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30.4.10

इंग्लैंड का इतिहास सिलेबस में गुलामी का प्रतीक-ब्रज की दुनिया

राजनीतिक रूप से हम भले ही १९४७ में ही आजाद हो गए हों लेकिन भाषिक और मानसिक रूप से हम आज भी इंग्लैंड के गुलाम हैं.तभी तो हमारी राजभाषा अंग्रेजी बनी हुई है और हमारे सिलेबस में बना हुआ है इंग्लैंड का इतिहास.बिहार के सभी विश्वविद्यालयों में तीन वर्षीय स्नातक कोर्स के इतिहास प्रतिष्ठा में प्रथम वर्ष के छात्र-छात्राओं को द्वितीय पत्र में इंग्लैंड का इतिहास पढाया जाता है.प्रथम पत्र में प्राचीन भारत का इतिहास पढाया जाता है जो १०० अंकों का होता है.इंग्लैंड का इतिहास भी ठीक इतने ही अंको का सिलेबस में रखा गया है.आखिर हमारे लिए इंग्लैंड का इतिहास इतने विस्तार से पढ़ने का क्या औचित्य है?क्या यह हमारी गुलाम मानसिकता का प्रतीक नहीं है?इंग्लैंड का इतिहास के बदले हम जर्मनी या फ़्रांस का इतिहास क्यों नहीं पढ़ सकते?या फ़िर चीन, नेपाल या अपने किसी दूसरे पड़ोसी देश का इतिहास विस्तार से पढना क्या हमारे लिए ज्यादा फायदेमंद नहीं रहता?कितने दुःख की बात है कि हम अपने पड़ोसी देशों के इतिहास के बारे में तो कुछ भी नहीं जानते और बेवजह सात समंदर पार का इतिहास पढ़ते हैं.मैं इंग्लैंड का इतिहास पढने का विरोधी नहीं हूँ लेकिन इसे इतने विस्तार से पढने की क्या जरूरत है? यूरोप के इतिहास में हम जितना इंग्लैंड के बारे में पढ़ते हैं उतना ही हमारे सामान्य ज्ञान या विशेष ज्ञान के लिए काफी है.अच्छा यही रहेगा कि हम गुलामी के प्रतीक इस द्वितीय पत्र से इंग्लैंड के इतिहास को ठीक उसी प्रकार निकाल-बाहर कर दें जैसे हमने अंग्रेजों को किया था और उसकी जगह अपने किसी निकट पड़ोसी का इतिहास पढ़ें.

क्रूरता की कोई पराकाष्ठा तो होगी

बचपन में आप ने भी सुना होगा। बड़े-बूढ़े अक्सर कहते सुने जाते हैं-सर्वेगुणा कांचनमाश्रयन्ती यानि सारे गुण कंचन में आश्रय ग्रहण करते हैं। जिसके पास धन-संपदा है, उसका समाज सम्मान करता है, उसे सभी बड़ी कुर्सी देते हैं, उसकी प्रशंसा होती है। जो लोग उससे कुछ पाना चाहते हैं, वे चारणों की तरह उसके आगे-पीछे डोलते हैं। यह बात तो पुराने जमाने से चली आ रही है परंतु धन का लोभ आदमी को कितना निर्मम बना देता है, यह आज के युग में दिखायी पड़ रहा है। आदमी धन के लिए क्या-क्या कर सकता है, आप कल्पना नहीं कर सकते। धन-संपत्ति के लिए किसी की भी हत्या कर देना मामूली बात हो गयी है, लोग अपने सगे-संबंधियों को भी नहीं छोड़ते हैं। परंतु जो काम उत्तर प्रदेश के सीआरपीएफ के कुछ सिपाही कर रहे थे, वह तो अत्यंत घृणास्पद है, अस्वीकार्य और शर्मनाक है।
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'हिंदुस्तान' में 'हिंदुस्तान' की योजनाओं पर खबर

हम आखिर लिखते क्यों हैं

आखिर हम लिखते क्यों हैं? लिखना कोई रोग है या मजबूरी या कुछ और? इससे क्या हासिल हो सकता है? इन सवालों पर आप क्या जवाब देंगे? लिखना कुछ भी हो सकता है। कोई जरूरी नहीं कि वह साहित्य ही हो। लिखने वाला नहीं जानता कि वह जो लिख रहा है, वह साहित्य के रूप में जाना जायेगा या नहीं फिर भी वह लिखता है। यह भी जरूरी नहीं कि लिखने का कोई उद्देश्य हो। कभी-कभी लिखना आदत जैसा होता है। बिना लिखे चैन नहीं मिलता, मन भटकता रहता है, अस्थिर बना रहता है, कुछ खोया-खोया सा लगता है। लिखने के एकदम पहले मन कहीं टिकता नहीं, कोई आ धमके तो उससे बात करने का जी नहीं होता, कोई बुला दे तो गुस्सा आता है।

 ऐसे होते हैं, जो लिखने के पहले उसके ढांचे, उसकी भाषा, उसके प्रभाव, उसके उद्देश्य पर गौर करते हैं। उनका लिखना नियोजित होता है। जैसे कोई खंडकाव्य, महाकाव्य या चरित काव्य लिख रहा है तो पूरा इतिवृत्त उसके सामने है। उस पर पहले भी बहुत कुछ लिखा गया है, इसलिए उसका व्यापक संदर्भ भी मौजूद है। अगर केवल काव्य-रुपांतरण करना है, कहानी याद भर दिलानी है तो कोई कठिनाई नहीं है। इसलिए कि तब लेखन यांत्रिक हो कुछ लोगजायेगा। बुद्धि केवल शिल्प पर केंद्रित रहेगी। यह तीसरे दर्जे का लेखन है क्योंकि इसमें अपने भीतर का स्फुलिंग काम नहीं आयेगा, अपनी मेधा की चमक प्रकट नहीं होगी। जब दृष्टि उधार की हो तब ज्यादा कुछ करना नहीं होता।
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29.4.10

अम्बुधि पत्रिका से जुड़े

दीपक अम्बुधि जो ग्वालियर पीपुल्स समाचार में सब एडिटर के रूप में कार्य कर रहे थे उन्होंने जबलपुर में पत्रिका का दामन थाम लिया हे..दीपक इससे पहले ग्वालियर में अदित्याज़, बीपीन , स्वदेश में कार्य कर चुके हें। दीपक ने पत्रकारिता की शरुआत फ्री लांसर के रूप में जनसत्ता से की थी...

