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30.11.09

बुद्ध सरकार की मेहेरबानी से भाजपा का बंगाल बंद कामयाब

प्रकाश चंडालिया
३० नवम्बर को भाजपा की आवाज पर बंगाल बंद रहेगा, इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी. लेकिन मोटे तौर पर कहा जा सकता है की सोमवार ३० नवम्बर को कमोबेश बंगाल पूरी तरह बंद रहा. जगह-जगह तोड़फोड़ हुई. हालाँकि बंद के दिन तोड़फोड़ की रश्म अब कम ही निभाई जाती है, क्यूंकि लोगबाग बंगाल बंद के किसी भी राजनैतिक दल के आह्वान के साथ ही अपना कारोबार बंद रखने का मन बना लेते हैं. बंगाल में पिछले कुछ वर्षों से बंद छुट्टी का त्यौहार मन जाता रहा है. इसके लिए लोग सबसे ज्यादा तृणमूल पार्टी की मुखिया ममता बनर्जी का शुक्रिया अदा करते हैं. टेलीविज़न चैनलों पर बंद का आह्वान करने वालों का परोक्ष-अपरोक्ष जमकर प्रचार किया जाता है. आमतौर पर बंगाल बंद सोमवार या शनिवार को किया जाता रहा है, ताकि लोगों को रविवार की छुट्टी के साथ एक और दिन तफरीह करने का मौका मिल सके.
बंगाल की जनता को निट्ठल्ला बनाये रखने में वामपंथियों ने काफी मेहनत की है. पहले यहाँ इस काम में यूनियनें पुरजोर कोशिश करती थीं. आये दिन हड़ताल. हर छोटी-बड़ी मांग के साथ हड़ताल का एलान. हड़ताल के दिन जमकर मारपीट. सरकारी वाहनों में तोड़फोड़. रेल की पटरियों पर झंडे लेकर सो जाना और रेलवे के तार पर केले के पत्ते फेंक देना, यह सब आम बातें थीं. अब यह प्रयोग काफी आसान हो चला है. पुलिस प्रशाशन भी ज्यादा माथापछि करने के मूड में नहीं दीखता, क्यूंकि बंगाल में अब हड़ताली लोग पुलिसकर्मियों की भी बाकायदा ठुकाई-पिटाई करने लगे हैं. इस काम में सत्तारूढ़ वामपंथी दलों के साथ साथ कांग्रेस और तृणमूल का नंबर सबसे पहले आता रहा है. एक और पार्टी है- एस्युसिआयी. कहने को तो यह पार्टी वामपंथी विचारधारा वाली है, लेकिन कुछ सालों से इसने ममता बनर्जी का दामन पकड़ रखा है. इस पार्टी के कार्यकर्ता तोड़फोड़ में काफी हूनर रखते हैं. इनकी महिला शाखा बड़े-बड़े शोरूमों के शीशे तोड़ने में माहिर है.
लेकिन यह पहला मामला है, जब बंगाल में भाजपा ने अपने बूते बंगाल बंद को कामयाबी दी. आरामपसंद जनता भाजपा की शुक्रगुजार है की शनि और रविवार के साथ नवम्बर का आखिरी सोमवार भी छुट्टी खाते में चला गया. यहाँ बंद से अगर किसी को परेशानी होती है तो वो सिर्फ स्कूल जाने वाले बच्चे होते हैं. दफ्तरों में काम करने वालों से पूछा जाय तो बंद पर नाराजगी जाहिर कर देंगे, पर मन ही मन बंद करने वालों का शुक्रिया अदा करेंगे. बंगाल में आम तौर पर पूजा की छुट्टियों के दौरान बंद का प्रसाद उपहार स्वरुप देने की भी परंपरा रही है. इस साल ममता बनर्जी ने बंद का उपहार कम दिया, सो यह पुण्य भाजपा ने कमा लिया. भाजपा को वैसे भी इनदिनों पुण्य की ज्यादा जरूरत है. संक्रमण काल से गुजर रही इस पार्टी के लिए बंगाल में कोई जगह नहीं है. लगभग १० वर्षों से यह पार्टी यहाँ मौज में है. न कोई आन्दोलन, न कोई जिम्मेदारी. हाँ, एक दौर था जब इसका एक एम् एल ए हुआ करता था. अब वह बेचारा भी जिम्मेदारी से फारिग है. कोलकाता नगर निगम में दो-तिन पार्षद जरूर हैं, पर उनकी कोई सूने, इसके परवाह प्रदेश भाजपा को नहीं है.
कुल मिलकर बंगाल में भाजपा के पास कभी ११.६९ प्रतिशत वोट थे, लेकिन अब यह प्रतिशत एक-दो तक सिमट गया है. ऐसी स्थिति में भाजपा के आह्वान पर बंगाल बंद हो जाना चौंकाने वाला तथ्य नहीं तो और क्या है?
वैसे कांग्रेस ने तृणमूल का दामन पकड़ रखा है. वामपंथी बिचारे अपनी अंतिम सां गिन रहे हैं. इसलिए लोगों का मानना है की ३० नवम्बर के भाजपा के बंगाल बंद को परोक्ष रूप में वामपंथियों ने समर्थन देकर तृणमूल को टेंसन देने की कोशिश की है. वर्ना दिन भर की खबरों पर गौर करें तो पता चलेगा की हर छोटी-बड़ी जमायत पर लाठी-गोली बरसाने वाली पुलिस भाजपाकर्मियों पर मेहरबान बनी रही. उन्हें सियालदह और हावड़ा स्तासों पर ट्रेन रोकने की छुट दी, एअरपोर्ट पर हंगामा करने दिया. वी आई पी रोड, धर्मतल्ला, डलहौसी, बड़ाबाजार अदि अंचलों में जमकर उधम मचने की छुट रही. यही नहीं, सचिवालय के पास मंडराने वाले परिंदों पर नजर रखने वाली पुलिस ने आज भाजपाईयों की राईटर्स बिल्डिंग तक पहुँचने दिया. भाई लोगों ने सचिवालय के पास बाकायदा पुतला फूंका, फिर मीठी ताना-तानी के बाद गिरफ़्तारी दे दी. विरोधी दलों के प्रति इतना प्यार वामपंथी पुलिस ने पहले कभी नहीं बरसाया.
बहरहाल, ३० नवम्बर का बंद बंगाल में भाजपा को तो नयी साँसें देगा ही, भले इस से राज्य का कोई फायदा हो या न हो.


धैर्य 









एक आदमी अपनी जमा पूँजी से नया ट्रक खरीद लाया. उसके तीन साल के ने खेल- खेल में चमचमाते हुए ट्रक पर हथौड़ी से चोट कर दी. वह आदमी गुस्से में दौड़ता हुआ उसके पास आया और सजा देने के लिए उसने अपने बेटे के हाथ पर हथौड़ा मार दिया. बच्चे के हाथ से बह निकले खून से अचानक उसे बेटे को लगी चोट का अहसास हुआ और वह बच्चे को लेकर भागता हुआ अस्पताल पहुंचा. डाक्टरों ने बच्चे की हड्डी का इलाज करने की बहुत कोशिश की, लेकिन अंत में उन्हें उस लड़के के हाथ की अंगुलियाँ काटनी पड़ी.

लड़के को जब ऑपरेशन के बाद होश आया और उसने अपने हाथों पर बंधी पट्टी देखी तो पिता से बोला ' पापा, आपका ट्रक खराब करने के लिए , मुझे माफ़ कर दीजिए' फिर उसने बड़ी मासूमियत से पुछा ' लेकिन मेरी अंगुलियाँ वापस कब तक बढ़ जाएंगी ?' बेटे के इस प्रश्न का जवाब दिए बिना पिता घर गया और उसने आत्महत्या कर ली.
                                                                                                                                                                                    
(अहा! ज़िन्दगी- संकलन से)

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शुभेच्छु

प्रबल प्रताप सिंह

तुर्रा कलगी: मेवाड़-मालवा की गहराई वाली लोकनाट्य शैली

चित्तौड़गढ़ में पिछले दिनों हुई एक कार्यशाला के जरिये जैसा मेंने जाना

नवम्बर, 2009 की शुरूआत में बाजार में किसी फोटो स्टेट की दुकान पर मीरा स्मृति संस्थान चित्तौड़गढ़ के सचिव सत्यनारायण समदानी ने 15-16 नवम्बर को ही चित्तौड़गढ़ के एक विश्रान्ति गृह में होने वाली कलापरक कार्यशाला के बारे में मोटी-मोटी जानकारी दी, मेंने अपने कुछ मित्रों तक यह खबर एसएमएस और अपने ब्लाॅग के जरिये भेजी भी। कार्यशाला के पहले दिन रविवार होने के बावजूद, मैं अपनी आकाशवाणी की ड्यूटी को बड़ा मानते हुए आयोजन में नहीं जा पाया, पूरे दिन भर मन में सोच-विचार का सिलसिला करवटें बदलता रहा। पिछले कुछ वर्षों से कलापरक आयोजनों से मेरा जुड़ाव और मेरे कुछ बड़े साथियों से सुनी कहानी के बूते, तुर्रा-कलगी शब्द से थोड़े रूप में तो मैं, पारिवारिक था ही, लेकिन मन में इस कला के उन सुगठित, संघर्षशील कलाकारों और उनकी कलाकारी को बहुत नजदीक से देखने की बात दिल में दबी पड़ी थी। मेंने रविवार की सुबह कलाकारों को पहनाई जानेवाली मालाओं को एक डण्डी में लटकाने और पहले दिन की शाम, कलाकारों से अनौपचारिक बातें करने के लिए थोड़ा-सा समय निकालकर, खुद को तथाकथित रूप से संस्कृतिकर्मी को साबित करने में सफल रहा।

