पर डाक्टर साहब ने भड़ास से बहुत ज्यादा उम्मीदें पाल ली हैं। उम्मीदें उन्हीं से पाली जाती हैं जो उस लायक होते हैं, सो डाक्टर साहब का उम्मीद पालना गलत नहीं है पर मैं चाहता हूं कि कुछ सच्चाइयों का बयान डाक्टर साहब के सामने कर दूं, भड़ास के पैदा होने, उसके मरने और फिर पैदा होकर छा जाने के बारे में। और थोड़ी सी बातें इसके भविष्य की दशा-दिशा के बारे में भई।
लेकिन उससे पहले मैं डा. रुपेश जी के कुछ कमेंट यहां पढ़ाना चाहूंगा, जिससे भड़ास के बारे में उनकी चाहत, उनकी उम्मीद, उनकी त्वरा का पता चलता है..
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मैंने एक पोस्ट लिखी, जल में रहकर मगर से बैर, उसमें मैंने कहा था कि चूंकि हम सब हिंदी मीडियाकर्मी किसी न किसी मीडिया हाउस में काम करते हैं इसलिए हमें भड़ास पर लिखते वक्त मीडिया हाउसों को सीधे निशाने पर लेने से बचना चाहिए ताकि किसी साथी की रोजी रोटी न प्रभावित हो, जो वहां काम कर रहा है और भड़ास से जुड़ा हुआ है। दूसरा, अखबारों में दिखने वाली छोटी मोटी गलतियों को भी नजरअंदाज करना चाहिए, उसे भड़ास पर नहीं डालना चाहिए ताकि जिस साथी से यह गलती हुई हो उसके लिए नौकरी से हाथ धोने जैसी स्थिति न आ जाए क्योंकि गलतियां इंसान ही करता है, कंप्यूटर नहीं। और अगर आप काम करेंगे तो गलतियां होंगी ही, गलतियां सिर्फ उनसे नहीं होती, जा काम नहीं करते। तीसरी बात लिखी थी कि भड़ास क्रांति का मंच नहीं है, यह सिर्फ भड़ास निकालने के लिए है ताकि हम दिल और दिमाग से स्वस्थ, कुंठामुक्त रहें। इस पर तीन प्रतिक्रियाएं आईं, दो मेरी बातों के पक्ष में, तीसरी डाक्टर साहब की जिन्हें लगता है कि क्रांति का मंच बनना चाहिए भड़ास को। तीनों टिप्पणियां पढ़िए..
Gulshan khatter said...
यशवन्त जी आप ने सही सोचा इन्सान गलतीया करता रहता हे! ओर इस का यह भी मतलब नही की किसी की थोडी सी गलती को बडाचडा कर उस को नीचा दिखाया जाये! एसा कोई भी मोका ना दे की कोई भी एरागेरा भडास मच पर उगली करे ओर कहे की अपनी टीरपी के लिये भडास एसा लिखता हे
Friday, January 18, 2008 9:45:00 PM
Dr.Rupesh Shrivastava said...
दादा,मैं हठधर्मी कदापि नहीं हूं किन्तु सच तो यह है कि पत्रकारिता पूंजीवाद के प्रभाव में जिस प्रकार सकपकायी सी दिखती है क्या आप उसे नकार सकते हैं ? जब २३ अगस्त १९२३ को पहली बार मेरे एक पत्रकार पूर्वज स्व.मुंशी नवजादिक लाल श्रीवास्तव ,सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला",बाबू शिवपूजन सहाय और प्रेस मालिक महादेव प्रसाद जी ने एक पत्र निकाला जिसका नाम "मतवाला" था तब भी यही परिस्थितियां थीं इसीलिये मुंशी जी ’भूतनाथ तेल’ की कंपनी मे मैनेजरी करते थे ,वे जानते थे कि कब खाने के लाले पड़ जायेंगे नहीं पता । आपकी तबियत कुछ नरम है क्या जो ऐसा लिख रहे हैं ,ऐसा मत करिये वरना भड़ास का नाम फटास हो जाएगा। जिसमें दम होगा वह जुड़ेगा वरना निकल लेगा और क्रांति क्यों न होगी ? जो अपनी कमियां नहीं देख सकते उनकी भड़ास तो भौं-भौं ही होगी ।
Friday, January 18, 2008 9:54:00 PM
laa, hamau aa gaylee... said...
yashwant sir, jai badhaas. main aapse sahmat hoon.akhbaar to galtiyoun ka saahitya hi kaha jata hai, aur galti to insaan se hi hoti hai. jo koi mahanubhav ne bhadhaas per galti bataakar galti ki hai kya unke sansthaan me galti nahi hoti. mera anurodh hai bhadhaas per sirf bhadaas nikale galti nahi.