ममता मगरूर है, सोनिया मजबूर है

प्रकाश चण्डालिया

कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव शकील अंसारी ने जिस जलेबिया अंदाज में गुरुवार शाम संवाददाताओं के समक्ष अपनी बात रखी, उससे साफ है कि ममता बनर्जी पूरे प्रदेश से कांग्रेस को भले बुहार दें, आलाकमान उनकी गुलामी नहीं छोडऩे वाला। उम्मीद तो थी कि शकील अंसारी तृणमूल सुप्रीमो की मनमानियों पर प्रहार करते हुए अपने सहोदर दल को हुड़की भी देंगे, पर हुआ ठीक विपरीत। अंसारी लगे आलाकमान का शास्त्रीय संगीत सुनाने। सच कहें तो प्रहार और प्रतिघात के आदी स्थानीय कांग्रेसकर्मियों को यह संगीत रास नहीं आया। अब कांग्रेसी विचारधारा छोड़कर न जा पाने की मजबूरी अलग बात है, वरना जिला स्तर के कांग्रेसियों की बात मानें तो उन्हें अंसारी की घिघियाहट से कुछ नहीं लेना। मुमकिन है, आलाकमान के बचाऊ तेवर और अंसारी के सेल्समैनी बयान पर हाल-फिल्हाल स्थानीय कांग्रेस कार्यकर्ता चुप हो जाएं, पर प्रचार के दौरान तृणमूल प्रत्याशी के पक्ष में बात रखने का वक्त आने पर वे अपने मन की करने से नहीं चूकेंगे। 30 मई को मतदान के दिन कांग्रेसी भाई अलग राग सुनाने लगें तो हैरत वाली बात नहीं होनी चाहिए।

सभी जानते हैं, बंगाल में सबकी निगाहें अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों पर टिकी हुयी हैं। ममता बनर्जी जिस तल्खी के साथ लोकसभा चुनाव के बाद से वाममोर्चा पर हावी होती जा रही हैं, उसे देखकर पहली बार वामपंथी खेमा भी खासा परेशान दिखाई पड़ रहा है। ऐसे में ममता और कांग्रेस के साथ जिएंगे-साथ मरेंगे वाली तर्ज पर साल भर से चल रहा गठबंधन बरकरार रहा, तभी वास्तविक सत्ता परिवर्तन संभव है, वरना घायल वामपंथियों के पास आज भी सांगठनिक ताकत कम नहीं है। सोनिया गांधी इस बात को अपने कार्यकर्ताओं से बेहतर समझती हैं, लेकिन कार्यकर्ताओं की अपनी मजबूरी है। ममता बनर्जी परिवर्तन की इस बयार में वामपंथियों से लोहा लेते-लेते दो-एक वार ऐसे भी कर बैठती हैं, जिससे कांग्रेस को खोखला होने का खौफ सताने लगता है। लालगढ़ में नक्सलियों के मसले पर वे अपनी ही केंद्र सरकार के गृहमंत्री से पंगा ले बैठती हैं, तो कांग्रेस नेता सुब्रत मुखर्जी को जब चाहे अपनी पार्टी के प्लेटफार्म पर बुलाकर कांग्रेसियों को चिढ़ाती रहती हैं। ममता और तृणमूल की ऐसी और भी हरकतें हैं, जिससे कांग्रेसियों को खाज होना लाजिमी है। पर आलाकमान जानता है, बंगाल के कटोरे से दिल्ली का कटोरा कहीं ज्यादा बड़ा है। वैसे, दिग्गज कांग्रेसियों का मानना है कि सोनिया गांधी ने ममता बनर्जी को अगले साल बंगाल का मुख्यमंत्री बनवाने तक सबकुछ सहने का मन बना रखा है। केंद्र में मिले प्रकाश करात के धोखे का प्रतिघात बंगाल से वामपंथियों को हटाकर ही लिया जा सकता है।


ममता के लिए सोनिया से मिली छूट संजीवन बूंटी की तरह है। शायद इसीलिए वे समझती हैं, कांग्रेस पर दबाव बनाए रखने में ही उनकी बाजीगरी है। सोनिया के चलते ममता स्वयं तो आश्वस्त हैं, पर रह-रहकर खुद ऐसा नर्तन करती हैं कि कांग्रेस को पीड़ा होने लगती है। गठबंधन का अपना धर्म होता है, पर जिस गठबंधन में ममता, मायावती और जयललिताएं हों, वहां कैसा धर्म और कैसी मर्यादा? कांग्रेस कार्यकर्ताओं को ममता के इसी खेल से चोट लग रही है।

व्यंग-''गाजरघासी साहित्यकार ''



आजकल सभी तरफ छपने छपाने का जो दौर चल पडा है,कई बार दिल इतना क्रोधित होता है कि,कुछ कर नहीं पाने पर बस सिर फोड़ने की इच्छा होती है.देशभर के लगभग सभी इलाकों में आजकल जो बात बड़ी जोर पकड़ती जा रही है,वो एक  बिमारी के माफिक ही है, साहित्यकार बनाने और बनने की. कुछ गलतफहमी में बन बैठे हैं तो कुछ को इलाके के अनपढ़ अखबारी संवाददाता, बना देते हैं. हमारे इलाके में भी जो पी.एचडी. करने बाबत  जरुरत के मुताबिक् मेहनत नहीं कर पाए  वे अपनी दिखावटी  इज्जत बचाने को प्रोफ़ेसर लिखते है.उन्हें ये मालूम नहीं की कोलेज वाले ही प्रोफ़ेसर बन जायेंगे तो विश्वविद्यालय वाले कहाँ जायेंगे.खैर.पिछले कुछ दिनों के स्थानीय अखबारों की प्रतियां बांच रहा था. बड़ा ताज्जुब  हुआ जब किसी तहसील के छोटे से गाँव में वहाँ  के इलाके के साहित्यकारों की बैठक आयोजन की खबर छपी थी. भैया जी, जहां हमारे पूरे मेवाड़ में  कहा जाता है कि  मीरा के बाद कोई  कवि और मुनि जिनविजय के बाद कोई विद्वान् नहीं हुआ,वहा गाँव-गाँव में आजकल साहित्यकार बने  मिल जायेंगे.

