Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

31.5.13

भाजपा ने उगला जेठमलानी को, अब वे आग उगलेंगे

भारतीय जनता पार्टी के लिए गले की हड्डी बने राज्यसभा सदस्य व वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी को आखिर उगल दिया, मगर अब खतरा ये है कि वे भाजपा के खिलाफ आग उगलेंगे। इसका इशारा वे कर भी चुके हैं।
असल में भाजपा जेठमलानी को एक लंबे अरसे से झेल रही थी। संभवत: मात्र इसलिए कि उनके पास एक तो पार्टी के बहुतेरे राज हैं और दूसरा ये कि अपनी स्वच्छंद प्रवृति के कारण कभी भी बड़ा संकट पैदा कर सकते थे। संकट पैदा कर ही रहे थे। नितिन गडकरी की अध्यक्ष पद की कुर्सी जाने में उनकी भी अहम भूमिका थी, जो उनके विरुद्ध अभियान सा छेड़े हुए थे। इतना ही वे चोरी और सीनाजोरी की तर्ज पर आए दिन धमकी भी देते रहे कि है दम तो उन्हें पार्टी से निकाल कर तो दिखाओ। आखिरी नौटंकी उन्होंने पिछले दिनों तब की, जब वे निलंबित होने के बावजूद कार्यसमिति की बैठक में पहुंच गए। उन्होंने जम कर हंगामा भी किया, जिससे एकबारगी मारपीट की नौबत आ गई। उन्होंने आरोप लगाया कि पार्टी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को सही तरीके से नहीं उठाया। यहां तक कि पार्टी की कांग्रेस से मिलीभगत का गंभीर आरोप भी जड़ दिया। पार्टी अनुशासन को ताक पर रख कर उन्होंने नेतृत्व को चेतावनी भी दे दी कि उनका निलंबन वापस लिया जाए या उन्हें पार्टी से निकाल दिया जाए। अपने आप को केडर बेस पार्टी बताने वाले राजनीतिक दल में कोई इस हद तक चला जाए और फिर भी उसके खिलाफ कार्यवाही करने पर विचार करना पड़े या संकोच हो रहा हो तो ये सवाल उठाए जाने लगे कि आखिर जेठमलानी में ऐसी क्या खास बात है कि पार्टी हाईकमान की घिग्घी बंधी हुई है? ऐसे में आखिरकार पार्टी के पास कोई चारा ही नहीं रहा। हालांकि पार्टी जिस कदम से लगातार बचना चाहती थी, वही से उठा कर उन्हें पार्टी से बाहर करना पड़ा। पार्टी अच्छी तरह से समझती है कि बाहर होने के बाद वे काफी दुखदायी होंगे, मगर उससे ज्यादा कष्टप्रद तो वे पार्टी के अंदर रह कर बने हुए थे। अपने आपको सर्वाधिक अनुशासित पार्टी बताने वाली भाजपा का अनुशासन तार-तार किए दे रहे थे। उन्हीं की आड़ ले कर और नेता भी अनुशासन की सीमा रेखा पार करने लगे थे। ऐसे में पार्टी हाईकमान ने यह सोच कर एक मछली सारे तालाब को गंदा कर रही है, बेहतर यही है कि उसे ही बाहर निकाल दिया जाए।
ज्ञातव्य है कि वे लंबे अरसे से पार्टी नेताओं का मुंह नोंच रहे थे। उन्होंने न केवल पूर्व पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी से इस्तीफा देने की मांग की, अपितु सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति पर पार्टी के रुख की खुली आलोचना की। तब भी यही धमकी दी थी कि है किसी में हिम्मत कि उनके खिलाफ कार्यवाही कर सके। उनकी इस प्रकार की हिमाकत पर उन्हें निलंबित किया गया। इसके बाद उनका रुख कुछ नरम पडऩे पर निलंबन समाप्त करने का भी विचार बना, मगर जब पानी सिर से ही गुजरने लगा तो पार्टी को उनसे पिंड छुड़वाना ही पड़ा।
आपको याद होगा कि ये वही जेठमलानी हैं, जिनको भारी अंतर्विरोध के बावजूद राज्यसभा चुनाव के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे  न केवल पार्टी प्रत्याशी बनवा कर आईं, बल्कि विधायकों पर अपनी पकड़ के दम पर वे उन्हें जितवाने में भी कामयाब हो गईं। तभी इस बात की पुष्टि हो गई थी कि जेठमलानी के हाथ में जरूर भाजपा के बड़े नेताओं की कमजोर नस है। भाजपा के कुछ नेता उनके हाथ की कठपुतली हैं। उनके पास पार्टी का कोई ऐसा राज है, जिसे यदि उन्होंने उजागर कर दिया तो भारी उथल-पुथल हो सकती है।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था। पार्टी के अनुशासन में वे कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए।
बहरहाल, अब जब कि पार्टी ने मन कड़ा करते हुए सख्त कदम उठा लिया है, ये खतरा लगातार बना ही हुआ है कि वे कोई न कोई षड्यंत्र रचेंगे, मगर समझा जाता है कि पार्टी उसके लिए तैयार है।
-तेजवानी गिरधर

29.5.13

शिंदे तो नीरो का बाप निकला-ब्रज की दुनिया

मित्रों,आपने भी किताबों में पढ़ा होगा कि भारत में इस समय लोकतंत्र है और इस समय सुशील कुमार शिंदे भारत के गृह मंत्री हैं। आपको क्या लगता है कि किताबों में लिखी गई ये बातें सही हैं? मुझे तो लगता है कि भारत में इस समय भी राजतंत्र है और श्री शिंदे किसी लोकतांत्रिक सरकार के नहीं बल्कि किसी राजा या रानी के मंत्री हैं। देश के प्रति कोई जिम्मेदारी या वफादारी नहीं। अगर ऐसा नहीं है तो फिर शिंदे किससे पूछकर इस संकट काल में अमेरिका में रूक गए? क्या गृह मंत्री होने के नाते यह उनका कर्त्तव्य नहीं था कि वे 25 मई को ही अमेरिका से भारत वापस आ जाते? कोई मामूली घटना नहीं घटी है देश पर हमला हुआ है बकौल सोनिया गांधी भारतीय लोकतंत्र पर हमला हुआ है और भारत का गृह मंत्री जिसके कंधों पर देश की आंतरिक सुरक्षा की महती जिम्मेदारी होती है विदेश में रंगरलियाँ मना रहा है?
                                     मित्रों,श्री शिंदे पहले भारत के गृह मंत्री हैं या किसी के भाई या बाप? प्रश्न यह भी उठता है कि क्या उनको सोनिया-राहुल ने वहाँ रूकने की अनुमति दी? मैं नहीं समझता कि बिना सोनिया-राहुल की रजामंदी के शिंदे संडास भी जा सकते हैं। तो क्या यह समझा जाना चाहिए कि शिंदे को खुद सोनिया-राहुल ने ही विदेश में रोक दिया? अगर हाँ तो इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं? पहला कारण तो यह हो सकता है कि इन दोनों को शिंदे जी की योग्यता पर भरोसा नहीं है,उनको लगता है कि शिंदे स्थिति को संभाल नहीं पाएंगे और इसलिए उनको लगता हो कि ऐसे नाजुक समय में शिंदे देश से बाहर ही रहें तो अच्छा है वरना यहाँ आकर वे उटपटांग,पागलपन भरा बयान देकर रायता ही फैलाएंगे। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि ये माँ-बेटे समझते हों कि अंधा चाहे सोया रहे या जगा क्या फर्क पड़ता है। फिर प्रश्न यह भी उठता है कि तो फिर ऐसे काम के न काज के वाले व्यक्ति को क्यों केन्द्रीय सरकार में दूसरा सर्वोच्च पद दे रखा है?
                                                मित्रों,मैं न तो कभी केंद्रीय मंत्री रहा हूँ और न ही कभी अमेरिका तो क्या नेपाल भी गया हूँ जो बता सकूँ कि शिंदे जी ने अमेरिका में किस प्रकार छुट्टियाँ मनाई होंगी। गोरी-गोरी मेमों से मसाज करवाकर बुढ़ापे को मुँह चिढ़ाया होगा या डिस्को में बालाओं के साथ डांस किया होगा या फिर किसी बीच पर मुँह औंधे घंटों पड़े रहे होंगे। जो जी चाहे वे करें उनकी जिन्दगी है लेकिन उन्होंने इसके लिए समय जरूर गलत चुना। वे चाहते तो बाद में दोबारा-तिबारा भी अमेरिका जा सकते थे। अब उनसे गलती तो हो ही चुकी है सो लोग चुप तो रहेंगे नहीं और कहनेवाले तो चाहें तो उनकी तुलना मजे में रोम के नीरो से कर सकते हैं और कह सकते हैं कि भाइयों एवं उनकी बहनों निराश मत होईए कि आप रोम के नीरो को नहीं देख सके। आप उसको आज भी देख सकते हैं। मिलिए इनसे ये हैं 21वीं सदी के जीवित नीरो,दुनिया के कथित रूप से सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के गृह मंत्री श्री श्री अनंत सुशील कुमार शिंदे। भूल जाईए नीरो को और उस कहावत को भी आज से एक नई कहावत ने उसका स्थान ले लिया है और वो कहावत अब इस तरह से जाना जाएगा कि जब भारत नक्सली हिंसा की आग में जल रहा था तब भारत का गृह मंत्री शिंदे अमेरिका में छुट्टियाँ मना रहा था,ठंडी हवा खा रहा था।

बातों-बातों में...

‘मनभेद’ न पड़ जाए भारी
विधानसभा चुनाव के नजदीक है, लेकिन नेताओं में ‘मनभेद’ कायम है। नतीजा, सियासी गर्मी का पारा भी बढ़ने लगा है। दो विरोधी पार्टी के नेताओं में आरोप-प्रत्यारोप राजनीति में स्वाभाविक नजर आती है, लेकिन अपने ही ‘अपने’ की कब्र खोदने लगे तो फिर ‘पार्टी’ का बंटाधार होना लाजिमी है। ऐसे नजारे, चुनाव के पहले ही नजर आने लगे हैं। एक-दूसरे को निपटाने, अभी से ही सियासी गणित बिठाए जा रहे हैं। समझा जा सकता है कि ये ‘मनभेद’ कितनी भारी पड़ सकती है ? हालांकि, कहने वाले कहते हैं कि ये तब होता है, जब एक-दूसरे से कोई भी ‘खुद’ को छोटा समझना ही नहीं चाहता।

साहब की ‘पड़ोसी’ मेहरबानी...
इतना सब जानते ही हैं कि एक पड़ोसी की कितनी अहमियत होती है। सुख-दुख में वे साथ होते हैं। इस मामले में हमारे साहब, कुछ हटके हैं। उन्हें पड़ोसी से क्या और कितना लाभ मिलता है, ये तो वे ही जानें, किन्तु पड़ोसियों के जरूर बल्ले-बल्ले हैं। जब से साहब ‘वहां’ से आए हैं, तब से पड़ोसियों की आवभगत जमकर हो रही है और उन पर साहब की मेहरबानी भी जगजाहिर हो गई है। यही वजह है कि साहब के ईर्द-गिर्द ‘पड़ोसी’ मंडराते रहते हैं। कभी यही पड़ोसी, ‘यहां’ झांकने तक नहीं आते थे। लगता है, लगाव का कारण कुछ खास है। आखिर यह तो सच है कि जहां ‘गुड़’ होगा, वहां ‘मक्खी’ तो भिनभिनाएंगे ही...।

...आपका ये दिलवालापन
शिक्षा ‘सर्व’ पहुंचाने की जिस साहब पर जिम्मेदारी है, उनका दिलवालापन का क्या कहें...। उनकी समझ में तो शासन की सारी योजनाएं ही बंदरबाट के लिए बनी है। उनके ‘दिलवालेपन’ का शुरूर चढ़े तो वे शासन का ही ‘दिवाला’ निकाल दे। तभी तो चंद रूपये की नहीं, लाखों के बाद, अब वे करोड़ों के ‘खिलाड़ी’ साबित हो रहे हैं। बंदरबाट में निश्चित ही उनकी कोई सानी नहीं है, जितना कर दे, कम है। लगता है कि शासन के पैसे को वे खुद का समझते हैं, न कोई नियम, न कायदे। जहां चाहो, जैसे चाहो, अपने तरीके से खर्च कर डालो। कोई पूछने तो आएगा नहीं, जो आएगा, उन्हें भी ‘दो-चार’ देकर चलता कर दो। साहब के ‘खाओ-खिलाओ’ का पाठ खूब पढ़ा जा रहा है, यह कब तक पढ़ा जाएगा, इसकी भी खूब चर्चा जरूर हो रही है।

उनकी ‘लाइन’ का दर्द
सुरक्षा वाले एक साहब, कहा करते थे, वे कभी ‘लाइन’ में नहीं रहे। उनकी ‘चाहत’ अब पूरी हो गई है। ऐसा लगता है, जैसे अंतिम छोर में होने की वजह से कुछ ज्यादा ही बे-लगाम हो गए थे, जिसके बाद बड़े साहब ने उन पर ‘लाइन’ की लगाम डाल दी। अब उन्हें ‘लाइन’ का दर्द सालने लगा है। जहां थे, वहां के रौब के सामने लाइन का काम उन्हें रास नहीं आ रहा है। वे बड़े चिंतित हैं। अब करे तो क्या करें, बड़े साहब से मनमुटाव का नतीजा भोगना पड़ता है। खैर, वे ‘लाइन’ को काफी याद किया करते थे, इसलिए कुछ उन्हें ‘लाइन’ का मजा भी ले लेना चाहिए। फिर पता चलेगा कि लाइन में ‘मलाई’ का आनंद है या फिर वहां, जहां रहते आए हैं।

