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Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................
मित्रों,काफी दिन पहले मैंने प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित होनेवाली मासिक
पत्रिका बाल भारती में एक बाल कहानी पढ़ी थी। एक राज्य में वयोवृद्ध राजा
की मृत्यु के बाद उसका युवा पुत्र राजा बना। वह बड़ा दानी और दयालु था।
दोनों हाथों से दान करता। उसके राज्य में कोई भी दुःखी नहीं था सिवाय वृद्ध
मंत्री के। धीरे-धीरे खजाने में राजस्व वसूली घटने लगी और खजाना खाली हो
गया। दुःखी राजा ने मंत्री से इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि महाराज
अंधाधुंध दान-वितरण के चलते लोग आलसी होते जा रहे हैं क्योंकि उनकी जरुरतें
बैठे-बिठाए ही पूरी हो जा रही हैं। राजा द्वारा समाधान जानने की ईच्छा
प्रकट करने पर मंत्री ने सुझाव दिया कि दान बंद कर उसी राशि से नए
उद्योग-धंधे स्थापित किए जाएँ।
मित्रों,बचपन
की पढ़ी एक और कहानी याद आ रही है। वह कहानी भी एक दानवीर से ही संबंधित
है। परंतु वह दानवीर राजा नहीं था अपितु एक अमीर व्यवसायी था। वह व्यवसायी
दान में खुल्ले पैसे नहीं देता था बल्कि मोटी रकम देता था और लाभार्थी को
खुद का व्यवसाय शुरू करने के लिए प्रोत्साहित भी करता था। उसने प्रत्यक्ष
अनुभव किया था कि लोग भीख में मिले पैसों को खा-पीकर उड़ा देते हैं और फिर
से भीख प्राप्त करने पहुँच जाते हैं जबकि उद्यम-व्यवसाय से उनको स्थायी लाभ
होता है।
मित्रों,अब कल्पना कीजिए कि अगर पहली
कहानी के राजा के राज्य में राजतंत्र के स्थान पर लोकतंत्र होता और राजा
मनमोहन सिंह होते तब क्या होता? तब निश्चित रूप से वहाँ वही होता जो इस समय
भारत में हो रहा है। तब राजा खैरात बाँटना बंद नहीं करता चाहे राज्य
अराजकता और दिवालियेपन का शिकार ही क्यों न हो जाता। चाहे देश को एक बार
फिर सोने को गिरवी ही क्यों न रखना पड़ता। तब राजा संसद से लेकर गाँव तक
नोट फॉर वोट का गंदा खेल खेलता और लगातार चुनाव जीतता रहता,रोज-रोज नए-नए
घोटाले करता रहता।
मित्रों,अपने देश में पहले जहाँ सिर्फ
चुनावों के समय पैसे बाँटकर वोट खरीदे जाते थे और अवैध तरीके से नजर बचाकर
बाँटे जाते थे अब केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा खुलेआम और कानूनी तरीके
से बाँटे जा रहे हैं। इतना ही नहीं अब मतदाताओं के बीच सिर्फ पैसे ही नहीं
बाँटे जा रहे हैं बल्कि इसके अलावा कोई लैपटॉप बाँटता है तो कोई साईकिल तो
कोई अनाज तो कोई टीवी-रेडियो और और भी बहुत कुछ। राजा भी मस्त और जनता भी
प्रफुल्लित। एक भ्रष्टाचरण द्वारा मलाई चाभकर खुरचन जनता को थमा दे रहा है
तो दूसरा भिखारी बनकर,मुफ्त की रोटियाँ तोड़ने में मस्त है। इस तरह भारत
में इन दिनों एक नई तरह की अर्थव्यवस्था का निर्माण हो रहा है (और केंद्र
सरकार कहती है कि हो रहा भारत निर्माण) जिसे अंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्री
अगर चाहें तो खैराती अर्थव्यवस्था का नाम दे सकते हैं। अगर आप भी इस समय
भारत में रहते हैं और केंद्र सरकार की धूर्तता से धूर्ततापूर्वक लाभ उठाना
चाहते हैं तो आपको भी चाहिए कि अपना नाम 100-50 रुपया देकर बीपीएल सूची में
डलवा लीजिए और फिर आपका और आपके पूरे परिवार का जन्म से लेकर मृत्यु तक
बहुत सारा भार सरकार उठायेगी। आप वास्तव में अमीर भी हैं तो कोई बात नहीं
