19.10.07

सुबह का घर लौटा शाम को भूल जाता है.......

रोज सुबह सोचता हूं, साली दारू छोड़ देनी चाहिए, यह चूतियापा कब तक चलता रहेगा। कुछ लिखने-पढ़ने का काम भी करना है, जीवन क्या नौकरी और पीना-पिलाना और मौज करना ही है....??? लेकिन सुबह का घर लौटा शाम को फिर सब भूल जाता है। जाने क्या है यह बला, मुंह को लगी तो छूटती ही नहीं। ढेरों मित्रों, संपादकों, पत्रकारों, परिजनों ने सलाह दी, बेटा दारू कम कर दो, बाकी तो तुम बड़े काम के आदमी हो। मैं कहता हूं- भाई पीता कम हूं, पादता ज्यादा हूं। लेकिन लोगों को बात पचती ही नहीं। वैसे भी प्रिंट मीडिया के इस समय के एक सुपरहिट समूह संपादक ने एक बार एक मुलाकात में (जाहिर सी बात है, नौकरी के चक्कर में कभी गया था मिलने) मुझे साफ-साफ चेता दिया था, पीना बंद कर दो छह महीने तक तभी तुम काम के आदमी साबित होगे। ज्यादा पीने की वजह से देखो तुम्हारी आंखों के नीचे फूला हुआ सा है। ज्यादा पीने से तुम्हारी निर्णय लेने की प्रक्रिया अतार्किक हो गई लगती है.....मैं हक्का-बक्का उन्हें सुनता रहा। अब उन्हें कौन बताए आपने बिना पिए जितने अतार्किक कृत्य अतीत में या वर्तमान में किए हैं, उसकी भरपाई कैसे करोगे। इसी तरह, अब भी सत्ता से सजी महफिलों के कोने-अंतरे में कोई देख न ले के अंदाज जब चार पैग मारते हो तो वो क्या समुद्र मंथन का अमृत पीते हो....लेकिन उनसे कहे कौन? बड़े आदमी हैं, वरिष्ठों ने समझा रखा है- बेटा, मीडिया की छोटी दुनिया होती है, सबसे बना के रखा करो, जाने कब कौन कहां टकरा जाए...। शायद इसी से चुप रह गया और न पीने की कसम खाकर लौट गया। लेकिन मुझे बहुत ग्लानि हुई। आदमी जब उपर जाता है तो उसे कुछ भी बोलने का लाइसेंस मिल जाता है, शायद मै तो बहुत छोटा हूं लेकिन मैंने भी ऐसे बर्ताव किए होंगे कई लोगों से....। खैर, गलतियों का पश्चाताप कर स्वर्ग जाने का रास्ता बनाने की मेरी कोई मंशा नहीं है। हां, तो भई, उनसे तौ मैंने कह दिया कि- हां, छोड़ दूंगा। लेकिन दिक्कत है अकेले तो मैं पीता नहीं, हफ्तों-महीनों गुजर जाएं, यह काम तो नोएडा आते ही कर लिया था। लेकिन अगर दोस्त-यार मिलते हैं तो भी न पिएं। ना बाबा, हमसे ऐसा न होगा। वो स्वामी विकास जी कौन सा शेर सुनाते हैं....जीना हो यदि शर्तों पर तो जीना हमसे ना होगा, महफिल में हो वीरानी तो पीना हमसे ना होगा, माना वो हैं लाखों में और लाखों उनके आशिक हैं, पर हम उनको सर पर बिठा लें, ऐसा हमसे ना होगा, कहो तो खुश करने को कह दूं मेरी दुनिया तुम ही हो, किसी की खातिर दुनियां छोड़ें ऐसा हमसे ना होगा, आप हमें मगरूर समझ लें, आप की मर्जी है लेकिन, सबसे बढ़कर हाथ मिलाएं ऐसा हमसे ना होगा।....(अनुरोध पर स्वामी ने शेर पूरा कर दिया है)। तो मैं कह रहा था कि पत्रकारिता में ढेरों ऐसे हैं जो करते सब कुछ हैं लेकिन जबान से चूं नहीं कहते, कुछ अपन जैसे हैं, करते थोड़ा सा हैं तो गाते दुनिया भर में हैं। अब इसे बड़बोलापन मान लो या दुस्साहस, हम ऐसे ही हैं। किसी के कहने पर क्यों गाना गाएं कि ...मैं ऐसा क्यों हूं....मैं वैसा क्यूं हूं? भई, हम तो ऐसे ही हैं। हालांकि समय और हालात बड़े-बड़ों के गाने का राग बदलने को मजबूर कर देते हैं तो मैं क्या चीज हूं। लेकिन जब पड़ेगी तो देखी जाएगी...फिलवक्त तो जोर से कहो....जय भड़ास...एक और शेर....नासिर काज़मी साहब का लिखा हुआ....मुझे अच्छा लगा...
कितना काम करेंगे, अब आराम करेंगे, तेरे दिये हुए दुख, तेरे नाम करेंगे, अहल-ए-दर्द ही आख़िर, ख़ुशियाँ आम करेंगे, कौन बचा है जिसे वो, ज़ेर-ए-दाम करेंगे, नौकरी छोड़ के "नासिर", अपना काम करेंगे।