Sunday, January 20, 2008 2:07:00 AM
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मैंने एक पोस्ट लिखी हां, अगर पत्रकारिता करने का यही अंजाम है तो मैं मरना चाहता हूं-शीलेश त्रिपाठी, इस पर डाक्टर साहब बेहद उत्साहित नजर आये और उन्होंने कुछ यूं अपनी बात रखी...
Dr.Rupesh Shrivastava said...
दादा,आज फ़िर आपकी तबियत ठीक हो गयी है जो आपने शीलेश की पीड़ा को बताना शुरू किया वरना दो दिन तो आप बीमार हो गये थे और पानी में रह कर मगर से बैर ना करने की सलाह देने लगे थे । भड़ास के पीछे आपकी क्रांतिधर्मी सोच ही है जो हमारे जैसे लोगों को भड़ास से जोड़े हुए है वरना ये कोई उगालदान नहीं है कि आया और उल्टी करके चल दिया । हम सब राष्ट्र के प्रति रचनात्मक सोच ही तो रखते हैं और अगर यह किसी को बुरा लगेगा तो उसकी किसे परवाह है फ़ाकाकशी में जी लेंगे पर ऐसे लोगों के आगे सिर न झुकाएंगे । जस्टिस सिंह को भी मत भूलिए वह मामला तो न्यायपालिका का है इस लिहाज से अधिक संवेदनशील है ।
जय भड़ास...........
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इससे पहले एक पोस्ट लिखी थी, शीलेश की ज़िंदगी के लिए हम सब एकजुट हैं, इस पर डाक्टर साहब ने कुछ यूं खुशी जाहिर की.....
Dr.Rupesh Shrivastava said...
दादा,आपका गुस्सा ही पत्रकारिता की ऊर्जा है । ठीक ऐसी ही घटना देश की न्याय प्रणाली से जूझते हुए जस्टिस आनंद सिंह की है । आपके पत्रकारिता के तेवर आद्य पत्रकार स्व. पराड़कर जी की याद दिलाते हैं । मैं हर हाल में आपके संग हूं ,शीलेश का मोबाइल नंबर भड़ास पर दे दीजिएगा ताकि सब मिल कर इन हरामियों की औकात उन्हें याद दिला सकें ।
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मेरी एक अन्य पोस्ट, टीवी न्यूज चैनल की पायल, अलीगढ़ के न्यायाधीश अंगद और लखनऊ के पत्रकार शीलेश, इस पोस्ट पर डा. रुपेश भाई ने प्रोत्साहन देने वाली ये टिप्पणी दी...
Dr.Rupesh Shrivastava said...
आदरणीय दादा,आपको किन शब्दों में धन्यवाद करूं समझ नही आ रहा ;आपने जस्टिस आनंद सिंह की फोन करके खबर ली तो अब लग रहा है कि आशा की किरण नहीं बल्कि साक्षात तेजस्वी मार्तन्ड भगवान मार्ग दिखाने प्रकाश लेकर आ गए हैं । न्याय पालिका , कार्य पालिका और विधायिका को अब पत्रकारिता सही रास्ता दिखाएगी और न चलने पर कान खींच कर बाध्य भी करेगी । मैं अनुग्रहीत हूं आपके इस अनौपचारिक प्रेम से , प्रणाम स्वीकारिए .....................
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मैं यह साफ कर दूं कि तारीफ मुझे भी अच्छी लगती है, और खासकर कोई आदमी जिनुइन तारीफ करे तो और भी ज्यादा। डाक्टर साहब के शब्दों में सहजता, सरलता और सच्चाई है। उनके प्रोत्साहन का मैं आभारी हूं। पर यहां मैं इन टिप्पणियों को इसलिए उद्धृत कर रहा हूं ताकि इससे पता चल सके कि डाक्टर साहब समेत कई सारे भड़ासी साथी भड़ास से क्रांति के मंच के रूप में जो उम्मीद लगाये हैं, उस पर बहस की जा सके।
उपरोक्त टिप्पणियों पर अब मेरी टिप्पणी....