दूसरे दिन सरकारी स्कूल की मास्टरवाली नौकरी से छुट्टी लेकर अपने कुछ अटके हुए काम निपटाने के बाद आयोजन में जा पहुँचा। लम्बा सफेद कुर्ता और जीन्स पहनने से मैं एक कलाकर्मी या पत्रकारनुमा छविवाला लग रहा था, सो आगे की कुर्सी पर जा बैठा। खैर! मंच पर चलने वाली बातचीत, अनौपचारिक अखाड़ा प्रदर्शन और कार्यशाला संचालक के बीच बचाव करते संचालन से कई सारी बातें, इस कला के बारे में सुनने और देखने को मिली। संगीत नाटक अकादमी, जोधपुर के सहयोग से चल रही उस चर्चा में भारतीय लोककला मण्डल, उदयपुर के कलाधर्मी जानकार डाॅ. महेन्द्र भाणावत के सानिध्य में मेवाड़ और मालवा के सत्तर अस्सी पुरुष कलाकारों ने विभिन्न दौर की बातचीत और संवाद पूरे किये। मध्यम-मध्यम मदमाती शहनाई और ढोलक पर लगातार थाप लगाते हाथों वाले वे गुमनाम कलाकार मेरी आखों के सामने थे और मुझे कोई बड़ा आदमी समझ गुरते हुए गा बजा रहे थे। गाँवों की चैपालों पर गीतों और आशु कविता से भरे पूरे संवादों वाले माच खेल के उस कार्यक्रम पर पहलीबार शहर के लोगों के बीच बातचीत हो रही थी। शायद पहलीबार आयोजित इस कार्यक्रम में आशा के अनुसार बुद्धिजीवियों और थोड़ा बहुत लिखने-पढ़ने वाले लोगों की शिरकत भी नहीं हो पाई। आप इस बात से भी सहमत होंगे कि जो ऐसे कार्यक्रम की जरूरत पर जितना जोर से बोलते है, मौका आने पर ऐसे कार्यक्रमों में आने के लिए उन्हें घर परिवार के कई सारे काम का याद आना, आम बात है। खैर कुछ घण्टों के लिए पुरखों से चली आ रही इस विरासत को दिखाने के लिए नाम मात्र के लिए मानदेय को बहुत पीछे छोड़, सम्मान के लिए आये उन कलाकारों ने गंवई संस्कृति में रात-रात भर चलने वाले तुर्रा कलगी जैसे अखाड़ों के नाट्य प्रदर्शन को कुछ रूप में हमारे सामने लाने की बेहतरीन कोशिश की।


तुर्रा कलगी के आयोजन, वक्त के साथ संख्या में कम होते गये हों मगर आज भी उनकी अपनी अनुठी परम्परा से उनके बारे में बात करने वाले और उन्हें पसन्द करने वाले ईमानदार दर्शकों की कमी नहीं है। मनोरंजन से कई ज्यादा आस्था और इतिहासपरक लगने वाले ये कार्यक्रम कुछ हद तक बचे कुचे रूप में आज भी गतिमान हैं। इन अखाड़ों के कुछ माने हुए गढ़ों में सावा, शम्भुपुरा, निम्बाहेड़ा, घोसुण्ड़ा और चित्तौड़गढ़ गिनाये गये है, इन अखाड़ों के गुरु, उस्ताद कहे जाते और दूजे कलाकार खिलाड़ी कहे जाते हैं। माच ख्याल की यह परम्परा कुछ शोध के बाद चित्तौड़गढ़ से ही निकली सिद्ध हो गई है। ऐतिहासिक तौर पर शाहअली और तुकनगीर द्वारा स्थापित इस धरोहर को आज भी ये अखाड़े आगे बढ़ा रहे हैं।

गमछा, पुराना कोट, पहचाने हुए धोती-कुर्ता जो रोजमर्रा की जिन्दगी के ज्यादा आस-पास नजर आते है ऐसे पहनावे वाले सभी कलाकार अपने कई लोकगीतों और भजनों से दिन भर की गतिविधियों में रंग भर रहे थे। ये कलाकार भजनों और आम बोलचालपरक संवादों के बीच-बीच में कभी कभार ठुमक भी लेते जो एकदम से दर्शकों का ध्यान खींच लेता था। जहां गीतों वाले संवादों को गाते समय गीतों की राग और टेर कभी भी बीच -बीच में बदल जाती है वहीं लम्बे संवादों को याद दिलाने के लिये मुख्य कलागुरु, गायक खिलाड़ी के कान में बिना किसी शंका-शर्म के पारिवारिक आयोजन मानते हुए दो-दो पंक्तियाँ याद दिलाता जाता है। ऐसे में कभी-कभी खिलाड़ी के गलत बोल जाने पर गुरु, आम दर्शकों के सामने ही भले ही टीवी, रेडियो और मोबाईल आज मनोरंजनपरक संस्कृति का खास हिस्सा बन गये लगते हों लेकिन आज भी आस-पास के गाँवों में तुर्रा कलगी के ऐसे ख्याल का ऐलान हो जाने भर से ही लोगों में चर्चा शुरू हो जाती है।

सर्दी की रातें हो या भरी गर्मी की रातें, गाँव की किसी चैड़ाई वाली जगह पर आमने-सामने दो बड़े मचान खुले रूप में बनते हैं। एक देवतापरक तुर्रा अखाड़े के लिए और दूजा शक्तिरूपी कलगी अखाड़े के लिए बनता है। इस लोकनाट्य परम्परा के गीतों को लिखने के लिए कई गीतकार भी होते थे। इन अखाड़ों के पुराने कलाकारों में चैनराम गौड़, नारायणलाल गन्धर्व जैसे गुरुओं की मेहनत से चल पड़े अखाड़ों को आज भी अकबर बेग, राधेश्याम राव, प्रभुलाल चितौड़ीखेड़ा, सत्यनारायण गन्ध भँवरलाल गन्धर्व, मोहनलाल ग्वाला, उस्मान भाई जैसे सुयोग्य शिष्यों ने परम्परा को चला रखा हैं। इन अखाड़ों के ये कलाकार शौकियाना तौर पर ही ये काम करते है, मगर रोजी रोटी के लिए तो आज भी इन्हें मेहनत-मजूरी और कुछ छोटे-मोटे व्यवसाय के भरोसे ही रहना पड़ता है। इस उम्रदराज परम्परा से मेरा ये पहला मिलाप था जो आंशिक रूप से खेल प्रदर्शन के साथ ही उन संघर्षशील कलाकारों को आगे बढ़ाने के लिए बातचीत और चर्चा का अवसर भी बना। इन कलाकारों ने ज्यादातर राजस्थान से बाहर दिल्ली, मुम्बई जैसे ही कुछ एक-दो बड़े शहरों में अपनी कलाकारी दिखायी है। इनमें कलाकारी तो ठूस कर भरी पड़ी है मगर इनका दोष केवल इतना भर लगता है कि ये मुम्बई में पैदा नहीं हुए, या इनके माँ-बाप लोकप्रिय नहीं हैं, या कि फिर कोई बड़ी विरासत से इनका वास्ता नहीं। टीवी से आम आदमी तक अपनी पहचान बना पाने के तरिकोंवाली इस दुनियादारी के बीच ये कलाकर अपनी लड़ाई खुद ही लड़ रहे हैं। कभी सरकारी सहयोग काम आया तो कभी गाँवों के वे भोले भाले आयोजन जहाँ मानदेय और आदर बराबर रूप में मिलता रहा। इन आयोजनों के बहाने हम इन ईमानदार कलाकरों का अपनी माटी, अपने इतिहास, अपनी देवताओं की संस्कृति, अपने बुद्धिमान गीतकारों और कलावृन्दों के साथ प्रेम, इनकी कलाकारी में पूरे रूप में उभरकर दिखाई पड़ता है। बिना किसी बड़ी व्यावसायिक बातचीत के, केवल कला के इस रूप के प्रति कलाकारों के इश्क ने ही इन्हें इस राह पर आज तक आगे बनाये रखा है।

मात्र ढ़ोलक, मंजिरें, पुंपाड़ी (शहनाई) और हारमोनियम जैसे गिने चुने, बहुत पुराने और थोड़े से वाध्य यंत्रों के भरोसे ही सुरीला संगीत पैदा करने वाले ये आम आदमी से लगने वाले कलाकार मुझे बहुत गहराई तक अपील कर रहे थे। भले ही काॅपीराइट जैसी परम्परा आज की देन है मगर अपनी गायकी में बहुत ऊँचे तक गा पाने की कारीगरी रखने वाले इन कलाकरों के गीत और संवाद इनके अपने गुरुओं और कुछ चुनिन्दा गीतकारों ने लिखें है, जिनका नाम छाप के रूप में गीत के अन्त में पुरी ईमानदारी के साथ ये लोग गाते भी हैं। प्रमुख गीतकारों में चैनराम गौड़, नारायण नाई, चन्द्रशेखर, मोहनलाल सेन जैसे कलाकार शामिल रहे हैं। रचना का कार्य कुछ स्तर पर आज भी गतिमान हैं।

ड्रेस डिजाइनर और कोरियोग्राफर की जरूरतों वाले गणित से बिल्कुल अनजान, ये कलाकार यूं ही अपनी इस यात्रा में अस्तित्व को बनाये रखे हैं। वहां जमा हुए कलाकारों में दो पगड़ी वाले बुजुर्गों के साथ बाकी सभी युवा ही थे जो इस परम्परा के भविष्य को लेकर उठे प्रश्नों पर आश्वस्त करते नजर आ रहे थे। अलग-अलग अखाड़ों के ये कलाकार भले ही आज साथ में बैठकर बातचीत और भोजन कर रहे हों लेकिन मंच पर मुकाबला करते समय पूरे आवेश और प्रतियोगिता की उसी भावना से अपने संवादों में भावों से भरे नजर आते हैं। इस आलम से मैं तो यही समझ पाया कि लोक/आम को बहुत ज्यादा नही आंकना गलत ही है, जो कुछ भी हमारी विरासत का हिस्सा मिट्टी से जुड़ा है, आम आदमी के बहुत करीब है, नियमों के बंधन से बहुत दूर है, वही लोक विरासत है जिसे हमेशा हमें एक ऊँचे रूप में देखना चाहिये। ये वो संस्कृति है जिसे आज भी गाँवों में संतों के संगीत वाली संस्कृति के रूप में पूरे आदर के साथ पूजा जाता है। वैसे इन पुरानी चीजांे को गुमनामी का ईनाम देने के लिए हम लोग ही जिम्मेदार हैं, हमने अपनी रूचियां बदल ली है और हाँ ऐसे में कोई भी अपनी जड़ों को ही काटकर कब तलक हरा-भरा रह पायेगा? सोचने की बात है। पहले लम्बे चैड़े शौकियाना कामों की लिस्ट पालना, ऊपर से होड़ा-होड़ करना, हमारी फितरत में हैं, फिर इन बेचारी लोकरंगी, दम तोड़ती कलाबाजियों के कम लोकप्रिय कार्यक्रम को वो ही देखता है जिसने अपनी धरती की महत्ता को अपने संस्कारों की वजह से सही रूप में समझा है। बाकी लोग तो इन्हें मंनोरंजन के लिए बना हुआ साधन समझकर ही अपनी दुनियादारी में लगे है।