पिछले दिनों की कहूं तो लम्बे अरसे से मीडिया  में लगे लोग भी आजकल अपनी बुद्धि को ताक में रख नज़र आये हैं, या उसे भी बेच खाए हैं.बढिया से बढिया खबर भी विज्ञापन के हिसाब से लगती है.,शहरों में जो कुछ भी  आयोजन हो अपने पास-पडौस  के साथियों को बुलाकर तथाकथित  बुद्धिजीवियों  की बड़ी ज़मात पैदा कर रहे हैं.कभी पुराने मकान मालिक मुख्य अतिथि हैं,तो कभी नए किरायेदार कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे हैं.अच्छा समझोता है.यहीं से कुछ नासमज लोगों को साहित्यकार जैसा प्राणी बनने का चस्का लग जाता है. बस फिर क्या, बस और ट्रको के पीछे लिखे दोहों की तरह की दो चार लाइन रोजाना लिखने ,ज़बरन दोस्तों को सुनाने का ये सिलसिला उन्हें प्रायोजित जानकार या साहित्यकार  बना देता है.किसी भी प्रकार का साहित्य हो ऐसे नाम के भूखे और काम के कच्चे लोगों से कुछ असली कामकार भी अखबारों की नज़र में नकली नज़र आते है. समाज में पढ़ने वालों का स्वाद बिगाड़ने में इन का पूरा हाथ होता है.लिखावट कम करके भी दिखावट ज्यादा कर लें,यही इनकी फितरत और हाथ की सफाई है.

बीस तक कवितायें इकठ्ठी हो जाए बस फिर क्या शहर के किसी बाबा-तुम्बा को पकड़ कर शुभकामना सन्देश आयात कर किताब छपा  देते हैं. उन्हें शर्म तक नहीं आती कि जो हिंदी या किसी और भाषा के इतने जानकार साहित्यकर्मियों को पढ़े नहीं,उनके लिखी एक किताब का नाम तक नहीं जानते,माफ़ करें पढ़ना तो उनके बस का है ही  नहीं,क्योंकि उन्हें इतनी फुरसत मिल जायेगी तो फिर शहर के मिलने मिलाने वाले सरकारी टाइप के आयोजन में सांठ-गाँठ करने कौन जाएगा. घर में बैठ किताबें  पढ़ने से तो उनका सारा मामला ही गड़बड़ हो जाएगा ना.यी काम उनके लिए बनाया भी नहीं गया है.उन्हें तो बस बड़े नेताओं और अफसरों के आस-पास रहने का मौक़ा चाहिए,भले ही उसके लिए स्वाभिमान जाए भाड़ में.

हाँ तो मामला नज़र में आया गाँव में होने वाली उस साहित्यकारों की बैठक  की खबर से,बहाना कुछ चाहे कुछ भी हो मगर ये समस्या पूरे देश की है. ऐसे नादाँ और अधपके पाठकों तक हमारी ये चिंतान्भारी बात , ये कोशिश पहुंचे बस.विचार तो तब भी आता है जब,खाते पिते घर के लोग भी कम ज्ञान वाले अफसरों के धोक लगाते फिरते है,वे ही ज्यादातर  होने वाले समारोह में सम्मानित  भी हो जाते हैं. अफसर भी कान में तेल और आँख पर पट्टी लगाए रहते हैं,उन्हें केवल और केवल हजुरिये बन्दे या धोक लगाते छुट भैया ही याद आते हैं.अगर आप भी अपने इलाके में दस बारह लाइन की कविताएं इधर उधर से लिख लें तो बस आपका साहित्यकार बन जाना पक्का समझ लिजिएगा. लोग आपको हर समारोह में बुलायेंगे,यदा कदा ईनाम भी देंगे. उम्र आपकी ठीक-ठाक है तो मुख्यअतिथि का पद तो आपके लिए हमेशा हाज़िर रहेगा.

कुल मिलाकर  ये एक खेल की भांती लगा कि आओ मिलकर भाई साहेब-भाई साहेब खेलें.एक दूजे को बड़ा बनाने का बुलाने और आगे की कुर्सियों पर बिठाने का आपसी समझोता हो जाता है.आदमी को पता नहीं चलता कि वो कब बुद्धिजीवी बन गया .ये अलग बात है कि उन्हें कभी किसी गोष्ठी में उद्बोधन को नहीं कहा गया,वरना सुनने वालों  और बुलाने वालों की गलतफहमियाँ दूर हो जाती.

चलो हम भी तैयारी  करें एक साफ़ सुथरी कविता लिखने की,उसी एक कविता को हर समारोह में गाने की, जिद पर अड़े रहें.जिस किसी  बैठक-समागम में हमें वो कविता पढ़ने  से मना कर दे,उसमें कभी नहीं जाने की कसम खाएं.जहां भी जाएँ कोई तो स्वार्थ  पूरा हो हमारा,फ्री तो हम हैं नहीं ना.आखिर हमें भी साहित्यकार बनना है,मालूम तो हमें ये भी है अभी कि इन्तजार की सूचि बहुत लम्बी है.ज्यादा लम्बी होगी तो मैं शोर्टकट  भी जानता हूँ.ज़माना भी इसी बात का है. बेचारे बहुत से पढाकू तो कमरों में पढ़ते पढ़ते ही मर जायेंगे.वे कब साहित्यकार कहलाने का सुख भोग पायेंगे,ये तो राम ही जाने.कोई जाकर उन्हें भी कह दो ,कि आजकल बाबा-तुम्बा संस्कृति की चलती है,या किसी अफसर को अपना गुरु बनाओ,परिवार सहित धोक लगाओ,जल्दी ही अच्छे परिणाम आयेंगे.



रचना-माणिक
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ये व्यंग 28 अप्रेल 2010 को रचनाकार पर छापा था.