डाक्टर रुपेश जी, आपकी बातों का मैं सम्मान करता हूं और कद्र करता हूं। लेकिन मुझे लगता है कि इस दौर में जब बाजार चीजें निर्धारित करने की भूमिका में है, और हर प्रोडक्ट की तरह मीडिया हाउस भी ज्यादा लाभ कमाने के लिए प्रसार और टीआरपी पर जोर दे रहे हैं, उनसे किसी सामाजिक बदलाव की कल्पना करना बेमानी है। इसी तरह जब प्रोडक्ट और मीडया हाउस का लक्ष्य तय है तो वहां जो साथी काम करते हैं, उनकी भी दिशा वही होगी। उन्हें अपने मीडिया हाउस के लक्ष्य के साथ खुद को एकाकार करके काम करना होता है, सो वो पत्रकारिता मिशन के तहत करने की मंशा की बजाय एक नौकरी करने और उसमें बेहतर परफारमेंस देकर ज्यादा पैसा और बड़ा पद पाने की इच्छा रखते हैं। और ये इच्छा रखना पाप नहीं क्योंकि हम सब आम लोगों की तरह ही हैं, कोई देवता या भगवान या क्रांतिकारी विजन से लक्ष्य हार्डकोर कार्यकर्ता नहीं। हर मां बाप की तरह हमारे मां पिता ने भी सपना देखा है कि हम बड़े पद पर जाएं, ज्यादा पैसा कमाएं, बच्चों की अच्छी शिक्षा दिलाएं, सो अगर इसके लिए हम नौकरी करते रहना चाहते हैं, और नौकरी करते रहने के लिए जो फंडे अपनाये जाते हैं, उसे अपनाते हैं, तो गलत क्या है।
तीसरी बात, आजादी के दिनों में जिन पत्रकारों ने अपने व्यक्तित्व और कलम के जरिये आजादी व सच्चाई के पक्ष में चेतना पैदा की, अखबारों को क्रांति का हथियार बनाया, वो लोग उस दौर की डिमांड के तहत कर रहे थे। वे दरअसल सच्चे अर्थों में आजादी के सिपाही थे, क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपना हथियार कलम को बनाया। और भी क्रांतिकारी थे जिन्होंने अपना हथियार बंदूक को बनाया, और भी क्रांतिकारी थे जिन्होंने अपना हथियार अहिंसा और आंदोलन को बनाया। ऐसे में उन दिनों के मीडिया हाउस, जो कि हाउस बने भी नहीं थे, शुरुआत भर थे, का लक्ष्य पैसा कमाना नहीं बल्कि आजादी दिलाना था। आजादी के बाद इन अखबारों, घरानों ने अपने लोकप्रिय व प्रभावकारी पृष्ठभूमि का इस्तेमाल करते हुए खुद को काफी बड़ा संस्थान बना लिया और बाद में देश में बदलाव की बयार में बहते हुए खुद को धीर धीरे बाजार के अनुकूल बदलने लगे। अब जो मीडिया हाउस हैं, उनका लक्ष्य प्रसार और टीआरपी में नंबर वन बनना है ताकि इसके जरिये वे रेवेन्यू और बिजनेस में भी नंबर वन बन सकें।
मैंने भड़ास पर ही पिछले दिनों एक लेख लिखा था, आज के दौर में मीडिया से संपादकीय नैतिकता की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, इस लेख को क्लिक कर जरूर पढ़ियेगा, आपको यह लगेगा कि दरअसल आज की मीडिया से हम लोगों ने जो अपेक्षाएं पाली हैं, वो वास्तविकता की धरातल पर नहीं बल्कि भावनात्मक जरूरत के लिहाज से है, और यह गलत भी नहीं है। पर दूसरे पक्ष की हकीकत को भी समझना चाहिए वरना हम लोग दीवार में सिर टकराते रहेंगे।
एक बात और, भड़ास की जो शुरुआत की गई थी, वो इसकी पंचलाइन से जाहिर है कि गले में अटकी बात उगलने के लिए ही की गई थी ताकि मन हल्का हो सके। और वो दिशा आज भी प्रमुख दिशा है। चूंकि भड़ास प्रमुख तौर पर हिंदीमीडियाकर्मियों