आस-पास के भूगोल की जानकारियों से भरे हुए गीतों और अपने जमानें की अमर कविताओं को उपयोग करते हुए तुर्रा-कलगी के ये कलाकार देश भर में अपनी मिट्टी को याद करते रहें हैं, कभी भक्तिपरक देवत्त्व संस्कृति की पोथी पढ़ते नजर आयें तो कभी मंचों पर दुर्ग चित्तौड़ और इसके इमारती इतिहास पर बोलते नजर आयें। एक बड़ी बात जो मैं समझ पाया वो ये है कि हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदाय के कलाकारों के द्वारा अभी तक किये गये इन समन्वित प्रयासों की ये गहरी नाट्य परम्परा एक नजर में साम्प्रदायिक सोहार्द और आपसी मेल मिलाप का संदेश देते हुए अपनी मिट्टी के लिये लगाव रखने को सबसे बड़ी जरूरत साबित करती है। तुर्रा और कलगी के साथ ही और भी कई अखाड़े इस प्रादेशिक इलाकें में हुए है जिनमें गढ़, अनगढ़ हो सकते है। भले ही ये कलाकार घंटों चलने वाले अपने मुकाबलों को कलाकारी के साथ-साथ प्रतियोगिता समझते हो, मगर असली रूप में तो ये दोनों ही एक ही नाट्य कला के रूप हैं। अलग-अलग अखाड़े एक तरह से घरानें हैं मगर दूजी तरफ से पूरे देश में फैली ख्याल परम्परा के बीज कहलाकर चित्तौड़गढ़ को जन्म स्थली के रूप में प्रसिद्ध कर रहे हैं। माच शैली के इन कार्यक्रमों की जड़ें तो इन अखाड़ों की मजबूती के साथ ही मजबूत बन सकती है अखाड़ों के सशक्तीकरण के लिए गुरुओं-उस्तादों और शिष्यों-खिलाड़ियों के लिए सरकार और रूचिशील सामाजिक संस्थान, प्रेम, सम्मान, कलाकार पेंशन या आयोजन के अनुसार समुचित बजट प्रावधान रखे, ये बहुत जरूरी हो गया है। दूसरी तरफ इन अखाड़ों के बीच आपसी संवाद और बैठक परम्परा के स्थापित नही होनें से भी इनके विकास में कई सारे रोड़े बने हुए हैं।

भौतिकतावादी इस दुनिया में पैसे कमाते लोगों की ये भीड़, मेरी अपनी धरती की इस कलाकारी को अपने ही बुजुर्गों की बनाई हुयी स्वस्थ संस्कृति और अपनेपन की झलक समझते हुए अपनायेगी, उसके आयोजनों को कम से कम एक बार देखने का वक्त निकालेगी, या कम से कम बिना देखें और सोचे समझें इन परम्पराओं पर कोई गलत राय तो नही बनायेगी, ऐसा मैं सोचता हूँ। वक्त ने तो वक्त-बेवक्त कई जुल्म इन परम्पराओं पर ढहायें ही हैं मगर कला और संस्कृति को केवल मंनोरंजन का साधन समझने वालों की बढ़ती हुई जमात से मैं क्या आप भी चितंन की अवस्था में आ पहुंचे होंगे।


आलेख
माणिक
स्पिक मेके कार्यकर्ता,आकाशवाणी उद्गोषक और अध्यापक
http://www.apnimaati.blogspot.com/

 












भयानक कत्ल का क्रूर सिलसिला....

**पत्रकारिता में कितने मोके आते है जब हम कुछ ख़बरों पर ये भी सोचते है कि काश ये किसी के साथ दोबारा न हो. अब जरा इस फोटो को देखीये . ये एक अजन्मी संतान है. बड़ी ही बेरहमी से इसका सिर और हाथ धड़ से काटकर जुदा कर देये गए. यकीं करता हू ये तस्वीर आपके लिये दुर्लभ होगी. ये नंगी हकीकत है संवेदनहीन हो चुके लोगों कि. काश मुर्दा हो चुकी सम्वेदनावों मे किसी तरह जान आ जाये. देश के हर शहर मे अजन्मी संतानों की वातानाकूलित कत्तलगाह बनी है. कत्ल करने वाले भी डिग्रीधारी है. जिन्हें कथित भागवान भी कहा जाता है. मगर अफ़सोस उन पर लगाम नहीं लग पा रही. लगे भी कैसे जब क्रूर इंसान खुद ही जाकर कह रहा है कि मेरे अंश को कत्ल करो. वेसे किसी के लिये इसे शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता. मासूमों का कत्ल रोकने के नाम पर दर्जनों सरकारी अभियान फाइलों मे चल रहे है. कुछ सामजिक संघठन बेटी बचावो अभियान के नाम पर सरकारी धन डकार रहे है. चंद सिक्कों कि खनक पर होने वाली मोतों का खेल क्या कभी रुक पायेगा? ये कहना बहुत मुश्किल है. अफ़सोस और हेरानी है इस कोढ़ग्रस्त इंसानयत पर. *--नितिन सबरंगी

