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मित्रों,साहित्य के लिए वर्ष 1953 के नोबेल पुरस्कार विजेता और ब्रिटेन के
कथित महानतम प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय
भारत को आजादी देने की मांग को यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि भारत के लोग
अभी इतने परिपक्व नहीं हुए हैं कि वे देश और आजादी को संभाल सकें। तब से न
जाने कितनी बार खासकर चुनावों के बाद मैं खुद अपने देश के महानतम्
बुद्धिजीवियों को यह लिखते-कहते हुए देख चुका हूँ कि महान भारत की महान
जनता ने समय के साथ चर्चिल को पूरी तरह से गलत साबित कर दिया है। वे शायद
ऐसा सिर्फ इस एक आधार पर कहते रहे हैं कि भारत में सत्ता बंदूकों के बल पर
नहीं बल्कि जनता के मत से बदलती है। मगर क्या सिर्फ इस एक आधार पर चर्चिल
को गलत ठहराना उचित होगा या हो सकता है जबकि चर्चिल को सही साबित करने के
अनगिनत आधार मौजूद हों।
मित्रों,निश्चित
रूप से मतदान द्वारा सत्ता-परिवर्तन अच्छी उपलब्धि है लेकिन भारतीय
लोकतंत्र के समक्ष सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि हर पाँच साल पर सत्तारूढ़
दलों या समूहों के बदलते रहने से क्या बदला और जो कुछ भी बदला वह सकारात्मक
था या नकारात्मक? दिन-ब-दिन सरकार के प्रत्येक अंग में नए प्रतिमान
स्थापित करते भ्रष्टाचार,कुव्यवस्था और अराजकता क्या यह चीख-चीखकर,अट्टहास
करते हुए नहीं कह रहे हैं कि न केवल चर्चिल अंशतः ही ठीक था बल्कि पूरी तरह
से सही था। कल और आज का अखबार कहता है कि रेलवे बोर्ड के सदस्यों को
करोड़ों रूपया लेकर नियुक्त किया जा रहा है जिसमें से पहली किस्त लेता हुआ
रेलमंत्री का भांजा पकड़ा भी गया है। कौन यकीन करेगा कि यह सब बिना
रेलमंत्री की ईच्छा और जानकारी के हो रहा है। रेलवे बोर्ड का कोई सदस्य
क्यों रेलमंत्री के भांजे को यूँ ही 2 करोड़ रूपया देगा? इसका दूसरा मतलब
यह भी है कि सीबीआई को सरकारी महकमों में व्याप्त भ्रष्टाचार की पूरी
जानकारी रहती है फिर भी वो जानबूझकर कान पर ढेला डाले बैठी रहती है। आज
भारत का बच्चा-बच्चा यह जानता है कि इस सरकार में राज्यपाल का गरिमामय पद
भी क्रय-विक्रय की वस्तु बन चुका है। आज भारत की जनता और भारतीय लोकतंत्र
का सर्वोच्च वास्तविक प्रतिनिधि प्रधानमंत्री खुद कोयला,अंतरिक्ष और 2जी
घोटाला करता है और सीधी संलिप्तता साबित हो जाने पर भी पूरी निर्लज्जता के
साथ पद पर बना रहता है। यहाँ तक कि आज भारत के वर्तमान और हाल ही में
भूतपूर्व हुई राष्ट्रपति पर भी भ्रष्टाचार के सैंकड़ों आरोप लगे हुए हैं।
आज हमारा चिर-विश्वासघाती पड़ोसी चीन जो कभी एशिया का मरीज हुआ करता था
हमारी सीमा में 19 किमी भीतर तक घुस आया है और फिर भी हमारा चिंदीचोर विदेश
मंत्री मामले को तूल नहीं देने की नसीहतें बाँटता फिर रहा है। कल तक
अमेरिका और नरेन्द्र मोदी को लेकर आसमान सिर पर उठा लेनेवाले गद्दार
