20.1.08

दैनिक भाष्कर में भड़ास----अच्छे-अच्छे सूरमाओं के लिए खतरे की घंटी

...इस ब्लाग का मूल मंत्र है अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिये, मन हल्का हो जायेगा। इसके बैनर पर यही वाक्य लिखा हुआ है। हालांकि महज इसी बात के लिए शुरू किया गया यह ब्लाग कहने को तो फिलहाल हास्य-व्यंग्य के किसी भी ब्लाग की तरह नजर आता है लेकिन आगे चलकर यह अच्छे-अच्छे सूरमाओं के लिए भी खतरे की घंटी साबित हो सकता है क्योंकि भड़ास की सूली पर कब-कौन लटका हुआ पाया जाएगा, यह कहना बहुत मुश्किल है। इसके अलावा मीडिया की दुनिया में कौन कहां चला गया है, ये खबरें भी इस ब्लाग पर काफी बहुतायत से हैं। फलां शख्स, फलां अखबार, या फलां चैनल से फलां अखबार या चैनल में ठीकठाक पैकेज पर पहुंच गया है। यानी कि अगर आपको मीडिया की दुनिया पर नजर रखनी है, तो आपके लिए ये ब्लाग है।

बहरहाल अगर आप किसी मुद्दे पर किसी से नाराज हैं या आप काफी सोचते हैं तो खुद को जैसे चाहें जाहिर करने का मंच यही है। शायद यही वजह है कि भड़ासियों ने अब अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं। रोज कई नए लोग लिख रहे हैं। कुछ लोग नियमित रूप से लिखने लगे हैं। ये अच्छी बात है क्योंकि दरअसल जब लिखते हैं तो न सिर्फ लिखते हैं बल्कि बहुत कुछ नया सीखते हैं, अपने एकाकी व्यक्तित्व को एक्सपोजर देते हैं, खुद की भड़ास से दुनिया को रूबरू कराते हैं। कहिए, आप भी बनना चाहते हैं भड़ासी?

(दैनिक भाष्कर अखबार के राष्ट्रीय संस्करण में दिनांक 19 जनवरी 2008 को पेज नंबर नौ पर प्रकाशित स्तंभ ब्लाग(उ)वाच का एक अंश)


भई, अपन लोग का भड़ास तो छा गया जी। दैनिक भाष्कर के ब्लाग(उ)वाच कालम में रवींद्र दुबे ने अबकी भड़ास का अच्छा खासा विश्लेषण किया है। उन्होंने डा. मांधाता सिंह द्वारा भड़ास पर प्रेषित एक पोस्ट गांव को गांव ही रहने दो यारों के कंटेंट को उद्धृत करते हुए अपने कालम की शुरुआत की है। हेडिंग दी है, एकाकी व्यक्तित्व को एक्सपोजर की चाहत। पहले दो बड़े पैरे में डा. मांधाता सिंह की भड़ास में प्रकाशित पोस्ट में कही गई बातों, बहस, तथ्यों का जिक्र किया गया है। अगले दो पैरों में भड़ास के बारे में बताया गया है, जिसे मैंने उपर हू-ब-हू उद्धृत किया है।

पूरा पढ़ने के लिए आप 19 जनवरी के दैनिक भाष्कर का राष्ट्रीय संस्करण देखें जो दिल्ली से प्रकाशित होता है। मुझे ई-पेपर पर यह दिखा लेकिन उसे डाउनलोड करने के लिए लागिन मांगा जा रहा था सो टाइम न होने की वजह से मैं उस झमेले में नहीं पड़ा।

अगर कोई साथी ई-पेपर से डाउनलोड कर भड़ास पर उस हिस्से को पोस्ट कर दें तो पूरा लेख सभी साथी लोग पढ़ सकेंगे। और हां, इस लेख के प्रकाशित होने के बारे में सबसे पहले भड़ासी साथी रामकृष्ण जी ने मुझे एसएमएस से सूचना दी। भाई रामकृष्ण जी, आपको ढेर सारा धन्यवाद। और, रवींद्र दुबे जी, आपको खांची-छिट्टा भर धन्यवाद, जो आपने भड़ास को इस लायक पाया कि अपने कालम में जगह दिया।

डा. मांधाता सिंह को उस पोस्ट को पढ़ने के लिए, जिसकी वजह से भड़ास की चर्चा कालम में की गई, यहां क्लिक करें...गांव को गांव ही रहने दो यारों

जय भड़ास
यशवंत

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