ग्वालियर मीडिया मैं एक और धमाका


ग्वालियर मीडिया मैं शीघ्र ही एक और मोर्निंग पेपर की लांचिंग होने बाली है। भर्ती शुरू हो चुकी हैं। ग्वालियर स्थित गोले के मंदिर पर थ्री स्टार फेसिलिटी ऑफिस मूर्त रूप ले रहा है। यह अखबार परिवार ग्रुप ki ek इकाई है। ग्वालियर शहर मैं जगह जगह हाईक्लास होर्डिंग्स लगने से मीडिया जगत मैं खलबली मच गई है

खंण्डूड़ी की खिसिहाट से सकते में संगठन



राजनीति में जिन्दा रहने के लिए पूर्व मुख्यमं़त्री कर हैं पेंतरेबाजी
राजेन्द्र जोशी
देेहरादून, 29 अप्रैल। पूर्व मुख्यमंत्री भुवनचन्द्र खंण्डूड़ी को राजनीति में स्वयं को जिन्दा रखने के लिए कई तरह की पेंतरेबाजी करनी पड़ रही है। लेकिन राजनीति का भी क्या कहने जिन लोगों से एक समय में पूर्व मुख्यमंत्री घिरे रहते थे उन्होने ही उनसे किनारा कर लिया है। पिछले कुछ महीने पूर्व उन्होने ठीक इसी तरह का उत्तराखण्ड भ्रमण का कार्यक्रम लगाया था उस समय वे नये-नये मुख्यमंत्री की गद्दी से हटे थे, लेकिन उस बार भी कुछ एक विधायकों को छोड़ क्षे़़़त्र के कोई भी विधायक उन्हे इस दौरे के दौरान अपने क्षे़त्र में उनके स्वागत के लिए नहीं गया।
इस बार एक बार फिर वे उत्तराखण्ड के दौरे पर हैं और उनके साथ हैं तो केवल आपदा प्रबंध सलाहकार समिति के उपाध्यक्ष तीरथ सिंह रावत। लगता है इस बार तो वे केवल अपनी ही सरकार की किरकिरी कराने के उद्देश्य से दौरे पर हैं। पूर्व मुख्यमंत्री ने इस दौरान कुमायंू के दौरे पर हलद्वानी से लेकर बागेश्वर तक केवल वर्तमान मुख्यमंत्री की बातों का ही प्रतिरोध किया है। उन्होने कहीं भी एक बार भी यह नहीं कहा कि वर्तमान मुख्यमं़त्री के नेतृत्व में कुंभ का सफल आयोजन किया गया अथवा प्रदेश ने विकास कार्यों में नये आयाम स्थापित किये। इतना ही नहीं उन्होने तो इस दौरे के दौरान कहीं भी सरकार की पीठ नहीं थपथपायी। अब गढ़वाल में प्रवेश करने वाले हैं देखते हैं उनके सुर बदलते भी हैं या नहीं लेकिन उनके इस दौरे को लेकर राजनीतिक स्तर पर कई तरह के चर्चायें आम हैं। चर्चा है कि पूर्व मुख्यमंत्री व उनके कुछ सिपहसलार उन्हे केन्द्र अथवा प्रदेश में कोई भी पद न दिये जाने को लेकर कई तरह के तर्क दे रहे हैं। लेकिन लोगों के जेहन में उनके तर्क कोई जगह नहीं बना पा रहे हैं और लोग तो अब उनके इन तर्को को खिसिहट का नतीजा बताते नहीं चूकते हैं।
खंण्डूड़ी के दौरे पर राज्य से लेकर केन्द्रीय भाजपा संगठन तक की नजर है। भाजपा में चर्चा है कि पूर्व मुख्यमंत्री ने दौरा शुरू करने से पूर्व सरकार और संगठन के बीच सामंजस्य के लिए वे इस दौरे को कर रहे हैं कहा था। लेकिन उनके अभी तक के दौरे में कहीं यह बात नहीं दिखायी दी कि वे सरकार व संगठन के बीच दूरी कम करने का प्रयास कर रहे हैं। बल्कि उलट उनके बयानों से यह संदेश गया है कि सरकार व संगठन के बीच कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है। मीडिया में लगातार उनके आ रहे बयानों ने सरकार की फजीहत तो की ही है वहीं संगठन का भी जनाजा निकाला है। मुख्यमंत्री के बयान कि कुंभ के सफल आयोजन के प्रबंधन के लिए नोबिल पुरूस्कार दिया जाना चाहिए पर पूर्व मुख्यमत्री द्वारा इस बयान का समर्थन करने के बजाय इसपर टिप्पणी कर डाली। जिससे साफ होता है कि पूर्व मुख्यमंत्री के इरादे नेक नहीं हैं और वे अपनी ही सरकार को कठघरे में खड़ा करने पर तुले हैं।

अनमोल वचन


  • मर्द  घुटने के बल झुककर औरत का हाँथ मांगता है और फिर सारी उम्र अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश में गुजार देता है  
  • औरत को मर्द के पीछे नहीं भागना चाहिए.पिंजरा भी कभी चूहे के पीछे भागता है 
  • गरीबी में आदमी मजबूरन सादी  ज़िन्दगी गुजरता है.अमीरी में उसका डॉक्टर उसे सादी ज़िन्दगी गुजरने पर मजबूर कर देता है.
  • औरत को काबू में रखने का एक ही तरीका है होता है,लेकिन अफ़सोस की बात है की वो तरीका किसी मर्द को नहीं आता.
  • संसार में तीन प्रकार की स्त्रिया होती हैं :-
  1. हम जिनके बिना नहीं रह सकते हैं.
  2. हम जिनके साथ नहीं रहते हैं.
  3. हम जिसके साथ रहते हैं.
----जुबेर  अहमद----



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बड़ा कौन, मीडिया या मंत्री

गर्मी के दिनों की सुहानी सुबह के समय पार्क में काफी रौनक है। एक पत्रकार का आगमन। किसी ने कोई परवाह नहीं की। पांच सात जनों ने दूर से हाय हैल्लो किया बस। उसके मित्र कुछ क्षण उसके पास रुके। वहीँ हवा खोरी करने एक बड़ा सरकारी अफसर आ गया। बहुत से लोग घूमना छोड़ कर उसके आस पास आ गये। जो ज्यादा चालाक थे उन्होंने अपना परिचय भी दे दिया। कुछ लोग उसके साथ साथ सैर करने लगे। अभी अफसर गया भी नहीं था कि सत्तारूढ़ पार्टी का नेता आ गया। उसके आते ही तो अफसर सहित बड़ी संख्या में लोग उसके करीब आ गये। उसका जलवा अफसर से अधिक लगा। लेकिन पता नहीं आज क्या बात थी कि अभी नेता जी का जलवा पूरे शबाब पर आया भी नहीं था कि सरकार के एक मंत्री का निजी सचिव पार्क में पहुँच गया। उसके आते ही नेता जी का जलवा ठंडा हो गया। जो लोग नेता जी की हाँ में हाँ मिला रहे थे वे निजी सचिव से दुःख सुख की बात करने लगे। अफसर कहाँ जाता वह तो उनके निकट ही था। मंत्री की कृपा से तो टिका हुआ था। लेकिन ये क्या, मंत्री जी भी वहीँ आ गये। बस अब तो पार्क में सैर को आये लोगों ने अपने परिचितों को भी फोन करके बुला लिया। मंत्री जी का एक समान दरबार लग गया। सब मंत्री के आगे पीछे। दूर बैठ के नेता, अफसर,निजी सचिव के जलवे देखने वाले पत्रकार को भी मंत्री के न केवल निकट आना पड़ा बल्कि फोन करके फोटोग्राफर को बुलाना पड़ा ताकि अख़बार में फोटो सहित खबर लग सके। वही हुआ भी। अगले दिन के अख़बार में मंत्री जी की संवेदनशीलता की जानदार शानदार खबर छपी,फोटो के साथ। ये कोई कहानी नहीं वह है जो आजकल होता है। उन्ही पत्रकारों को आम जन की तवज्जो मिलती है जिसके पत्रकारिता से हटकर सामाजिक सम्बन्ध हों। वरना तो कहीं कोई नहीं पूछता। लोकतंत्र का चौथा खम्बा कहलाने वाला यह मीडिया लोकतंत्र के ठेकेदारों के आगे पीछे घूमता है। ऐसा करना उसकी मज़बूरी है या नहीं ये तो बड़े पत्रकार जाने। लेकिन सच तो यही है। आम आदमी से लेकर पूरा सिस्टम मंत्रियों के इर्द गिर्द रहता है। मंत्री नहीं होता तो नेता या उनका सचिव। वह भी हाथ नहीं आये तो कोई कार्यकर्त्ता ही सही। अब ऐसे में ताकतवर कौन है इसका फैसला कम से कम हम तो नहीं कर सकते।

