
तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो..
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..
अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूं..
मैं मर्घट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूं..
हूं आंख-मिचौनी खेल चला किस्मत से..
सौ बार म्रत्यु के गले चूम आया हूं..
है नहीं स्वीकार दया अपनी भी..
तुम मत मुझपर कोई एह्सान करो..
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..
शर्म के जल से राह सदा सिंचती है..
गती की मशाल आंधी मैं ही हंसती है..
शोलो से ही श्रिंगार पथिक का होता है..
मंजिल की मांग लहू से ही सजती है..
पग में गती आती है, छाले छिलने से..
तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो..
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..
फूलों से जग आसान नहीं होता है..
रुकने से पग गतीवान नहीं होता है..
अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगती भी..
है नाश जहां निर्मम वहीं होता है..
मैं बसा सुकून नव-स्वर्ग “धरा” पर जिससे..
तुम मेरी हर बस्ती वीरान करो..
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..
मैं पन्थी तूफ़ानों मे राह बनाता..
मेरा दुनिया से केवल इतना नाता..
वेह मुझे रोकती है अवरोध बिछाकर..
मैं ठोकर उसे लगाकर बढ्ता जाता..
मैं ठुकरा सकूं तुम्हें भी हंसकर जिससे..
तुम मेरा मन-मानस पाशाण करो..
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..
---गोपाल दास नीरज
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