27.5.13

जो भी हुआ बुरा हुआ जो भी होगा ...?-ब्रज की दुनिया

मित्रों,मैं कई बार लिख चुका हूँ कि हमारी वर्तमान केंद्र सरकार नक्सली समस्या को जितने हल्के में ले रही है यह समस्या उतनी हल्की है नहीं। यह समस्या हमारी संप्रभुता को खुली चुनौती है,हमारी एकता और अखंडता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है लेकिन केंद्र सरकार को वोटों का हिसाब लगाने से फुरसत कहाँ। इसलिए तो वो इसे सिर्फ कानून-व्यवस्था की स्थानीय समस्या बताती रही है। उसको अपने प्रचार-तंत्र पर अटूट विश्वास भी है। वो समझती है कि मीडिया में सिर्फ यह बताकर कि सरकार ने गरीबों-आदिवासियों के लिए कितनी योजनाएँ चला रखी हैं नक्सलवाद को समाप्त किया जा सकता है।
             मित्रों,मैंने अपने पहले के आलेखों में अर्ज किया है कि आज का नक्सल आंदोलन 1967 वाला आदर्शवादी आंदोलन नहीं है बल्कि यह लुम्पेन साम्यवादियों के रंगदारी वसूलनेवाले आपराधिक गिरोह में परिणत हो चुका है। इन पथभ्रष्ट लोगों का साम्यवाद और गरीबों से कुछ भी लेना-देना नहीं है। हाँ,इनका धंधा गरीबों के गरीब बने रहने पर ही टिका जरूर है इसलिए ये लोग अपने इलाकों में कोई भी सरकारी योजना लागू नहीं होने देते हैं और यहाँ तक कि स्कूलों में पढ़ाई भी नहीं होने देते। आप ही बताईए कि जो लोग देश के 20 प्रतिशत क्षेत्रफल पर एकछत्र शासन करते हैं वे भला क्यों मानने लगे समझाने से? क्या कोई ऐसी समस्या जिसका विस्तार देश के 20 प्रतिशत भाग पर हो स्थानीय हो सकती है? क्या यह सच नहीं है कि हमारे संविधान और कानून का शासन छत्तीसगढ़ राज्य के सिर्फ शहरी क्षेत्रों में ही चलता है? क्या यह सच नहीं है कि वहाँ के नक्सली क्षेत्रों में जाने से हमारे सुरक्षा-बल भी डरते हैं योजनाएँ क्या जाएंगी? इसलिए बल-प्रयोग कर वहाँ पहले संविधान और कानून का राज स्थापित करना पड़ेगा तब जाकर उन क्षेत्रों में भी 1 रुपया में से 10 पैसा भी जा पाएगा। अब ये दूसरी बात है कि जब संविधान और कानून का सम्मान केंद्र सरकार खुद ही नहीं कर रही है तो फिर वो इनका सम्मान करने कि लिए नक्सलियों को कैसे बाध्य कर पाएगी? कहाँ से आएगा उनके पास इस अतिकठिन कार्य के लिए नैतिक बल जो खुद ही लगातार अनैतिक कार्यों में,गैरकानूनी कृत्यों में आपादमस्तक संलिप्त हैं? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर जेपी और रविशंकर महाराज ने चंबल के डाकुओं से आत्मसमर्पण करवाया था तो अपने नैतिक बल पर ही करवाया था।
                             मित्रों,यह सच है कि महेन्द्र कर्मा सलवा जुडूम के कारण नक्सलियों की हिट लिस्ट में सबसे ऊपर थे इसलिए अगरचे तो उन्हें उनके इलाके में जाना ही नहीं चाहिए था और अगर गए भी तो स्थल-मार्ग से नहीं जाना चाहिए था। जब एक अदना-सा डाकू वीरप्पन अगर जंगल में छिप जाए तो उससे पार पाना कठिन होता है तो फिर नक्सलियों ने तो बाजाप्ता फौजी ट्रेनिंग ले रखी है,फौज बना रखी है। जंगल में सबसे बड़ी कठिनाई यही होती है कि आप उनको नहीं देख रहे होते हैं जबकि वे आपको हर वक्त देख रहे होते हैं। वहाँ जेड प्लस-माईनस का कोई अर्थ नहीं होता। कुछ लोग इस घटना के लिए राज्य सरकार को दोषी ठहरा रहे हैं और राजनैतिक लाभ पाना चाहते हैं। मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि श्रीमती इन्दिरा गांधी की जब हत्या हुई तब तो वे खुद ही प्रधानमंत्री थीं,बेअंत सिंह को जब मारा गया तब तो वे स्वयं पंजाब के मुख्यमंत्री थे फिर उनकी सुरक्षा में चूक के लिए कौन जिम्मेदार था? बल्कि इंदिरा को तो उनके सुरक्षा बलों ने ही मार डाला था इसलिए मैं कहता हूँ कि आरोप-प्रत्यारोप बंद करो,कुर्सी की राजनीति बंद करो और इस बात पर विचार करो कि इस नक्सली समस्या को कैसे जड़-मूल से समाप्त किया जाए?
                                                        मित्रों,हमारे कुछ मित्र अभी भी उन आदिवासियों को जो नक्सल आंदोलन में शामिल हैं भोला भाला और गुमराह कर दिया मानते हैं। मैं उनलोगों से पूछता हूँ कि परसों कांग्रेसी नेताओं की बेरहमी से हत्या करके लाशों पर नृत्य करनेवाला कैसे भोला-भाला हो सकता है? जब सुरक्षा बलों की गोलियाँ समाप्त हो गई थीं तब तो वे निहत्थे थे तो क्या निहत्थों पर बेरहमी से वार करने को मानवाधिकार का सम्मान कहा जाना चाहिए? क्या सिर्फ नक्सलियों का ही मानवाधिकार होता है?  क्या यह फर्जी मुठभेड़ नहीं हुई? मैं दावे के साथ कहता हूँ कि न तो ये लोग भोले भाले हैं और न ही गुमराह बल्कि ये लोग असभ्य हैं,नरपिशाच हैं,ड्रैकुला हैं,हार्डकोर वधिक हैं इसलिए बातों से नहीं मानेंगे कभी नहीं मानेंगे। इनके लिए मनमोहन जैसा पिलपिला शासक नहीं चाहिए बल्कि राम जैसा अस्त्र-शस्त्रधारी चाहिए जो सिंहासन पर बैठते ही प्रतिज्ञा ले कि-निशिचरहीन करौं मही हथ उठाई पन किन्ह।
                                  मित्रों,कुल मिलाकर यह हमला न तो केवल राजनीति पर हमला है और न ही कांग्रेस नेताओं पर बल्कि यह भारत की संप्रभुता पर हमला है,भारत पर हमला है और इससे पहले के वो सारे हमले भी सीधे-सीधे भारत की संप्रभुता पर ही किए गए थे जिनमें हमारे सैंकड़ों जवान मारे गए। मैं नहीं समझता कि उनमें और इसमें कोई अंतर है या किया जाना चाहिए। प्रश्न अब यह उठता है कि हमारी केंद्र सरकार अब करेगी क्या? मुझे नहीं लगता कि इस सरकार के मंत्री और प्रधानमंत्री माँ के गर्भ से वो जिगर लेकर पैदा हुए हैं जिनकी आवश्यकता नक्सलियों और माओ की वैचारिक,रक्तपिपासु संतानों से निबटने के लिए होती है। बल्कि इन लोगों ने तो लूट-पर्व में भाग लेने के लिए सत्ता संभाली है इनको कहाँ देश सों काम। सो पहले की तरह कुछ दिनों तक बड़े-बड़े बयान दिए जाएंगे,किसी भी दोषी को नहीं बक्शने के बेबुनियाद दावे किए जाएंगे और इस घटना को भी भुला दिया जाएगा तब तक के लिए जब तक कि कोई अगली बड़ी घटना न घट जाए।

26.5.13

मौत के बदले!




              पाप-पुण्य का लेख-जोखा बस यहीं होता है.....ये जीवन है चलता है तो चलता है, फिर कभी-कभी लाश बन गिरता है. कभी-कभी आदमी हड़पता है जिंदगियां और फिर लाशें हड़प लेती हैं उसकी ज़िन्दगी.
             ये नज़्म तरकरीबन सौ गोलियों के शिकार 'महेंद्र कर्मा' के लिए. आदमी के बदले आदमी और आँख के बदले आँख लेने का ये खेल पहली बार तो नहीं हुआ है!


बस ढेर सारे बुलबुले पानी के
तोड़ के बिखेरे गये.
पत्थरों से होकर जो
अठन्नियां निकलनी थी.
अठन्नियां निकालने एक आदमी
बुलबुले फोड़ता गया.
ज़मीन से ज़र बनाने
गर्दने मरोड़ता गया.

सुना है कल लाश मिली है
बुलबुले फोड़ने बाले की.
खून सने बुलबुलों
की औलादों ने
किया है ये काम.
गर्दने मरोड़ने बाले को
दिया है 'लाल सलाम'!

आँख के बदले आँख नहीं ली गयी इस दफा.
बस किसी ने मौत बेचीं थी
....और उसे मौत उधार दी गयी!!


लोग येसे ही हथियार नहीं उठाते 'साहिब' ....... मजबूर किया जाता है उन्हें! 

बैंड,बाजा,बारात और आगे?-ब्रज की दुनिया

मित्रों,इन दिनों शादी-ब्याह का मौसम पूरे शबाब पर है। हो सकता है कि इस साल अब तक आपलोग भी कई-कई बार बाराती बन चुके हों। वैसे अब बारात जाने में वो बात कहाँ रही जो 20-30 साल पहले थी। पहले जो शान बैलगाड़ी और डोली में थी अब वो मर्सिडीज में भी कहाँ। तब अहले सुबह ही बारात गाँव से निकल पड़ती थी। रास्ते में कई जगहों पर जनवासा रखा जाता था। बैलगाड़ियों और कभी-कभी हाथियों पर भी सिर्फ आदमी ही लदे-फदे नहीं होते थे बल्कि जानवरों का चारा और बारातियों के लिए कच्ची-पक्की पर्याप्त खाद्य-सामग्री भी होती थी। लंबी यात्रा की थकान को ध्यान में रखते हुए विवाहोपरांत एक दिन मर्यादा के लिए रखा जाता था। इस दिन गीत-संगीत की महफिल सजती थी। वारांगनाएँ नृत्य करती थीं और आल्हा-गायक ओजस्वी स्वरों में आल्हा गाया करते थे जिनको सुनकर खाट पर पड़े बूढ़ों की भा नसें फड़कने लगती थीं। बार-बार बारातियों पर इत्रदानगुलेपाश से इत्र और गुलाबजल की बौछारें की जातीं और बार-बार परात में पान-सुपारी पेश किए जाते। जब नर्तकी किसी पोपले वृद्ध के साथ घूंघट साझा करके मुँहमांगी रकम की जिद करके बैठ जाती तब पूरा जनवासा कहकहों से गूँज उठता। महफिल के दौरान प्रश्नोत्तर का भी सत्र चलता और अंग्रेजी में बहस भी होती। बड़े-बुजुर्ग जहाँ महफिल का आनंद लेते बच्चे हाथियों को घेरे रहते। विदाई से बाद जब हाथी जाने लगते तब बच्चे उनके पीछे-पीछे हाथी-हाथी दाम दे घोड़े को लगाम दे चिल्लाते हुए दौड़ते। कभी-कभी हाथी पलटकर उनका पीछा भी करता मगर वे कौन-से उसके हाथ आनेवाले थे तीर की तरह भाग निकलते।
                       मित्रों,बारातियों को तब आदरपूर्वक बैठाकर भोजन कराया जाता था। समधी और दुल्हे के बहनोइयों का खास ख्याल रखा जाता था। पियक्कड़ई का तो नामोनिशान तक नहीं था। अगर कोई पियक्कड़ होता भी था वो अपवाद। जबकि आज बारात में अगर कोई शराब नहीं पीनेवाला होता है तो वह अपवाद बन जाता है। बारातियों को भरपुर शरबत पिलाई जाती थी और कभी-कभी तो अत्यंत अनूठे तरीके से। किसी कुएँ में पाँच-दस बोरी चीनी डाल दी फिर पीते रहिए जितनी शरबत पीनी हो। बारात अगर नजदीक के गाँव से आती थी तब बाराती नाश्ता-पानी करके घर चले जाते और फिर माल-मवेशी को चारा-पानी देकर भोजन के समय फिर से वापस आ जाते।
                 मित्रों,अब तो बिना डोली की शादियाँ होती हैं। आज से 20-25 साल पहले बिना डोली की शादी अकल्पनीय थी। दुल्हा और दुल्हन जब अलग-अलग डोलियों में बैठकर विदा होते तब रास्ते में बच्चे काफी दूर तक दुल्हे को छेड़ते हुए उनका पीछा करते। कई बार तो नावों पर दुल्हनों के आपस में बदल जाने की घटनाएँ भी हो जाया करती थीं। लेकिन अब शादियों में वो बात रही कहाँ? बाँकी संस्कारों की तरह शादियाँ भी अब औपचारिकता मात्र रह गईं हैं। लोग गाड़ियों में लद-फदकर रात में बारात लाते हैं। रास्ते में जनवासा होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बल्कि गाड़ियों को शराब की दुकानों पर अवश्य रोका जाता है और जमकर शराब पी जाती है। पहले जहाँ तुरतुरिया, सिम्हा और अंग्रेजी बैंड बजा करते थे अब मुआ डीजे पर बजनेवाले अश्लील गानों की धुन पर और शराब की पिनक पर लोग अजीबोगरीब नृत्य करते हैं। कई दफे तो महिलाएँ भी बाराती बनकर ऐसा करती हैं। फिर नाश्ता-पानी होता है और विदेशी कंपनियों द्वारा निर्मित कोल्ड-ड्रिंक पिलाई जाती है। फिर एक-दो घंटे के भीतर ही ताबड़तोड़ भोजन भी करा दिया जाता है। उसके बाद वर-पक्ष के 5-10 लोगों को छोड़कर बाँकी बाराती रात में ही गाड़ियाँ खुलवाकर घर चले आते हैं। बाँकी लोगों को भी सुबह होते ही वधू के साथ विदा कर दिया जाता है। एक दिन की मर्यादा और महफिल का तो सवाल ही नहीं।
                    मित्रों,अगर टेबुल-कुर्सी पर बिठाकर बारातियों को ससम्मान भोजन कराया गया तो ठीक नहीं तो बुफे सिस्टम में कुत्तों की तरह छीना-झपटी करते हुए खड़े-खड़े भोजन करना पड़ता है। कई बार तो इस धींगामुश्ती में परमादरणीय बुजूर्ग भूखे भी रह जाते हैं। लड़की वाले शांतिप्रिय रहे तो ठीक नहीं तो पियक्कड़ई के चलते गाली-गलौज और मारपीट की आशंका लगातार बनी रहती है। विवाह के किसी भी चरण में,विधि में कहीं भी भाव नहीं,आस्था नहीं,प्रेम नहीं,सबकुछ महज औपचारिकता।
                       मित्रों, जहाँ पहले जहाँ शादी से पहले वर-वधू के मिलने-जुलने और बातचीत करने को बुरा माना जाता था अब मोबाईल और कंप्यूटर के चलते ऐसी कोई रूकावट नहीं रह गई है। शादी के पहले अगर मंगनी हो गई हो तब तो वे साथ-साथ मौज-मस्ती और सैर सपोटे भी कर सकते हैं। वैसे जिस कुमार्ग पर हमारा समाज अग्रसर हो चुका है और जिस तरह कामुकता का जोर बढ़ रहा है,जिस तरह लिव ईन रिलेशनशिप का प्रचलन बढ़ रहा है मुझे तो इस बात का भी डर सता रहा है कि भविष्य में शादी नाम की यह औपचारिकता भी कहीं इतिहास के पन्नों में सिमट कर न रह जाए अथवा आपवादिक घटना न बन जाए। तब न तो कोई मैरेज एनिवरसरी ही मनाएगा,अखबारों में वर-वधू चाहिए का विज्ञापन नहीं दिखेगा,शादी डॉट कॉम जैसी वेबसाईटों के दफ्तरों पर ताले लटक जाएंगे और बैंडवालों,डीजेवालों,डोलीवालों,कैटरिनवालों के साथ-साथ शादी का लड्डू,चट मंगनी पट ब्याह,हड़बड़ी की शादी कनपटी में सिंदूर,कानी की शादी में 9-9 गो बखरा,हँसुआ के लगन आ खुरपी के बियाह जैसी अनगिनत कहावतें भी बेरोजगार हो जाएंगी।