सी.बी.आई. यानी केंद्र सरकार का कुत्ता- ब्रज की दुनिया

सी.बी.आई. का गठन १९४१ में अंग्रेजों ने भ्रष्टाचार को रोकने के उद्देश्य से किया था लेकिन आजादी के बाद इंदिरा युग में इसका दुरुपयोग धड़ल्ले से शुरू हो गया.दरअसल सी.बी.आई. का काम भ्रष्टाचारियों को पकड़ना और सजा दिलवाना नहीं है वास्तव में उसका काम ऊंची रसूखवाले भ्रष्टाचारियों को कानून से बचाना है.उसे अगर हम सरकारी कुत्ता कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.जैसे कुत्ते मालिक के प्रति वफादार होते हैं उसी तरह यह सी.बी.आई. भी केंद्र सरकार के प्रति वफादार है.वह उसके इशारे पर ही भौंकती है और उसी के इशारे पर काटती है या फ़िर चुप्पी लगा जाती है जैसे इसने टाईटलर और क्वात्रोची को केंद्र के इशारे पर बरी करवा दिया वहीँ नरेन्द्र मोदी सरकार के पीछे नहा धोकर पड़ गई है.निठारी कांड और आरुषी हत्याकांड को इसने कुछ इस तरह उलझाया कि अब सुलझाना संभव ही नहीं रहा. यह केंद्र की कई तरह से संसद में बहुमत जुटाने में सहायता भी करती है.माया मेमसाब अगर पटरी पर नहीं आ रही है तो सी.बी.आई. को आगे कर दो या फ़िर लालू भैया को पटरी पर लाना है तब सी.बी.आई. ही उन्हें रास्ते पर लाने का काम करती है.कई बार सी.बी.आई. को स्वायत्त बनाने की बात आई.लेकिन बात बात से आगे नहीं बढ़ पाई.कोई भी दल केंद्रीय सत्ता में आते ही इस मुद्दे को रद्दी की टोकरी में डाल देता है, कौन चाहेगा कि कुत्ता शेर बन जाए इस तरह तो खुद सत्ताधारी दल के नेता भी खतरे में आ जायेंगे.

28.4.10

लिखने वालों, सावधान....!!आगे खड्डा[गढ्ढा] है !!