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता - अन्तिम भाग

सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात में सन् 2002 में अल्पसंख्यक समुदाय की सामूहिक हत्या एवं बलात्कार काण्ड सम्बंधी मुकदमे को गुजरात राज्य से ठीक चुनाव से पहले बाहर हस्तान्तरित कर दिया ताकि वोटरों का धु्रवीकरण हो जाए एवं यह तर्क दिया गया कि अल्पसंख्यक समुदाय को राज्य में न्याय मिलना असंभव है। यहाँ पर यह बात महत्वपूर्ण है कि राजनैतिक रूप से सक्रिय कारपोरेट घरानों एवं धनी वर्ग, जो कि यू0एस0ए0 एवं ब्रिटेन से घनिष्टता से जुड़े हुए हैं के मुख्यालय महाराष्ट्र एवं गुजरात में हैं। यह भी बात महत्वपूर्ण है कि कर्नाटक राज्य जिसमें कि अभी जल्दी ही कारपोरेट घरानों एवं मल्टीनेशनल कम्पनियों का आधिपत्य हुआ है, में फासीवादी राजनैतिक दलों एवं संगठनों का तेजी से उदय हुआ है। कर्नाटक में स्त्रियों, अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों, ईसाई मिशनरियों, एवं मुसलमानों पर आक्रमण में बढ़ोत्तरी हुई है। आश्चर्य की बात यह है कि इन हमलों की कोई गंभीर जाँच नही की गई है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा से भरे भाषण भारत में दैनिक चर्चा का विषय बन चुके हैं। न तो ऐसे मामलों की जाँच की जाती है और न ही उन पर मुकदमा चलाया जाता है, अगरचे ऐसा भाषण उच्च पुलिस अधिकारियों जैसे स्व0 हेमन्त करकरे के खिलाफ ही क्यों न हो। हेमन्त करकरे ने, जो मुम्बई के संयुक्त पुलिस आयुक्त थे, ऐसे फासीवादी राजनैतिक दलों एवं संगठनों के खिलाफ धर्मयुद्ध शुरू कर रखा था। उनको 26 नवम्बर 2008 में शिवसेना के प्रमुख अखबार ‘सामना’ के माध्यम से गंभीर परिणाम की धमकी दी गई एवं उसी दिन उनकी हत्या कर दी गई जब मुम्बई पर कुख्यात हमला किया गया। इस हमले में अनेक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एवं विदेशी मारे गए। आज तक इस हमले का उद्देश्य रहस्य में लिपटा हुआ है।
उड़ीसा, झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ में जहाँ कि आदिवासियों की एक बड़ी संख्या मौजूद हैं, ईसाइयों, दलितों, आदिवासियों एवं गरीबों पर हमलों में पिछले दो दशकों मंे काफी वृद्धि हुई है क्योंकि ये लोग अपनी जम़ीन पर अवैध कब्जों का विरोध कर रहे थे जो भारतीय कारपोरेट घरानों एवं मल्टी नेशनल कम्पनियों द्वारा उस क्षेत्र में खनिज खुदाई के नाम पर बिना वैकल्पिक व्यवस्था किए हुए, हड़पी जा रही थी। ये लोग ‘फूट डालो एवं राज्य करो’’ की नीति का अनुसरण कर रहे हैं।
1991 के पश्चात सुप्रीम कोर्ट के द्वारा यह फैसला लिया गया कि ‘जनहित के नाम’ पर याचिकाओं में सरकार की आर्थिक नीति के मामलों में उच्च अदालतें पुनरावलोकन नहीं करंेगी क्योंकि इसका सम्बन्ध कार्यपालिका की नीति निर्धारण से है। जबकि सच्चाई यह है कि भारतीय संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को असीम पुनरावलोकन की शक्तियाँ प्रदान की हैं। काम्पट्रोलर एवं आडीटर जनरल आफ, इण्डिया (कैग) जो एक संवैधानिक संस्था है, ने कार्यपालिका के उन अधिकारियों को दोषी ठहराया है जिन्होंने सरकारी संस्थानों का निजीकरण किया। कैग ने निर्णय दिया कि सरकारी क्षेत्र के उद्यमों के मूल्य का आकलन उचित प्रकार से नहीं किया गया एवं उनका निजीकरण उनकी कीमत से कहीं कम दर पर किया गया जिसके कारण राजकोष को हानि उठानी पड़ी। भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने बालको इम्पलाइज यूनियन बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए0आई0आर0 2002 एस0सी0 350) मुकदमे में पब्लिक सेक्टर कम्पनी के निजीकरण के मामले में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया, यद्यपि जिन आधारों पर हस्तक्षेप की माँग की जा रही थी, उनमें एक आधार यह भी था कि पब्लिक सेक्टर कम्पनी की सम्पदा का आकलन निजीकरण करने के लिए गलत ढंग से किया गया एवं आरक्षित मूल्य को मनमाने ढंग से निर्धारित किया गया। सी0आई0टी0यू0 बनाम महाराष्ट्र राज्य मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने एक मुख्य टेªड यूनियन की उस याचिका को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया जिसमें इनरान कम्पनी के प्रोजेक्ट को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह प्रोजेक्ट राज्य बिजली बोर्ड की अर्थ व्यवस्था के लिए अहितकारी है एवं यह प्रोजेक्ट भारतीय बिजली अधिनियम के विपरीत है। सेन्टर फार पब्लिक इन्टरेस्ट लिटीगेशन बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए0आई0आर0 2008 एस0सी0 606) मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने, एक सार्वजनिक उपक्रम आयल एण्ड नेचुरल गैस कमीशन (ओ0एन0जी0सी0) द्वारा एक प्राइवेट कम्पनी रिलायन्स को आफशोर गैस एवं आॅयल कुओं की बिक्री, में जाँच करने से इन्कार कर दिया। इस याचिका में उक्त बिक्री में भ्रष्टाचार की शिकायत की गई थी तथा सबूत पेश किए गए थे जिसमें सी0बी0आई0 के एक अधिकारी की टिप्पणी भी थी कि इस मामले में अपराधिक मुकदमा दायर किया जाए।
नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के फलस्वरूप कार्य के स्थायित्व की कानूनी अवधारणा को नुकसान पहुँचा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस सम्बंध में अपने पहले के कई निर्णयों को बदला है। साथ ही साथ ‘कान्टैªक्ट लेबर एक्ट 1970 (नियमितीकरण एवं उन्मूलन) की भी खिलाफवर्जी की है। इस कानून के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई थी कि कार्य विशेष के लिए समझौते के आधार पर श्रम को समाप्त किया गया है एवं यदि कार्य की प्रकृति स्थाई है तथा कार्य करने वाला इस सम्बन्ध में आवेदन पत्र भी देता है तो कार्य करने वाले को स्थायी आधार पर सेवा दी जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने 2001 में स्टील अर्थारिटी आॅफ इण्डिया लिमिटेड बनाम नेशनल यूनियन वाटर, फ्रन्ट वर्कर्स (ए0आई0आर0 एस0सी0 527) मुकदमे में फैसला दिया कि समझौता पर आधारित श्रम अब समाप्त हो चुका है एवं कार्य की प्रकृति भी स्थायी है तथापि वर्तमान समझौते पर रखे गए मजदूरों को स्थाईं तौर पर नौकरी दिए जाने का कोई कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं है। इस फैसले से हजारों मजदूरों के लिए जो सेवा में स्थायित्व चाहते थे, कोर्ट का दरवाजा बन्द हो गया है।
भारतीय सुप्रीम कोर्ट के द्वारा डा0 विनायक सेन को 2007 में जमानत पर रिहा न करने के फैसले की काफी आलोचना की गई है। 22 नोबल पुरस्कार विजेताओं ने उनको रिहा करने की अपील की थी। डा0 विनायक सेन, पीपुल्स यूनियन फाॅर सिविल लिबर्टी के उपाध्यक्ष हैं। साथ ही साथ वह प्रसिद्ध समाजसेवी तथा बच्चों के मशहूर डाक्टर हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य में गरीब आदिवासियों के उत्थान के लिए काफी कार्य किया है। वे पिछले 20 महीनों से जेल में सड़ रहे हैं। डा0 विनायक सेन को अनिश्चित काल के लिए इसलिए जेल में डाला गया क्योंकि उन्होंने ‘सलवा’ जुडूम का विरोध किया था। सलवा जुडूम एक राज्य पोषित सशस्त्र संगठन है जिसको छत्तीसगढ़ राज्य में उन राजनैतिक आन्दोलन कारियों एवं लोगों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए सरकार द्वारा खुली छूट दे दी गई हैं जो भारतीय कारपोरेट कम्पनियों एवं मल्टीनेशनल कम्पनियों के द्वारा जमीन एवं संशाधनों पर कब्जे का प्रबल विरोध कर रहे हैं। हजारों आदिवासियों को पैरामिलिट्री सेनाओं के द्वारा छोटे-छोटे गाँवों में बन्दी बना दिया गया है। नागरिकों द्वारा गठित की गई जाँच समितियों ने फैसला दिया है कि डा0 विनायक जेल अधिकारियों की पूर्व अनुमति से जेल के अन्दर वृद्ध माओवादी कैदी को चिकित्सीय सहायता देने के लिए गए थे। इसी कारण उनको छत्तीसगढ़ स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट 2005 एवं अवैध गतिविधियाँ (रोकथाम) एक्ट 1967 के तहत गिरफ्तार किया गया। उन पर यह आरोप लगाया गया कि वे गुप्त दस्तावेज ले जाने का कार्य करते हैं। इस राक्षसी कानून के अन्तर्गत 1000-से ऊपर राजनैतिक कैदी राज्य की विभिन्न जेलोें में विगत कई वर्षों से सड़ रहे हैं। डा0 विनायक सेन जो हृदय रोग के गंभीर मरीज हैं, उनको आवश्यक चिकित्सीय सुविधा नहीं पहुँचाई गई। अदालत ने अभी जल्दी ही ये आदेश दिया है कि कैदी की मेडिकल रिपोर्ट प्राप्त की जाए एवं उन्हें आवश्यक चिकित्सीय सहायता उपलब्ध कराई जाए। (डा0 विनायक सेन को इस लेख के लिखने के दो महीने के बाद मई 2009 में अन्ततोगत्वा रिहा कर दिया गया।)
20 जनवरी 2005 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने पूरे हिन्दुस्तान की टेªड यूनियनों के पदाधिकारियों एवं सदस्यों को आश्चर्य में डाल दिया। सुप्रीम कोर्ट ने, एक विशेष अनुमति याचिका जिसको सी0बी0आई0, मध्य प्रदेश राज्य, एवं छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा आदि ने दायर किया था, पाँच मुख्य षड़यंत्रकारियों को रिहा कर दिया जिन पर टेªड यूनियन लीडर गुहानियोगी की हत्या का आरोप था। इन पाँचों में दो उद्योगपति, ओसवाल आॅयल एण्ड स्टील प्राइवेट लिमिटेड के मालिक चन्द्रकान्त शाह तथा सिम्पलेक्स इण्डस्ट्रीज के मालिक, मूलचन्द भी थे। सुप्रीम कोर्ट ने छठे व्यक्ति अर्थात जिस व्यक्ति को गुहा नियोगी को मारने की सुपारी दी गई थी, को उम्रकैद की सजा सुनाई। इसके पूर्व दुर्ग की सेशन कोर्ट ने पाँच अभियुक्तों जिसमें दो उद्योगपति शामिल थे उम्र कैद की सजा दी थी तथा छठे को जिसने सुपारी ली थी मौत की सजा सुनाई थी। गुहा नियोगी, जो मशहूर ट्रेड यूनियन नेता थे, को 25 सितम्बर 1991 को पत्तन मल्लाह, जो भाड़े का कातिल था, जिसके साथ गुहा की कोई शत्रुता न थी, के द्वारा निर्ममता से हत्या कर दी गई थी। सेशन्स कोर्ट के मुकदमें के दौरान सरकारी वकील ने यह आरोप लगाया था कि भिलाई के दो अग्रणी उद्योगपतियों ने शंकर गुहा नियोगी की हत्या करवाई क्योंकि नियोगी मजदूरों को संगठित कर रहा था और उनसे टेªड यूनियनें बनवा रहा था। जिसके कारण मजदूरों से सम्बंधित बहुत से कानून उस क्षेत्र में लागू करने पड़ रहे थे। इसके पूर्व, हाईकोर्ट ने सेशन्स कोर्ट के फैसले को उलटते हुए सभी 6 अभियुक्तों को रिहा कर दिया था।
उपर्युक्त न्यायिक निर्णयों का अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट रूप से जाहिर हो रही है कि न्यायालय की स्वतंत्रता तो सैद्धांतिक रूप से मौजूद है परन्तु वास्तव में न्यायालय दुनिया के दो बड़े प्रजातंत्रों एवं अन्य में स्वतंत्र नहीं हैं। संसार में बहुत से परिवर्तन हो रहे हैं। पुरानी प्रजातांत्रिक व्यवस्था, अपने सामाजिक एवं आर्थिक महत्व एवं उपयोगिता को खो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव, ‘‘बानकी मून’’ ने वर्तमान राजनैतिक एवं आर्थिक संस्थाओं की निरर्थकता को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित टिप्पणी की है क्योंकि ये संस्थाएँ आर्थिक एवं राजनैतिक संकट का सामना नही कर पा रही हैः-
‘‘हमने परिवर्तन की भयानकता को देखा है, मुझे डर है कि अभी हालात इससे भी खराब आने हैं। एक ऐसा राजनैतिक तूफान आएगा, जिससे समाज में अव्यवस्था बढ़ेगी, सरकारें और निर्बल होंगी एवं जनता और क्रुद्ध होगी-ऐसी जनता जिसने अपने नेताओं और स्वयं अपने भविष्य में विश्वास को खो दिया होगा।’’

लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

अन्तिम भाग
( समाप्त )