अभिषेक द ग्रेट उर्फ मेरठी आए थे दिल्ली...
मेरठ के अपने मित्र और सीनियर जर्नलिस्ट अभिषेक शर्मा नोएडा आए तो गरियाते-दहाड़ते मिलने आ पहुंचे। भाई ने कसम खा रखी है कि मेरठ में कभी नहीं पिऊंगा। इसके सीमा क्षेत्र से बाहर निकलते ही बिलकुल नहीं छोड़ूंगा। सो वह भूखा-प्यास भाई बोतल कांख में दबाए आ गया। स्वामी को भी दूरभाष यंत्र से खबर दी गई। कान में बात पड़ते ही स्वामी कनमनाए और दाब दी फ्रीडम। तयशुदा जगह पर मिले चार यार तो फिर जम गई महफिल। जाम पर जाम, मटन कोरमा (हालांकि स्वामी व अभिषेक जी शाकाहारी हैं लेकिन उनसे ज्यादा लोग मांसाहारी थे) पनीर टिक्का.....और फिर शुरू हुआ बातों का दौर...। बात खत्म न हो। रात बीत रही थी। स्वामी अड़ गए। न हिलेंगे न चुप होंगे। कई तरह की भावनाएं उमड़ीं। सब तृप्त हुए। लगा मेरठ के दिन फिर लौट आए हैं। कमी खल रही थी अपने रियाजुद्दीन की। भाई से नशे की अभिन्न अवस्था में ही हम सभी ने फोनुआ पर बात की। गान भी सुनाया, भाई से भी सुना....अंत में जय भड़ास कर मीटिंग बर्खास्त कर दी गई। इससे एक रोज पहले अपने सचिन बुंदेलखंडी उर्फ नई इबारतें लिखने वाले क्रांतिकारी अपने सत्या-राजपाल जैसे साथियों के साथ आए थे। उस रात भी नोएडा-दिल्ली की सड़कों पर गाड़ी दौड़ती रही।