लिखने वालों, सावधान....!!आगे खड्डा[गढ्ढा] है !!
.....कल मैं अपने रूम में बैठी हुई सोच रही थी कि सोचूं तो क्या सोचूं कि अचानक सामने वाले कोने से दो चूहे निकले और एक दूसरे के पीछे दौड़ने लगे...उनका छुपा-छुपी का खेल देखकर मुझे बड़ा मज़ा आ रहा था.........और आखिरकार वो थक-कर एक ओर निढाल होकर पढ़ गए.....
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अभी-अभी अटलांटा से लौटा हूँ मैं....बहुत थक गया हूँ मगर अपनी ट्रैवलिंग का एक्स्पिरिएन्स आप सबसे शेयर करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ ......आपको पता नहीं होगा शायद कि अटलांटा की बरफ एकदम सफ़ेद होती है,झकाझक सफ़ेद और ठोस भी........तो इस तरह बहुत ही रोमांचक रहा मेरा यह सफ़र कभी फुर्सत मिले तो आप भी अटलांटा हो आईये आपको भी बड़ा मज़ा आयेगा.....
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काली खिड़की पर एक हरा सांप रेंग रहा है
तितलियाँ हंस रही हैं/पर्दा हिल रहा है
लगता है कोई तनहा है और रो रहा है
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ब्लागर नौ :.........
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"अपनी बेटी का हाथ मेरे हाथों में दे दिया
उसकी अम्मा ने मुझे मरने से बचा लिया
आज फिर वो बला की ख़ूबसूरत लग रही थी
आज फिर मैंने उसके गालों का चुम्मा लिया
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ब्लागर सात :अच्छा लिखती हो आप,कृपया वर्ड-वेरिफिकेशन हटा लो[ताकि ऐसी उम्दा रचनाओं पर मैं बार-बार आकर आसानी से टिपिया सकूँ ]
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ब्लागर नौ :.........
ब्लागर दस :..........
................लिखने वाले धडाधड पैदा होते जा रहे हैं.ब्लागर मंच एक ऐसी जगह हो गया है जहां ठेले वाला,रिक्शेवाला.रेजा,कुली,डॉक्टर,इंजीनियर,अफसर,नेता.
पी.एम्.,सी.एम्.,कलाकार आदि सब के सब एक मिनट के भीतर अपना ब्लाग बनाकर धायं-धायं अपना लेखन पेले जा रहा है,उस लेखन में चाहे वो अपनी योजनायें बताये...चाहे गिनती-पहाडा रटाये,चाहे अपनी दिनचर्या ही क्यूँ ना पढाये कि अपने शौच की प्रक्रिया ही बताने लगे.....मगर क्या है कि हिंदी-लेखन है ना...इससे हिंदी का भला जो होता है...मगर भैया तब तो फिर मस्तराम साहित्य से भी हिंदी का उतना ही भला होता है...बल्कि इसे पढने वाले तो ब्लागरों से निस्संदेह बहुत ज्यादा है....अब ये बात अलग है कि ऐसी हिंदी से हिंदी का क्या भला है यह भी अपन को समझ में आता नहीं...!!
ना व्याकरण,ना लिंग-निर्धारण,ना वचन-संगति,और ना किसी किस्म की "क्वालिटी"ही..............""रात हो गया था हमलोग एक साथ जा रहा था की तभी अँधेरी चंदनी[चांदनी] में /आसमानों में कईएक तारे एक साथ टीमटीमा रहा था कि एक चोर हमको मिले और उन्होंने हमसे सब कुछ को लुट लिया हम तबाह हो गए,बर्बाद हो गए....हम लौट रहे थे खाली हाथ,तलाब का पानी चमचम कर रहा था और उसमे मछलि दौड़ रहा था........ऐसा अद्भुत है यह हिंदी लेखन...जिसे पढ़कर अक्सर सर के बाल और रौंगटे तक खड़े हो जाते हैं....मगर क्या करूँ हिंदी की भलाई के लिए ऐसी ही हिंदी को पढने की विवशता हो गोया...और चिठ्ठाजगत के मेल के थ्रू जब तक मैं इन अद्भुत चिठ्ठों तक पहुँच पाता हूँ....तब तक मुझसे पहले दसियों लोग उपरोक्त टिप्पणियाँ चिपका कर चले जा चुके होते हैं.....
उम्दा-से-उम्दा चीज़ों पर भी नाईस,बेहतरीन,बढ़िया,वाह,सुन्दर....और कूड़े-से-कूड़े पर भी यही नाईस,उम्दा,बेहतरीन,सुन्दर.....यानि कि सब धान साढ़े बाईस पसेरी....और मज़े की बात तो यह है....कि बहुत से वाकई लाज़वाब-से ब्लागों पर कोई जाता तक नहीं...बेशक उनमें अद्भुत और जबरदस्त सामग्री क्यूँ ना हो....!!वहां गलती से तब कोई जाता है जब लिखने वाला खुद किसी ब्लॉग पर टिपिया कर लौटा हो....यह पैकेज-डील यानि कि लेने का देना वाला कारोबार चल रहा है ब्लॉगजगत में...!!हाँ मगर यह है कि ब्लॉगजगत में सभी प्रकार के लिक्खाडों का स्वागत यूँ होता है जैसे हमारी संसद या विधानसभाओं में किसी चोर,उच्चक्के,गुंडे या मवाली का....गोया कि सबसे बड़ा हरामखोर ही यहाँ का सबसे ज्यादा देश-प्रेमी हो !!
कार्य के किसी भी क्षेत्र में कार्य करने के लिए एक न्यूनतम योग्यता....न्यूनतम अहर्ता की आवश्यकता होती है....मगर नेता और लेखक की योग्यता जितनी शून्य हो उतना ही गोया वह सफल व्यक्ति है.....!!यह स्थिति संभवतः भारत के लिए ही निर्मित है.......!!
लिखना तो ऐसा हो गया है जैसे आपने जब चाहा तब "पाद"दिया....जैसे आपके इस अतुलनीय "पाद"से कोई अद्भुत खुशबू आती होओ....या कि कोई विशिष्ट आवाज़.......क्यों भाई लिखना ऐसी भी क्या जरूरी है कि नहीं कुछ जानो नहीं तब भी लिखोगे ही.....!!कि लिखे बगैर तुम्हारी नानी मर जाने वाली होओ....!!कि खुद को व्यक्त नहीं कर पाए तो मर ही जाओगे.....!!क्यों भई तुम्हारे लेखन में ऐसा कौन-सा सरोकार....किस प्रकार की चिंता.....या कौन से सामाजिक दायित्व....या कौन-सी हिंदी की जिम्मदारी झलकती है कि जिसके लिए तुम्हें सराहा जाए कि तुम्हें नमन किया जाये जाए कि स्वागत ही किया जाए....??मगर तब भी तुम्हारा स्वागत है कि तुम तो हिंदी बुढ़िया के अथिति हो....इस तरह उसके देवता हो.....!!तुम्हारा स्वागत है....इसलिए कि तुम भी हमारे ब्लॉग पर आओ....पढो....टिपिआओ....जाओ.....!!
हमने तो वर्ड-वेरिफिकेशन हटा दिया है अब आप भी हटाओ.......
ये सब क्या हो रहा है...समझ ही नहीं आता....मेरे प्यारे लिक्खाडों....प्रत्येक चिठ्ठे पर प्यारी,उम्दा,बेहतरीन,नाईस कहने वालों क्या तुम्हें उबकाई नहीं आती..
....??क्या तुम्हारा जी नहीं मिचलाता....तुम किसी भी भेद-बकरी-मेमने पर महज इसलिए टिपिया आते हो कि वो तुम्हारी फोटो पर क्लिक करके "तुम"और "तुम्हारे" ब्लाग तक पहुँच जाए.......तुम्हारा फोलोवर बन जाए....??......फूलों की कटाई-छंटाई के लिए जैसे माली की दरकार होती है....वैसे ही अच्छी रचना को हम तक पहुँचने में सम्पादक नामक एक खलनायक कि मगर अब तो हर कोई सम्पादक है...मैं चाहे ये लिखूं...मैं चाहे वो लिखूं...मेरी मर्ज़ी.....इस तरह "उम्दा"लिकने वालों का तांता बढ़ता ही जा रहा है...और उससे भी ज्यादा उनपर टिपियाने वाले लोगों की तादाद.....और एक विशाल खड्डा{गड्ढा}तैयार होता जा रहा है जहां फ़िल्टर किया हुआ स्वच्छ पानी और मल-मूत्र सब एक ही जगह समा जा रहा है....क्या अच्छा है...क्या बुरा....इसका भी भेद भी मिटता जा रहा है....कितने अच्छे है ब्लागर लोग,जो ना बुरा देखते हैं...ना बुरा सुनते हैं.....ना बुरा बोलते हैं....कितने विनम्र....कितने प्यारे.....!!
लेकिन मेरे प्यारे बिलागारों इस प्यारे और अनुकूल वातावरण में ही ब्लॉगजगत के सड़ने के बीज पनपने लगें हैं....और अगर तुम सबने ध्यान नहीं दिया तो...हजारों की संख्या के ब्लॉगों में कोई दर्जन ब्लॉग भी ढंग के साहित्य के ढूढने असंभव हो जायेंगे जहां कि तुम्हारा चित्त शांत हो सके...हिंदी कि हिंदी करना अब बंद भी करो...और अभी इसी वक्त से सोचना और करना शुरू कर दो कि किस तरह हिंदी ब्लाग को परिपक्वता मिले....इसे कैसे बचाएं(अरे!!अभी ही तो पैदा हुआ था...!!??)
यहाँ कैसे क्वालिटी प्रोडक्ट को ही बढ़ावा मिले.....यहाँ पर देश-काल-समाज-और यथार्थ से वास्तविक सरोकार रखने वाली चीज़ें पुष्ट हों.....अच्छा मगर अशुद्द लिखने वालों का मार्गदर्शन कैसे हो....घटिया चीज़ों की अवहेलना करनी ही हो....बहुत-सी चीज़ों में तथ्यात्मक गलतियों का निराकार तत्काल ही कैसे हो....ग़ज़ल लिखने वालों को गलतियां विकल्प-सहित कैसे चिन्हित की जाएँ.[गज़लें मैं खुद भी गलत लिखता हूँ....अलबत्ता अपने विषय और दूसरी अन्य बातों के कारण माफ़ कर दी जाती हैं]
यह तो गनीमत है कि ब्लॉगजगत में ऐसे अद्भुत लोग हैं जिनको पढ़ना किन्हीं नाम-चीन लेखकों को पढने से भी ज्यादा सुखद आश्चर्य होता है मगर यह भी तब अत्यंत दुखद हो जाता है जब वो भी किसी ऐरी-गैरी रचना पर वही नाईस-उम्दा-बेहतरीन-सुन्दर की टिप्पणी चेप कर चले आते हैं....कि वो भी भलेमानुषों की तरह उनके ब्लॉग पर आने का कष्ट करें....इस तरह एक अच्छा और उम्दा मंच बन सकने वाली जगह एक कूड़े-करकट के ढेर में तब्दील होती जा रही है....जल्दी ही जिसमें मोती का एक दाना भी खोजना मुश्किल हो जाएगा....इसलिए देवी सरस्वती के हे प्यारे और विनम्र साधकों....इस जगह को सबका शौचालय बनने से बचा लो...तुम्हारी हिंदी का भी कल्याण हो जाएगा.....और तुम्हारे बच्चे जीयें....ऐसी मेरी प्रार्थना है....!!एक बार बोल दो ना प्लीज़.....क़ुबूल.....क़ुबूल......क़ुबूल.....

