रागदरबारी में श्रीलालशुक्ल ने पहचाना है और क्या खूब पहचाना है कि शिक्षा प्रणाली चौराहे पर पड़ी ऐसी कुतिया है जिसे कोई भी लात जमा सकता है जबकि वह बिलखकर वहीं पड़ी रहती है।
मास्टरी अहा।। एक नोबेल प्रोफेशन। वेश्यावृत्ति अहा ।। एक और नोबेल प्रोफेशन। हमें तो अईसा ही लगता है, अगर किसी वेश्यावृत्ति समर्थक को इस कथन से वेश्याओं का अपमान लगता हो तो माफ करें। पर फिलहाल हमें इससे बेहतर समानधर्मा पेशा कोई नजर नहीं आता।
यूँ तो सभी कहते सुनाते रहे हैं कि स्कूल मास्टर को ट्यूशन नहीं पढ़ाना चाहिए। लेकिन इसके बिना काम भी कहॉं चलता है क्योंकि मास्टर की दिहाड़ी सौ रुपल्ली से लेकर पॉंच सौ तक कुछ भी हो सकती है जिसे तय करने का हक उसके पास नहीं है। कई स्कूलों की तो घोषणा है कि स्कूल सोशल नहीं कमर्शियल संस्थाएं हैं और विद्यार्थी इन दुकानों के 'कस्टमर' हैं। कस्टमर वेश्याओं के भी होते हैं।
वेश्याएँ शाम चार बजते न बजते सज-धजकर कोठे पर बैठ जाती हैं क्स्टमरों के इंतजार में मानो किसी कोचिंग सेंटर की ट्यूटर हों।रेडलाइट एरिया में लाली-लिपस्टिक से पुती ये महिलाएं इशारों से ग्राहक बुलाती हैं जबकि कोचिंग सेंटर के मामले में परचे बांटे जाते हैं पर दोनों ही मामलों में असल मशहूरी तो 'पुराने ग्राहक' ही देते हैं। ग्राहक आते हैं और उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश की जाती है दोनों जगह। आखिर कस्टमर की संतुष्टि ही सबकुछ है वरना और भी तो कोठे/कोचिंग सेंटर हैं। बहुतई कम्पीटीसन है भईआ। अब इस संतुष्टि के लिए दोनों ही नए नए तरीके ईजाद करने में लीन रहते हैं। वैसे दिहाड़ी वसूली के मामले में वेश्याऍं कारगर हैं, ग्राहक से 'काम' के पेसे पहले लेती हैं और काम बाद में। जबकि बेचारा ट्यूटर तो पूरे महीने की मेहनत के बाद भी हो सकता है पाए कि ग्राहक बिना पैसे दिए ही फूट लिया।
जरा ठहरो बात अभी खत्म नहीं हुई है सभी वेश्याएं कोठो से धंधा नहीं चलातीं कुछ के पास तय ठीया नहीं होता वे खुद कस्टमर के पास जाकर उसे 'संतुष्ट' करती हैं, होम ट्यूटर की तरह। हाई क्लास कॉलगर्ल की बिरादरी के मास्टर कॉलेज में पढ़ाते हैं। उन्हें दिनभर में दो घंटे की 'मजदूरी' से ही छुट्टी मिल जाती है बाकी समय वे तैयारी में लगाते हैं। अहा गुरू, अहा कॉलेज, अहा स्कूल, वाह चकला, वोह ब्रॉथेल।
जय हिन्द- मेरा भारत महान
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