साथियों,
आज 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस है। इंडियन फेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट्स की विभिन्न राज्य इकाइयों ने आज जोर शोर से हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया। यह दिवस हमें न केवल अपने इतिहास की याद दिलाता है अपितु यह एक ऐसा अवसर है जब हम इसकी दशा और दिशा पर विचार करते हैं। हिंदी के प्रथम समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' का प्रकाशन आज ही के दिन अहिन्दी भाषी राज्य बंगाल की राजधानी कलकत्ता से 1826 में हुआ था।
हिंदी का दूसरा पत्र 'बंगदूत' भी यहीं से राजा राममोहन राय ने 1829 में प्रारम्भ किया था। संयोग देखिए कि हिंदी का प्रथम दैनिक समाचार पत्र 'सुधा वर्षण' भी कलकत्ता से 1854 में प्रारम्भ हुआ, जिसके संपादक भी एक बंगाली श्याम सुन्दर दास थे। यह अलग बात है कि अर्थाभाव के चलते सभी समाचार पत्र असमय काल कवलित हो गये, लेकिन आश्चर्य की बात है कि हिंदी पत्रकारिता की जन्मभूमि अहिन्दी भाषी क्षेत्र कलकत्ता रहा है।
क्या पूरा का पूरा व्यापक हिंदी क्षेत्र और समाज अपनी अस्मिता और भाषा के प्रति पूर्णतया ऊसर नहीं बन गया था? इसमें कोई संदेह नहीं की हिंदी के महान कवि और लेखक इसी क्षेत्र से उत्पन्न हुए लेकिन हिंदी पत्रकारिता के उत्थान के प्रति उनकी आश्चर्यजनक उदासीनता बनी रही।
पंडित जुगलकिशोर शुक्ल, जो प्रतापगढ़ के रहने वाले थे, ने जिस समाचार पत्र का प्रकाशन 'नारद जयंती' को किया था वह डेढ़ वर्ष के भीतर अर्थाभाव के चलते दिसंबर 1827 में बंद हो गया। इसको हिंदी भाषियों की उदासीनता न कही जाए तो क्या कहा जाए? हिंदी क्षेत्र के मारवाड़ियों और व्यापारियों ने अकूत धन सृजन किया लेकिन हिंदी के प्रति उनका लगाव अन्य भाषा भाषियों की अपेक्षा कम ही रहा। यद्यपि यह सत्य है की हिंदी पत्रकारिता के विकास में उनका सर्वाधिक योगदान रहा।
हिंदी पत्रकारिता के विकास में अहिन्दी भाषी क्षेत्रों का जितना योगदान रहा, उससे कहीं अधिक अहिन्दी भाषी हिंदी पत्रकारों का रहा। बाबा विष्णु राव पराड़कर, राजाराम खाडिलकर और पंडित लक्ष्मीनारायण गर्दे तीनों अहिन्दी भाषी थे। हिंदी पत्रकारिता के विकास में इनका योगदान अविस्मरणीय रहेगा।
हिंदी पत्रकारिता की वर्त्तमान स्थिति आज भी कोई बहुत अच्छी नहीं है, बहुत सारे समाचार पत्र और पत्रिकाएं या तो बंद हो चुकी हैं या फिर बंद होने के कगार पर हैं। तमामं टीवी चैनल हिंदी समाचार पत्र के भरोसे काफी कमाई कर रहे हैं लेकिन न तो हिंदी के अख़बार और पत्र-पत्रिकाएं और न ही टीवी चैनल हिंदी पत्रकारों को सम्मानजनक वेतन देते हैं न ही वे तमामं संस्तुतियों को मानते हैं। यही कारण है कि हिंदी के कई प्रतिष्ठित पत्रों जैसे 'दैनिक जागरण', 'आज', 'अमर उजाला', 'राजस्थान पत्रिका', 'दैनिक भास्कर' में पत्रकारों की स्थिति बहुत दयनीय है। इसलिए आज के दिन सभी सुधीजनों, राजनेताओं और पत्रकारों को गहनता से विचार करना होगा की हिंदी पत्रकारिता को कैसे नई ऊंचाई दी जाये। अगर हम इस पर गंभीरता
सोच-विचार कर सकें तो यहीं से हिंदी पत्रकारिता के अच्छे दिन आने में देर नहीं लगेगी।
यहाँ यह जानना जरूरी है कि पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने 'उदन्त मार्तण्ड' के प्रकाशन पर लिखा था कि 'नारद जी' आदि पत्रकार थे, इसलिए उनकी जयंती पर इसका प्रकाशन किया जा रहा है। लेकिन अंग्रेजी के प्रति हमारी गुलामी ने हमें 'नारद जयंती' से दूर कर 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाने को विवश कर दिया है।
परमानन्द पाण्डेय
महासचिव-आई.एफ.डब्ल्यू.जे.
