सुनील जैन राही
बढ़ती जनसंख्या, कम होती पाठकों की संख्या से लोकार्पण रसातल में जा रहा है। भ्रम अच्छा है, पाठक कम हो रहे हैं तो ज्यादा कब थे? मास्टर की संटी न हो तो क्लास में बुकार्पण भी न होता। पाठक कम होना चिन्ता की बात नहीं है। असली चिन्ता है, लेखकों का अधिक होना। शहर में एकाद हुआ करता था। इनाम-विनाम देकर संतोष कर लेते। निठल्ला/निकम्मा और बेरोजगार कोई तो है, जो प्रकृति की गोद में बैठकर समय और कागज बरबाद कर रहा है। कलम की पूजा होती थी, अब कलम करने वालों की पूजा होती है।
बौराए आदमी की तरह विचारों में खोया पड़ा रहे। प्रकृति और नारी सौंदर्य के अलावा कुछ ना सूझे? थिरकन रुक जाए, नाक में समा जाए। नाक से बाहर आए तो छींक से। कमर में लटक जाए या फिर ललाट पर वर्षों घूमता रहे। जुल्फों में जुएं की तरह चहलकदमी करता फिरे। कभी नारी में प्रकृति को ढूंढें तो, कभी प्रकृति में नारी को। ऐसे मरदूद को आदमी और आदमी का बच्चा नज़र नहीं आता। न भूखा आदमी न प्यासा जानवर। प्रकृति और नारी सौंदर्य में भूख प्यासा बैठा रहे। यही मरदूद लेखक है।
अफसोस की बात नहीं है। लेखक बढ़े हैं तो सम्मान भी बढ़े हैं। सम्मान पाने वाले बढ़े हैं, सम्मान देने वाले बढ़े हैं। पहले पुस्तक का लोकार्पण चुपचाप हो जाता था। लेखक गुमनाम दस्तावेज था। किताब आई, छप गई, लोकार्पण हुआ तो हुआ, न हुआ तो न हुआ। कवि होली या गणोत्सव पर करवा चैथ के चांद की तरह दिखता। इसी दिन शहर के गुमनाम कवि सामने आते।
लड़कियां सोचती.... हाय दैया हमें क्या पता था, ये मुआ कवि भी है? प्रेम पत्र इससे ही लिखवा लिया होता। कम से कम रूपा की तो दाल तो न गलती। भ्रम यहां भी था। खुद केे प्रेम पत्र पर चरणपादुका सम्मान मिल चुका था, जनाब को।
पाठक कम हो जाएं, लेकिन श्रोता कम नही होने चाहिए। पाठक को श्रोता की तरह पकड़कर बिठा नहीं सकते। पाठक के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी है! अनपढ़ श्रोता नेता से कम नहीं? पाठक दिखाई नहीं देता, जो दिखाई दे वही काम का। पाठक कितने थे, कोई नहीं पूछता, श्रोता बहुत थे।
लोकार्पण में पाठकों की नहीं, श्रोताओं की संख्या भरपूर होनी चाहिए। श्रोता को हींग और फिटकरी से कोई लेना देना नहीं। वह किताब खरीदने से रहा। श्रोता, देखे की मोहब्बत करता है। चाय पी, बर्फी खाई और फुर्र। किताब से कोई सरोकार नहीं, लोकार्पण हो या थोकार्पण। घेर के लाया जाता है। जमाना लद गया जब एक लेखक के लिए सौ-सौ श्रोता हुआ करते थे। थोकार्पण का जमाना है। दस लेखकों के लिए 50 श्रोता, बस!
थोकार्पण और लोकार्पण की बीच की महत्वपूर्ण कड़ी होती है, थूकार्पण। थूकार्पण को सभ्य भाषा में आलोचना कहते हैं। (असभ्य भाषा में भड़ास) थूकार्पण दो प्रकार का होता है। पहला लेखक का नाम जानने के बाद, दूसरा पुस्तक पढ़ने के बाद। थूकार्पण कई प्रकार से होता है। थूकार्पण को लोकार्पण के दौरान और बाद में भी किया जा सकता है। लोकार्पण के दौरान बीच-बीच में थूकार्पण क्रिया चलती है। लोकार्पण में थूकार्पण की छूट होती है। पुस्तक समीक्षा (प्रशंसा) में थूर्कापण के छींटें आसपास खड़े/बैठे लेखकों को सम्मानित करते हैं। थूकार्पण की माला रुमाल साफ की जाती रहती है।
थूकार्पण समारोह में समूह के थूकक ही होते हैं। इस दौरान थूकक वर्ग, दूसरे थूकक वर्ग पर थू.....थू करता है। एक ही धर्म और विचारधारा के थूकक शामिल होते हैं। अंत में थूकन महाश्री थकान मिटाने के लिए अल्पाहार का आमंत्रण देते हैं। थूकक धारा 144 के अंतर्गत गु्रपों में थूकन क्रिया में फिर संलप्ति हो जाते हैं। थूककगण वटसएप और फेसबुक पर थूकन प्रतीज्ञा के साथ वाहनों में सवार हो जाते हैं।
थोकार्पण और लोकर्पण की क्रिया क्षणिक सुख की तरह होती हैं। सुख का स्थायी भाव थूकार्पण में होता है। थूकार्पण वर्षों तक अनवरत चलता रहता है। थूकार्पण के स्थायी भाव के साथ थोकार्पण लोकार्पित होते रहते हैं।
Sunil Jain Raahi
सुनील जैन राही
एम-9810960285
पालम गांव-110045