बैंड,बाजा,बारात और आगे?-ब्रज की दुनिया

मित्रों,इन दिनों शादी-ब्याह का मौसम पूरे शबाब पर है। हो सकता है कि इस साल अब तक आपलोग भी कई-कई बार बाराती बन चुके हों। वैसे अब बारात जाने में वो बात कहाँ रही जो 20-30 साल पहले थी। पहले जो शान बैलगाड़ी और डोली में थी अब वो मर्सिडीज में भी कहाँ। तब अहले सुबह ही बारात गाँव से निकल पड़ती थी। रास्ते में कई जगहों पर जनवासा रखा जाता था। बैलगाड़ियों और कभी-कभी हाथियों पर भी सिर्फ आदमी ही लदे-फदे नहीं होते थे बल्कि जानवरों का चारा और बारातियों के लिए कच्ची-पक्की पर्याप्त खाद्य-सामग्री भी होती थी। लंबी यात्रा की थकान को ध्यान में रखते हुए विवाहोपरांत एक दिन मर्यादा के लिए रखा जाता था। इस दिन गीत-संगीत की महफिल सजती थी। वारांगनाएँ नृत्य करती थीं और आल्हा-गायक ओजस्वी स्वरों में आल्हा गाया करते थे जिनको सुनकर खाट पर पड़े बूढ़ों की भा नसें फड़कने लगती थीं। बार-बार बारातियों पर इत्रदानगुलेपाश से इत्र और गुलाबजल की बौछारें की जातीं और बार-बार परात में पान-सुपारी पेश किए जाते। जब नर्तकी किसी पोपले वृद्ध के साथ घूंघट साझा करके मुँहमांगी रकम की जिद करके बैठ जाती तब पूरा जनवासा कहकहों से गूँज उठता। महफिल के दौरान प्रश्नोत्तर का भी सत्र चलता और अंग्रेजी में बहस भी होती। बड़े-बुजुर्ग जहाँ महफिल का आनंद लेते बच्चे हाथियों को घेरे रहते। विदाई से बाद जब हाथी जाने लगते तब बच्चे उनके पीछे-पीछे हाथी-हाथी दाम दे घोड़े को लगाम दे चिल्लाते हुए दौड़ते। कभी-कभी हाथी पलटकर उनका पीछा भी करता मगर वे कौन-से उसके हाथ आनेवाले थे तीर की तरह भाग निकलते।
                       मित्रों,बारातियों को तब आदरपूर्वक बैठाकर भोजन कराया जाता था। समधी और दुल्हे के बहनोइयों का खास ख्याल रखा जाता था। पियक्कड़ई का तो नामोनिशान तक नहीं था। अगर कोई पियक्कड़ होता भी था वो अपवाद। जबकि आज बारात में अगर कोई शराब नहीं पीनेवाला होता है तो वह अपवाद बन जाता है। बारातियों को भरपुर शरबत पिलाई जाती थी और कभी-कभी तो अत्यंत अनूठे तरीके से। किसी कुएँ में पाँच-दस बोरी चीनी डाल दी फिर पीते रहिए जितनी शरबत पीनी हो। बारात अगर नजदीक के गाँव से आती थी तब बाराती नाश्ता-पानी करके घर चले जाते और फिर माल-मवेशी को चारा-पानी देकर भोजन के समय फिर से वापस आ जाते।
                 मित्रों,अब तो बिना डोली की शादियाँ होती हैं। आज से 20-25 साल पहले बिना डोली की शादी अकल्पनीय थी। दुल्हा और दुल्हन जब अलग-अलग डोलियों में बैठकर विदा होते तब रास्ते में बच्चे काफी दूर तक दुल्हे को छेड़ते हुए उनका पीछा करते। कई बार तो नावों पर दुल्हनों के आपस में बदल जाने की घटनाएँ भी हो जाया करती थीं। लेकिन अब शादियों में वो बात रही कहाँ? बाँकी संस्कारों की तरह शादियाँ भी अब औपचारिकता मात्र रह गईं हैं। लोग गाड़ियों में लद-फदकर रात में बारात लाते हैं। रास्ते में जनवासा होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। बल्कि गाड़ियों को शराब की दुकानों पर अवश्य रोका जाता है और जमकर शराब पी जाती है। पहले जहाँ तुरतुरिया, सिम्हा और अंग्रेजी बैंड बजा करते थे अब मुआ डीजे पर बजनेवाले अश्लील गानों की धुन पर और शराब की पिनक पर लोग अजीबोगरीब नृत्य करते हैं। कई दफे तो महिलाएँ भी बाराती बनकर ऐसा करती हैं। फिर नाश्ता-पानी होता है और विदेशी कंपनियों द्वारा निर्मित कोल्ड-ड्रिंक पिलाई जाती है। फिर एक-दो घंटे के भीतर ही ताबड़तोड़ भोजन भी करा दिया जाता है। उसके बाद वर-पक्ष के 5-10 लोगों को छोड़कर बाँकी बाराती रात में ही गाड़ियाँ खुलवाकर घर चले आते हैं। बाँकी लोगों को भी सुबह होते ही वधू के साथ विदा कर दिया जाता है। एक दिन की मर्यादा और महफिल का तो सवाल ही नहीं।
                    मित्रों,अगर टेबुल-कुर्सी पर बिठाकर बारातियों को ससम्मान भोजन कराया गया तो ठीक नहीं तो बुफे सिस्टम में कुत्तों की तरह छीना-झपटी करते हुए खड़े-खड़े भोजन करना पड़ता है। कई बार तो इस धींगामुश्ती में परमादरणीय बुजूर्ग भूखे भी रह जाते हैं। लड़की वाले शांतिप्रिय रहे तो ठीक नहीं तो पियक्कड़ई के चलते गाली-गलौज और मारपीट की आशंका लगातार बनी रहती है। विवाह के किसी भी चरण में,विधि में कहीं भी भाव नहीं,आस्था नहीं,प्रेम नहीं,सबकुछ महज औपचारिकता।
                       मित्रों, जहाँ पहले जहाँ शादी से पहले वर-वधू के मिलने-जुलने और बातचीत करने को बुरा माना जाता था अब मोबाईल और कंप्यूटर के चलते ऐसी कोई रूकावट नहीं रह गई है। शादी के पहले अगर मंगनी हो गई हो तब तो वे साथ-साथ मौज-मस्ती और सैर सपोटे भी कर सकते हैं। वैसे जिस कुमार्ग पर हमारा समाज अग्रसर हो चुका है और जिस तरह कामुकता का जोर बढ़ रहा है,जिस तरह लिव ईन रिलेशनशिप का प्रचलन बढ़ रहा है मुझे तो इस बात का भी डर सता रहा है कि भविष्य में शादी नाम की यह औपचारिकता भी कहीं इतिहास के पन्नों में सिमट कर न रह जाए अथवा आपवादिक घटना न बन जाए। तब न तो कोई मैरेज एनिवरसरी ही मनाएगा,अखबारों में वर-वधू चाहिए का विज्ञापन नहीं दिखेगा,शादी डॉट कॉम जैसी वेबसाईटों के दफ्तरों पर ताले लटक जाएंगे और बैंडवालों,डीजेवालों,डोलीवालों,कैटरिनवालों के साथ-साथ शादी का लड्डू,चट मंगनी पट ब्याह,हड़बड़ी की शादी कनपटी में सिंदूर,कानी की शादी में 9-9 गो बखरा,हँसुआ के लगन आ खुरपी के बियाह जैसी अनगिनत कहावतें भी बेरोजगार हो जाएंगी।

24.5.13

मेरी बेटी शाम्भवी का कविता-पाठ


       मित्रों ! आपने मेरी रचनाओं को तो पसन्द किया ही है, पर आज मैं आपको अपनी बेटी की आवाज़ से रूबरू कराना चाहता हूँ। वैसे तो माँ-बाप को पनी सन्तान सबसे अच्छी लगती ही है पर अगर वह मेरी बेटी जैसी हो तो फिर क्या कहना। आप देंखे, सुनें और अवश्य बतायें कि उसने मेरी पिछले पोस्ट की कविता के साथ कितना न्याय किया है.......

         PLEASE CLICK HERE :-     मेरी बेटी शाम्भवी का कविता-पाठ
                   

फैसले के अतिरिक्त टिप्पणियां करना कितना उचित?


इन दिनों एक जुमला बड़ा चर्चित है। वो है कि सीबीआई पिंजरे में कैद तोता है, जो केवल सरकार की भाषा बोलता है। असल में यह देश के सर्वोच्च न्यायालय की ओर से की गई टिप्पणी है, जिसका प्रतिपक्षी नेता जम कर इस्तेमाल कर रहे हैं। इस पर सैकड़ों कार्टून बन चुके हैं। हाल ही यूपीए टू सरकार के चार साल पूरे होने पर देश की राजधानी दिल्ली में भारतीय जनता युवा मोर्चा की ओर से जो रैली निकाली गई, उसमें तो बाकायदा तोते के एक पुतले को शामिल किया गया, जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में सीबीआई लिखा हुआ था।
बेशक न्यायालय की टिप्पणी विपक्ष को अनुकूल तो सरकार को प्रतिकूल पड़ती है, मगर निष्पक्ष रूप से विचार किया जाए तो सवाल ये उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के पास कानून के तहत फैसले सुनाने के अधिकार के साथ इस प्रकार की तीखी टिप्पणी करने का भी अधिकार है, जिसने एक संवैधानिक संस्था को इतना बदनाम कर दिया है, जिससे उसे कभी छुटकारा नहीं मिल पाएगा। यह एक नजीर जैसी हो गई है।
हालांकि यह सही है कि जिस मामले में यह टिप्पणी की गई है, उसमें सीबीआई ने सरकार के इशारे पर काम किया, इस कारण टिप्पणी ठीक ही प्रतीत होती है, मगर वह वाकई सरकार का गुलाम तोता ही होती तो सच-सच क्यों बोलती। उसने जो हल्फनामा पेश किया, उसमें भी सरकार की ओर से कही गई भाषा ही बोलती।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सीबीआई का कई बार दुरुपयोग होता है, या उसको पूरी तरह से स्वतंत्र होना ही चाहिए, उसके कामकाज में सरकारी दखल नहीं होना चाहिए, मगर टिप्पणी से निकल रहे अर्थ की तरह उसका दुरुपयोग ही होता है या दुरुपयोग के लिए ही उसका वजूद है अथवा वह पूरी तरह से सरकार के कहने पर ही चल रही है, यह कहना उचित नहीं होगा। अगर ऐसा ही होता तो वह केवल प्रतिपक्ष के नेताओं पर ही कार्यवाही करती, सरकारी मंत्रियों को शिकंजे में कैसे लेती? इसे यह तर्क दे कर काटा जा सकता है कि सरकार अपनी सुविधा के अनुसार उसका उपयोग करती है और बहुत राजनीतिक जरूरत होने पर अपने मंत्रियों को भी लपेट देती है, मगर यह बात आसानी से गले नहीं उतरती कि मात्र कोर्ट की टिप्पणी की वजह से ही सरकार ने अपने मंत्री शहीद कर दिए।
वस्तुत: न्यायालय ने यह टिप्पणी करके सीबीआई के अस्तित्व पर ही एक प्रश्रचिन्ह खड़ा कर दिया है। चूंकि सर्वोच्च न्यायालय सबसे बड़ी कानूनी संवैधानिक संस्था है, इस कारण वह किसी के भी बारे में कुछ भी टिप्पणी कर सकती है, इसको लेकर बहस छिड़ी हुई है। इसकी पहल की कांग्रेस के बड़बोले महासचिव दिग्विजय सिंह ने। हालांकि न्यायालय की अवमानना के डर से वे कुछ संभल कर बोले, मगर जन चर्चा में इस प्रकार की टिप्पणी को उचित नहीं माना जा रहा।
वैसे यह पहला मौका नहीं है कि न्यायपालिका की ओर से इस प्रकार की टिप्पणी आई है। इससे पूर्व भी वह ऐसी व्याख्या कर देती है, जिसमें शब्दों को उचित चयन न होने का आभास होता रहा है। विशेष रूप से पुलिस तो सदैव नीचे से लेकर ऊपर तक जलील की जाती रही है। माना कि पुलिस अधिकारी विशेष अगर गलत करता है तो उस पर टिप्पणी की जा सकती है, मगर वही टिप्पणी अगर पूरे पुलिस तंत्र पर चस्पा हो जाती है तो कहीं न कहीं अन्याय होता प्रतीत होता है।
आम धारणा है कि लोकतंत्र में न्यायपालिका सर्वोच्च है, मगर सच ये है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, तीनों एक दूसरे के पूरक तो होते ही हैं, नियंत्रक भी होते हैं। तीनों के पास अपने-अपने अधिकार हैं तो अपनी-अपनी सीमाएं भी। ऐसे ये कहना कि इन तीनों में न्यायपालिका सर्वोच्च है, गलत होगा। जहां विधायिका कानून बनाती है तो न्यायपालिका उसी कानून के तहत न्याय करती है। स्पष्ट सीमा रेखाओं के बाद भी दोनों के बीच कई बार टकराव होते देखा गया है। प्रधानमंत्रियों तक को न्यायपालिका को अपनी सीमा में रहने का आग्रह करना पड़ा है। इसकी वजह ये है कि न्यायपालिका की टिप्पणियों की वजह से कई बार विधायिका को बड़ी बदनामी झेलनी पड़ती है। कई बार तो ऐसा आभास होता है कि न्यायपालिका इस प्रकार की टिप्पणियां करके अपने आपको सर्वोच्च जताना चाहती है। वह यह भी प्रदर्शित करती प्रतीत होती है कि चूंकि विधायिका ठीक से काम नहीं कर रही इस कारण उसे कठोर होना पड़ रहा है। मगर सवाल ये है कि अगर न्यायपालिका के उच्च पदों पर बैठे व्यक्ति विशेष अगर अतिक्रमण करें और एक आदत की तरह फैसले के अतिरिक्त टिप्पणियां भी करे तो उसकी देखरेख कौन करेगा? अर्थात अगर कोई न्यायाधीश अलिखित रूप से कोई अवांछित टिप्पणी कर दे तो प्रभावित किस के पास अपील करे? कदाचित पूर्व में न्यायाधीश इस प्रकार की टिप्पणियां करते रहे होंगे, मगर आज जब कि मीडिया अत्यधिक गतिमान हो गया है तो फैसले की बजाय इस प्रकार की टिप्पणयां प्रमुखता से उभर कर आती हैं। और नतीजा ये होता है कि जिन न्यायाधीशों का उल्लेख करते हुए सम्मानीय शब्द का संबोधन करना होता है, उनके बड़बोले होने का आभास होता है।
आखिर में एक महत्वपूर्ण बात। अगर उच्चतम न्यायालय की ताजा टिप्पणी पर चर्चा करना अथवा उसके प्रतिकूल राय जाहिर करना उसकी अवमानना है तो उस टिप्पणी का विपक्षी दलों का अपने पक्ष में राजनीतिक इस्तेमाल या इंटरपिटेशन करना क्या है? क्या संदर्भ विशेष में न्यायालय की टिप्पणी करने के अधिकार की तरह अन्य किसी को भी उस टिप्पणी का हवाला देकर हमले करने का अधिकार है?
इस सिलसिले में हाल ही हुआ एक प्रकरण आपकी नजर है। बीते दिनों जब राजस्थान की राज्यपाल मारग्रेट अल्वा ने एक समारोह में कहा कि अधिकारी योजनाएं तो खूब बनाते हैं, मगर उनका क्रियान्वयन ठीक से नहीं होता, तो उनके बयान का प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे ने इस्तेमाल करते हुए सरकार पर हमला करना शुरू कर दिया। इस पर अल्वा को आखिर कहना पड़ा कि उनके बयान का राजनीतिक इस्तेमाल करना ठीक नहीं है और कम से कम राजनीतिक छींटाकशी में उन्हें तो मुक्त ही रखें।
-तेजवानी गिरधर

