Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

3.12.07

बदलते दौर में मीडिया से संपादकीय नैतिकता की अपेक्षा

((आशीष के अनुरोध पर मीडिया को लेकर जो विचार मैंने व्यक्त किये, उसे उन्होंने अपने ब्लाग पर डाला और पांच प्रतिक्रियाएं भी आईं। हर प्रतिक्रिया में एक सवाल भी है। पर इस विषय पर बात और बढ़नी चाहिए, इसके लिए इस आलेख को हल्लाबोल से चुराकर भड़ास पर डाल रहा हूं ताकि भड़ासी और भड़ास को पढ़ने वाले भी अपनी राय रख सकें। राय देने की मंशा न हो तो कम से कम मन ही मन उधेड़बुन में लग सकें।....यशवंत))

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मूल लेख
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मीडिया से संपादकीय नैतिकता की अपेक्षा न रखें???
यशवंत सिंह

मेरे मित्र आशीष महर्षि ने अनुरोध किया कि यशवंत जी मीडिया पर कुछ लिखें। मैंने कहा- साथी, आदेश करें। उन्होंने कहा कि ये जो पत्रकारिता का पतन है उस पर कलम चलाएं। मैंने कहा- इसे पतन क्यों कहते हैं आपत? पहली बात की मार्केट इकोनामी के इस स्पीडी फेज में किसी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी से यह अपेक्षा करना ही बेकार है कि वह अपना बिजनेस छोड़कर समाज और देश की नैतिकता के नाम पर काम करती रहे और एक दिन अपने प्रतिद्वंदियों से पिछड़कर बंद हो जाए। जैसे अन्य सारे बिजनेस हैं वैसे ये भी है, इसलिए ये जो विषय इस पर जो कुछ भी लिखा जाएगा वो सिवाय भाषणबाजी के कुछ न होगा। पर आशीष नहीं माने, बोले- यही लिख दीजिए। हमने कहा- बिलकुल, उत्तम विचार है, चलो लिखता हूं। और बस, इसके बाद इस शीर्षक से ....मीडिया से संपादकीय नैतिकता की अपेक्षा न रखें....लिख रहा हूं। पसंद आए तो कमेंटियाइए, न आए तो भी।
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बाजार का स्पीडी फेज है। ध्यान दें, स्पीडी फेज है, इनिशियल नहीं, वो राजीव गांधी वाला काल नहीं, नरसिंहराव वाला काल नहीं। ये मनमोहनी काल है। इसमें मार्केट इकोनामी अपने पूरे स्पीड में है। सेंसेक्स कुछ कुछ सेक्स की तरह मजा दे रहा है, कर्ताधर्ताओं को, मालिकों को। कंपनियां खूब कमा रही हैं। कंपनियां खूब आ रही हैं। जो जहां हैं वहां अपने हाथ-पांव फैला रहा है। दोनों हाथों से बटोर रहा है। नई नीतियों की देन ने देश को बेरोकटोक बना दिया है। कमा सके तो कमा। बना सके तो बना। दिमाग ला, टैलेंट ला। खूब पैसे दो। और खूब पैसे बटोरो। क्या इन सब बातों से मीडिया अनजान बना है या बनना चाहेगा? बिलकुल नहीं। आजादी के सपनों के साथ अपने विजन को जोड़कर शुरू हुए हिंदी अखबारों ने इस स्पीडी इकानामी वाले दौर में अपना सारा चोला उतार फेंका है। उन्हें ढेर सारी चिंताओं से जूझना पड़ रहा है। मार्केट में एक-एक फील्ड में कई-कई मंझे हुए खिलाड़ी है। सब ग्लोबल हैं, मतलब- टेक्नालाजी में ग्लोबल, विजन में ग्लोबल, कंटेंट में ग्लोबल। और इन्हें ग्लोबल कंपटीटर से लड़ना है या लड़ना होगा। ऐसे में उन्होंने अपने सारे अस्त्र-शस्त्र ठीक करने शुरू कर दिये हैं। सर्कुलेशन की वो टीम रखो जो बेहद प्रोफेशनल हो, ग्लोबल विजन से लैस हो, नए चैलेंजेज से वाकिफ हो। मार्केटिंग में वो गुरु ले आओ जो रेवेन्यू को डबल ट्रिपल कर सके। इसके लिए जो जितना पैसा ले, दे दो। अखबार को प्रोडक्ट बनाओ और प्रोडक्ट को एक बेहद फेमस ब्रांड में तब्दील कर दो। ब्रांड चमकेगा तो प्रोडक्ट खुद ब खुद बिकेगा। ब्रांड कंटेंट से बनता है लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्ण मार्केटिंग हो गई है। मार्केटिंग अगर ठीक नहीं है तो अच्छी से अच्छी क्वालिटी-कंटेंट वाला सामान भी कूड़ा साबित होगा, कंपटीशन में। और मार्केटिंग सही है तो थोड़ा कमतर प्रोडक्ट भी अच्छा बिकेगा, दौड़ेगा बाजार में। पेप्सी-कोक को देखिए। माल वही है, बस विज्ञापन नया होता है, नारा नया होता है। बोतलों की साइज बदलती रहती है, ब्रांड एंबेसडर बदलते रहते हैं, खूब बिक रहे हैं, खूब कमा रहे हैं, हर साल गजब का मुनाफा ढा रहे हैं। कौन देखता है कि इन बोतलों में क्या है? कुछ लोगों ने सवाल खड़े किए तो उसके जवाब में इन काले-गोरे पानी वाली ग्लोबल कंपनियों ने ऐसा मार्केटिंग युद्ध छेड़ दिया कि ये ब्रांड फिर सबकी जुबान पर आ चुके हैं, स्वाद देने लगे हैं। यह सब ब्रांडिंग और मार्केटिंग का खेल है। जो जहर को अमृत बना दे और अमृत को जहर, उसी को कहते हैं मार्केटिंग और ब्रांडिंग।