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29.11.09

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-5

संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य
रैण्डल बनाम विलियम एच साॅरेल 548 यू0एस0 230 (2006) मुकदमें में सुप्रीम कोर्ट ने छः भिन्न विचार व्यक्त किए उनमें से तीन जजों ने बहुमत राय से अभियान खर्चे की सीमाओं को समाप्त कर दिया एवं यह विचार व्यक्त किया कि खर्च पर कोई सीमा निर्धारित करना असंवैधानिक है। इस निर्णय से उन प्राइवेट कम्पनियों को काफी फायदा पहुँचा जो खुले तौर से राजनैतिक पदों की लालसा करती थीं।
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता को बचाने में बुरी तरह से असफल रहा है। जार्ज डब्लू बुश बनाम अलवर्ट गोरे जू0 531 यू0 एस0 98 (2008) के मुकदमें में यह बात साबित हो गईं। 5-4 जजों ने बहुमत से यह निर्णय दिया कि फ्लोरिडा में वोटों की गिनती रोक दी जाय। यह भी निर्णय में कहा गया कि ‘‘व्यक्तिगत वोटर को यू0एस00 के राष्ट्रपति के चुनाव में वोट देने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है, जब तक कि राज्य की विधायिका निर्णय दे।’’ जस्टिस जाॅन पाल स्टीवेन्स ने इस निर्णय से असहमति व्यक्त की एवं फैसला दिया कि ‘‘बहुमत निर्णय ने असंख्य वोटरों को वोट देने के अधिकार से वंचित कर दिया। यद्यपि हमें कभी निश्चित रुप से यह पता नहीं चल सकता है कि इस वर्ष राष्ट्रपति के चुनाव में वास्तविक विजेता कौन है। लेकिन एक बात पूर्णतया स्पष्ट है कि वास्तविक पराजय किसको मिली। वास्तविक हार राष्ट्र के उस विश्वास की हुईं जो जज को कानून के संरक्षक के रूप में देखती थी।’’
भारत वर्ष में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए निर्णयों में, जो 1950 से 1989 के मध्य दिए हैं एवं उन निर्णयों में जो 1990 से 2008 के मध्य दिए गए हैं, स्पष्ट अन्तर हैं क्योंकि राजनैतिक वातावरण आर्थिक नीतियों से काफी प्रभावित हुआ। मल्टी नेशनल कम्पनियाँ वजूद में आईं। प्रबल भारतीय बिजनेस घराने पहले से ही राजनैतिक शक्ति के साथ मौजूद थे। 1950 से 1989 के मध्य सम्पत्ति के अधिकार के क्षेत्र में त्रुटिपूर्ण निर्णय दिए गए जिसके कारण पचास तथा साठ के दशक में भूमि सुधार कानूनों में अवरोध उत्पन्न हुआ तथा सामन्त वादियों एवं पूँजीपतियों को फायदा पहुँचा। सत्तर के दशक के मध्य सुप्रीम कोर्ट ने 1975 में राजनैतिक इमरजेन्सी के दौरान बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं के निलम्बन को उचित ठहराया, जिसके कारण जनता में सुप्रीम कोर्ट की काफी आलोचना हुई एवं बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए माफी भी माँगी। निर्णय के प्रभाव को संसद के द्वारा संविधान में संशोधन करके समाप्त किया गया। बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं का निलंबन अस्थाई रहा क्योंकि 1977 में चुनाव कराए गए। सामान्य तौर से किसी भी शैक्षिक एवं राजनैतिक परिचर्चा में जिस चीज की उपेक्षा की जाती है वह यह कि 1977 के पश्चात, भारत के कई हिस्सों में अधिक तानाशाही की परिास्थतियाँ मौजूद हैं। तथाकथित आतंकवाद विरोधी कानून इसका प्रमाण है। अनके फर्जी इनकाउन्टर इसके आवरण में कराए जाते हैं। न्यायिक-समाज अथवा बुद्धिजीवियों के द्वारा इस पर कोई विचार विमर्श नहीं किया जाता है क्योंकि जो लोग इन कानूनों से प्रभावित हैं वे या तो सामान्य (मज़दूर) लोग हैं या निम्न मध्यम वर्ग के लोग हैं।
1990 के पश्चात, भारत का सर्वोच्च न्यायालय कारपोरेट घरानों के आक्रमण के प्रभाव से अपने आप को नहीं बचा सका। यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया एवं अन्य (0आई0आर0 1990 सुप्रीम कोर्ट 273) भोपाल गैस काण्ड मुकदमे में यह पूर्णतया दृष्टिगोचर है। यूनियन कार्बाइड की लापरवाही के कारण दो-तीन दिसम्बर 1984 को मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का रिसाव हुआ, जो बहुत ही जहरीली गैस है। इस रिसाव के फलस्वरूप औद्योगिक एवं वातावरण सम्बंधी बहुत ही गंभीर दुर्घटना हुई जिसमें हजारों लोग मारे गए। इस मामले में यूनियन कार्बाइड, भारत सरकार से अपनी शर्तों को मनवानी चाहती थी। सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन कार्बाइड की शर्तों को जल्दबाजी में स्वीकार कर लिया। इन शर्तों के तहत यूनियन कार्बाइड को, विश्व के सबसे भयानक वातावरण सम्बंधी (गैस) दुर्घटनाओं में से एक में बहुत ही कम क्षति पूर्ति करनी थी। यह क्षतिपूर्ति यू0एस00 में की जाने वाली तुलनात्मक क्षतिपूर्ति के मुकाबले में बहुत कम थी। साथ ही साथ भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार के उस अधिकार का भी सौदा कर दिया जिसके द्वारा यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों पर आपराधिक उपेक्षा एवं हत्या का मुकदमा चलाया जाता। भोपाल गैस काण्ड में लगभग तीन हजार लोग मारे गए, 60 हजार लोग गम्भीर रूप से घायल हुए तथा लगभग 2 लाख लोग स्थायी रूप से प्रभावित हुए। हजारों जानवर मारे गए। फसलंे नष्ट र्हुइं, व्यापार एवं वाणिज्य बाधित हुआ। सुप्रीम कोर्ट के उपर्युक्त निर्णय को पुनरावलोकित किया गया, क्योंकि पुनरावलोकन याचिकाएँ दायर की र्गइं एवं जनता में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की काफी आलोचना की गई। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इस याचिका का निस्तारण प्रभावित लोगों के संतोष तक कभी नहीं किया गया। यूनियन कार्बाइड ने भारत मंे विभिन्न स्तरों पर अधिकारियों को प्रभावित किया। इसका प्रमुख वारेन एण्डरसन जमानत के दौरान फरार हो गया। 5 जजांे वाली सुप्रीम कोर्ट की बेन्च ने यह फैसला दिया कि शर्तें सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इसलिए निर्धारित की गईं क्योंकि सम्बंधित पक्ष इस पर सहमत हुए एवं भारत में उपचार प्राप्त करने में विलम्ब हुई। इसी घटना के साथ एक अन्य घटना यह हुई कि अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में एक मशहूर भारतीय न्यायाधीश डा0 नगेन्द्र सिंह की मृत्यु के कारण वह सीट रिक्त हो गई थी। उनके स्थान पर एक दूसरे भारतीय के चुनाव के लिए उस देश का वोट आवश्यक था। जहँा पर यूनियन कार्बाइड का मुख्यालय था।
1991 के पश्चात, राजनैतिक रूप से शक्तिशाली भारतीय कम्पनियों के द्वारा फूट डालने वाला एक कार्यक्रम अपनाया गया। इस कार्यक्रम में मल्टी नेशनल कम्पनियों एवं बैंकों ने फासीवादी पार्टियों जैसे भारतीय जनता पार्टी, शिव सेना, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना आदि पार्टियों का प्रयोग खुले तौर पर किया। यह कार्य मुम्बई तथा अन्य स्थानों पर भिन्न नामों से इसलिए किया गया ताकि जनता का ध्यान उन हानिप्रद आर्थिक नीतियों से हटाया जा सके जो वे कम्पनियाँ यहाँ सरकार की मदद से लागू कर रही थीं। इन कम्पनियों ने इन फासीवादी पार्टियों की मदद से धर्म की दुहाई शुरू की एवं मुस्लिम एवं अन्य अल्पसंख्यक लोगों को राक्षस बनाकर पेश किया ताकि लोगों के ध्यान को आर्थिक नीतियों से हटाया जा सके। इसी समय सुप्रीम कोर्ट के 3 जजों की बेन्च ने मनोहर जोशी बनाम नितिन भाउराव पाटिल (0आई0आर0 1996 एस0सी0 796) मुकदमे में मुम्बई हाईकोर्ट के उस फैसले को उलट दिया जिसमें शिवसेना प्रत्याशी को लोक प्रतिनिधि अधिनियम 1951 के अन्तर्गत साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने वाला भाषण देने के लिए चुनाव लड़ने हेतु अयोग्य घोषित किया गया था। शिवसेना प्रत्याशी ने आम सभा में घोषणा की थी कि यदि उनकी पार्टी विजयी हुई तो महाराष्ट्र को प्रथम हिन्दू राज्य घोषित किया जाएगा। यही प्रत्याशी जीतने के बाद भारतीय जनता पार्टी एवं शिवसेना के द्वारा मुख्यमंत्री चुना गया। इसके पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने केसवन भारती बनाम स्टेट आफ केरल मुकदमे में सात जजों के बहुमत ने यह फैसला दिया था कि धर्म निरपेक्षता भारतीय संविधान की मूल भावना है। जिसको तो परिवर्तित किया जा सकता है और ही रद्द किया जा सकता है। किसी ऐसे मामले में जिसका सम्बन्ध चुनाव में धर्म के आधार पर अपील करने जैसी भ्रष्ट क्रियाओं से हो।
भारत की न्यायिक एवं कानूनी व्यवस्था निर्दोष नागरिकों की सामूहिक हत्या एवं अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्याओं के सम्बन्ध में पूरी तरह से कार्य करने में सक्षम सिद्ध नहीं हुई है। फासीवादी, राजनैतिक दलों ने, जिनकी पुश्तपनाही कारपोरेट घरानों, एवं धनी वर्ग के द्वारा की जाती है, अनेक जघन्य कार्य अंजाम दिए हैं ताकि वे लोगों के ध्यान को भारत की अर्थव्यवस्था पर कारपोरेट घरानों के कन्ट्रोल से हटा सकंे। यद्यपि इन कारपोरेट घरानों के मुख्य सदस्यों को, जाँच आयोगों द्वारा जिनकी अध्यक्षता हाईकोर्ट के कार्यरत जज करते हैं, दोषी पाया गया है। पहले तो इन मामलों में शिकायत दर्ज नहीं की जाती है और यदि दर्ज कर ली गई तो उसकी जाँच पड़ताल नहीं की जाती है एवं अन्ततोगत्वा फाइल को बन्द कर दिया जाता है। दिसम्बर 1992 एवं जनवरी 1993 में मुम्बई (महाराष्ट्र राज्य) में हुई सामूहिक हत्या के मामलों में किसी को दोषी नहीं ठहराया गया है। इन साम्प्रदायिक हमलों में 2000 से अधिक लोग मारे गए, सैकड़ों लोग लापता हो गए, तथा पुलिस सैकड़ों मामलों में केवल ऊपर के आदेश का पालन करती हुई मूक दर्शक बनी रही। इसके विपरीत, 1993 के मुम्बई विस्फोट घटनाओं के मुकदमों के मामले में, जिसके मुख्य अभियुक्त, अन्डरवल्र्ड के खरीदे हुए सदस्य थे, उनको बचने का मौका दिया गया। इन विस्फोटो में सभी धर्मों के लोग मारे गए थे।



लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

जारी ....

