बेनजीर भुट्टो कोई क्रांतिकारी नहीं थीं लेकिन इन दिनों वो वाकई एक मुश्किल काम को अंजाम देने पर लगी हुई थीं, किसी क्रांतिकारी की तरह। जनरल का राज खत्म करने का। जनरल से पंगा लेने का। अवाम को खुलकर बोलने के लिए उकसाने का। तानाशाही की जगह जम्हूरियत लाने का। बिना डरे, बिना हिचके। पिछले बम धमाको से सबक लेना चाहिए था, लेकिन वो डरी व सहमी नहीं। मुशर्रफ को टारगेट पर ले ही लिया। मुशर्ऱफ से समझौते के बावजूद जिस तरीके से उन्होंने वर्दीवाले जनरल की खाल उधेड़नी शुरू की उससे सभी को शक होने लगा था कि जनरल जरूर कुछ न कुछ करेगा। एक वो कायर शरीफ जो जहाज से उतरकर फिर वापस लौट गया या लौटा दिया गया। एक ये बहादुर महिला जो समझौता करके रणनीति के तहत पाकिस्तान पहुंची लेकिन पाकिस्तान आकर जनरल को आंखे दिखा बैठी। जनरल को काहे सुहाता। वो कोई जनरल ही था जिसने बेनजीर के वालिद को कत्ल कर दिया था और सत्ता कब्जा लिया था। इन जनरलों से लड़ने भिड़ने वाले कुनबे को बेनजीर की शहादत से पूरी दुनिया में प्रतिष्ठा मिलेगी और लोग प्रेरणा लेंगे लेकिन सवाल यही उठता है कि क्या आज के दौर में बहादुरी से जीना मौत को गले लगाने की तरह नहीं हो गया है। हालांकि ये सवाल बकवास है क्योंकि किसी भी दौर में क्रांति और सिस्टम के खिलाफ कार्य को हमेशा खतरनाक निगाह से देखा गया है। और आज भी देखा जाता है वो कल भी देखा जाएगा। लेकिन अब जबकि सुविधाभोगियों और रीढ़विहीनों की तादाद काफी बढ़ गई है, सच कहने और जीने वालों को चूतिया और बेवकूफ माना जाने लगा है, ऐसे में बेनजीर की शहादत इन लोगों की कायरता को और बढ़ाने का काम नहीं करेगी? कायरों, मक्कारों, झूठों, साजिशों में जीने वालों को हमेशा से लगता रहा है कि सत्ता व सिस्टम चाहे जिस तरह का हो, उससे लाभ कमाओ और मौज मनाओ। लेकिन जो स्वप्नद्रष्टा होते हैं वे निजी जीवन से परे हटकर एक समग्र सोच व दृष्टि के साथ जीवन जीते हैं। और उन्हें अपने जीवन में ढेर सारे दुख पाने व सहने होते हैं। वो चाहें वर्मा की सू की हों या पाकिस्तान की बेनजीर। इन महिलाओं को वाकई इस युग के सबसे जुझारू व्यक्तित्तव के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए।
बेनजीर की शहादत पर भड़ास गमगीन और उदास है।
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