का मंच है तो जाहिर सी बात है कि हम लोगों कि ज्यादातर भड़ास मीडिया और सिस्टम और मानवता से जुड़ी होती है।
तीसरी बात, हम लोग जो कुछ पहल कर रहे हैं, वो चाहे न्यायाधीश अंगद सिंह का मामला हो या पत्रकार शीलेश त्रिपाठी का, इसके पीछे सिर्फ इतना भर है कि चूंकि हम लोग एक बेहतर मनुष्य भी बने रहना चाहते हैं, संवेदनशील प्राणी हैं, मीडिया से जुड़े हैं सो इतना फर्ज अगर नौकरी करते निभा लिया जाय जिससे किसी परेशान व्यक्ति की मदद हो जाये तो इसे करने में कोई दिक्कत नहीं है। हम भड़ास मंच के जरिये ऐसे सामाजिक और मानवीय काम करते रहेंगे लेकिन इससे यह अंदाजा लगाना कि भड़ास एक क्रांतिकारी मंच या संगठन है, गलत होगा। यह उम्मीद करना कि भविष्य में पूंजीवाद, मीडिया हाउसेज, सत्ता आदि की खामियों को उजागर करते हुए उनसे निपटने की मुहिम शुरू की जायेगी, सरासर नाउम्मीद करने वाला है। चूंकि हम इस सिस्टम के पार्ट भी हैं, उनके लिए उनके लक्ष्य के हिसाब से काम भी करते हैं सो इनके खिलाफ जाने का सवाल ही नहीं उठता। दिलीप मंडल जी के शब्दों में कहें तो लाला के पैसे से क्रांति नहीं होती। क्रांति के लिए आपको अपने संसाधन बनाने पड़ते हैं, जनता के बीच में जाना पड़ता है, चौबीसों घंटे समाज और देश के लिए निकालना पड़ता है।
भड़ास क्रांति का मंच नहीं बनेगा तो ऐसा भी नहीं कि इस देश में क्रांति नहीं होगी। पारंपरिक मीडिया को आइना दिखाने के लिए और उसकी कमियों से मुक्त होकर न्यू मीडिया भी आ गया है जिसमें ब्लागिंग भी एक पार्ट है। राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर भी ढेर सारी क्रांतिकारी पार्टियां, लोग, एनजीओ, संगठन आदि जनता के बीच सक्रिय हैं जो उन्हें बदलाव के लिए प्रेरित कर रहे हैं। मतलब, क्रांति करनी है तो फिर क्रांति के वास्तविक मंचों की शिनाख्त की जानी चाहिए। अवास्तविक मंच से उम्मीद करने से ऊर्जा और समय ही नष्ट होगा। मैं निजी तौर पर उपरोक्त क्रांतिकारी मंचों, संगठनों, पार्टियों, न्यू मीडिया प्लेटफार्मों का कभी कम तो कभी ज्यादा, कभी सक्रिय तो कभी निष्क्रिय समर्थन देता रहता हूं। और यह कार्य ढेर सारे मेरे आप जैसे लोग कर रहे हैं।
भड़ास को उगालदान मानने में मुझे कोई दिक्कत नहीं है, भड़ास को फंटास मानने या संडास मानने में भी कोई दिक्कत नहीं, भड़ास को बकवास मानने में भी मुझे कोई दिक्कत नहीं। हम भड़ासी औघड़ लोग हैं, सूफी लोग हैं, बिंदास लोग हैं जो अपनी आलोचनाओं को अपना आभूषण मानते हैं। क्योंकि जो साहस कहकर सच बोलता है उसे हमेशा से तमाम तरह की उपाधियों से विभूषित किया जाता है। कहीं भी कुछ उगलेंगे तो दूसरों को अरुचिकर लगेगा ही और वे अपनी प्रतिक्रिया किसी न किसी रूप में व्यक्त करेंगे।
तो साथी रुपेश जी, ये जो बहस है, वो हमारे आपके बीच की नहीं बल्कि एक ट्रेंड पर बहस है जिसे एक तरफ आप तो दूसरी तरफ मैं प्रकट कर रहा हूं। आपके साथ ढेर सारे साथी आप जैसे विचार वाले होंगे और मेरे साथ ढेर सारे साथी मेरे विचार वाले होंगे। और इसका मतलब यह भी नहीं होता कि अगर मेरे साथ ज्यादा साथी हुए तो मैं जीता हुआ मानूं या आपके साथ ढेर सारे साथी हों तो आप जीता हुआ मानें।