FARISHTE

FARISHTE

हिंदी माँ हमें माफ करना.......

                                                    (उपदेश सक्सेना)

हिंदी भाषा को हमारी मातृभाषा का दर्ज़ा तो प्राप्त है, मगर इसे राष्ट्रभाषा या राजभाषा कहने का कोई संवैधानिक हक हमें नहीं दिया गया है. यानि माँ तो हमारी है मगर शायद सौतेली! सौतेली शब्द से कई लोगों को पीड़ा हो सकती है, क्योंकि इतिहास में इस शब्द को कभी सकारात्मक ढंग से पेश नहीं किया गया है. हिंदी की दुर्दशा पर प्रेस विज्ञप्तियों के ज़रिये अपनी पीड़ा जताने वालों को भी इस बात का मलाल होगा कि इस समृद्ध भाषा को वह सम्मानजनक स्थान अब तक नहीं मिला, जिसकी वह हक़दार है. मैं मध्यप्रदेश के उस मालवा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता हूँ जहां की मीठी बोली में कई बार किसी की बे-इज्ज़ती होने पर उसे उलाहना दिया जाता है कि “....तेरी हिंदी हो गई”. अ से अमिताभ और ब से बच्चन तो हमारे देश में वर्षों पहले से पढ़ा जाने लगा है.जब हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा नहीं मिल सका है, तो यह बात विचारणीय है कि ऐसी स्थिति में राष्ट्रभाषा प्रचार समितियों जैसी संस्थानों का क्या औचित्य है?
यह जानकार दुःख भी होता है और प्रसन्नता भी, कि हिंदी भाषा के कुल शब्दों की संख्या अंग्रेजी के मुकाबले महज़ दस फ़ीसदी ही है, दुःख इस बात का है कि यह संख्या काफी नगण्य है, प्रसन्नता इस बात की है कि हमारी भाषा में कम शब्दों में भी अभिव्यक्ति दी जा सकती है, कम शब्दों में अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने वाले को ही समझदार माना जाता है, हालांकि यह प्रसन्नता केवल दिल को समझाने के लिए ही है. चीरहरण चाहे किसी स्त्री का हो या मातृभाषा का, वह सदैव से असहनीय रहा है. अंग्रेजीदां लोगों ने नयी भाषा हिंगलिश तैयार कर जले पर नमक छिडकने का काम किया है. मोबाइल के आने के बाद एसएमएस की वर्णमाला किसी को भी हतप्रभ करने में सक्षम है, खुले आम हिंदी के चीरहरण पर भी मौन रहने वाला “हिंदी पुत्र” नहीं हो सकता. आज़ादी चाहे किसी की गुलामी से हो या विचारों से, हमेशा सुखकर होती है. देश की आज़ादी के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग देने वालों की तर्ज़ पर हिंदी को भी उसका सम्मान दिलवाने-उसे अंग्रेजी से आज़ाद करने भगत सिंह, सुखदेव,राजगुरु जैसे दीवानों की एक बार फिर ज़रूरत महसूस हो रही है. वैश्विक भाषाओं पर नज़र रखने वाली एक संस्थान की रिपोर्ट पर नज़र डालें तो शायद सभी की आँखें खुल सकती हैं इस रिपोर्ट के अनुसार हाल ही में अंग्रेजी भाषा में शब्दों का भंडार 10 लाख की गिनती को पार कर गया है जबकि हिंदी में अभी तक मात्र 1 लाख 20 हज़ार शब्द ही हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा दस लाख शब्दों के साथ सबसे समृद्ध है जबकि कुल आठ भाषाओं की इस सूची में हिंदी महज़ एक लाख बीस हज़ार शब्दों के साथ सातवें क्रम पर है पूरी सूची इस प्रकार है-(१) अंग्रेजी- १0,00,000,(२)चीनी-500,000,(३)जापानी-232,000,(४)स्पेनिश-225,000,(५)रूसी-195,000,(६)जर्मन- 185,000,(७)हिंदी-120,000,(८)फ्रेंच-100,000. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि अंग्रेजी में उन सभी भाषाओं के शब्द शामिल कर लिए जाते हैं जो उनकी आम बोलचाल में आ जाते हैं, लेकिन हिंदी में ऐसा नहीं किया जाता। आँखें खोलें, .....”जग अभी जीता नहीं है, हम अभी हारे नहीं हैं.”

