हिंदी मीडिया में बदलाव की बयार
जी नहीं, किसी अखबार में वैकेन्सी खाली है, इस तरह की बात नहीं करने जा रहा। दरअसल, इस एक वाक्य के पीछे छिपे हिंदी प्रिंट मीडिया के आंतरिक बदलाव की सुगबुगाहट को पकड़ने की कोशिश कर रहा। इन दिनों जब हिंदी भाषी उत्तरी भारत में मीडिया घरानों में बच्चा अखबारों के कई संस्करणों के धड़ाधड़ प्रकाशन, कई हिंदी बिजनेस डेली के पदार्पण, कई बड़े हिंदी अखबारों के विस्तार अभियान के तहत उनका नए शहरों से प्रकाशन का दौर चल रहा है तो हिंदी प्रिंट मीडिया के कुशल पत्रकारों का अकाल सा पड़ा हुआ दिख रहा है। यहां मैंने कुशल पत्रकारों के अकाल की बात कही है, उनकी नहीं जो शुद्ध हिंदी लिखने में कांखने लगते हैं और बढ़िया हेडिंव व रीडेबल कापी बनाने में पसीना पोछने लगते हैं। इन कुशल पत्रकारों की मांग हर कहीं है। इसके पीछे साफ साफ वजह मार्केट में बढ़ती प्रतिस्पर्धा है। अच्छा लेआउट, बढ़िया प्रजेंटेशन, बेहतरीन कापी, कैची हेडिंग, नए तरह के स्टोरी एंगिल....ये सब चीजें देने वाला पत्रकार अगर मिल जाए तो समझो उसे लपकने के लिए हर मीडिया हाउस तैयार है। और ये सब चीजें पुराने जमाने के जड़ियल-सड़ियल पत्रकार देने से रहे।
पुरानों को बाय-बाय, नयों का वेलकम
पुराने जमाने के जड़ियल-सड़ियल पत्रकारों-संपादकों को नए जमाने के स्टोरी एंगिल, तकनीक, प्रजेंटेशन आदि को समझने-बूझने और इनके साथ चलने में ही पूरी ऊर्जा लगानी पड़ रही है। तो ऐसे में अब हर मीडिया हाउस की ख्वाहिश है कि उसकी संपादकीय और कंटेंट टीम को जो लीड करने वाला लीडर हो वो 35 पार का न हो। 35 पार का होने से एक खतरा आउटडेटेड होने व नई चीजों को न पकड़ पाने का है। मतलब, हिंदी मीडिया में 35 पार वालों की पारी अब ज्यादा दिन नहीं चलने वाली। 35 से नीचे की नई जमाने की नई पत्रकारीय फौज मैदान में है, हालांकि इसमें भी हर फन में दक्ष लोग कम ही हैं, लेकिन जो भी हैं, उनको जल्द ही नेतृत्वकारी भूमिका में लाए जाने की तैयारी है।
एक मित्र ने बताया कि फलां मीडिया हाउस ने ऐलानिया इनहाउस कह रखा है कि उसे अब अपने एडीटोरियल इंचार्ज के रूप में 35 पार के न्यूज एडीटर नहीं चाहिए। उसे नए जमाने के पत्रकार लीडर के रूप में रखने हैं तभी वो अपने रीडर्स को यूथफुल व नए जमाने का अखबार दे पाएगा।
35 पार की पारी इतनी जल्द तो खत्म नहीं होने जा रही क्योंकि ये बदलाव अमल में लाते लाते कई वर्ष गुजर जायेंगे लेकिन इससे एक चीज स्पष्ट है कि वो जो लोग पत्रकारिता में चमचागिरी, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, चेलहाई, चाटुकारिता आदि को प्रश्रय देते थे, उनके दिन लदने के करीब है। इन चीजों से अखबार को पहले भी भला नहीं होता था लेकिन तब अखबारों में कंटेंट व क्वालिटी की लड़ाई नहीं हुआ करती थी। उस समय स्वामिभक्ति और लायल्टी सबसे पहली चीज होती थी जिसे ये बुजुर्ग पत्रकार बखूबी निभाया करते थे। बाकी उनके नीचे के स्तर पर क्या हो रहा है, संपादकीय टीम में क्या रोष या क्या राग चल रहा है, इससे मालिक का कोई खास लेना देना नहीं होता था। पर अब मालिक को लगने लगा है कि उसे मालिकाना ही करना चाहिए और बढ़िया अखबार निकालने के लिए बढ़िया लोगों को रखना चाहिए। इसी के तहत अब नई उम्र के प्रतिभाशालील नौजवानों को मौका दिया जा रहा है।
नए भी दूध के धुले नहीं