भड़ास की खासियत यही है कि यहां शंकर जी की बारात है। मुंडे मुंडे मर्तिभिन्ना। हर विचारधारा, संपद्राय, पेशे, उम्र, सोच के लोग यहां हैं, इसलिए किसी पर किसी को अपनी सोच थोपनी नहीं चाहिए। मैं भी अपनी सोच नहीं थोप रहा। मैं केवल भड़ास की हकीकत को बयान करने की कोशिश कर रहा हूं, ताकि हम सभी पौने दो सौ भड़ासियों का भड़ास को लेकर विजन क्लियर रहे।
भड़ास क्या है, इस बारे में भड़ास में ही बाईं तरह के हिस्से में, भड़ास क्या है शीर्षक से ठीकठाक साइज में इंट्रोडक्शन लिखा है, उसका एक अंश यहां दे रहा हूं, इसमें भड़ास के मकसद का साफ साफ व्याख्यायित किया गया है। यह एक तरह से भड़ास के दशा-दिशा के लिए बेसिक गाइडलाइन की तरह है---
हम सहज, सरल और बिंदास लोग हैं जो जिंदगी को पूरी गंभीरता के साथ-साथ पूरी सहजता व मस्ती के साथ जीते हैं। हर तरह की वैचारिक, भाषाई व जातीय-धार्मिक भेदभावों को भुलाकर हम सब सिर्फ हिंदीवाले हैं, दिलवाले हैं और हमेशा हिंदी का झंडा ऊंचा करेंगे। ज़िंदगी के किसी मोड़ पर या किसी क्षण में भड़ास आपके काम आ जाए, आपका मनोबल बढ़ाए, आपके एहसास को सब तक पहुंचा पाए, यही इसका मकसद है।
डाक्टर साहब, आपसे भले नहीं मिला हूं पर दूर से ही, आपके विचार व तेज देखकर मैं आपका प्रशंसक बन गया हूं, आप जैसे लोग अगर इस देश में हैं तो हम जैसे लोग जरूर अच्छे काम के लिए प्रेरित होते रहेंगे। उम्मीद है कि मेरे और आपके बहाने जो बातें हुई हैं उससे ढेर सारे लोग इस बहस को आगे बढ़ाने के लिए सोचेंगे और अपनी सोच से हमें आपको अवगत करायेंगे।
जय भड़ास
यशवंत
क्षमा शोभती उस भुजंग को , जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो विषहीन, दन्तहीन सीधा और सरल हो.....आपके इन्हीं क्रान्तीकारी विचारों की वजह से मैं भड़ास से जुड़ा सर नहीं तो ब्लाँग तो जहाँ में और भी है........
ReplyDeleteजय भड़ास.........
अनिल यादव
प्यारे भाई अनिल,यशवंत दादा ने जो लिखा वह जमीनी सच्चाई है पर यार हमारे जैसे लोग तो सच को भी अपने ही घिसे हुए चश्मे से देखेंगे । दादा को भी तो देखो न उन्होंने आस पास के आभासी सत्य को कितने अच्छे ढंग से बताया कि हमें मिर्ची न लगें । वो तो बस हमें जिंदगी के मसाले बता रहे हैं और शायद ये भी आजमा रहे हैं कि इस बहस से टी.आर.पी बढ़ती है या नहीं । उन्होंने तो मेरे "फटास" का बुरा नहीं माना बल्कि और नयी उपमाएं बता दीं कि बेटा जो कहना है कहो हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता ,इसको कहते हैं मलंगी स्वभाव ;इसीलिये तो हम उन्हें दादा कहते हैं । तुम भी लगे रहो और हम तो उनकी दुम पकड़ा कर देश को वैतरणी पार उतारने पर ही उतारू हैं ।
ReplyDeleteहमारे जैसे लोग तो दीवार से इस सनक भरी उम्मीद में सिर फोड़ते रहेंगे कि ससुरी कभी तो टूटेगी । दादा ,सत्य तो वही होता है जो हम स्वीकारते हैं जो नकार दिया वह सत्य नहीं होता । कुल मिला कर यह कि हम नहीं सुधरेंगे ...........
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