बात अखबारों के संपादकीय की हो रही थी। सारे बड़े अखबार प्रोफेशनल और कारपोरेट विजन से काम करने में जुटे हैं। उनकी संपादकीय टीम इस विजन से अलग नहीं हो सकती। वहां, नये नियम कानून चुपके से आ रहे हैं, जगह बना रहे हैं, लागू हो रहे हैं, चल रहे हैं। ढेर सारे संपादकीय साथियों को इसकी भनक तक नहीं लगती। बस, उन्हें दिक्कत महसूस होने लगती है। वे कहने लगे हैं....पहले तो ऐसा नहीं होता था, पहले तो वैसा नहीं था, पहले तो यह सब नहीं था, ये क्या हो रहा है, किधर जा रही है पत्रकारिता....इस तरह के ढेरों सवालों के जरिए अपनी दिक्कतों को आवाज देने लगे हैं। पर इनका जवाब कौन देगा? जवाब देने वाले माननीय लोग कारपोरेट विजन को अपनाने की ट्रेनिंग लेने में लगे हैं। उन्हें यही समझाया जा रहा है, प्रोडक्ट और ब्रांड को क्वालिटी दो। और आज क्वालिटी के पैरामीटर्स क्या हैं? अखबारों की बात करें तो एडीटोरियल क्वालिटी का मतलब हो गया है... जो पढ़ा जाए। जो पढ़ा जाए भी बेहद मोटा वाक्य है, जनरलाइज सेंटेस है। इसे और पतला करते हैं, स्पेशलाइज करते हैं...किसको पढ़ाना है, कौन पढ़ेगा....ध्यान रहे, रिक्शा वाले के लिए नहीं हैं टीवी और अखबार, गरीब के लिए नहीं है टीवी और अखबार, बिना पैसा वाले के लिए नहीं हैं मीडिया माध्यम। अपमार्केट लोगों के लिए है। नौजवानों को पढ़ाना है। उसमें भी ऐसे नौजवानों को जो पैसे वाला है। सबसे ज्यादा युवा हैं देश में। उनको टारगेट रीडर बनाओ। उनको टारगेट आडिएंश मानो। तो आज का युवा क्या पढ़ता है? सर्वे एजेंसियों ने बताया है कि इस नए जमाने के युवा को पुरानी चीजें और पुराने अंदाज पसंद नहीं। उसे राजनीति न दो। उसे समाज की समस्याओं न गिनाओ। उसे खून खच्चर और गोलीबारी में न उलझाओ। ये सब सार संक्षेप या ब्रीफ में ले जाओ। पढ़ाओ... पैसे-रुपये कमाने और खर्चने के बारे में, नेट एंड तकनालजी के बारे में, गैजेट्स और ग्लैमर के बारे में, सेक्स और टशन के बारे में। हेल्थ और टेंशन के बारे में, डेटिंग और बोटिंग के बारे में, टूरिज्म और सिनेमा के बारे में.......। और जब ये सब पढ़ा पाओगे तभी इन युवाओं को अखबार से जोड़ पाओगे। इस तरह की खबरें अगर पहले पन्ने पर परोसोगे, कैरीकेचर, कार्टून और पैकेज की खबरों के साथ तो भला कौन नहीं निगाह मारेगा। सेक्स की बातें भले कोई आमने-सामने न करे लेकिन सेक्स से जुडी खबरें सब पढ़ते हैं। बस, सेक्स पढ़ाने और उसे प्रजेंट करने के दौरान साफ्ट रहो, एस्थेटिक बने रहो। लक्ष्मण रेखा को याद रखो। आंख मार भी दो और किसी न टोक दिया तो कह दो कि आंख फड़कने की आदत है, आंख मारने की नहीं। काम कर गुजरो लेकिन लगे की पूरी गंभीरता बरकरार है। फिर देखो, सब तुम्हें और तुम्हारे प्रोडक्ट को सिर आंखों पर रखेंगे। गंभीरता बनाये रखो। अखबार को न्यूज वाला लगना चाहिए इसलिए गंभीर हार्ड न्यूज को भी दो लेकिन उसके साथ ढेरों इन्नोवेशन करो। सिर्फ ये नहीं कि फ्लैट खबर लगा दो...मुशर्रफ ने वर्दी उतार दी। उतार दी वर्दी, ये तो पता है, पता चल जाएगा लेकिन वर्दी कैसे उतारी....उसकी कहानी बताओ। इसमें ड्रामा क्रिएट करो, इसमें सस्पेंस पैदा करो, इसमें ट्रेजडी और विक्ट्री का भाव डालो। मतलब पूरी बालीवुड की मसाला मूवी बना डालो हार्डकोर खबर को। और ये मूवी रूपी स्टोरियां राजनीतिक शब्दावलियों से न भरी अंटी हो। उसे जवानी दो, उसे युवापन से भर दो, उसे अल्हण बनाओ। लगे जैसे मुशरर्फ ने वर्दी उतारी है तो उनसे कुछ पाया जा सकता है, उनसे कुछ सीखा जा सकता है, उससे कुछ ह्यूमर निकाला जा सकता है, उससे कुछ कहानियां बनाई जा सकती हैं। मतलब जो कुछ भी है उसके साथ ढेरों इन्नोवेशन करो, ड्रामा करो, नाटक करो, फर्जीवाड़ा करो।