आज 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस है। इंडियन फेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट्स की विभिन्न राज्य इकाइयों ने आज जोर शोर से हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया। यह दिवस हमें न केवल अपने इतिहास की याद दिलाता है अपितु यह एक ऐसा अवसर है जब हम इसकी दशा और दिशा पर विचार करते हैं। हिंदी के प्रथम समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' का प्रकाशन आज ही के दिन अहिन्दी भाषी राज्य बंगाल की राजधानी कलकत्ता से 1826 में हुआ था।
हिंदी का दूसरा पत्र 'बंगदूत' भी यहीं से राजा राममोहन राय ने 1829 में प्रारम्भ किया था। संयोग देखिए कि हिंदी का प्रथम दैनिक समाचार पत्र 'सुधा वर्षण' भी कलकत्ता से 1854 में प्रारम्भ हुआ, जिसके संपादक भी एक बंगाली श्याम सुन्दर दास थे। यह अलग बात है कि अर्थाभाव के चलते सभी समाचार पत्र असमय काल कवलित हो गये, लेकिन आश्चर्य की बात है कि हिंदी पत्रकारिता की जन्मभूमि अहिन्दी भाषी क्षेत्र कलकत्ता रहा है।
क्या पूरा का पूरा व्यापक हिंदी क्षेत्र और समाज अपनी अस्मिता और भाषा के प्रति पूर्णतया ऊसर नहीं बन गया था? इसमें कोई संदेह नहीं की हिंदी के महान कवि और लेखक इसी क्षेत्र से उत्पन्न हुए लेकिन हिंदी पत्रकारिता के उत्थान के प्रति उनकी आश्चर्यजनक उदासीनता बनी रही।
पंडित जुगलकिशोर शुक्ल, जो प्रतापगढ़ के रहने वाले थे, ने जिस समाचार पत्र का प्रकाशन 'नारद जयंती' को किया था वह डेढ़ वर्ष के भीतर अर्थाभाव के चलते दिसंबर 1827 में बंद हो गया। इसको हिंदी भाषियों की उदासीनता न कही जाए तो क्या कहा जाए? हिंदी क्षेत्र के मारवाड़ियों और व्यापारियों ने अकूत धन सृजन किया लेकिन हिंदी के प्रति उनका लगाव अन्य भाषा भाषियों की अपेक्षा कम ही रहा। यद्यपि यह सत्य है की हिंदी पत्रकारिता के विकास में उनका सर्वाधिक योगदान रहा।
हिंदी पत्रकारिता के विकास में अहिन्दी भाषी क्षेत्रों का जितना योगदान रहा, उससे कहीं अधिक अहिन्दी भाषी हिंदी पत्रकारों का रहा। बाबा विष्णु राव पराड़कर, राजाराम खाडिलकर और पंडित लक्ष्मीनारायण गर्दे तीनों अहिन्दी भाषी थे। हिंदी पत्रकारिता के विकास में इनका योगदान अविस्मरणीय रहेगा।
हिंदी पत्रकारिता की वर्त्तमान स्थिति आज भी कोई बहुत अच्छी नहीं है, बहुत सारे समाचार पत्र और पत्रिकाएं या तो बंद हो चुकी हैं या फिर बंद होने के कगार पर हैं। तमामं टीवी चैनल हिंदी समाचार पत्र के भरोसे काफी कमाई कर रहे हैं लेकिन न तो हिंदी के अख़बार और पत्र-पत्रिकाएं और न ही टीवी चैनल हिंदी पत्रकारों को सम्मानजनक वेतन देते हैं न ही वे तमामं संस्तुतियों को मानते हैं। यही कारण है कि हिंदी के कई प्रतिष्ठित पत्रों जैसे 'दैनिक जागरण', 'आज', 'अमर उजाला', 'राजस्थान पत्रिका', 'दैनिक भास्कर' में पत्रकारों की स्थिति बहुत दयनीय है। इसलिए आज के दिन सभी सुधीजनों, राजनेताओं और पत्रकारों को गहनता से विचार करना होगा की हिंदी पत्रकारिता को कैसे नई ऊंचाई दी जाये। अगर हम इस पर गंभीरता
सोच-विचार कर सकें तो यहीं से हिंदी पत्रकारिता के अच्छे दिन आने में देर नहीं लगेगी।
यहाँ यह जानना जरूरी है कि पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने 'उदन्त मार्तण्ड' के प्रकाशन पर लिखा था कि 'नारद जी' आदि पत्रकार थे, इसलिए उनकी जयंती पर इसका प्रकाशन किया जा रहा है। लेकिन अंग्रेजी के प्रति हमारी गुलामी ने हमें 'नारद जयंती' से दूर कर 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाने को विवश कर दिया है।
परमानन्द पाण्डेय
महासचिव-आई.एफ.डब्ल्यू.जे.
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