30.11.07

हलद्वानी यात्रा: दूसरी किस्त

विचार और दृष्टि में जहां अपनापा हो

राकेश कुमार सिंह

उंची-उंची इरामतें, लंबी-चौड़ी सड़कें, चींटियों की तरह ससरती ट्रैफिक, हरदम वक़्त से जीने की पनाह मांगते मशीननुमा जीवन, ज़रूरत के मुताबिक़ हंसते और रोते चेहरों वाले मास्क के साथ गिरगिटिया पल जब तमाम स्वाभा‍विकताओं को चाट जाने पर आमादा होती हैं, महानगर से दूर किसी भी तरफ़ निकल पड़ने से बड़ा सुकून मिलता है. तब तो और भी जब यात्रा अपनों के साथ हो रही हो. अपनो यानी विचार और दृष्टि जहां अपनापा वाला हो.

रामप्रकाशजी सबसे पुराने परिचित हैं. उन्होंने जाते वक़्त याद दिलाया कि एक बार हिन्दु कॉलेज में मैं उनकी क्लास में वोट मांगने गया था. तब उन्होंने मेरे विचार सुने और उन्हें लगा कि बन्‍दे में दम है. मैं 1996 और 1999 में दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय छात्र संघ के सचिव और अध्‍यक्ष का प्रत्याशी रहा हूं. रामप्रकाशजी ने जिस घटना का उल्‍लेख किया, शायद वो 1999 की हो. क्योंकि तब पैनल के नेतृत्व की जिम्मेदारी थी. बहरहाल, बात ये कि रामप्रकाशजी को कम से कम 1999 से तो ज़रूर जानता होउंगा. पर दोस्ती बनी क़रीब 2-3 साल पहले. सराय आए थे अपने किसी मित्र के साथ. पता चला पहले भी मिलते रहे हैं हम. बुनियाद पड़ गयी दोस्ती की. मुलाक़ात-दर-मुलाक़ात गहरी होती गयी. प्रदीपजी से दोस्ती भी लगभग इतनी ही पुरानी है. याद नहीं आ रहा कि पहले से जान-पहचान थी कि नहीं. हालांकि छात्र-जीवन में दोनों की कर्मस्थली एक ही रही है: दिल्ली विश्‍वविद्यालय, ख़ासकर आर्ट् फ़ैकल्टी. सफ़र शुरू होने के बाद बातचीत ज़्यादा होने लगी है. मधुजी से पहली मुलाक़ात इसी साल शुरुआत में हुई थी. मीडिया पर उनके कॉलेज (अदिति महाविद्यालय) में कोई वर्कशॉप थी. मैं उसमें कुछ बोलने के लिए बुलाया गया था. दोस्तों को लगता है बन्‍दा धेले से ज़्यादा गुणी और ज्ञानी है. जहां-तहां नाम धुसेड़वा देते हैं. बन्‍दा ज्ञान का छिड़काव कर आता है! अदिति कॉलेज में पिछली मर्तबा जब गया था तब मधुजी पहली मर्तबा मिली थीं. दूसरी मर्तबा तो हम सहयात्री ही बने. ज़्यादा ही विनम्र हैं. पर समय रहते थोड़ी-बहुत चुटकी ले लेती हैं. अच्छा लगा हमसफ़र बनना. विधिजी से कुल दो मुलाक़ातें दर्ज हैं अपने पास. दोनों ही नवम्बर 2007 की. पहली 4 को दिल्ली विश्‍वविद्यालय में मीडिया लेखन वर्कशॉप के दूसरे दिन. दूसरे में तो हम साथ चल ही रहे थे. सबसे नयी जान-पहचान विधिजी से ही है. टॉ‍फ़ी, चिप्स, बिस्कुट जैसे ललचाउ सामानों का उनके पास ठीक-ठाक स्‍टॉक होता है. किलकारी को नहीं बताउंगा.

पर चारों ही मित्रों में बहुत सारी समानताएं दिखीं. सारी नहीं बताउंगा. एक जान लीजिए. सब के सब स्व से उपर उठकर सोचते हैं. कुछ करना चाहते हैं. अब ये भी नहीं कि कोई चैरिटीनुमा काम! अपने आसपास के प्रति सोचते हैं और हालात की बेहतरी के लिए कुछ-कुछ करते रहते हैं. तो अपने जैसे लोगों का एक संक्षिप्त परिचय ज़रूरी लग रहा था. इससे फ़ायदा ये होगा कि अगली मर्तबा हमारे इस दायरे में शायद कुछ और लोग आएं.

दिल्ली छूटी तो बातचीत के विषय भी बदल गए. कुछ देर के लिए कर्नाटक हमारी बातचीत का केन्द्र बन गया. दक्षिण में दक्षिणपंथियों की ओर से येदुयेरप्पा नामक विधायक मुख्‍यमंत्री का शपथ तो तीन-चार पहले ले लिया था. तस्वीर भी छपी थी अख़बार में, जिसमें नए-नए कपड़ों में सजे-धजे उनके रिश्‍तेदार और रिश्‍तेदारों के छोटे-छोटे बच्चे बड़े चहक रहे थे. पर जब एग्रीमेंट के मुताबिक़ जनता दल सेकुलर की बारी आयी विधानसभा में मुख्‍यमंत्री के प्रति विश्‍वास व्यक्त करने की, वोटों के द्वारा, तब सेकुलरों ने पलटी मार दी. बहुत से लोगों ने बहुत कुछ बोला. देश भर में बोला, टेलीविज़न पर बोला, टेलीविज़न तो बोलता ही रहा. सबसे ज़्यादा कर्नाटक के पालिटिशियन्स ने बोला, उसमें भी संघ द्वारा पैदा किए गए भाजपा के छोटे-बड़े नेताओं ने. किसी ने कहा, पीठ में छूरा भोंक दिया देवेगौड़ा ने, तो किसी ने कहा ठीक हुआ नहीं तो कर्नाटक दक्षिण भारत में संघियों की पहली ऑफिसियल प्रयोगशाला के पथ पर अग्रसर हो जाता. हम कैसे चुप रहते! पर हमने बोला कम, हंसी हमें ज़्यादा आयी. हम ज़्यादा हंसे. रामप्रकाशजी के पास वन लाइनर्स का खजाना है. बढिया गढते हैं. कोई बात आयी नहीं, उनका वन लाइनर आ जाता है. वैसे हमने ज़बानी तौर पर उनके इस योगदान का शुक्रिया उसी वक़्त अदा कर दिया था जब हमने उनको उनके घर के पास छोड़ा था. मधुजी ने साफ़ शब्दों में कहा था, थैंकयू रामप्रकाशजी. आपने हमारा बड़ा इंटरटेनमेंट किया. तो हमारे रामप्रकाशजी ने एक से बढकर एक वनलाइनर्स दागी कर्नाटक, संघ और देवेगौड़ाजी पर. ख़ूबसूरत और मारक.


क्रमश:

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