बात संपादकीय नैतिकता की अपेक्षा की हो रही है। कंटेंट के लेवल पर जब हमने पुराना चोला उतार कर नया पहन लिया है, और ये जो नया है, मार्केट ओरियेंटेड है, टीजी (टारगेट ग्रुप) ओरियेंटेड है, रेवेन्यू ओरियेंटेड है तो फिर पत्रकारों या कंटेंट जनरेट करने वालों से भी अपेक्षा की जाएगी कि वो नई चीजों को समझें। उसे बहुत जल्दी अपने भेजे में उतारें। उस पर जल्दी अमल करें। और ये जल्दी जल्दी की अपेक्षा कई कंटेंट वाले लोगों को समझ में नहीं आ रहा। इसलिए उन्हें दिक्कत हो रही है।

मेरे खयाल से दिक्कत नहीं होनी चाहिए क्योंकि पहली बात, किसी एक माध्यम से इस नए और बदले दौर में इतनी अपेक्षा रखनी नहीं चाहिए। वजह, हर माध्यम की हर समय एक खास वैल्यू होती है। कभी रेडियो ही रेडियो था। रेडियो में काम करने वाले सेलिब्रिटी हुआ करते थे, अब नहीं हैं। रेडियो की जरूरत नए समय में कम होती गई। उसकी जगह टीवी ने ले ली। टीवी के चेहरे अब सेलिब्रिटी की श्रेणी में हैं। टीवी नेशनवाइड दिखता है, प्रभाव क्रिएट करता है इसलिए टीवी का चेहरा पूरे देश का जाना पहचाना चेहरा बन जाता है। लेकिन टीआरपी के खेल ने जिससे कि विज्ञापन और विज्ञापन से रेवेन्यू जुड़ा हुआ है, इन माध्यमों को ऐसी लड़ाई में उतार दिया जिससे अब तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि इन टीवी न्यूज चैनलों के लिए संपादकीय नीति क्या है। मतलब, अगर आप टीवी में हैं तो कनफ्यूज हैं कि आप को दिखाना क्या है, करना क्या है। जितने भी चैनल हैं वो हर दिन नए रयोग कर रहे हैं। कभी गंभीर कहे जाने वाले चैनल अपने प्राइम टाइम में माधुरी के नच ले फिल्म के बहाने फिल्मों में हीरोइनों के डांस पर पैकेज दिखाने लगते है तो कभी कोई चैनल किसी एक शहर में सीएम के पुतला दहन और पत्रकारों की पिटाई को देश की सबसे बड़ी खबर बनाकर पेश करता है। कभी हंसी और ठहाके के कार्यक्रमों को लाइव कवरेज दिया जाता है तो कभी इतना क्रिकेट क्रिकेट होता है कि समझ में नहीं आता कि देश की सबसे बड़ी खबर किस चैनल पर खोजें। तो अगर कोई टीवी पत्रकार संपादकीय नीति की अपेक्षा करता है, किसी नैतिकता की अपेक्षा करता है तो शायद उसे पिछड़ा और कोरा आदर्शवादी