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राष्‍ट्रीय पाठक सर्वे : कारपोरेट मीडि‍या की गि‍रती साख भागते पाठक

भारतीय कारपोरेट मीडि‍या कठि‍न चुनौति‍यों से गुजर रहा है। जो लोग मीडि‍या तूफान में मुब्‍ति‍ला थे। उनकी नींद गायब हो चुकी है। उनके लि‍ए बुरी खबर है। 'इंडि‍यन रीडरशि‍प सर्वे 2009 प्रथम चरण' के परि‍णाम मीडि‍या उस्‍तादों के लि‍ए गम की खबर लेकर आए हैं। ये परि‍णाम इस बात का भी संकेत है कि‍ मीडि‍या में अगर वि‍कास की संभावनाएं हैं तो सारवान अंतर्वस्‍तु के अभाव में यह वि‍कास ठहर भी सकता है। प्रेस में जि‍स तरह का एकांगीभाव पैदा हुआ है और समाचारों में कमी आयी है उसने पाठकों को भगाना शुरू कर दि‍या है।

भारतीय पाठक के साथ वि‍गत दौर में प्रिंट मीडि‍या ने जि‍स तरह की ठगई अंतर्वस्‍तु के स्‍तर पर आरंभ की है और जि‍स तरह अखबार वालों ने अखबार की कीमतों में इजाफा कि‍या है उससे सीधे सर्कुलेशन प्रभावि‍‍त हुआ है। अखबार और पत्रि‍काओं की साख घटी है। वि‍श्‍वसनीयता घटी है।

सर्वे के अनुसार 25 बड़े प्रकाशनों ( इनमें अखबार और पत्रि‍का दोनों शामि‍ल हैं) में से मात्र 9 प्रकाशनों में पाठकों की वि‍कास दर दर्ज की गई है। जबकि‍ समग्रता में पाठक प्रति‍शत नीचे गि‍रा है। इनमें 16 प्रकाशनों में गि‍रावट दर्ज की गयी है। इसमें भी सर्वोच्‍च अभि‍जन प्रकाशनों में 51.89 प्रति‍शत तक की गि‍रावट दर्ज की गई है। यही दशा अंग्रेजी में प्रकाशि‍त होने वाली पत्रि‍काओं की भी है उनके पाठकों में तेजी से गि‍रावट आई है।

एकमात्र मराठी दैनि‍क पुधरी का सर्कुलेशन सबसे ज्‍यादा बढ़ा है। यानी उसका 8.83 प्रति‍शत सर्कुलेश्‍न बढ़ा है। दि‍ल्‍ली से प्रकाशि‍त साप्‍ताहि‍क पत्रि‍का सरस सलि‍ल का सर्कुलेशन तेजी से नीचे गि‍रा है। उसका सर्कुलेशन 12.95 प्रति‍शत घटा है।

सर्वे में पाठकों की एक ऐसी केटेगरी भी थी जो कि‍सी न कि‍सी प्रकाशन को पढ़ती थी, इस केटेगरी के पाठकों को सर्वे कर्त्‍ताओं से सार्वभौम पाठक का नाम दि‍या। सार्वभौम पाठकों में अंग्रेजी दैनि‍क पढ़ने वालों की संख्‍या में मामूली इजाफा हुआ, यानी मात्र 0.47 प्रति‍शत पाठक अंग्रेजी प्रकाशनों के बढ़े हैं।

अंग्रेजी शि‍क्षा और अंग्रेजी के अभि‍जन सामाजि‍क आधार के बाद इतनी कम मात्रा में पाठकों की संख्‍या में इजाफा कि‍सी भी तर्क से संतोषजनक नहीं है। इसका अर्थ यह भी है अंग्रेजी के प्रकाशन भी पाठकों को तरस रहे हैं। आज भी हि‍न्दी का दैनि‍क जागरण भारत का सबसे ज्‍यादा पढ़ा जाने वाला एकमात्र अखबार है। उसे भी अपने पाठकों को इस दौरान खोना पडा है। जागरण ने अपने 1.1 मि‍लि‍यन पाठक खोए हैं।

उल्‍लेखनीय है यह समाचारपत्र सबसे पहले वि‍देशी पूंजीनि‍वेश के लि‍ए अपने दरवाजे खोलने वाले चंद अखबारों में से है। पाठकों के भागने का कहीं वि‍देशी पूंजी प्रेम के साथ संबंध तो नहीं है ?

इसी तरह तेलुगू अखबार वार्था का सर्कुलेशन सबसे ज्‍यादा गि‍रा है। सन् 2004 के वि‍धानसभा चुनाव में कांग्रेस के राज्‍य में सत्‍ता में आने के बाद से इस अखबार ने कांग्रेस के पक्ष में अंधी भक्‍ति‍ का प्रदर्शन कि‍या और उसे 1.3 मि‍लि‍यन पाठक यानी कुल 21 प्रति‍शत पाठकवर्ग खोने पड़े हैं। इस अखबार के पठकवर्ग कम होने का एक कारण यह भी है कि‍ तेलुगू के अनेक पाठक स्‍व. मुख्‍यमंत्री वाईएसआर रेड्डी के बेटे जगन रेड्डी के द्वारा आरंभ कि‍ए गए अखबार की ओर चलेगए।

अंग्रेजी दैनि‍कों में सबसे ज्‍यादा पढ़े जाने वाले 24 अंग्रेजी अखबारों में मात्र छह अखबारों में वि‍कास देखा गया। इनमें हि‍न्‍दुस्‍तान टाइम्‍स प्रकाशन के द्वारा प्रकाशि‍त मिंट का सर्कुलेशन सबसे ज्‍यादा बढ़ा। उसके पाठकों में 15.67 प्रति‍शत का इजाफा हुआ। जबकि‍ मेट्रो के पाठकों में 103 प्रति‍शत की बढोत्‍तरी हुई। न्‍यू इंडि‍यन एक्‍सप्रेस और इंडि‍यन एक्‍सप्रेस की पाठक संख्‍या क्रमश: 14.19 प्रति‍शत और 11.37 प्रति‍शत कम हुई है।

इसके अलावा हि‍न्‍दुस्‍तान टाइम्‍स,टेलीग्राफ, मि‍ड डे,मुंबई मि‍रर,असम ट्रि‍ब्‍यून, दि‍ ट्रि‍ब्‍यून, स्‍टेटसमैन, दकन हेरल्‍ड, हि‍न्‍दू बि‍जनेस लाइन, हि‍तवाद नागपुर, नवहि‍न्‍द टाइम्‍स, हेरल्‍ड के पाठकों की संख्‍या में गि‍रावट दर्ज की गई है। जबकि‍ टाइम्‍स ऑफ इंडि‍या के पाठकों की संख्‍या पि‍छले सर्वे की तुलना में 0.09 प्रति‍शत बढ़ी है। डीएनए 11.37 प्रति‍श्‍रत ,हि‍न्‍दू 1.84 प्रति‍शत , मिंट 15. 67 प्रति‍शत पाठक संख्‍या बढ़ी है।