18.5.13

Ganga ke Kareeb: A little effort to aware people........!

Ganga ke Kareeb: A little effort to aware people........!: They are childern's , future of our country they want to aware people, perhaps,,, who are sleeping..... sleeping in a deep sleep w...

17.5.13

बसपा में टिकट के लिए माथापच्ची

जांजगीर-चांपा। बसपा में अक्सर देखा गया है कि शीर्ष नेतृत्व ने चुनाव में जो नाम तय कर लिया, वही पार्टी का उम्मीद्वार होता है। चुनाव के पहले भी किसी तरह की लॉबिंग नजर नहीं आती थी, लेकिन अब कांग्रेस व भाजपा की तरह बसपा में भी टिकट के लिए लॉबिंग शुरू हो गई है। बसपा के वरिष्ठ नेताओं ने तो प्रदेश के सभी 90 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कही है। जिले की बात करें तो 6 सीटों में से 3 के लिए प्रत्याशी के नाम का चयन हो गया है, मगर 3 सीटों पर पार्टी के नेताओं में ही रस्साकस्सी शुरू हो गई है। साथ ही बसपा के स्थानीय नेताओं ने अपनी जीत के दावे के साथ, शीर्ष नेतृत्व को साधना शुरू कर दिया है। इस दौरान जीत के दावे के अलावा राजधानी रायुपर तक चक्कर लगाए जा रहे हैं। इस तरह बसपा में भी टिकट की माथापच्ची शुरू हो गई है। जांजगीर-चांपा विस से पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ता व जिला पंचायत के पूर्व सदस्य मेलाराम कर्ष की दावेदारी के बाद, अन्य संभावित उम्मीद्वारों की नींद हराम हो गई है, क्योंकि श्री कर्ष, बसपा के साथ बरसों से जुड़े हुए हैं और जमीनी स्तर के कार्यकर्ता माने जाते हैं। लिहाजा, बसपा की राजनीति में अचानक ही हलचल बढ़ गई है।
इधर जिले की सीटों पर बसपा की खास नजर है, क्योंकि वर्तमान में पार्टी के 2 विधायक काबिज हैं। साथ ही पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा के कई प्रत्याशियों ने विधानसभा चुनाव में दमदार उपस्थिति दर्ज कराई थी। यही वजह रही कि पामगढ़ के सीटिंग एमएलए दूजराम बौद्ध के साथ ही जैजैपुर से केशव चंद्रा और सक्ती विधानसभा से सहसराम कर्ष का नाम पहले से ही तय हो गया है। इसके इतर अकलतरा, जांजगीर-चांपा व चंद्रपुर विधानसभा सीटों से नाम फाइनल होना शेष है, जिसके लिए संभावित उम्मीद्वारों ने जोर आजमाइश शुरू कर दी है।
छग में बहुजन समाज पार्टी ने नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए प्रत्याशियों के नाम की पहली सूची जारी किया और निश्चित ही चुनावी तैयारी में आगे रही। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति में राजधानी रायपुर से लेकर कई अन्य शहरों में भी बसपा की बैठकें होने की खबर है। पिछले दिनों पार्टी के वरिष्ठ नेता राजाराम का बयान आया है कि जिन सीटों पर नाम तय नहीं हुआ है, उसमें मई अंत तक फैसला ले लिया जाएगा। यही कारण है कि जिले की, जो 3 सीटों पर नाम तय नहीं हुआ है, उसके लिए दावेदारों के साथ ही, पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में माथापच्ची शुरू हो गई है, क्योंकि जीत के दावे सभी दावेदार कर रहे हैं। ऐसे में सशक्त व जीत दर्ज कर बसपा का परचम लहरा सकने वालों पर, वरिष्ठ नेताओं की नजर बनी हुई है।
पार्टी सूत्रों का कहना है कि पिछले विधानसभा चुनाव में कुछ सीटों में प्रत्याशी चयन में चूक हुई थी, जिसकी वजह से पार्टी को काफी नुकसान हुआ। हालांकि, वरिष्ठ नेता इस बात से भी संतुष्ट नजर आते हैं कि पामगढ़ व अकलतरा की सीट बसपा की झोली में आई और जैजैपुर, सक्ती तथा चंद्रपुर में पार्टी प्रत्याशियों ने जमदार उपस्थिति दर्ज कराई थी। यहां तक जैजैपुर विस में तो बसपा के प्रत्याशी केशव चंद्रा ने दूसरा स्थान हासिल कर राजनीतिक गणित को ही बदल दिया था एवं सत्ताधारी दल भाजपा के प्रत्याशी निर्मल सिन्हा को तीसरे स्थान पर ढकेल दिया। इस तरह पिछले चुनाव की तरह ही जिले में पूरी मजबूती के साथ बसपा के उतरने के दावे, पार्टी के वरिष्ठ नेताओं द्वारा भी किए जा रहे हैं। महीनों पहले जांजगीर के हाईस्कूल मैदान में बसपा का बड़ा सम्मेलन भी आयोजित हुआ था, जहां कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने पार्टी महासचिव राजाराम पहुंचे थे। साथ ही कई वरिष्ठ नेता भी उपस्थित थे। इस दौरान भी पार्टी का डंका विधानसभा चुनाव में बजाने के लिए कार्यकर्ताओं ने जोर-शोर से संकल्प लिया था। ऐसे में आने वाले विधानसभा चुनाव में कई सीटों पर चुनावी गणित को बिगाड़ने में, बसपा कामयाब हो सकती है। दूसरी ओर पामगढ़ में बसपा काफी मजबूत स्थिति में नजर आ रही है। यदि वहां कांग्रेस व भाजपा ने प्रत्याशी चयन में चूक की तो पामगढ़, एक बार फिर बसपा की झोली में जा सकती है। अन्य सीटों पर भी बसपा कड़ी टक्कर देने की स्थिति में नजर आ रही है। अब देखने वाली बात होगी कि आने वाले दिनों में जिले का राजनीतिक परिदृश्य क्या होता है ? और बसपा को कितना नफा या नुकसान होता है ?

बसपा मुक्ति मोर्चा का भी पड़ेगा प्रभाव
बहुजन समाज पार्टी से निष्कासित किए जाने के बाद पूर्व प्रदेशाध्यक्ष दाऊराम रत्नाकर ने ‘बहुजन समाज मुक्ति मोर्चा पार्टी’ बनाया है और कार्यकर्ताओं को जोड़ना भी शुरू कर दिया है। बताया जाता है कि बसपा के अधिक कार्यकर्ता ही, उनके साथ आ रहे हैं, क्योंकि पार्टी में कई दशकों तक उनका दखल बना हुआ था। बसपा के अनेक कार्यकर्ता, बसपा मुक्ति मोर्चा के साथ, चुनाव नजदीक आने पर ताल ठोंक सकते हैं, हालांकि अभी सीधे तौर पर श्री रत्नाकर के साथ वे नजर नहीं आ रहे हैं। इतना जरूर है कि बसपा से जिन नेताओं को टिकट नहीं मिलेगी, उनकी बसपा मुक्ति मोर्चा के जुड़ने की संभावना अधिक जतायी जा रही है।
जांजगीर में पिछले दिनों प्रेस कांफ्रेस आयोजित कर श्री रत्नाकर ने विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों को उतारने की बात कही थी। उनकी जिले की सीटों पर खासी नजर है, क्योंकि वे यहां से बिलांग करते हैं। बरसों तक बसपा में यहीं से राजनीति करते रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि बसपा की तर्ज पर बसपा मुक्ति मोर्चा की भी विचारधारा स्व. कांशीराम से ओत-प्रोत है। ऐसे में ‘एक विचारधारा और दो पार्टी के काम्बिनेशन’ को मतदाता कितना तवज्जो देंगे, यह तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा ?

अकलतरा से कौन होगा बसपा प्रत्याशी ?
अकलतरा विधानसभा से बसपा की टिकट पर सौरभ सिंह चुनाव जीते थे। हालांकि, वे चुनावी जीत के बाद से ही बसपा से कटे-कटे रहे। पार्टी कार्यक्रमों से भी उनका किनारा रहा। चर्चा है कि अकलतरा विधायक श्री सिंह, कांग्रेस में शामिल होंगे। इसके लिए कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सीढ़ी तैयार कर ली है। अब सवाल यह है कि बसपा, अकलतरा विधानसभा सीट से इस बार किसे अपना प्रत्याशी बनाएगी ? ठीक है, क्षेत्र में कई ऐसे कार्यकर्ता होंगे, जो पार्टी के लिए बरसों से काम करते रहे होंगे, मगर चुनाव जीतने में, क्या वे कामयाब होंगे ? ऐसी कई बातें रहेंगी, जिस पर गौर करके ही पार्टी, टिकट देगी। वैसे भी सभी की नजर अभी अकलतरा विधानसभा सीट पर है, क्योंकि बसपा से सौरभ सिंह ने अलविदा करने का पूरी तरह मन बना लिया है, केवल ‘कांग्रेस प्रवेश’ की औपचारिक घोषणा ही बाकी रह गई है। दूसरी ओर बसपा के वरिष्ठ नेता राजाराम ने रायपुर में मीडिया को जारी बयान में अकलतरा विधायक श्री सिंह पर कड़ी टिप्पणी की हैं। ऐसे में समझा जा सकता है कि बसपा की राजनीतिक फिजां भी गरमा गई है।