माचो की तो माचु गई....कंटेंट कोड भी डिकोड हो गया
दो अच्छी खबरें हैं। विशाल ने पहले ही बता दिया। माचो जैसे विज्ञापनों की मा...चु...गई। इसी तरह इलेक्ट्रानिक मीडिया पर लगाम कसने के लिए जो कंटेंट आफ कोड लाया जा रहा था, प्रसारकों ने उसे डिकोड कर दिया और उसे मानने से पूरी तरह इनकार कर दिया। मतलब, अब यह कानून नहीं बन पाएगा। लेकिन इन दोनों खबरों के पीछे की खबर पर आत्ममंथन तो हम लोगों को ही करना होगा। माचो जितने दिन धड़ल्ले से चल चुका है और उसे सब दर्जनों बार देख चुके हैं, ऐसे में उसे बैन करने से क्या लाभ? कायदे से तो कोई विज्ञापन प्रसारित किए जाने से पहले सेंसर बोर्ड जैसे किसी बोर्ड के पास जाए ताकि उनसे होने वाले नुकसान का पहले से ही आकलन किया जा सके। जैसे फिल्मों के लिए सेंसर बोर्ड है उसी तरह टीवी व प्रिंट विज्ञापनों के लिए भी एक संवेदनशील सेंसर बोर्ड टाइप बोर्ड होना चाहिए जो खामखा अड़ंगेबाजी करने के बजाय गंभीरता से देखे और तुरत-फुरत निर्णय दे।
इसी तरह कंटेंट आफ कोड को लेकर टीवी प्रसारकों ने भले ही मना कर दिया हो लेकिन उन्हें अपने गिरेबान में झाकना तो पड़ेगा ही कि आखिर उन्होंने क्यों अपनी विश्वसनीयता इतनी गिरा दी है कि अब सरकार उन्हें दबोचने की फिराक में ऐसे-तैसे कानून लाने की कोशिश कर रही है। न्यूज को हंसी के फव्वारे बना देने वाले या मनोहर कहानियां का रूप देने वाले टीवी चैनलों से पूछा जाना चाहिए (और यह काम दर्शकों को ही करना चाहिए) कि भाई, समाचार दिखाने के नाम पर लाइसेंस लिया है, दिखा रहे हो अंड-बंड-संड। यह कब तक चलेगा। दुनिया को कब तक मूर्ख बनाओगे। टीआरपी के चक्कर में कब तक मराओगे। नंबर वन कहे जाने वाले चैनल की हालत आजकल पतली है। फिर भी आज जो प्रोग्राम प्राइम टाइम पर चला वह १४ साल की लड़की का था जो छोटे बच्चे जितनी लंबाई की थी। पूरी शाम और रात यही खबर दिखाई जाती रही, उसकी पसंद के गाने गायकों से गवाए जाते रहे। चलिए यह ठीक है, हलका-फुलका भी बीच-बीच में चाहिए। लेकिन भाई खबर तो सिरे से गायब कर दी है। क्या देश-विदेश में कहीं कुछ नहीं मिल रहा है? खोजेंगे तो मिलेगा ही लेकिन उसके लिए चैनलों के कर्ताधर्ताओं और न्यूज डायरेक्टरों में इच्छा शक्ति होनी चाहिए। तेजी से आगे बढ़ रहे एक संसाधनविहीन चैनल को देखो तो भाई वो सांप-भूत-सेक्स-मानो या न मानो....जाने क्या क्या दिखाकर दुकान आगे बढ़ा रहा है। एक चीज लगने लगी है, हमाम में सब नंगे हो गए हैं। अब जल्द ही वो दौर आएगा जब सारे चैनल सब कुछ छोड़कर फिर न्यूज की तरह भागेंगे। लेकिन वह दौर आने के लिए चैनलों के वर्तमान मठाधीशों को जाना पड़ेगा। क्योंकि न्यूज के बेसिक सिद्धांत को सीखकर पत्रकारिता में आने वाले इन बंधुओं ने अपने को इस कदर रीढ़विहीन बना लिया है कि इनकी समझदानी ही बेकार हो चुकी है। टीआरपी मैया के आगे माथ झुकाते-झुकाते दिमाग की हर खिड़की बंद कर दी है। अब जो कुछ छिछला, सतही, छिछोरा, गप्प, मिथ, अश्लील ...माल मिलता है, धड़ल्ले से चला देते हैं। खैर, मेरी बात का बुरा न मानना। मन की भड़ास थी, निकाल लिया। ये भी कह सकते हैं कि चैनल में नहीं हैं तो खट्टे हैं अंगूर की तरह गरिया रहे हैं। जो भी मान लो भई, लेकिन भड़ास है तो निकलेगी...।

जय भड़ास...
यशवंत सिंह

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