28.11.09

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-4

संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य

आश्चर्यजनक रूप से सुप्रीम कोर्ट का एक कार्यरत जज इस बात पर जोर दे रहा था कि व्यक्तिगत अधिकार तथाकथित राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों के कारण दबा दिए जाएँगे। 9/11 की आतंकवादी घटना से सम्बंधित बहुत से ऐसे प्रश्न हैं जिनका जवाब अभी प्राप्त नहीं हुआ है तथा उनमें ऐसे प्रश्न भी हैं जिनको तकनीकी एवं इन्जीनियरिंग विशेषज्ञों ने उठाया है। वास्तविकता यह है कि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध का तात्पर्य मुख्य आर्थिक संस्थाओं एवं घरानों के द्वारा युद्ध है जो संयुक्त राज्य अमेरिका में इस गूढ़ आर्थिक एवं राजनैतिक संकट के समय में राजनैतिक विरोध को दबाने के लिए किया जा रहा हैं
कुछ महत्वपूर्ण मुकदमों के अध्ययन से जो कि 1990 या उसके आसपास हुए हैं, यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगी कि संयुक्त राज्य अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट एवं भारत के सुप्रीम कोर्ट दोनों मंे कौन ज्यादा स्वतंत्र है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के उपराष्ट्रपति डिक चेनी बनाम संयुक्त राज्य अमेरिका, जिला न्यायालय (कोलम्बिया) संख्या 4-475 दिनांक 18 मार्च 2004 के मुकदमें में न्यायाधीश जस्टिस अन्टोनिन स्कालिया ने सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही के दौरान अपने आपको डिक चेनी से व्यक्तिगत सम्बंध रखने से इनकार कर दिया। अमेरिका बार एसोसिएशन की आदर्श आचार संहिता के अनुसार ‘‘जजों को सभी प्रकार के अनुचित व्यवहार से अपने आप को बचाना है।’’ जस्टिस स्कालिया का उपराष्ट्रपति चेनी के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध, मुकदमे के चलते रहने के दौरान पूरी तरह अनुचित था। डिक चेनी उस समय बुश नेशनल एनर्जी पालिसी डेवलेपमेन्ट ग्रुप के चेयरमैन थे। जिस पर फेडरल एडवाइजरी के कानून तोड़ने का आरेाप था। इस कानून के अनुसार नेशनल एनर्जी पालिसी डेवलेपमेन्ट ग्रुप को अपनी कार्यवाही को जनता के समक्ष पेश करना था क्योंकि यह ग्रुप पूरी तरह से सरकारी अधिकारियों से बना था। इस ग्रुप में इनरान कम्पनी के सी000, स्व0 केनेथ ले भी शामिल थे। जस्टिस स्कालिया के द्वारा अपने आप को कार्यवाही के दौरान डिक चेनी से सम्बंध रखने से इन्कार करना न्यायिक स्तर के पतन की ओर इशारा करता है।
प्रजातंत्र के आवरण के पीछे संयुक्त राज्य अमेरिका में पुलिस राज्य है। यह इस बात से स्पष्ट है जिसमें ‘‘शत्रु लड़ाकू’’ के नाम पर हजारों बेगुनाह नागरिकों को ग्वान्टानामों बे एवं दूसरी जेलों में पिछले छः वर्षों से बिना मुकदमा चलाए कैद रखा जा रहा है। हमदी बनाम रम्ज़फील्ड नं0 542, यू0एस0 507, सन 2004 के मुकदमें के फैसले में यह बात स्वीकार की गई कि व्यक्ति को बन्दी प्रत्यक्षीकरण का अधिकार है। यह भी निर्णय दिया गया कि संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति को ‘‘आतंकवाद के खिलाफ’’ युद्ध में असीमित शक्तियाँ प्राप्त हैं जिसके तहत लोगों को बन्दी बनाया जा सकता है, बिना मुकदमा चलाए केवल शक के आधार पर जेलों में डाला जा सकता है। जस्टिस साॅण्ड्रा कोनर ने सैद्धांतिक रूप से यह स्वीकार किया कि न्यायालय को गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों के सम्बन्ध में न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार हैं इस निर्णय का प्रभाव यह पड़ा कि निर्दोषता की अवधारणा के सिद्धांत का परित्याग कर दिया गया एवंसबूत का बोझअभियोग लगाए गए व्यक्ति पर हस्तांतरित कर दिया गया कि वह साबित करे कि वहशत्रु लड़ाकूनहीं है। सरकार का यह अधिकार कि वहफर्जी सबूत पेश करेबना रहा एवं मिलिट्री कोर्ट के समक्ष सुनवाई को पर्याप्त माना गया।
रसूल बनाम जार्ज बुश नं0 542 यू0एस0 466 सन् 2004 के मुकदमें में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि ग्वान्टानामों कैदी, कान्ग्रेसनल हैबीस कारपस एक्ट 1863 के तहत, बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका को दायर कर सकते हैं। इसको रोकने के लिए संसद ने डिटेनी ट्रीटमेन्ट एक्ट 2005 पारित किया एवं कम्बैट स्टेट रिब्यू ट्रिब्यूनल स्थापित किए गए, वास्तव मेंरिब्यू ट्रिव्यूनलकंगारु अदालतंे यानी फर्जी अदालतें थीं जिसमेंवकील एवं सबूतको कोई स्थान नही दिया गया।
सन् 2006 में हमदान बनाम रम्ज़ फील्ड नं0 548 यू0एस0 मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया किडिटेनी ट्रीटमेन्ट एक्टउन लोगों पर लागू नहीं होगा जिन्होंने बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएँ पहले से दायर कर रखी हैं। इस सुविधा को समाप्त करने के लिए मिलिट्री कमीशन एक्ट 2006 पारित किया गया ताकि ग्वान्टानामो के कैदियों की सभी बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं को खारिज किया जा सके।
अन्ततोगत्वा सन् 2008 में लखदर बूमीडीन बनाम जार्ज बुश नं0 553 यू0एस0 2008 मुकदमे में संयुक्त राज्य अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने अन्तर्राष्ट्रीय विरोध के फलस्वरूप, ग्वान्टानामो एवं दूसरे स्थान की जेलों में कैदियों पर जो अत्याचार हो रहा था, एवं जिन्हें अकारण बिना मुकदमा चलाये छः साल जेलों में बन्द किया जा रहा था, यह निर्णय दिया किशत्रु लड़ाकूव्यक्तियों को बन्दी प्रत्यक्षीकरण की याचिका को दाखिल करने का अधिकार प्राप्त है। तथापि कार्यपालिका के उस अधिकार को चुनौती नहीं दी गई, जिसके अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को शत्रु लड़ाकू घोषित कर दिया जाता था। अन्य अधिग्रहीत देशों की जेलों के कैदियों को जिन्हें अवैध रूप से बन्द किया गया था, इस आदेश से कोई राहत नहीं मिली। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि लाखों लोग जो मारे गए एवं अधिग्रहीत देशों में ‘‘आतंकवाद के खिलाफ युद्धके नाम पर जिन लोगों को शरणार्थी बनाया गया, उनमें से लगभग 90 प्रतिशत लोग आम नागरिक थे। संयुक्त राज्य अमेरिका एवं यू0के0 की सरकारों नेजेनेवा कन्वेन्शन की धज्जियाँ उड़ा दी हैं।
प्रथम दृष्टया, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक एवं कारपोरेट फ्राड (धोखाधड़ी) के फलस्वरूप अपने आप को पूरी तरह से अकर्मण्य साबित कर दिया है। फाइनेन्सियल डिस्क्लोजर रिपोर्ट 2001 के अनुसार अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के अधिकतर जज 9 में से 5 जज करोड़पति हैं। यदि उनके व्यक्तिगत निवास स्थानों की भी कीमत लगा दी जाए तो सभी 9 के 9 जज करोड़पति हैं। उनकी विचार धारा वही है जो वाॅल स्ट्रीट की है। इन्हीं जजों ने उस याचिका को खारिज कर दिया था जो वाॅल स्ट्रीट बैंकर्स के खिलाफ पेंशन एवं निवेश से सम्बंधित थी। इन बैंकों में मेरिल लिंच, क्रेडिट सुइस ग्रुप, एवं बार्क ले बैंक शामिल थे। इन बैंकों ने इनरान कम्पनी के अधिकारियों के ऋण को रेब्न्यू (आमदनी) के रूप में पेश करके दिखाया।
रीजेन्टस आॅफ यूनीवर्सिटी आॅफ केलीफोर्निया बनाम मेरिल लिन्च 2008 डब्लू0एल0 169504 (यू0 एस 2008) के मुकदमे में यह निर्णय दिया गया। इसका सम्बन्ध उस वृहत वित्तीय फ्राड से था जो होस्टन ऊर्जा जायन्ट, इनरान कम्पनी ने किया। यह निर्णय उस निर्णय के बाद आया जो स्टोनरिज इनवेस्टमेन्ट पार्टनर्स एल0एल0सी0 बनाम साइंटिफिक अटलांटा इंक 552 यू0सं0 2008 के मुकदमे में दिया गया था। जिसमें जस्ट्सि एण्टोनी केनेडी ने बहुमत से यह-निर्णय दिया था कि ‘‘ऐसी कम्पनियों को इन्वेस्टमेंट फ्राड के लिए उत्तरदायी ठहराना वाॅल स्ट्रीट के लिए बुरा सिद्ध हो सकता है एवं हमारे कानून के अन्तर्गत एक सार्वजनिक व्यापारिक कम्पनी होने की महंगी कीमत चुकानी पड़ सकती है।’’ उपयुकर््त निर्णय अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के उन तमाम निर्णयों में से एक था जिसको व्यापारिक संस्थानों के पक्ष में दिया गया।


लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

जारी ....

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चुभन

चुभन दिल में बड़ी आजीब सी होती हैं,
इसकी ख़ुशी भी हमे अजीज सी होती है।
चुभन दिल में...
हम क्या करे हमे प्यार है उनसे,
और वो कहते है हमसे,
की ऐसी किस्मत बड़े नसीब से होती है...
चुभन दिल में...
मन की पतंगे,
ख्वाबो के आसमा में, खो जाती है...
जैसे नीले आसमा की गोद में वो सो जाती है,
फिर भी वो हमारे लिए सजीव सी होती है...
चुभन दिल में...
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-हिमांशु डबराल

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सनक: युवतियों की खतरनाक टी र पी

सनक: युवतियों की खतरनाक टी र पी

27.11.09

युवा दखल: कितना बर्दाश्त करेगा दलित?

युवा दखल: कितना बर्दाश्त करेगा दलित?

हरीश


स्वीकार






सत्य और असत्य के बीच इतना बड़ा स्पेस होता है कि आप अपना सत्य खुद तय कर सकते हैं. इस बारे में एक लतीफा सुनिए. एक आदमी मनोचिकित्सक के पास गया और कहा कि मेरा इलाज कीजिए, नहीं तो मेरी ज़िन्दगी तबाह हो जाएगी. मनोचिकित्सक ने पुछा- आपको क्या तकलीफ है ? आगंतुक ने कहा- मुझे बहुत तगड़ा इनफीरियरिटी कॉम्पलेक्स है. मनोचिकित्सक बहुत देर तक उससे उसके बारे में तमाम जानकारियां लेता रहा. फिर बोला- मैंने जांच लिया है. आपको वास्तव में कोई कॉम्पलेक्स नहीं है. आप इनफीरियर हैं ही.अगर आप इस सच्चाई को स्वीकार कर लें, तो आपकी सभी परेशानियां खत्म हो जाएंगी और आप बेहतर जीवन बिता सकेंगे.
आप क्या सोचते हैं, उस आदमी ने मनोचिकित्सक की सलाह मान ली होगी ? मूर्ख अगर यह स्वीकार करने लगें कि वे मूर्ख हैं और बुद्धिमान अगर यह स्वीकार करने लगें कि एकमात्र बुद्धिमान वे ही नहीं हैं, तो हम कितनी नाहक वेदनाओं से बच जाएं. यह और बात है कि तब अनेक नई वेदनाएं गले पड़ जाएंगी. मसलन बड़ा मूर्ख इस फ़िक्र से परेशान रहेगा कि अनेक लोग मुझसे कम मूर्ख है. इसी तरह कम बुद्धिमान ज्यादा बुद्धिमान से रश्क करने लगेगा. सत्य के साथ यही मुश्किल है.
                                                                 (अहा! ज़िन्दगी- संकलन से)