16.5.13

लोभी जनता ठग सरकार-ब्रज की दुनिया


मित्रों,काफी दिन पहले मैंने प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित होनेवाली मासिक पत्रिका बाल भारती में एक बाल कहानी पढ़ी थी। एक राज्य में वयोवृद्ध राजा की मृत्यु के बाद उसका युवा पुत्र राजा बना। वह बड़ा दानी और दयालु था। दोनों हाथों से दान करता। उसके राज्य में कोई भी दुःखी नहीं था सिवाय वृद्ध मंत्री के। धीरे-धीरे खजाने में राजस्व वसूली घटने लगी और खजाना खाली हो गया। दुःखी राजा ने मंत्री से इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि महाराज अंधाधुंध दान-वितरण के चलते लोग आलसी होते जा रहे हैं क्योंकि उनकी जरुरतें बैठे-बिठाए ही पूरी हो जा रही हैं। राजा द्वारा समाधान जानने की ईच्छा प्रकट करने पर मंत्री ने सुझाव दिया कि दान बंद कर उसी राशि से नए उद्योग-धंधे स्थापित किए जाएँ।
                          मित्रों,बचपन की पढ़ी एक और कहानी याद आ रही है। वह कहानी भी एक दानवीर से ही संबंधित है। परंतु वह दानवीर राजा नहीं था अपितु एक अमीर व्यवसायी था। वह व्यवसायी दान में खुल्ले पैसे नहीं देता था बल्कि मोटी रकम देता था और लाभार्थी को खुद का व्यवसाय शुरू करने के लिए प्रोत्साहित भी करता था। उसने प्रत्यक्ष अनुभव किया था कि लोग भीख में मिले पैसों को खा-पीकर उड़ा देते हैं और फिर से भीख प्राप्त करने पहुँच जाते हैं जबकि उद्यम-व्यवसाय से उनको स्थायी लाभ होता है।
                   मित्रों,अब कल्पना कीजिए कि अगर पहली कहानी के राजा के राज्य में राजतंत्र के स्थान पर लोकतंत्र होता और राजा मनमोहन सिंह होते तब क्या होता? तब निश्चित रूप से वहाँ वही होता जो इस समय भारत में हो रहा है। तब राजा खैरात बाँटना बंद नहीं करता चाहे राज्य अराजकता और दिवालियेपन का शिकार ही क्यों न हो जाता। चाहे देश को एक बार फिर सोने को गिरवी ही क्यों न रखना पड़ता। तब राजा संसद से लेकर गाँव तक नोट फॉर वोट का गंदा खेल खेलता और लगातार चुनाव जीतता रहता,रोज-रोज नए-नए घोटाले करता रहता।
           मित्रों,अपने देश में पहले जहाँ सिर्फ चुनावों के समय पैसे बाँटकर वोट खरीदे जाते थे और अवैध तरीके से नजर बचाकर बाँटे जाते थे अब केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा खुलेआम और कानूनी तरीके से बाँटे जा रहे हैं। इतना ही नहीं अब मतदाताओं के बीच सिर्फ पैसे ही नहीं बाँटे जा रहे हैं बल्कि इसके अलावा कोई लैपटॉप बाँटता है तो कोई साईकिल तो कोई अनाज तो कोई टीवी-रेडियो और और भी बहुत कुछ। राजा भी मस्त और जनता भी प्रफुल्लित। एक भ्रष्टाचरण द्वारा मलाई चाभकर खुरचन जनता को थमा दे रहा है तो दूसरा भिखारी बनकर,मुफ्त की रोटियाँ तोड़ने में मस्त है। इस तरह भारत में इन दिनों एक नई तरह की अर्थव्यवस्था का निर्माण हो रहा है (और केंद्र सरकार कहती है कि हो रहा भारत निर्माण) जिसे अंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्री अगर चाहें तो खैराती अर्थव्यवस्था का नाम दे सकते हैं। अगर आप भी इस समय भारत में रहते हैं और केंद्र सरकार की धूर्तता से धूर्ततापूर्वक लाभ उठाना चाहते हैं तो आपको भी चाहिए कि अपना नाम 100-50 रुपया देकर बीपीएल सूची में डलवा लीजिए और फिर आपका और आपके पूरे परिवार का जन्म से लेकर मृत्यु तक बहुत सारा भार सरकार उठायेगी। आप वास्तव में अमीर भी हैं तो कोई बात नहीं आप कागजी तौर पर खराब ताउम्र गरीब बने रह सकते हैं कोई भी आपको रोकेगा-टोकेगा नहीं।
                          मित्रों,मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते हुए शुरू की गई नई आर्थिक नीति से हमारे देश की अर्थव्यवस्था को जो कुछ भी कथित लाभ हुआ था प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह उसे नई खैराती और घोटालावेशी अर्थव्यवस्था द्वारा बर्बाद कर चुके हैं। कदाचित् अब भी मनमोहन की समझ में यह नहीं आया होगा कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की वास्तविक महाशक्ति बहुर्राष्ट्रीय पूंजीपति हैं न कि बड़ी जनसंख्यावाले बाजार।
                   मित्रों,जब सरकार का ध्यान उत्पादन और निर्यात बढ़ाने के बदले खैरात बाँटने पर होगा तो फिर क्यों कर उत्पादन और निर्यात में अपेक्षित वृद्धि होने लगी? खैरात बाँटने से खजाने को तो क्षति पहुँच ही रही है खैरात का ज्यादातर पैसा जनता तक पहुँच भी नहीं रहा है बल्कि भ्रष्ट तंत्र की भेंट चढ़ जा रहा है। इस तरह देश को दोहरी क्षति उठानी पड़ रही है। हमारी वर्तमान केंद्र सरकार इन दिनों भोजन के अधिकार के नाम पर खैरात में 6 लाख करोड़ रुपए सालाना की बढ़ोत्तरी करने की कोशिश में है। निश्चित रूप से यह  योजना भी भविष्य में तेल,चीनी,गेहूँ और चावल की तरह ही भ्रष्ट जनवितरण प्रणाली के हत्थे चढ़ जानेवाली है और भोजन का अधिकार एक नारा बनकर रह जानेवाला है।
                              मित्रों,सरकारों को अगर देना ही है तो जनता को साईकिल के बदले अच्छी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे,लैपटॉप के बदले टॉप क्लास की फैकल्टी दे,पैसों और कम मूल्य पर अनाज के बदले स्थायी और गरिमापूर्ण रोजगार दे। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि वैशाखी चाहे सोने की ही क्यों न हो वैशाखी ही होती है और भीख का कटोरा चाहे रत्नजटित ही क्यों न हो भीख का कटोरा ही होता है। खैरात बाँटकर दस-बीस सालों तक देश पर राज जरूर किया जा सकता है,लूटा जरूर जा सकता है लेकिन देश को वैश्विक अर्थव्यवस्था का सिरमौर नहीं बनाया जा सकता। दुनिया में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि कोई देश जनता के बीच केवल खैरात बाँटकर महाशक्ति बन गया हो। लोककल्याणकारी कार्य अवश्य होने चाहिए लेकिन इन कार्यों और विकास के कार्यों के बीच एक व्यावहारिक संतुलन भी जरूर होना चाहिए। आखिर वर्तमान केन्द्र सरकार और कुछेक राज्य सरकारों का उद्देश्य क्या है? क्या वे हमारे देश और प्रदेश को विकसित करने की सोंच और ईच्छाशक्ति रखती हैं या फिर वे पैसे और खैरात बाँटकर पूरे मनोयोग से लोभियों के गाँव में कभी ठग भूखा नहीं मरता कहावत को चरितार्थ करने में जुटे हुए हैं? अर्थशास्त्र और इतिहास तो यही कहता है कि नवीन अनुसंधान,निर्यात और उत्पादन ही हैं जो किसी भी अर्थव्यवस्था को महान् और महानतम बनाते हैं न कि जनाधिक्य,आयात और खैरात। इसलिए सरकार को चाहिए कि बेवजह की योजनाओं को बंद करे,बेकार की नई योजनाएँ न लाए,जनता पहले से ही अधिकारों के आधिक्य से पीड़ित है इसलिए उसको नए अधिकार भी नहीं दिए जाएँ बल्कि उसी पैसे से उद्योग-धंधे स्थापित करे,आधारभूत संरचना का विकास करे और न्याय को द्रुत बनाए। देना ही है तो हर हाथ को काम दे फिर हाथ खुद ही अपना पेट भर लेगा। सीधे-सीधे पेट भरने का प्रयास कहानी संख्या एक और दो की तरह मूर्खतापूर्ण तो है ही देश और देश की अर्थव्यवस्था के लिए आत्मघाती भी है।

13.5.13

’कांग्रेस’ हित में नहीं, ये नीति ?

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस, राज्य निर्माण के पहले जितनी सशक्त थी, अपनी नीतियों की वजह से कुछ बरसों में कमजोर होती गई। यही वजह रही कि कांग्रेस के ‘हाथ’ से सत्ता भी खिसक गई और उसके बाद पिछले 9 बरसों से कांग्रेस व कांग्रेसी, वनवास झेल रहे हैं। देखा जाए तो कांग्रेस के हालात सुधरे नहीं हैं। इतना जरूर है कि पहले की स्थिति से कांग्रेस मजबूत हुई है, किन्तु चुनाव के पहले, जिस तरह की नीति अपनायी जा रही है, वह कहीं कांग्रेस के लिए ही घातक साबित न हो जाए ? वैसे तो सभी पार्टियों में देखने में आता है कि ऐन चुनाव के पहले रूठों को मनाया जाता है, या फिर जिन्होंने किसी कारण से पार्टी से दूरी बना ली थी, उनके लिए पार्टी में आने के द्वार खोल दिए जाते हैं। सबसे अहम सवाल यही है कि क्या, ऐसे लोगों से पार्टी का भला हो पाता है ? पुराने रेकार्ड को भी खंगाला जाए तो बहुत कम ही ऐसे उदाहरण मिलेंगे, जिसमें कभी विरोध में रहे नेताओं के ‘साथ’ आने से पार्टी को लाभ हुआ हो ? अधिकतर मामलों में पार्टियों को नुकसान ही होता है। पता नहीं, पार्टी के वरिष्ठ नेता अपनी किस रणनीति के तहत ऐसे निर्णय लेते हैं, जो पार्टी के कदम को अग्रसर करने के बजाय, रोड़ा साबित होता है।
2000 में जब छत्तीसगढ़, अलग राज्य बना, उस दौरान कांग्रेस को विधायकों की अधिक संख्या की वजह से चुनाव के बगैर ही, सरकार बनाने का मौका मिला। निश्चित ही, इस समय कांग्रेस का वर्चस्व कायम था। सरकार बनने के बाद भी कांग्रेस की साख कमजोर नहीं हुई थी, लेकिन कांग्रेसियों के मध्य ही आपसी कलह के कारण ही, कांग्रेस को सत्ता से दूर होना पड़ा, जो वनवास अब भी जारी है। उस दौरान कांग्रेस के ही वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल, पार्टी से बगावत करके राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए। उनके साथ छग के सैकड़ों बड़े चेहरे भी हो लिए और प्रदेश की सभी 90 सीटों पर चुनाव भी लड़ा गया। आलम यह रहा कि कांग्रेस को चारों-खाने चित्त करने में ‘बागी कांग्रेसियों’ का हाथ रहा। इस तरह भाजपा को सत्ता का स्वाद चखने का मौका मिल गया, जिसे 2003 के बाद, 2008 के चुनाव में भी भुनाया गया। इस दौरान भी कांग्रेसी, एक-दूसरे को हराने में लगे रहे। कहने का मतलब यही है कि कांग्रेस, खुद से हारती है, इसके लिए उसकी नीति ही जिम्मेदार मानी जा सकती है। बाद में विद्याचरण शुक्ल ने भाजपा में शामिल होकर महासमुंद से लोकसभा चुनाव भी लड़ा, उस दौरान भी अनेक ‘कथित कांग्रेसी’ उनके साथ रहे। बावजूद, कांग्रेस में उनकी वापसी हुई और उनके साथ फिर वही कांग्रेसी, वापस आए, जो कभी ‘पंजा’ के खिलाफ वोट डालने के लिए गांव-गांव, घर-घर पहुंचे थे।
कांग्रेस, किन नेता को ‘कल का भूला’ बताकर, पार्टी में शामिल करती है, यह उनके अंदरूनी मामले हो सकते हैं, लेकिन कांग्रेस आलाकमान, पार्टी हित में यदि सोचे तो समझा जा सकता है कि जिन नेताओं ने कांग्रेस को कमजोर किया और पार्टी के खिलाफ जाकर चुनावी बिगुल फूंका, वैसे नेताओं की खिदमतगारी, कांग्रेस के हित में नहीं मानी जा सकती। एक तरह से कहें तो कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाई, ऐसे लोगों की वापसी से कांग्रेस का, कितना भला होगा, बड़ा सवाल है ? कई बार कांग्रेस में शामिल होने वालों को ‘कांग्रेसी मूल विचारधारा’ के होने का हवाला दिया जाता है, किन्तु ऐसा तर्क गढ़ने वाले कांग्रेसी नेता, यह बता नहीं पाते कि वैसे ‘बागी’ लोगों की कांग्रेस में वापसी से पार्टी को कितना लाभ होगा ? हमारा मानना है कि जिन्होंने पार्टी को गर्त में ढकेला और कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया, ऐसे लोगों के ‘मनुहार’ को लेकर कांग्रेस के हाईकमान को जरूर सोचना चाहिए। निश्चित ही, जब भी किसी बागी नेता की पार्टी में वापसी होती है तो उसमें हाईकमान की सहमति होती है, किन्तु यह भी सही है कि कई बड़े नेता, क्षेत्रीय स्थिति की सही जानकारी न देकर, भ्रम में रखकर तथा वापसी को पार्टी हित में बताकर साथ ले लेते हैं, किन्तु धरातल पर हालात अलग होते हैं, जिसका नतीजा, कांग्रेस की हार के तौर पर सामने आता है। छग में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब कांग्रेस को ऐसी स्थिति में नुकसान हुआ है और कांग्रेस के कई कर्मठ सिपहसालारों का भी अहित हुआ है। राजनीति के जानकार मानते हैं कि कांग्रेस को ऐसे हालात बनने और बनाने से बचना चाहिए, तब कहीं जाकर ‘सत्ता की चाबी’ हाथ आ सकती है और 10 साल के ‘वनवास’ से बेड़ा पार लग सकता है।
राहुल गांधी, साल भर पहले जब रायपुर पहुंचे थे, तो उन्होंने कांग्रेसियों को रिचार्ज किया था और कई बातें पार्टी हित में कही थी, लेकिन लगता है कि उन बातों का असर कांग्रेसी कर्ता-धर्ताओं को नहीं हुआ है, तभी तो कई निर्णय हैं, जिसे लेने से कांग्रेस का हित नहीं हो सकता, वैसे ही निर्णय लेने की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। दूसरी बात, राहुल गांधी, जब कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने, उस दौरान उन्होंने सत्ता पाने के लिए कांग्रेसियों की आंख खोल देने वाली कई बातें कही थी। बावजूद, छग में कांग्रेस को मजबूती देने के बजाय, कुछ ऐसे निर्णय लिए जा रहे हैं या लिए जाने के संकेत दिए जा रहे हैं, जो पार्टी को सत्ता की राह पर जाने से ही रोक सकते हैं। राहुल गांधी ने यह भी कहा था कि पार्टी को मजबूत करना है तो युवा और उन ऊर्जावान कार्यकर्ताओं को सामने लाओ, चुनाव में उनको मौका दो, जो पार्टी हित में बरसों से काम करते आ रहे हैं, उन्हें नहीं, जो पार्टी की राह से ही भटकर कहीं और का दामन थाम लिया हो। उन्होंने सीधे तौर पर कहा था कि जिन्होंने पार्टी के प्रति पूरी वफादारी दिखाई हो। पार्टी को कभी पिठ न दिखाई हो या कहें, कांग्रेस को गर्त में डूबोने का काम न किया हो। ऐसे कांग्रेस कार्यकताओं को आगे लाने का काम होना चाहिए। राहुल गांधी की बातों को कांग्रेसी, आत्मसात करने के दावे करते हैं, लेकिन दिल्ली में कही उन बातों का वजन, छग आते-आते कमजोर हो जाता है। निश्चित ही, छग में कांग्रेस व कांग्रेसी, सत्ता तो चाहते हैं, लेकिन उन नीतियों पर अमल नहीं किया जाता, जिससे होकर ‘सत्ता’ का रास्ता तैयार होता है।
खैर, विधानसभा चुनाव तो नवंबर में होना है, मगर छग कांग्रेस द्वारा लिए जा रहे कुछ निर्णय, जरूर कांग्रेस के ही अंदरूनी धड़ों के मन में असंतोष पैदा कर रहा है। कहा जाता है कि ‘दूध का जला, छांछ को भी फूंक-फूंककर पीता है, लेकिन कांग्रेस के लिए यह ‘कहावत’ बेमानी नजर आती है, तभी तो वही गलतियां बार-बार दोहरायी जा रही हैं, ऐसे निर्णय लिए जा रहे हैं, जो पार्टी हित में नहीं हो सकते। यही कहा जा सकता है कि कांग्रेसी, सत्ता हासिल करने की बात तो करते हैं, लेकिन राहुल गांधी या हाईकमान की बातों की बेपरवाही करके। ऐसे में यदि कांग्रेस, इस बार के विधानसभा चुनाव में भी मात खाती है तो फिर उनकी वही नीतियां ही जिम्मेदार होंगी, जिसके कारण, पिछले दो चुनावांे के बाद से कांग्रेस, ‘वनवास’ झेल रही है।

राजकुमार साहू
लेखक पत्रकार हैं।
मोबा - 074897-57134, 098934-94714

8.5.13

अन्ना और केजरीवाल एक ही हैं?