ही ही माना जाएगा। एक नई चीज हो रही है, न्यूज के इस समय के जो परंपरागत माध्यम हैं- अखबार और टीवी, इनके मार्केट ओरियेंटेड हो जाने से वो जो खबरें इन पर आनी चाहिए थी लेकिन नहीं आ रही, वो अब कहीं और प्रकट हो रही हैं। ये ब्लागों पर, वेब पर, मोबाइल पर, मेल पर प्रकट हो रही हैं। ये नए मीडिया माध्यमों पर अवतरित हो रही हैं। इन मीडिया माध्यमों में लोग आंखों देखी को खबरों के रूप में लिख -पढ़ रहे हैं। ब्लाग में बातें खुलकर लिखी जाती हैं। यहां अभी कोई रेवेन्यू या मार्केट का इशू नहीं है। यहां अभी किसी हानि और लाभ का मामला नहीं है। यहां मिशन है, शौक है, भड़ास है, सरोकार है, भाव है, रुमानियत है....। यहां चूंकि चीजें खुद की नैतिकता और विजन से जुड़ी हैं इसलिए जाके रही भावना जैसी के अंदाज में हर ब्लाग अपना एक कैरेक्टर लिए हुए है। एक उदाहरण देता हूं......एक साथी ने सवाल किया, नोएडा में कोई ऐसी संस्था है जो गरीब व अनाथ बच्चियों की देखभाल करती हो, तो उन्हें कहा गया कि वो इस बात को ब्लाग पर डाल दें, कोई न कोई ब्लागर साथी जरूर मदद करेगा। तो ये जो काम अखबारों के माध्यम से होता था, अखबारों में फोन करके होता था, वो अब ब्लागों के जरिये हो रहा है। जो गंभीर बहसें अब अखबारों में नहीं हो पातीं, वे अब ब्लागों पर चलने लगी हैं। नंदीग्राम पर जिस तरह की बहस ब्लागों पर हुई, असम में नंगा करके लड़कियों औरतों की पिटाई पर जो बातें ब्लागों पर हुई वो परंपरागत मीडिया को आइना दिखाने के लिए काफी है। इसका सीधा संदेश मीडिया को है--- मार्केट को पकड़ो लेकिन इतना नहीं कि बाद में कहीं अपना ही चेहरा आइने में पहचान में न आए। मीडिया पर जो चीजें होनी चाहिए वो ब्लागों पर लिखी जा रही हैं, इसीलिए अखबार अब मजबूर हैं ब्लाग के बारे में बात करने के लिए। लोग शायद इसीलिए इन ट्रेडीशनल मीडिया माध्यमों पर कम विश्वास करने लगे हैं। अखबार और टीवी से जानी सुनी बातों पर लोगों का भरोसा कम हुआ है। लोग कहते हैं---अरे, इन टीवी वालों का क्या भरोसा, पता नहीं किस चीज को तिल का ताड़ बनाकर दिखा दें। इसीलिए तो एक टीवी चैनल सेक्स से जुड़े सवाल जवाब के जरिए खूब टीआरपी बटोरने में सफल हुआ।

