तीर्थ यात्रा करने वाले यात्री भारत वर्ष के दूरस्थ इलाकों से प्राचीन काल से ही आते है यही सबसे महत्वपूर्ण बद्रीनाथ जाने वाले मार्ग रहा है इन्ही यात्राओं के दौरान लगभग पांच :छ मील की दूरी पर जल इत्यादि की व्यवस्था होती थी वहां पडाव योग्य स्थान होते थे यही चट्टियां कहलाती थी पर आधुनिक पर्यटन ने तीर्थाटन की दशा व दिशा दोनो ही बदल दी है यह पहले से अधिक सुविधाजनक हो गया है ।
इस मंदिर में प्रतिष्ठत विष्णु व लक्ष्मी की संगमरमर की प्रतिमा दर्शनीय है । विष्णु की यह मूर्तियां चतुविर्शतिमूर्ति: ध्रुवपेर मूर्तियों के अर्न्तगत आती है, गढवाल में विष्णु की इस रूप की प्रतिमा का प्रचलन है जिसमें उनका रूप पदम,गदा,चक्र और शंखक्रम से प्रदर्शित है ।मंदिर परिसर में विष्णु लक्ष्मी के वाहन गरूड की प्रतिमा अन्यत्र मंदिर बना कर स्थापित की गयी है। गरूड की प्रतिमा नमस्कार की मुद्रा में सफेद संगमरमर की काल नेत्रों वाली है। जिस स्थान पर गरूड मंदिर है पहले वहां चार कुण्ड हुआ करते थे । प्रवेश द्वार के बायी ओर लघु मंदिर में शिवलिंग की स्थापना की गयी है जिससे शैव व वैष्णव दोनो के समान रूप से श्रद्वालु होने का भाव मिलता है।
इस सत्यनारायण मंदिर का महत्व यात्राकालीन पडाव के रूप में व मनौती मांगने के लिए तो है ही साथ ही यह सिद्व स्थल भी है।जो यात्री समयभाव के कारण दर्शन नही कर पाते वह मन ही मन में यात्रा के कष्टों के निवारण हेतु मनौती मांग लेते है । प्रत्येक पूर्णमासी के दिन इस सिद्वपीठ में सत्यनारायण की कथा होती है मंदिर में वैष्णव प्रतिवर्ष भंडारे का आयोजन करवाते है । प्रथम चटृटी व सिद्व पीठ होने के कारण सत्यनारायण मंदिर में यात्री,श्रद्वालु उत्तराखण्ड में सदियों से चली आ रही परम्परा का निर्वहन करते हुए भगवान विष्णु के दर्शन करते है ।
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सुनीता शर्मा
स्वतंत्र पत्रकार
ऋषि केश, उत्तराखण्ड
(सभी चित्र अनूप खत्री द्वारा )
1 comment:
इस अच्छी जानकारी के लोये धन्यवाद। जायेंगे कभी
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