प्रत्यक्षत: भले ही देश के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे और आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल अलग-अलग हों, मगर स्थानीय स्तर पर दोनों के कार्यकर्ता एक ही हैं। आगामी 10 मई को अन्ना हजारे के अजमेर आगमन पर उनके स्वागत और आमसभा की व्यवस्था आम आदमी पार्टी की अजमेर प्रभारी श्रीमती कीर्ति पाठक के नेतृत्व में ही की जा रही है।
ज्ञातव्य है कि जनलोकपाल के एकजुट हो कर आंदोलन करने के बाद केजरीवाल और उनकी टीम ने अन्ना से अलग हो कर आम आदमी पार्टी का गठन किया और सक्रिय राजनीति में आ गए। अब तो आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव में उतरने की तैयारियां तक चल रही हैं। अन्ना हजारे ने केजरीवाल के अलग होने पर नए सिरे से टीम अन्ना का गठन किया, जिसमें पूर्व सेना प्रमुख वीके सिंह को प्रमुख रूप से शामिल किया गया। पूर्व आईपीएस किरण बेदी सहित अनेक सामाजिक कार्यकर्ता तो उनके साथ हैं ही। टीम अन्ना में हुई इस दोफाड़ से आंदोलन कमजोर पडऩे की आशंका में कई कार्यकर्ताओं को निराशा भी हुई। कुछ कार्यकर्ता तो सीधे ही आम आदमी पार्टी में शमिल हो गए, जबकि कुछ ने अन्ना हजारे के साथ रहना ही पसंद किया और फिलहाल  वे घर बैठ गए। जहां तक श्रीमती कीर्ति पाठक का सवाल है, यह सबको पता है कि अजमेर में अन्ना आंदोलन को चलाने का श्रेय उनको व उनकी टीम को ही जाता है, मगर आम आदमी पार्टी का गठन हुआ तो वे उसमें शामिल हो गईं। आज वे अजमेर की प्रभारी हैं, मगर उन्होंने अपने आपको अन्ना हजारे के आंदोलन से अलग नहीं किया। ऐसे में जाहिर है कि जब अन्ना हजारे का अजमेर का कार्यक्रम बना तो सीधे उनसे ही संपर्क किया गया और उन्होंने सहर्ष सारी व्यवस्था करने का जिम्मेदारी ले ली। इस कार्यक्रम को सफल बनाने में उनके प्रमुख सहयोगी दीपक गुप्ता, सुशील पाल, नील शर्मा, दिनेश गोयल आदि हाथ बंटा रहे हैं। दिलचस्प बात ये है कि आम आदमी पार्टी के ये सभी कार्यकर्ता अन्ना हजारे के कार्यक्रम को अंजाम देने के लिए  जनतंत्र मोर्चा के बैनर तले जुटे हुए हैं। यह जनतंत्र मोर्चा कब गठित हुआ, इसकी जानकारी तो नहीं है, मगर ताजा गतिविधि से यह स्पष्ट है कि कम से कम अजमेर में तो आम आदमी पार्टी और जनतंत्र मोर्चा एक ही हैं, उसके कार्यकर्ता भी समान हैं, बस बैनर अलग-अलग नजर आते हैं। लगता ये है कि आम आदमी पार्टी में गई श्रीमती पाठक अपने साथ पूरी टीम को एकजुट किए हुए हैं, इस कारण अन्ना हजारे को जनतंत्र मोर्चा के लिए अलग से कोई नेतृत्व करने वाला मिला ही नहीं। ऐसे में इस बात की सहज ही कल्पना की जा सकती है कि आम आदमी पार्टी की ओर से उन्हें अन्ना के कार्यक्रम को सफल बनाने की हरी झंडी दी गई होगी। बहरहाल, राष्ट्रीय स्तर पर भले ही अन्ना व केजरीवाल अलग-अलग हों, मगर अजमेर में एक ही नजर आते हैं। कदाचित और स्थानों पर भी कुछ ऐसा ही हो। इससे तनिक संदेह भी होता है कि कहीं वे किसी एजेंडे विशेष के लिए अलग-अलग होने का नाटक तो नहीं कर रहे। इस बारे में जब अन्ना कह ही चुके हैं कि वे भले ही अलग-अलग रास्ते पर हैं, मगर उनका उद्देश्य तो एक ही है। ऐसे में अगर दोनों के कार्यक्रमों को एक ही कार्यकर्ता अंजाम देते हैं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
खैर, अन्ना हजारे की सभा के लिए श्रीमती पाठक दिन-रात एक किए हुए हैं। ऐसे आयोजन में खर्च भी होता है, सो गैर राजनीतिक और उदारमना देशप्रेमियों से चंदा भी एकत्रित किया जा रहा है। आप समझ सकते हैं इस जमाने में बिना किसी लाभ के कौन चंदा देता है, हर कोई उसके एवज में कुछ न कुछ चाहता ही है, ऐसे में चंदा एकत्रित करना कितना कठिन काम होगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है, चूंकि फिलवक्त दोनों संगठनों के पास देने को कुछ नहीं है। वैसे, कार्यकर्ताओं में जैसा उत्साह है, उम्मीद की जा रही है कि अन्ना हजारे का आकर्षण और उनकी मेहनत से सभा सफल होगी।
ज्ञातव्य है कि अन्ना हजारे 10 मई को यहां आजाद पार्क में सभा को संबोधित करेंगे। उनके साथ पूर्व सेना प्रमुख वीके सिंह, वल्र्ड सूफी काउंसिल के चेयरमैन सूफी जिलानी और चौथी दुनिया के प्रधान संपादक संतोष भारतीय भी होंगे। हजारे दोपहर 12 बजे अजमेर आएंगे। परबतपुरा बाइपास पर उनका स्वागत किया जाएगा। उसके बाद वाहन रैली के रूप में शहर के विभिन्न मार्गों से होते हुए ऋषि उद्यान पहुंचेंगे। इसके बाद हजारे पुष्कर जाएंगे। उसके बाद दरगाह जाकर जियारत करेंगे। इसके बाद शाम 6.30 बजे आजाद पार्क में सभा को संबोधित करेंगे।
-तेजवानी गिरधर

जब हरे हो गए हरीश रावत के जख़्म..!


कर्नाटक चुनाव नतीजों पर एक राष्ट्रीय समाचार चैनल पर चर्चा जारी थ। पैनल में कांग्रेस की तरफ से केन्द्रीय मंत्री हरीश रावत थे तो दूसरी ओर थे भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी। कर्नाटक में रुझान कांग्रेस के पक्ष में जाते दिखाई दे रहे थे। ऐसे में हरीश रावत का इतराना लाजिमी था। आखिर केन्द्र सरकार के एक के बाद एक कभी न खत्म होने वाले घोटालों की फेरहिस्त से कांग्रेस की हो रही फजीहत के बाद कर्नाटक चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए राहत की खबर लेकर आ रहे थे।
कांग्रेस की सरकार बनने की स्थिति में कर्नाटक में मुख्यमंत्री कौन बनेगा इस पर जब एंकर ने हरीश रावत से सवाल किया तो रावत साहब के जख्म एक बार फिर से हरे हो गए..! ये वही जख्म थे जो उत्तराखंड विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी न मिलने पर हरीश रावत को मिले थे..! हालांकि हरीश रावत ने इसको अपने चेहरे पर जाहिर नहीं होने दिया और रावत साहब ने बड़ी ही  सहजता से जवाब दिया कि मुख्यमंत्री को लेकर फैसला शीर्ष नेतृत्व करेगा और जिसके नेता के नाम पर कांग्रेस आलाकमान हरी झंडी दिखा देगा वही कर्नाटक का  मुख्यमंत्री बनेगा।
हरीश रावत साहब ने इस सवाल का जवाब तो दे दिया लेकिन इस जवाब को देने में रावत साहब को दर्द भी खूब हुआ होगा क्योंकि इसी सवाल के केन्द्र में उत्तराखंड विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद वे खुद थे। जब उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनने पर मुख्यमंत्री की कुर्सी के हरीश रावत प्रबल दावेदार थे लेकिन कुर्सी मिल गयी थी दूर दूर तक दौड़ में शामिल न रहने वाले तत्कालीन टिहरी सांसद विजय बहुगुणा को..!
आज हरीश रावत कर्नाटक के संबंध में सीना ठोक कर कह रहे हैं कि आलाकमान का फैसला आखिरी होगा और उसे सबको मंजूर करना होगा लेकिन उत्तराखंड में जब हरीश रावत को दरकिनार कर विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान कांग्रेस आलाकमान ने किया तो हरीश रावत के साथ ही उनके समर्थक विधायकों के बगावती तेवर तो आपको याद ही होंगे..!
अगर नहीं तो चलिए एक बार फिर से आपकी याददाश्त ताजा कर देते हैं। जैसे ही विजय बहुगुणा के नाम का ऐलान उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के रुप में हुआ तो हरीश रावत के पैरों के नीचे से मानो जमनी खिसक गयी थी। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से लेकर दिल्ली में हरीश रावत के निवास पर हरीश गुट के विधायकों ने जमकर बवाल मचाया था। कई दिनों तक बवाल मचा लेकिन आखिर में हरीश रावत को मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं मिली।
ऐसा भी नहीं है कि इसके बदले में हरीश रावत को कुछ नहीं मिला। हरीश समर्थित महेन्द्र सिंह माहरा को राज्यसभा भेजा गया तो खुद हरीश रावत को केन्द्र में राज्यमंत्री से कैबिनेट मंत्री बनाकर कांग्रेस आलाकमान ने रावत की नाराजगी को दूर करने की कोशिश की..!
समाचार चैनल पर चर्चा जारी थी...अब इसी सवाल पर जब एंकर ने भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी से उनका पक्ष लेना चाहा तो पहले तो मुख्तार अब्बास नकवी ने इसे कांग्रेस का मसला बताकर टिप्पणी करने से इंकार कर दिया लेकिन जाते जाते नकवी हरीश रावत के जख्मों पर नमक छिड़कना नहीं भूले..!
नकवी साहब बोले कि ये कांग्रेस का मसला है और वैसे भी जब उत्तराखंड विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद सबसे योग्य व्यक्ति होने के बाद भी कांग्रेस आलाकमान ने जब हरीश रावत को मुख्यमंत्री नहीं बनाया तो अब वे कर्नाटक के संबंध में क्या कह सकते हैं..!
भाजपा नेता मुख्तार अब्बस नकवी के इस टिप्पणी पर हरीश रावत का चेहरा देखने लायक था जबकि मुख्तार अब्बास नकवी के साथ ही टीवी एंकर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे..!

deepaktiwari555@gmail.com

यही तो अजूबा है!


यही तो अजूबा है! 

यह देश बिना भ्रष्टाचार  के अपाहिज हो जाता है,इसकी गति रुक जाती है।

इस देश का नागरिक शक के आधार पर गिरफ्तार हो जाता है और देश के नेता आधार
होने पर भी शक के घेरे से बाहर रहते हैं।

जनता समय पर कर का भुगतान नहीं करे तो उसके लिए दंड का प्रावधान है मगर
शासक वर्ग उस कर के धन को चट कर ले तो उच्च पद पर आसीन होने के अवसर
बढ़ जाते हैं।

अन्न के दुरूपयोग में शासन अव्वल आता है पहले उसे इकट्टा करता है,खुल्ले में रखता
है बारिस का इन्तजार करता है और फिर बारिस में सड़ने देता है तथा सड़ने के बाद
उस अन्न का सदुपयोग करता है और शराब विक्रेता को बेच पीठ थपथपाता है।

जब कोई हमें धौंस दिखता है तो हम विनम्रता के गुण को प्रदर्शित करते हैं जब कोई
हमें गाली देता है तो हम व्यवहार कुशलता दिखाते हैं जब कोई हमारी मुर्खता का
फायदा उठता है तो वार्ता की कुर्सी पर आ जाते हैं और जब कोई हम पर हमला करता है
तो हम दूसरो से पट्टी करवा के तसल्ली दे देते हैं कि हमने उसके खिलाफ कुछ किया है।

दुनियाँ जानती है कि हम शक्तिशाली कायर हैं।हम उनके पास जाते हैं तो वे आने से
रोक देते हैं और वो जब आना चाहते हैं तब हम कमर तक झुक कर सलाम करते हैं
वो हमें नंगा करते हैं और हम उन्हें दावत परोसते हैं।

हम जनता को समझाते हैं कि पैसा पेड़ पर नहीं लगता ,काम करो ,निट्ठल्ले मत बैठो
मगर अपने कबीले में पेसा उगलने वाले झाड़ लगाते हैं और पैसा बटोरते हैं।

जिसने रिश्वत दी उसे मामला खुल जाने पर जेल की हवा खिलाते हैं और रिश्वत ली
या नहीं ली उसका सबूत दुसरे के घर ढूंढ़वाते हैं।

जब चोरी करते पकडे जाते हैं तो कबीले से गंगा स्नान करवाने का आह्वान करते हैं
और अपनी चोरी को छोटी तथा दुसरे कबीले की चोरी को बड़ा बताते हैं।

हम मंदिर के अन्दर देवी को प्रणाम करते हैं बाहर खुल्ली सडक पर उसके साथ योन
अपराध करते हैं।

जब जब भी हम जन कल्याण की योजना बनाते हैं तब निरीह लोग समझ जाते हैं कि
उसके आस पास क़यामत बरसने वाली है।

हम बहुमत के आधार पर फैसले करते हैं और बहुमत के लिये जन भावना को भी ताक
पर रख देते हैं।

हम काम करने में विश्वास नहीं रखते हैं बल्कि कुतर्क से जीते हैं।      

6.5.13

सरबजीत को शहीद का दर्जा देने पर उठ रहे सवाल?


पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में अन्य कैदियों के हमले में मारे गए भारतीय कैदी सरबजीत, जो कि आज पूरे भारत की संवेदना के केन्द्र हो गए हैं, को पंजाब की सरकार की ओर से शहीद दर्जा दे कर पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किए जाने पर सवाल उठ रहे हैं। उन्हें जिस तरह से निर्ममता पूर्वक मारा गया, उससे हर भारतीय में मन में पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा उफन रहा है, मगर सरबजीत की बहन दरबीर कौर की मांग तो तुरंत स्वीकार कर जिस प्रकार पंजाब की विधानसभा ने शहीद का दर्जा देने का प्रस्ताव पारित किया, उसमें कई लोगों को राजनीति की बू आती है।
हालांकि इस वक्त पूरे देश में जिस तरह का माहौल है, उसमें किसी भी राजनीतिक दल में इस बात का साहस नहीं कि वह इस मुद्दे की बारिकी में जा कर सवाल खड़े करे, न ही प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की हिम्मत है कि वह इस पर चूं भी बोल जाए, मगर सोशल मीडिया में कहीं-कहीं से ये आवाज आने लगी है कि सरबजीत को शहीद का दर्जा किस आधार पर दिया गया? क्या इसे सरबजीत के परिवार के प्रति उपजी संवेदना को तुष्ट मात्र करने और इसके जरिए वोट पक्के करने के लिए की राजनीतिक कवायद करार नहीं दिया जाना चाहिए?
मौजूदा माहौल में, जबकि पूरे देश में सरबजीत के प्रति अपार श्रद्धा उमड़ रही है, ऐसा सवाल करना अनुचित प्रतीत होता है और कदाचित कुछ लोगों की भावनाओं को आहत भी कर सकता है, मगर उनकी इस बात में दम तो है। सवाल उठता है कि आखिर किसी को शहीद का दर्जा दिए जाने के कोई मापदंड नहीं हैं? क्या गलती से पाकिस्तान चले जाने पर जासूसी करने के आरोप पकड़े गए व्यक्ति की हत्या और सीमा पर दुश्मन से लड़ते हुए अथवा देश में आतंकियों से जूझते हुए मरे सैनिक या सिपाही की मौत में कोई फर्क नहीं है? बेशक उसे एक हिंदुस्तानी होने की वजह से ही पाकिस्तान की कुत्सित हरकत का शिकार होना पड़ा,  जिसकी ओर सरबजीत की बहन ने भी इशारा किया है, और इसी आधार पर उसे शहीद का दर्जा दिए जाने की मांग कर डाली, मगर सवाल ये है कि क्या वह देश के लिए मारा गया? भारत देश का होने की वजह से मारे जाने और भारत की अस्मिता के लिए प्राण उत्सर्ग करने वाले में क्या कोई फर्क नहीं होना चाहिए? यदि इस प्रकार हम पाकिस्तान में मारे जाने वाले भारतीयों को शहीद का दर्जा देने लगे तो क्या हम उन सभी भारतीयों को भी शहीद का दर्जा देंगे, जो पाकिस्तान की जेलों में बंद हैं और उनकी निर्मम हरकतों से मौत का शिकार होंगे? क्या उन्हें भी हम इसी प्रकार विशेष आर्थिक पैकेज देने को तैयार हैं?
मामला कुल जमा ये लगता है कि चूंकि सरबजीत की बहन दलबीर कौर अपने भाई की रिहाई को मुद्दा बनाने में कामयाब हो गई, इस कारण सरबजती की हत्या की गई तो सरबजीत हीरो बन गए। करोड़ों लोगों की भावनाएं उनसे जुड़ गईं। सरकार की नाकामी स्थापित हो गई, कारण वह विपक्ष के निशाने पर आ गई। वरना अन्य सैकड़ों निर्दोष भारतीय भी पाकिस्तान की जेलों में बंद हैं, मगर चूंकि उनके परिवार में दलबीर कौर जैसी तेज-तर्रार महिला नहीं है, उनके पास मुद्दा बनाने को पैसा नहीं है या मुद्दा बना कर समाज से चंदा लेने की चतुराई नहीं है, इस कारण वे गुमनामी की जिंदगी जीते हुए रिहाई या मौत का इंतजार कर रहे हैं। यानि को ऐसे मसले को मुद्दा बनाने में कामयाब हो जाए, उसके आगे राजनीतिज्ञ स्वार्थ की खातिर नतमस्तक हो जाएंगे, बाकी के परिवार वालों के आंसू पौंछने वाला कोई पैदा नहीं होगा। दलबीर कौर मुद्दा बनाने में कितनी माहिर निकलीं, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि सरबजीत के गांव भिक्खीविंड में हिंदी बोलने व समझने वाले लोग इतने ही होंगे कि उंगलियों पर गिने जा सकते हैं, फिर भी यहां के बच्चों के हाथों में हिंदी में लिखे बैनर थमा कर हिंदी में नारे लगवाते कई चैनलों पर दिखाए गए।
इस मुद्दे का एक पहलु ये भी है कि कदाचित सरबजीत वाकई भारत के लिए जासूसी करने को पाकिस्तान गए थे, तो फिर इसे स्वीकार किया जाना चाहिए। यदि ऐसा स्पष्ट रूप से न कह पाना सरकार की अंतरराष्ट्रीय मजबूरी है तो भी क्या सरबजीत की रिहाई के लिए वैसे ही प्रयास नहीं किए जाने चाहिए थे, जैसे कि मुफ्ती मोहम्मद सईद की साहिबजादी की रिहाई के लिए किए गए थे?
इस सिलसिले में नवभारत टाइम्स के ब्लॉगर सैक्शन में रजनीश कुमार ने लिखा है कि सरबजीत के परिवार वालों के अनुसार सरबजीत शराब के नशे में सरहद पार हो गया था, तो पाकिस्तान का कहना है कि उसका कराची विस्फोट में हाथ है और इसमें वहां की अदालत ने उसे फांसी की सजा सुनाई थी। परिवार की बात भी हम मानकर चलें तो शराब पीकर सरहद पार करने वाला शहीद कैसे हो सकता है? क्या ऐसा नहीं होना चाहिए कि जिन सबूतों के आधार पर पाकिस्तान सरबजीत को आतंकवादी कह रहा था उसकी छानबीन भारत सरकार को करनी चाहिए थी? चुनावी राजनीति में सत्ता पाने के लिए शहीद का तमगा ऐसे बांटना उन शहीदों का अपमान है, जो सच में देश के लिए मर मिटे।
उन्होंने पंजाब सरकार की नजर में शहीद की परिभाषा पर सवाल उठाते हुए कहा है कि पंजाब की अकाली सरकार के लिए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारे भी शहीद हैं। अकाली का समर्थन हासिल गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के कैलेंडर में ऐसे कई लोग शामिल हैं जिन्हें शहीद का दर्जा दिया गया है। सिखों की सबसे बड़ी रिप्रेजेंटेटिव बॉडी शिरोमणि गरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के नानकशाही कैलेंडर में कुछ तारीखों को ऐतिहासिक दर्जा दिया गया है। इसमें पूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारे सतवंत सिंह और बेअंत सिंह की डेथ ऐनिवर्सरी भी शामिल है। यकीन मानिए आज के वक्त में वे सारे मरने वाले शहीद हैं, जिनसे यहां की सियासी पार्टियों को सत्ता पाने में मदद मिलती है, जैसे तमिलनाडु की सियासी पार्टियों के लिए प्रभाकरण कभी आंतकी नहीं रहा।
इस बारे में फेसबुक पर एक सज्जन विनय शर्मा ने लिखा है कि इसमें कोई शक नहीं कि सरबजीत भारतीय नागरिक था और वह पाकिस्तान में साजिशन मारा गया, मगर क्या यह जानना हमारा हक नहीं कि ऐसा उसने क्या किया था कि उसे शहीद का दर्जा दिया गया?
हालांकि इस सवाल का जवाब कोई नहीं देगा, मगर इस वजह से यह सवाल सदैव कायम रहेगा, चुप्पी से सवाल समाप्त नहीं जाएगा।
-तेजवानी गिरधर

कैंसर एक्सप्रेस ट्रेन

कैंसर एक्सप्रेस ट्रेन 

गाड़ी बुला रही है, बीकानेर जा रही है 
नींदें उड़ा रही है, कैंसर को ला रही है... 


घाणी का छोड़ा तेल, गोबर की खाद भूले, अब तो संभलो जवानो 
हर पल है गुटका मुंह में, सिगरेट का धुंआ है, बर्गर को खाने वालों 
ट्रांस फैट सबब बना है, सबको सिखा रही है...


गाड़ी बुला रही है, बीकानेर जा रही है 
नींदें उड़ा रही है,, कैंसर को ला रही है...  

किरणें तो बेअसर हैं, कीमो में दम नहीं है, बुडविग की बात सुन लो
अलसी का तेल अमृत, पनीर संग गटको, जीवन अमर बना ले
पैगाम ये सुना कर सबके जगा रही है....


गाड़ी बुला रही है, बीकानेर जा रही है 
नींदें उड़ा रही है,, कैंसर को ला रही है...  



यह बात यकीन से परे लगती है, लेकिन पूरे पंजाब ने एक ट्रेन का नाम कैंसर एक्सप्रेस रख दिया है क्योंकि इस रेल से हर रोज कैंसर मरीज इलाज के लिए पंजाब से बीकानेर जाते हैं। यह रेल हर रोज पंजाब में अबोहर से चलती है। पंजाब में रिफाइंड तेल, वनस्पति घी, गुटका, सिगरेट, रासायनिक खाद के बढ़ते उपयोग के कारण भी कैंसर के मामले बहुत बढ़ गए हैं।

5.5.13

धर्म आराधना के साथ राष्ट्र सेवा: चीनी दुसाहस, हमारे कायर नेता और भांड मिडिया

धर्म आराधना के साथ राष्ट्र सेवा: चीनी दुसाहस, हमारे कायर नेता और भांड मिडियाचीन ने हमारी औकात हमें दिखा दी है की अभी हम किस स्तर पर है, हमारे नेता जो की अव्वल दर्जे के कायर है अब कहते फिर रहे है की अगर चीन ने ये सब नहीं किया होता तो हम चीन के दौरे पर जाते अरे तुम अगर चीन जाते भी तो कौन तुम्हारी परवाह करता क्या किसी को लगता है की भारत के जो भी राजनयिक चीन के दौरे पर जायेंगे तो चीन इन्हें थोडा सा भी भाव देता होगा कुत्ते की तरह इनसे व्यवहार किया जाता होगा 


चीन बस ये पुरे दुनिया को दिखाना चाहता है की भारत जो की अपने ही सरजमीं की ही सुरक्षा नहीं कर पाया वो क्या खाक विश्व स्तर पर एक बड़ी भूमिका निभाएगा, चीन ने ये  साबित कर दिया की भारत में अभी नपुंसक सरकार है और चीन अच्छी तरह से जानता है की भारत के भ्रष्ट नेता देश को लूटने और अपना माल बनाने में व्यस्त है उन्हें जरा सा भी इस बात की फ़िक्र नहीं है की भारत के सरजमीं पर चीन ने घुसपैठ किया है और भारतीय मिडिया नए रिलीज हुए फिल्मो और उनकी मसालेदार खबरों , आईपीएल और फैशन शो में ही व्यस्त है क्या भारतीय मिडिया ने कभी ईमानदारी के साथ चीन के घुसपैठ को दिखाया  है ।