मैं अपनी बातों को समेटना चाहूंगा। कुछ संकेत देना चाहूंगा। बहस आगे बढ़ाने के लिए कुछ प्वाइंट छोड़ना चाहूंगा....
  1. परंपरागत मीडिया नए दौर में नए हथियारों से लैस हो रहा है क्योंकि उसे एक ऐसे मार्केट में कंपटीट करना है जहां सारा खेल टीआरपी और प्रसार पर आधारित होता है और टीआरपी व प्रसार के फंडे संपादकीय की परंपरागत नैतिकता से अलग हो चुके हैं, इसलिए क्या मीडिया को टीआरपी व प्रसार की चिंता छोड़कर संपादकीय नैतिकता को पकड़ने रखना चाहिए, खुद के नष्ट हो जाने की आशंका के बावजूद या फिर मार्केट इकानामी में सरवाइवल के सारे हथियारों से लैस होकर मीडिया के हर कल पुर्जे को नए अंदाज में ढालना चाहिए ताकि ग्लोबल वार में वे हर तरह से मुकाबला कर सकें, सरवाइव ही नहीं बल्कि चैंपियन बन सकें.....तो इतनी बड़ी चिंता की अनदेखी संपादकीय नैतिकता के पैरेकारों को करना चाहिए?
  2. मीडिया के नए विजन को समझते हुए उसकी सीमाओं और मजबूरियों को अच्छी तरह देखते हुए उससे अपेक्षा भी उतनी ही रखनी चाहिए ताकि बाद में खुद को और समाज को निराश न होना पड़े या फिर मीडिया से उसके मीडिया होने के बारे में सवाल शुरू किये जाने चाहिए ताकि वो अपनी मूल आत्मा को जिंदा रखे और बाजार से निपटने की प्रचलित की बजाय नई रणनीति पर विचार करे
  3. अन्य कंपनियों और प्राइवेट लिमिटेड की तरह मीडिया को भी खूब मुनाफा कमाने की छूट दी जानी चाहिए या फिर उससे मीडिया होने के नाते उसकी देश व समाज के प्रति जवाबदेही के बारे में सवाल किया जाना चाहिए। जैसा कि कपिल सिब्बल ने एक सेमिनार में कहा था कि इस समस्या का हल यही है कि प्राइवेट लिमिटेड की पद्धति को खत्म कर एक ट्रस्ट के रूप में मीडिया हाउसेज को चलाने के लिए दबाव बनाया जाना चाहिए या कानून बनाना चाहिए
  4. जो यह नया दौर है उसमें न्यूज की परंपरागत परिभाषा के आधार पर मीडिया का मूल्यांकन करने और बात करने का मतलब ही नहीं। हर दौर में वैल्यूज अलग अलग होते हैं। आज जो वैल्यूज स्वीकारे जाते हैं वो कभी पाप माने जाते थे। तो उसी तरह जो बदला हुआ न्यूज वैल्यू टीवी व अखबार में दिख रहा है उसे इस समय और समाज का सच मानना चाहिए अन्यथा खुद के दिमाग की खिड़कियों के सही होने पर सवाल करना चाहिए कि क्या बदले दौर में पुराने तरीके से सोचकर हम खुद को ही तो परंपरागत नहीं साबित करने में लगे हैं.