प्रबल प्रताप सिंह

26 /11 के पेज 3 शूरमाओं का चारण काव्‍य

टेलीवि‍जन पर क्रोध और प्रति‍वाद से तमतमाए चेहरे गायब हैं। सड़कों ,गली, मुहल्‍लों, शहरों से प्रति‍वाद उठकर चैनलों के पर्दे पर पहुँच गया है। सड़कें सूनी हैं, बसों में कोई चर्चा नहीं है, लोकल ट्रेन में सन्‍नाटा है,लेकि‍न टेलीवि‍जन में गरमागरम बातें हो रही हैं। आतंकवाद के खि‍लाफ सक्रि‍य इन टेलीवि‍जन शूरमाओं को आप कभी कि‍सी भी राजनीति‍क संघर्ष में नहीं देखेंगे। ये कि‍सी दल के भी सदस्‍य नहीं हैं। इनका राजनीति‍ में वि‍श्‍वास नहीं है। लेकि‍न राजनीति‍क वि‍षयों पर बोलना ये अपना जन्‍मसि‍द्ध अधि‍कार समझते हैं।

ये ऐसे उपदेशक हैं जो अपने घरों में 12 महि‍ने कैद रहते हैं। कभी घर से नि‍कलते हैं तो दफ्तर के लि‍ए,क्‍लब के लि‍ए ,पार्टी के लि‍ए अथवा सीधे चैनलों के टॉक शो के लि‍ए। इनके पास हर समस्‍या का रेडीमेड जबाव है। आप इनसे कि‍सी भी वि‍षय पर बुलवा लीजि‍ए ये वि‍शेषज्ञ की तरह दावे के साथ बोलते हैं। यह बात दीगर है कि‍ ये जि‍स वि‍षय पर बोलते हैं उसके बारे में इनकी जानकारी बहुत कम और नि‍रक्षर से बेहतर नहीं है।

चैनल वाले इन्‍हें ज्ञानी पुरूष मानकर बुलाते हैं। मेरी बात पर वि‍श्‍वास न हो तो इन टेलीवि‍जन शूरमाओं के ज्ञान का अध्‍ययन करने के लि‍ए कभी इनसे फोन करके पूछ लें कि‍ इन्‍होंने आतंकवाद पर क्‍या पढ़ा और क्‍या लि‍खा है ? थोड़ा परि‍श्रम करने का वि‍चार हो तो लाइब्रेरी चले जाएं। इंटरनेट सर्च पर नि‍कल जाएं। आप सच मानि‍ए इनके लि‍खे के आपको दर्शन नहीं होंगे। सवाल कि‍या जाना चाहि‍ए टेलीवि‍जन वाले कि‍से मूर्ख बना रहे हैं और क्‍यों सुचि‍न्‍ति‍त ढंग से दर्शकों के साथ ठगई कर रहे हैं ?

26 /11 के टेलीवि‍जन टॉक शो के शूरमाऔं को कभी जनता के कि‍सी भी संघर्ष में शामि‍ल होते नहीं देखा । इन्‍होंने आतंकवाद के बारे न तो पढ़ा है और न कुछ लि‍खा है। इनका एक ही (अव)गुण है ये सैलीबरेटी हैं। ये पेज3 कल्‍चर के नायक हैं। आतंकवाद का प्रति‍वाद पेज3 कल्‍चर के नायकों के माध्‍यम से सम्‍पन्‍न कि‍या जाएगा तो इससे आम जनता की राजनीति‍क शि‍रकत को बढाना देना संभव नहीं है।

पेज3 कल्‍चर का नायक कभी भी जनता का प्रेरक नहीं रहा। कहीं पर भी नहीं रहा। यहॉं तक कि‍ अमेरि‍का में भी नहीं है। नपुसंक प्रति‍वाद का यह पेज 3 मार्का अराजनीति‍क ग्‍लोबल रूप हमारे बीच में आ गया है। इसकी वि‍शेषता है कि‍ आपको प्रति‍वाद में गुस्‍से की जरूरत नहीं है। जनता की जरूरत नहीं है। जनता को राजनीति‍क तौर पर शि‍क्षि‍त करने,जागरूक करने की जरूरत नहीं है। सि‍र्फ चैनल के पर्दे पर हल्‍की सी असहमति‍ ,बक-बक ही काफी है। नए ग्‍लोबल प्रति‍वाद का यह रूप 18वीं सदी के उत्‍तरार्द्ध वाले प्रति‍वाद से काफी मि‍लता जुलता है। उस जमाने में भारतीय प्रति‍वाद नहीं करते थे। कुछ बड़े लोग थे, जो आवेदन और प्रार्थनाएं करते थे। जुलूस नि‍कालने नहीं पड़ते थे।प्रति‍नि‍धि‍मंडल लेकर जाते थे। मांगपत्र देते थे और प्रार्थना करके चले आते थे। प्रति‍वाद के इस रूप की कुछ संशोधनों के साथ टेलीवि‍जन युग में तेजी से वापसी हुई है।

26 /11 की आतंकी घटना पर एक साल बाद सारे देश में क्‍या हो रहा था हम शायद ही जानते हों। लेकिन कल मुंबई में क्‍या हो रहा था, हम जरूर जानते हैं। इस जानकारी के लि‍ए हमें चैनलों को 'धन्‍यवाद' देना चाहि‍ए। हमें वि‍भि‍न्‍न देशभक्‍त राजनीति‍क दलों को भी 'धन्‍यवाद' देना चाहि‍ए कि‍ उन्‍होंने जब यह घटना हुई तब भी प्रति‍वाद में भारतबंद नहीं कराया। महाराष्‍ट्र बंद नहीं कराया। सड़कों पर लंबे जुलूस नहीं नि‍काले। कल भी जब देश में प्रति‍वाद हो रहा था तो सारे राजनीति‍क दल शांत थे। कहीं पर कोई बड़ी प्रति‍वाद रैली नहीं नि‍कली। मैंने कम से कम से कम कि‍सी भी स्‍थान पर बड़ी रैली की खबर नेट पर नहीं देखी है। आपने देखी हो तो जरूर बताएं।

सवाल उठता है कि‍ क्‍या 26 /11 की घटना इतनी बेकार की घटना थी कि‍ उ‍स पर हमें गुस्‍सा ही न आए । हमारे राजनीति‍क दल सड़कों पर ही न नि‍कलें। मुंबई में आए दि‍न कॉंच तोड़ने वाले शि‍वसैनि‍क और उनके जुड़वॉं राजठाकरे के लोग भी गुस्‍से से तमतमाएं नहीं। उन्‍होंने ने भी महाराष्‍ट्र बंद नहीं कि‍या। कोई बड़ी रैली नहीं नि‍काली। ऐसा क्‍या हुआ कि‍ राजनीति‍क दलों ने अपनी दुकानें इस मसले पर एकसि‍रे से बंद कर दीं। वामपंथी दलों को भी क्‍या दि‍क्‍कत हुई कि‍ वे भी सारे देश में इस घटना के खि‍लाफ खासकर पश्‍चि‍म बंगाल,केरल और त्रि‍पुरा में बड़े प्रति‍वाद समारोह नहीं कर पाए।

क्‍या हम यह मान लें कि‍ आतंकी हमले के समय हम सि‍र्फ भीड़ की तरह,गुमनाम लोगों की तरह प्रति‍वादस्‍वरूप पेज3 सैलीबरेटी लोगों के साथ मोमबत्‍ति‍यां जलाएंगे, हमारे चैनलों पर कुछ सैलि‍ब्रेटी ,कुछ सोशलाइट,वि‍ज्ञापन कंपनी के लोग,कुछ रि‍टायर्ड सैनि‍क और पुलि‍स अफसर ,कुछ बि‍के हुए सरकारी पत्रकार और कुछ सि‍नेमा के छोकरे आतंकवाद के खि‍लाफ टेलीवि‍जन पर प्रचवन देंगे। कुछ पत्रकार अपनी मांद से नि‍कलकर आएंगे और पोस्‍टमार्टम कर देंगे और यह काम सारे चैनलों पर एक ही समय एक ही साथ सम्‍पन्‍न होगा। यहां तक कि‍ मौन रखने का समय भी प्राइम टाइम में ही होगा। गृहमंत्री भी चैनल पर ही मौन रखकर अपने कर्त्‍तव्य की इति‍श्री समझ लेगा और राजदीपसरदेसाई हमारी जनता का प्रति‍नि‍धि‍ हो जाएगा। शर्म आती है ऐसे अराजनीति‍क प्रचार पर। यह हमारी राजनीति‍क नपुंसकता का महि‍मामंडन है।

टेलीवि‍जन बाइटस के लि‍ए कि‍ए गए एक्‍शन प्रति‍वाद का चारणरूप हैं। क्‍या इस मसले पर वि‍भि‍न्‍न राजनीति‍क दलों को पाक उच्‍चायुक्‍त के सामने जुलूस,रैली आदि‍ नहीं करनी चाहि‍ए थी ? हम सोचें हम कि‍स दि‍शा की ओर जा रहे हैं ? हमने राजनीति‍क प्रति‍वाद टेलीवि‍जन बाइट्स में तब्‍दील कर दि‍या है। हम कैमरे में मुँह दि‍खाने के लि‍ए,चैनल पर चेहरा दि‍खाने के लि‍ए प्रति‍वाद कर रहे हैं। अब सारा देश इंतजार करता रहता हे कि‍ जो कुछ भी घटा है उस पर जो कुछ कहना है वह टीवी पर कह दें। टीवी पर डि‍शक्‍शन आ गया अब हमें बोलने की क्‍या जरूरत है। हमारे नादान दोस्‍त भूल गए हैं कि‍ टीवी टॉक शो ने हमारे आपसी राजनीति‍क वि‍मर्श ,संघर्ष और वास्‍तव शि‍रकत को अपहृत कर लि‍या है। टीवी टॉक शो को को हम सबसे बड़ी राजनीति‍क जागरूकता समझने लगे हैं। यह राजनीति‍क पतन के चरमोत्‍कर्ष की नि‍शानी है हमें सावधान हो जाना चाहि‍ए।