आप कागजी तौर पर खराब ताउम्र गरीब बने रह सकते हैं कोई भी आपको
रोकेगा-टोकेगा नहीं।
मित्रों,मनमोहन सिंह के
वित्त मंत्री रहते हुए शुरू की गई नई आर्थिक नीति से हमारे देश की
अर्थव्यवस्था को जो कुछ भी कथित लाभ हुआ था प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन
सिंह उसे नई खैराती और घोटालावेशी अर्थव्यवस्था द्वारा बर्बाद कर चुके
हैं। कदाचित् अब भी मनमोहन की समझ में यह नहीं आया होगा कि वैश्विक
अर्थव्यवस्था की वास्तविक महाशक्ति बहुर्राष्ट्रीय पूंजीपति हैं न कि बड़ी
जनसंख्यावाले बाजार।
मित्रों,जब सरकार का ध्यान
उत्पादन और निर्यात बढ़ाने के बदले खैरात बाँटने पर होगा तो फिर क्यों कर
उत्पादन और निर्यात में अपेक्षित वृद्धि होने लगी? खैरात बाँटने से खजाने
को तो क्षति पहुँच ही रही है खैरात का ज्यादातर पैसा जनता तक पहुँच भी नहीं
रहा है बल्कि भ्रष्ट तंत्र की भेंट चढ़ जा रहा है। इस तरह देश को दोहरी
क्षति उठानी पड़ रही है। हमारी वर्तमान केंद्र सरकार इन दिनों भोजन के
अधिकार के नाम पर खैरात में 6 लाख करोड़ रुपए सालाना की बढ़ोत्तरी करने की
कोशिश में है। निश्चित रूप से यह योजना भी भविष्य में तेल,चीनी,गेहूँ और
चावल की तरह ही भ्रष्ट जनवितरण प्रणाली के हत्थे चढ़ जानेवाली है और भोजन
का अधिकार एक नारा बनकर रह जानेवाला है।
मित्रों,सरकारों को अगर देना ही है तो जनता को साईकिल के बदले अच्छी और
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे,लैपटॉप के बदले टॉप क्लास की फैकल्टी दे,पैसों और
कम मूल्य पर अनाज के बदले स्थायी और गरिमापूर्ण रोजगार दे। हमें यह कदापि
नहीं भूलना चाहिए कि वैशाखी चाहे सोने की ही क्यों न हो वैशाखी ही होती है
और भीख का कटोरा चाहे रत्नजटित ही क्यों न हो भीख का कटोरा ही होता है।
खैरात बाँटकर दस-बीस सालों तक देश पर राज जरूर किया जा सकता है,लूटा जरूर
जा सकता है लेकिन देश को वैश्विक अर्थव्यवस्था का सिरमौर नहीं बनाया जा
सकता। दुनिया में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि कोई देश जनता के बीच केवल
खैरात बाँटकर महाशक्ति बन गया हो। लोककल्याणकारी कार्य अवश्य होने चाहिए
लेकिन इन कार्यों और विकास के कार्यों के बीच एक व्यावहारिक संतुलन भी जरूर
होना चाहिए। आखिर वर्तमान केन्द्र सरकार और कुछेक राज्य सरकारों का
उद्देश्य क्या है? क्या वे हमारे देश और प्रदेश को विकसित करने की सोंच और
ईच्छाशक्ति रखती हैं या फिर वे पैसे और खैरात बाँटकर पूरे मनोयोग से
लोभियों के गाँव में कभी ठग भूखा नहीं मरता कहावत को चरितार्थ करने में
जुटे हुए हैं? अर्थशास्त्र और इतिहास तो यही कहता है कि नवीन
अनुसंधान,निर्यात और उत्पादन ही हैं जो किसी भी अर्थव्यवस्था को महान् और
महानतम बनाते हैं न कि जनाधिक्य,आयात और खैरात। इसलिए सरकार को चाहिए कि
बेवजह की योजनाओं को बंद करे,बेकार की नई योजनाएँ न लाए,जनता पहले से ही
अधिकारों के आधिक्य से पीड़ित है इसलिए उसको नए अधिकार भी नहीं दिए जाएँ
बल्कि उसी पैसे से उद्योग-धंधे स्थापित करे,आधारभूत संरचना का विकास करे और
न्याय को द्रुत बनाए। देना ही है तो हर हाथ को काम दे फिर हाथ खुद ही अपना
पेट भर लेगा। सीधे-सीधे पेट भरने का प्रयास कहानी संख्या एक और दो की तरह
मूर्खतापूर्ण तो है ही देश और देश की अर्थव्यवस्था के लिए आत्मघाती भी है।
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