जो भी है, यह सब लिखते हुए लगता है कि आशीष ने वाकई एक ठीक विषय को पकड़ा है। हालांकि इस विषय पर दिलीप मंडल ने कुछ दिनों पहले एक उम्दा आर्टिकल लिखा था। उसमें भी यही बातें थीं कि लाला से पैसे लेकर हमें क्रांति की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। मेरे खयाल से दिलीप जी की यह हेडलाइन ही ढेर सारी बातें कह देती हैं।

फिलहाल इतना ही
यशवंत सिंह
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(लेखक 12 वर्षों तक प्रिंट मीडिया से जुड़े रहे हैं। एडीटोरियल कंटेंट की दुनिया में ट्रेनी से एनई तक की यात्रा करने के बाद अब वे मार्केटिंग व रेवेन्यू जनरेशन का काम देख रहे हैं। फिलहाल मोबाइल कंटेंट प्रोवाइडर कंपनी LiveM में बतौर वाइस प्रेसीडेंट काम करते हैं। एक चर्चित ब्लाग भड़ास का संचालन भी करते हैं। इनसे yashwantdelhi@gmail.com के जरिए संपर्क किया जा सकता है)
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(इस मसले पर कुल पांच प्रतिक्रियाएं हल्लाबोल पर आईं)

5 Comments:

jhoom tara said...
bhaiya itna likh diye koi kamkaj nahin kya?

1 December, 2007 4:32 PM
कमल शर्मा said...
मीडिया पर यह लेख वाकई एक अच्‍छा लेख है। हालांकि कुछ बातों से कई लोगों को परहेज हो सकता है लेकिन यशवंत जी ने बातों को सच्‍चाई के साथ सामने रखा है। मीडिया वालों की जमात में से अनेक लोग इस बहस को आगे बढ़ाएंगे यह उम्‍मीद है। कई बातें या शब्‍द लोगों को चुभ भी सकते हैं और इस लेख पर एतराज भी हो सकता है लेकिन अखबारों और टीवी में आज ऐसी कई खबरें और उनका प्रस्‍तुतिकरण नैतिकता को ताक पर रखकर किया जा रहा है इसमें शक नहीं। हालांकि सारे कार्यक्रम ऐसे नहीं हैं। लेकिन लेखक ने अपने लंबे अनुभव के बाद ही चीजें लिखी हैं और मेरे ख्‍याल से उन्‍होंने सच्‍चाई को करीब से देखा होगा। भाई आशीष के इस ब्‍लॉग पर ऐसे लेख निरंतर आने चाहिए। मेरा अनुरोध है पत्रकारों से कि वे अपना लेखन योगदान देकर इस ब्‍लॉग को समृद्ध बनाए।

1 December, 2007 4:45 PM
Sanjeet Tripathi said...
लिखा तो एकदम सटीक है, सामयिक भी। सहमत भी हूं काफ़ी से ज्यादा हद तक लेकिन मन में कुछ बातें भी उठती हैं। जैसे कि मीडिया से नैतिकता की अपेक्षा क्यों न रखी जाए। लोकतंत्र का चौथा खंबा कहा जाता है जिसे क्या उसे अनैतिकता का आवरण ओढ़ने की खुली छूट सिर्फ़ इसलिए दी जा सकती है कि वह एक बिजनेस भी है।
मीडिया के पास कोई विशेषाधिकार तो होता नही खबरें निकालने के लिए वह एक आम आदमी को मिले अधिकारों के तहत ही खबरें निकालता है तो फ़िर क्या एक आम आदमी को नैतिक नही होना चाहिए।

मीडिया से संपादकीय नैतिकता की अपेक्षा न की जाए इसका मतलब कि बैठकर उस दिन का इंतजार किया जाए कि अखबारों मे "मस्तराम" की तरह का लेखन आए। क्या संपादकीय नैतिकता की अपेक्षा न की जाए और उस दिन का इंतजार किया जाए कि कोई समाचार चैनल प्लेबॉय मैगजीन का वीडियो संस्करण दिखाने लगे या कपड़े उतारते हुए समाचार प्रस्तुतिकरण हो!!