हालांकि कई नए लोगों में भी ये पुराने रोग ठीकठाक घुसा हुआ है और वे भी दूध के धुले नहीं हैं लेकिन जब उन्हें लीड करना होगा तब उन्हें अपनी टीम वाकई मेरिट के आधार पर बनानी पड़ेगी और काम न करने वाले व अन्य वजहों से अपनी नौकरी चलाने वाले कामचोर लोगों को हतोत्साहित करना होगा।
कुल मिलाकर हिंदी मीडिया में आ रहा बदलाव स्वागतयोग्य है। उम्मीद की जानी चाहिए की बाजार के दबाव के बावजूद नए लोग पत्रकारिता के आदर्शों व बाजार की जरूरतों के बीच सामंजस्य बनाकर रख सकेंगे।
विस्तार है अपार
प्रभात खबर बिहार में कई जगहों से लांच होने वाला है और उसे संपादकीय के हर तरह के जूनियर सीनियर लोग काफी संख्या में चाहिए, दिल्ली में चार चार हिंदी के बिजनेस अखबारों की भर्तियां चल रहीं हैं और वहां भी मेरिट को पैमाना रखा जा रहा है, आईनेक्स्ट व कांपैक्ट का धड़ाधड़ नए केंद्रों से प्रकाशन हो रहा है। कांपैक्ट ने तो हफ्ते भर में ही संभवतः चार पांच जगहों से प्रकाशन करके एक तरह से रिकार्ड बनाने का दावा किया है। आज खबर है कि इसका प्रकाशन मेरठ से हो गया और इससे ठीक कुछ दिन पहले गाजियाबाद और देहरादून से प्रकाशन शुरू हुआ। इसी तरह आईनेक्स्ट ने देहरादून के बाद अब पटना और रांची में प्रकाशन की तैयारी शुरू कर दी है। डीएलए नामक अखबार जो अभी तक सिर्फ आगरा से प्रकाशित होता था, अब नोएडा और गाजियाबाद से भी लांच कर दिया गया है और मेरठ से जल्द ही लांच होने वाला है। दैनिक भाष्कर ने लुधियाना से अपना संस्करण लांच किया है और कई नए संस्करण लांच करने की तैयारी में हैं। राजस्थान पत्रिका राजस्थान के बाहर हमला करने के लिए पूरे मूड में है।
इन सब जगहों पर जो टीम लीड कर रही है, वो नौजवानों की टीम है जिन्हें अपने काम और अपनी ऊर्जा पर भरोसा है। ये लोग खुद को साबित भी कर रहे हैं। अब सबसे बड़ी दिक्कत आगे होने वाली क्वालिटी की जंग में खुद को अव्वल रखना है और इसके लिए हर पत्रकार को खुद को टीच और प्रीच करते रहना होगा।
बनना होगा एक बेहतर टीम लीडर
हिंदी पत्रकारिता में नेतृत्वकारी भूमिका में जा रही नौजवानों की टीम को भड़ास की तरफ से ढेरों शुभकामनाएं, साथ में नसीहत भी कि, कभी भी अपने जूनियर का सार्वजनिक तौर पर अपामान न करें। वो जूनियर भी एक दिन आपकी तरह सीनियर बनेगा, इसलिए कोशिश करें कि हमेशा संतुलित व धैर्य के साथ स्थितियों से निपटें। अकारण रोब न गालिब करें, चापलूसों से सावधान रहें, मुखबिरों को बिलकुल प्रश्रय न दें, काम और सिर्फ काम की मेरिट पर अपने सहकर्मियों से नजदीकी या दूर के रिश्ते बनाएं। हमेशा टीम वर्क में विश्वास करें। कमियों को अपने उपर लें और अच्छाइयां की क्रेडिट पूरी टीम को दें। ऐसी ढेर सारी चीजें हैं, जिसे आत्मसात करके ही एक टीम का सर्वमान्य लीडर बना जा सकता है। अपन के तो गुरु वीरेन डंगवाल जी अपनी टेबल पर लिख के रखा करते थे....टीम बुरी नहीं होती, कप्तान बुरा होता है। और ये बात सोलह आने सच है। जैसा कप्तान होगा, वैसी टीम हो जाएगी। तो नौजवान कप्तानों, बुलंद इरादों के साथ चुनौतियों का सामना करो। किस्मत आपके साथ है, समय आपके हक में है, तकनीक व प्रतिभा आपके पास है......जाहिर सी बात है, भविष्य भी आपका और हमारा होगा। आप लोगों के क्या खयाल हैं?
जय भड़ास
यशवंत
दादा,ई देखा कौनो ससुरा नहीं कमेंटियाइस इतना जानदार बात पर.....
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