कम्युनिस्टों ने 1962 की तरह ही आज चीनी घुसपैठ पर अपने मुँह सी लिए हैं।
पता नहीं लड़ाई छिड़ने पर ये भारत का साथ देंगे या चीन का। आज हमारे
छोटे-छोटे पड़ोसी देशों में भी हमारा रसूख इतना गिर चुका है कि हमारे
देशवासियों की जान इन देशों की जेलों में भी सुरक्षित नहीं रह गई है। आज
कोई भी आम आदमी बिना घूस दिए सरकारी नौकरी नहीं पा सकता। आज आरक्षण भी
बेमानी हो चुका है और आरक्षित वर्गों से भी केवल उनको ही नौकरियाँ मिल रही
हैं जिनके माता-पिता के पास पैसा है। कुल मिलाकर इस समय शिवपालगंज से लेकर नई दिल्ली तक जित देखूँ तित लूट का वातावरण बना हुआ है।
मित्रों,मैं
वर्षों पहले ही अपने एक आलेख ........... में भारत को एक असफल राष्ट्र
घोषित कर चुका हूँ। उस समय हो सकता है कि मेरे कई मित्र मुझसे असहमत रहे
हों लेकिन मैं आश्वस्त हूँ कि आज की तारीख में मुझसे कोई असहमत नहीं होगा।
तो फिर ऐसा क्यों हुआ कि आज भारत एक पूरी तरह से बर्बाद राष्ट्र बन चुका
है? गलती किसकी है? क्या हमारी ही गलतियों की वजह से ऐसा नहीं हुआ है?
पिछले 66 सालों में 15 लोकसभा और सैंकड़ों विधानसभा या स्थानीय-निकाय
चुनावों में कौन मतदान करता रहा है? आजादी के शुरूआती सालों में जहाँ
इंसानियत और अच्छाई के आधार पर प्रतिनिधि जीतते थे आज क्यों सिर्फ
पैसेवाले,चोर-डकैत-बलात्कारी-भ्रष्टाचारी-जाति व धर्म के ठेकेदार ही चुनाव
जीतते हैं? कौन चुनता है इनको? क्या हमहीं नहीं चुनते हैं? क्यों चुनते
हैं? हम भारतीयों का बहुमत क्यों चुनता है ऐसे गलत लोगों को? क्या हमने कभी
सोंचा है कि जब हमारे प्रतिनिधि जिनके हाथों में हम अपना शासन,अपना
वर्तमान और भविष्य,अपना 5 साल सौंप रहे हैं ही ठीक नहीं होंगे तो फिर हमारा
शासन-प्रशासन कैसे अच्छा होगा? जब हमारे जन-प्रतिनिधि चुनाव-दर-चुनाव और
भी ज्यादा चरित्रहीन और नैतिकताशून्य होते जाएंगे तो फिर शासन-प्रशासन के
चरित्र में सुधार कहाँ से होगा?
मित्रों,मैं बिल्कुल भी नहीं चाहता था,भारतमाता की कसम मैंने कभी नहीं चाहा
कि दुष्ट चर्चिल की भविष्यवाणी सत्य साबित हो जाए लेकिन सच तो सच है। क्या
यह सच नहीं है कि हमारे बहुमत ने देश और समाज की भलाई के बारे में सोंचना
ही बंद कर दिया है और आप भला देश और समाज चाहे बुरा या भला हमारा
जीवन-मंत्र बन चुका है। हम इस बारे में अपने मन में विचार करें या न
करें,सोंचें या न सोंचें लेकिन अंतिम सत्य तो यही है कि अगर समय रहते हमारी
जनसंख्या के बहुमत ने देश और भलाई के बारे में सोंचना प्रारंभ नहीं किया
तो फिर एशिया का नया मरीज बन चुके भारत नामक राष्ट्र का राम नाम सत्य है
होना तय है,अटल है। तो क्यों नहीं हमें यह मान लेना चाहिए कि हम भारतीय
1947 तो क्या आज 2013 में भी आजादी पाने के काबिल नहीं हुए हैं। हमें आज भी
किसी दूसरे मुल्क का ही गुलाम होना चाहिए और कदाचित् हमारे अगले शासक चीनी
होंगे।
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