वैसे बहस लंबी और अंतहीन ही रहेगी इस मुद्दे पर।

1 December, 2007 4:52 PM
anitakumar said...
आशिष जी
यशवंत जी को अपने ब्लोग पर इस सामयिक मुद्दे पर लिखने के लिए बुलाने के लिए धन्यवाद्। यशवंत जी ने जो कुछ कहा काफ़ी हद्द तक सही है। आज कल मीडिया ही क्युं हर क्षेत्र प्रोडक्ट माना जाता है। पहले क्या स्कूल कॉलेज नफ़ा नुकसान के बारे में सोचते थे? पर आज सोचते हैं , वहां भी प्रोडक्ट मार्कटिंग इत्यादी प्रोफ़ेशनल तरीके से करना शुरु कर दिया गया है। फ़िर भी संजीत जी के कहने से मैं सहमत हूं कि मीडिया, जो दूसरों की नैतिकता पर नजर रखता है, चौथा स्तंभ माना जाता है, उसे बैलेंस्ड रहना चाहिए। इस विषय पर और चर्चा की जरुरत है।

1 December, 2007 5:13 PM
Srijan Shilpi said...
चलिए, आप कहते हैं तो संपादकीय नैतिकता की अपेक्षा नहीं रखते अखबारों-न्यूज चैनलों से। लेकिन पत्रकारों से फिर पूछने का मन करता है, "तेरा क्या होगा, कालिया?" आप कंपनियों के एक्जीक्यूटिव की तरह काम कीजिए, प्रेस की स्वतंत्रता के नाम पर विशेष सुविधा और सम्मान की अपेक्षा भी मत कीजिए। आप पर भी उसी तरह के कायदे-क़ानून लागू होने चाहिए जो कि किसी कंपनी के कारिंदों पर लागू होते हैं। मीडिया कंपनियों पर यदि केवल मुनाफे के लिए काम करती हैं तो फिर सरकार जब उनपर कॉरपोरेट की तरह ही कुछ शर्तें लगाती हैं तो फिर पत्रकार हायतौबा क्यों मचाते हैं, कि प्रेस की स्वतंत्रता का हनन हो रहा है? स्वतंत्रता तो नैतिकता की शर्त पर ही दी जा सकती है। दोनों हाथ में लड्डू तो नहीं मिलेगा।
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साभारः हल्लाबोल
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3 comments:

Anonymous said...

dear yashwant
bahut badhiya likha. aaj hi es blog pe aaya. nice blog.
congrates for your gr8 effort.
wishes
ramesh yadav
lucknow

SHRAWAN SINGH said...

bahut sahi aur satik lekhan hai aapka yashwant jii...

mai bhi ek patrakaar hun.
abhi jyada anubhav nahi hua hai. par jitna bhi maine dekha-suna hai aajtak un sab par aapki likhi hui baatein upto the point hain.

jab mai yeh blog padh raha tha tabhi mere senior ne ek dusre junior ladki jo just office me aayi hi thi puchha ki "kaisi ho?"
usne bade dabe mann se kaha "thik hun.........khush hun?"

isliye kehta hun jo (business)chal raha hai...jo (marketing) bhi ho raha hai sab khush(trp and readership) hain...bass iss khushi (profit) ke pichhe ek bade dukh (content) kaa ehsaas bhar hai?

shrawan s. mediakarmi
mumbai.

SHRAWAN SINGH said...

bahut sahi aur satik lekhan hai aapka yashwant jii...

mai bhi ek patrakaar hun.
abhi jyada anubhav nahi hua hai. par jitna bhi maine dekha-suna hai aajtak un sab par aapki likhi hui baatein upto the point hain.

jab mai yeh blog padh raha tha tabhi mere senior ne ek dusre junior ladki jo just office me aayi hi thi puchha ki "kaisi ho?"
usne bade dabe mann se kaha "thik hun.........khush hun?"

isliye kehta hun jo (business)chal raha hai...jo (marketing) bhi ho raha hai sab khush(trp and readership) hain...bass iss khushi (profit) ke pichhe ek bade dukh (content) kaa ehsaas bhar hai?

shrawan s. mediakarmi
mumbai.