चर्चिल ने कहा था-ब्रज की दुनिया

मित्रों,साहित्य के लिए वर्ष 1953 के नोबेल पुरस्कार विजेता और ब्रिटेन के कथित महानतम प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय भारत को आजादी देने की मांग को यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि भारत के लोग अभी इतने परिपक्व नहीं हुए हैं कि वे देश और आजादी को संभाल सकें। तब से न जाने कितनी बार खासकर चुनावों के बाद मैं खुद अपने देश के महानतम् बुद्धिजीवियों को यह लिखते-कहते हुए देख चुका हूँ कि महान भारत की महान जनता ने समय के साथ चर्चिल को पूरी तरह से गलत साबित कर दिया है। वे शायद ऐसा सिर्फ इस एक आधार पर कहते रहे हैं कि भारत में सत्ता बंदूकों के बल पर नहीं बल्कि जनता के मत से बदलती है। मगर क्या सिर्फ इस एक आधार पर चर्चिल को गलत ठहराना उचित होगा या हो सकता है जबकि चर्चिल को सही साबित करने के अनगिनत आधार मौजूद हों।
                               मित्रों,निश्चित रूप से मतदान द्वारा सत्ता-परिवर्तन अच्छी उपलब्धि है लेकिन भारतीय लोकतंत्र के समक्ष सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि हर पाँच साल पर सत्तारूढ़ दलों या समूहों के बदलते रहने से क्या बदला और जो कुछ भी बदला वह सकारात्मक था या नकारात्मक? दिन-ब-दिन सरकार के प्रत्येक अंग में नए प्रतिमान स्थापित करते भ्रष्टाचार,कुव्यवस्था और अराजकता क्या यह चीख-चीखकर,अट्टहास करते हुए नहीं कह रहे हैं कि न केवल चर्चिल अंशतः ही ठीक था बल्कि पूरी तरह से सही था। कल और आज का अखबार कहता है कि रेलवे बोर्ड के सदस्यों को करोड़ों रूपया लेकर नियुक्त किया जा रहा है जिसमें से पहली किस्त लेता हुआ रेलमंत्री का भांजा पकड़ा भी गया है। कौन यकीन करेगा कि यह सब बिना रेलमंत्री की ईच्छा और जानकारी के हो रहा है। रेलवे बोर्ड का कोई सदस्य क्यों रेलमंत्री के भांजे को यूँ ही 2 करोड़ रूपया देगा? इसका दूसरा मतलब यह भी है कि सीबीआई को सरकारी महकमों में व्याप्त भ्रष्टाचार की पूरी जानकारी रहती है फिर भी वो जानबूझकर कान पर ढेला डाले बैठी रहती है। आज भारत का बच्चा-बच्चा यह जानता है कि इस सरकार में राज्यपाल का गरिमामय पद भी क्रय-विक्रय की वस्तु बन चुका है। आज भारत की जनता और भारतीय लोकतंत्र का सर्वोच्च वास्तविक प्रतिनिधि प्रधानमंत्री खुद कोयला,अंतरिक्ष और 2जी घोटाला करता है और सीधी संलिप्तता साबित हो जाने पर भी पूरी निर्लज्जता के साथ पद पर बना रहता है। यहाँ तक कि आज भारत के वर्तमान और हाल ही में भूतपूर्व हुई राष्ट्रपति पर भी भ्रष्टाचार के सैंकड़ों आरोप लगे हुए हैं। आज हमारा चिर-विश्वासघाती पड़ोसी चीन जो कभी एशिया का मरीज हुआ करता था हमारी सीमा में 19 किमी भीतर तक घुस आया है और फिर भी हमारा चिंदीचोर विदेश मंत्री मामले को तूल नहीं देने की नसीहतें बाँटता फिर रहा है। कल तक अमेरिका और नरेन्द्र मोदी को लेकर आसमान सिर पर उठा लेनेवाले गद्दार कम्युनिस्टों ने 1962 की तरह ही आज चीनी घुसपैठ पर अपने मुँह सी लिए हैं। पता नहीं लड़ाई छिड़ने पर ये भारत का साथ देंगे या चीन का। आज हमारे छोटे-छोटे पड़ोसी देशों में भी हमारा रसूख इतना गिर चुका है कि हमारे देशवासियों की जान इन देशों की जेलों में भी सुरक्षित नहीं रह गई है। आज कोई भी आम आदमी बिना घूस दिए सरकारी नौकरी नहीं पा सकता। आज आरक्षण भी बेमानी हो चुका है और आरक्षित वर्गों से भी केवल उनको ही नौकरियाँ मिल रही हैं जिनके माता-पिता के पास पैसा है। कुल मिलाकर इस समय शिवपालगंज से लेकर नई दिल्ली तक जित देखूँ तित लूट का वातावरण बना हुआ है।

                     मित्रों,मैं वर्षों पहले ही अपने एक आलेख ........... में भारत को एक असफल राष्ट्र घोषित कर चुका हूँ। उस समय हो सकता है कि मेरे कई मित्र मुझसे असहमत रहे हों लेकिन मैं आश्वस्त हूँ कि आज की तारीख में मुझसे कोई असहमत नहीं होगा। तो फिर ऐसा क्यों हुआ कि आज भारत एक पूरी तरह से बर्बाद राष्ट्र बन चुका है? गलती किसकी है? क्या हमारी ही गलतियों की वजह से ऐसा नहीं हुआ है?  पिछले 66 सालों में 15 लोकसभा और सैंकड़ों विधानसभा या स्थानीय-निकाय चुनावों में कौन मतदान करता रहा है? आजादी के शुरूआती सालों में जहाँ इंसानियत और अच्छाई के आधार पर प्रतिनिधि जीतते थे आज क्यों सिर्फ पैसेवाले,चोर-डकैत-बलात्कारी-भ्रष्टाचारी-जाति व धर्म के ठेकेदार ही चुनाव जीतते हैं? कौन चुनता है इनको? क्या हमहीं नहीं चुनते हैं? क्यों चुनते हैं? हम भारतीयों का बहुमत क्यों चुनता है ऐसे गलत लोगों को? क्या हमने कभी सोंचा है कि जब हमारे प्रतिनिधि जिनके हाथों में हम अपना शासन,अपना वर्तमान और भविष्य,अपना 5 साल सौंप रहे हैं ही ठीक नहीं होंगे तो फिर हमारा शासन-प्रशासन कैसे अच्छा होगा? जब हमारे जन-प्रतिनिधि चुनाव-दर-चुनाव और भी ज्यादा चरित्रहीन और नैतिकताशून्य होते जाएंगे तो फिर शासन-प्रशासन के चरित्र में सुधार कहाँ से होगा?
                                  मित्रों,मैं बिल्कुल भी नहीं चाहता था,भारतमाता की कसम मैंने कभी नहीं चाहा कि दुष्ट चर्चिल की भविष्यवाणी सत्य साबित हो जाए लेकिन सच तो सच है। क्या यह सच नहीं है कि हमारे बहुमत ने देश और समाज की भलाई के बारे में सोंचना ही बंद कर दिया है और आप भला देश और समाज चाहे बुरा या भला हमारा जीवन-मंत्र बन चुका है। हम इस बारे में अपने मन में विचार करें या न करें,सोंचें या न सोंचें लेकिन अंतिम सत्य तो यही है कि अगर समय रहते हमारी जनसंख्या के बहुमत ने देश और भलाई के बारे में सोंचना प्रारंभ नहीं किया तो फिर एशिया का नया मरीज बन चुके भारत नामक राष्ट्र का राम नाम सत्य है होना तय है,अटल है। तो क्यों नहीं हमें यह मान लेना चाहिए कि हम भारतीय 1947 तो क्या आज 2013 में भी आजादी पाने के काबिल नहीं हुए हैं। हमें आज भी किसी दूसरे मुल्क का ही गुलाम होना चाहिए और कदाचित् हमारे अगले शासक चीनी होंगे।

4.5.13

सीबीआई यकायक इतनी ईमानदार कैसे हो गई?


देश के रेल मंत्री पवन कुमार बंसल के भानजे विजय सिंगला को सीबीआई द्वारा रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार किए जाने के साथ ही यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि सीबीआई यकायक इतनी ईमानदार कैसे हो गई? जिस सीबीआई को विपक्ष कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन की उपमा देती रही है, उसने रेल मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण महकमे के मंत्री के भानजे कैसे हाथ डाल दिया, जबकि इससे पहले से आरोपों से घिरी सरकार पर और दबाव बनता? हालांकि भाजपा ने परंपरा का निर्वाह करते हुए बंसल के इस्तीफे की मांग की है और कांग्रेस ने भी पुराने रवैये को ही दोहराते हुए इस्तीफा लेने से इंकार कर दिया, मगर इससे अनेक सवाल मुंह बाये खड़े हो गए हैं।
इस वाकये एक पक्ष तो ये है कि भ्रष्टाचार के आरोपों से चारों ओर से घिरी कांग्रेसी नीत सरकार ने संभव है यह जताने की कोशिश की हो कि विपक्ष का यह आरोप पूरी तरह से निराधार है कि सीबीआई उसके इशारे पर काम करती है। वह स्वतंत्र और निष्पक्ष है। कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी ने तो बाकायदा यही कहा कि देखिए सीबीआई कितनी स्वतंत्र है कि उसने मंत्री के रिश्तेदार को भी दोषी मान कर गिरफ्तार कर लिया। गिनाने को उनका तर्क जरूर दमदार है, लेकिन इस पर यकायक यकीन होता नहीं है। कांग्रेस की ओर से रेलमंत्री का यह कह कर बचाव करने से सवालिया उठता है कि सीबीआई की जांच में अभी तक रेलमंत्री की संलिप्तता पुष्टि नहीं हुई है। खुद रेल मंत्री भी मामले की जांच करने को कह रहे हैं, इससे बड़ी क्या बात होगी। अपने भानजे की गिरफ्तारी के बाद रेलमंत्री पवन बंसल ने भी कहा कि उनका उनके भानजे के साथ कोई कारोबारी रिश्ता नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि चंडीगढ़ में उनकी बहन के फर्म में छापा मारा गया है, उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। कुछ सूत्र ये भी कहते हैं कि बंसल पर आज तक कोई दाग नहीं है। उनकी छवि साफ-सुथरी है। यही इसे सही मानें और यदि बंसल की बात को भी ठीक मानें तो सवाल ये उठता है कि आखिर रेलवे बोर्ड के सदस्य (स्टाफ) नियुक्त हुए महेश कुमार ने किस बिना पर रिश्वत दी? क्या रिश्वत के पेटे उनकी नए पद नियुक्ति में बंसल कोई हाथ नहीं है? जब रिश्वत ले कर ही नियुक्ति हुई तो आखिर नियुक्ति किस प्रकार हुई? रिश्वत की राशि का हिस्सा किसके पास पहुंचा? भले ही बंसल ये कहें कि उनका भानजे से कोई लेना-देना नहीं है, मगर उसने उन्हीं के नाम पर तो यह गोरखधंधा अंजाम दिया। ऐसे में क्या बंसल की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या वे भूतपूर्व रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री की तरह ईमानदारी का परिचय नहीं दे सकते थे, जिन्होंने एक रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए पद छोड़ दिया था? बताया जाता है कि कांग्रेस के मैनेजरों की राय यह रही कि इस प्रकार इस्तीफा देने यह संदेश जाता है कि वाकई मंत्री दोषी थे, इस कारण इस्तीफा न दिलवाने का विचार बनाया गया।
इस वाकये का दूसरा पक्ष ये भी है कि क्या कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद सीबीआई चीफ वाकई में निडर हो गए हैं और राजनीतिक आकाओं से आदेश नहीं ले रहे? या फिर केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को दिखाने के लिए ऐसा करवाया ताकि वह उसके इस दबाव से मुक्त हो सके कि वे सीबीआई का दुरुपयोग करती है?
कुछ सूत्र बताते हैं कि अंदर की कहानी कुछ और है। इस वाकये से ये जताने की कोशिश की जा रही है कि सीबाईआई निष्पक्ष है, मगर यह कांगे्रस के आंतरिक झगड़े का परिणाम है। बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के विश्वसनीय कानून मंत्री अश्वनी कुमार के साथ बंसल की नाइत्तफाकी का ही नतीजा है कि उन्हें हल्का सा झटका दिया गया है। बताते हैं कि कोलगेट मामले में सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद जब भाजपा ने अश्वनी कुमार पर इस्तीफे का दबाव बनाया तो कांग्रेस का एक गुट भी हमलावर हो गया और उसमें बंसल अग्रणी थे। इसी कारण बंसल को सीमा में रहने का इशारा देने के लिए इस प्रकार की कार्यवाही की गई। यदि यह सच है तो इसका मतलब भी यही है कि सीबीआई सरकार के इशारे पर ही काम करती है। सहयोगी दलों बसपा व सपा पर शिकंजा कसने के लिए, चाहे अपने मंत्रियों को हद में रखने के लिए, उसका उपयोग किया ही जाता है।
इस प्रकरण का एक दिलचस्प पहलु ये भी है कि बंसल के इस्तीफे पर एनडीए के दो प्रमुख घटक दल भाजपा और जनता दल यूनाइटेड में ही मतभेद हो गया है। भाजपा जहां बंसल का इस्तीफा मांग रही है तो जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव ने कहा कि रेलमंत्री के इस्तीफे की कोई आवश्यकता नहीं है। भांजे ने रिश्वत ली तो बंसल की क्या गलती है? है न चौंकाने वाला बयान? खैर, राजनीति में न जाने क्या-क्या होता है, क्यों-क्यों होता है, पता लगाना ही मुश्किल हो जाता है।
-तेजवानी गिरधर

3.5.13

चरखा की ओर से मीडिया वर्कशॉप


मुजफ्फरपुर के पारू प्रखंड स्थित रामलीला गाछी में चरखा एवं मिशन आई इंटरनॅशनल सर्विस की ओर से ३० अप्रैल से ५ दिवसीय मीडिया वर्कशॉप का आयोजन किया गया। अप्पन समाचार से जुडी ग्रामीण महिला पत्रकारों में सामाजिक व महिला मुद्दों की एवं न्यूज की समझ बढ़ाने के उद्देश्य से यह कार्यशाला आयोजित की गयी है। प्रथम दो दिन पंचायतनामा से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार पुष्यमित्र ने प्रतिभागियों को ट्रेनिंग दी। २ मई को टीम ने पारू प्रखंड के नेकनामपुर गॉव एवं गोखुल स्थित विलियम प्रोजेक्ट एवं मुशहर बस्ती में सामाजिक काम, गरीबों की दशा, शिक्षा, स्वास्थ्य, शौचालय आदि योजनाओं की पड़ताल की। अंत में प्रखंड विकास पदाधिकारी एवं प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी से मुलाकात कर विभिन्न योजनाओं में हो रही गड़बड़ियों के बारे में बताया। बीडीऒ ने त्वरित कार्रवाई करते हुए बीईओ को तलब कर शीघ्र कार्रवाई करने को कहा। चरखा, दिल्ली से आये शम्स तमन्ना लगातार प्रतिभागी को प्रशिक्षित कर रहे हैं। रिंकू कुमारी, खुशबू कुमारी, पिंकी कुमारी, अनीता कुमारी, जुबेहा खातून, सविता कुमारी, प्रियंका कुमारी, रेनू कुमारी समेत एक दर्जन लड़कियाँ मीडिया कार्यशाला में शामिल हुई हैं। इस दौरान अप्पन समाचार के संतोष सारंग, अमृतांज इन्दीवर, पंकज सिंह, फूलदेव पटेल, नितीश कुमार, विनोद जायसवाल, आदि मौजूद रहे।   
ट्रेनिंग देते पंचायतनामा से जुड़े वरिष्ट पत्रकार पुष्यमित्र व चरखा के शम्स तमन्ना