---- चुटकी----

पाक ने माँगा
अपना कसाब,
क्यों
कोई ट्रेनिंग
बाकी
रह गई
क्या जनाब।

बंद आयोजित करने के बदले समाधान सुझाइए-ब्रज की दुनिया

कल कुछ विपक्षी पार्टियों ने बढती महंगाई के खिलाफ बंद का आयोजन किया.देश के कुछ हिस्सों में सारी मानवीय गतिविधियाँ ठप्प पड़ गईं.कई जगहों पर बंद समर्थकों ने आम जनता के साथ दुर्व्यवहार भी किया.क्या इस तरह बंद आयोजित करना उचित है?इसका आयोजन करने से तो कम-से-कम महंगाई तो कम होने से रही.अगर बंद से समस्या का समाधान नहीं हो सकता तो फ़िर बंद के आयोजन का क्या औचित्य है?एक दिन के बंद से देश को अरबों रूपये का नुकसान होता है.दैनिक मजदूरों की तो जान पर बन आती है और उन्हें परिवार सहित भूखा रहना पड़ता है.इसलिए भी बन्दों के आयोजन करने से बेहतर है कि आयोजक सरकार और जनता के समक्ष लक्षित समस्या का समाधान रखें.वैसे भी मैं आज तक किसी भी राजनीतिक दल या उसके नेता को समाधान सुझाते नहीं देखा.इसका सीधा मतलब है कि उनके बंद का एकमात्र उद्देश्य जनता के सामने जनहितैषी होने का दिखावा करना भर है.अगर वे सच्चे जनहितैषी होते तो संसद में सरकार को सुझाव देते या प्रेस के माध्यम से समाधान बताते बंद का आह्वान नहीं करते.वास्तव में राजनीतिक दलों को बन्दों के दौरान अपनी शक्ति के प्रदर्शन का मौका मिल जाता है.उनके कार्यकर्ताओं को गुंडागर्दी करने का.फ़िर भी मैं बंद को मौलिक अधिकार मानता हूँ और इस पर पूर्ण प्रतिबन्ध के पक्ष में नहीं हूँ.हाँ संविधान में संशोधन कर ऐसी व्यवस्था की जा सकती है कि बंद का आयोजन करने से पहले नेताओं के लिए लक्षित समस्या का समाधान सुझाना भी जरूरी हो जाए.

भारत में फैले भ्रष्टाचार की बानगी भर है आई.पी.एल.-ब्रज की दुनिया

पिछले कुछ दिनों से भारतीय क्रिकेट के सबसे चमकदार चेहरे आई.पी.एल. में बेपर्दा होने और करने का बदसूरत खेल चल रहा है.हमारे राजनेता सिर्फ राजकाज ही चलाने में महारत नहीं रखते बल्कि आर्थिक लाभ के लिए कुर्सी का बेजा इस्तेमाल करने में भी उनका कोई जवाब नहीं.अब तक जो तथ्य सामने आ रहे हैं उससे तो यही संकेत मिल रहे हैं कि केंद्र सरकार के कई मंत्रियों ने अपने पदों का दुरुपयोग किया और आई.पी.एल. में बिना एक पैसा दिए करोड़ो की हिस्सेदारी हासिल की.आई.पी.एल. को लाभ पहुँचाने के लिए कानून तक में बदलाव कर दिए गए.पिछले सप्ताह ही मेडिकल कौंसिल ऑफ़ इंडिया का अध्यक्ष भी घूस लेते पकड़ा गया और उसके बाद उसके पास से जितना धन निकला उसे देखकर शायद कुबेर भी शरमा जाते लगभग ढाई हजार करोड़ का सोना और अन्य संपत्तियां.कहते हैं कि चावल बनाते समय सिर्फ एक चावल को देख लेना ही काफी होता है यह पता लगाने के लिए कि भात पक गया या कच्चा है.उसी तरह भारत में भ्रष्टाचार किस तरह हमारी संस्कृति में शामिल हो चुका है यह जानने के लिए बस यही दो उदाहरण काफी हैं.

महेंद्र के छायाचित्र -2

पाठक
साथियों नमस्कार
जीवन में बहुत सारी भागादौड़ी है मगर एक बात साफ़
है कि हमारा भी दिल करता है कुछ समय निकाल कर हम फुरसत में कहीं घूमने
जाएँ. यहाँ अपनी माटी अपनी अमूल्य प्रकृति के कुछ छायाचित्र पोस्ट कर रहा
है छायाकार हैं: महेंद्र -09829046603
..उन्हें
अपनी राय जरुर दीजिएगा.,ताकि सफ़र जारी रहे.









शिक्षा अधिकार कानून- कैसे लिखेंगे-पढ़ेंगे सब बच्चे

लोकेन्द्र सिंह राजपूत 
रकार ने शिक्षा का अधिकार कानून लागू तो कर दिया लेकिन उसका कितना लाभ हो सकेगा.... यह बड़ा प्रश्न है। कानून को राज्य में लागू करने में तमाम राज्य सरकारें अपनी-अपनी परेशानियां गिनाने लगीं हैं। कहीं धन का अभाव है तो कहीं और कुछ आड़े आ रहा है। इससे कानून के निचले स्तर तक लागू होने में पर सवाल खड़े होने लगे हैं। कानाफूसी हो रही है कि कहीं  इसका भी हाल सर्व शिक्षा अभियान की तरह न हो जाए।
.........चलो मान लिया जाए की यह कानून सभी राज्यों में लागू हो भी जाएगा। लेकिन उसके दायरे में प्रत्येक बच्चा कैसे आएगा यह मेरी समझ से परे है। बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए क्या इंतजाम किए गए हैं? इस पर सोचना जरूरी है। सरकार ने अभी तक जो भी इंतजाम बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए किए वो सफल होते नहीं दिखे, वे या तो स्वत: ही समाप्त हो गए या फिर मात्र ढकोसला बनकर रह गए हैं। ऐसा एक उदाहरण है मिड डे मील। मिड डे मील बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए एक अच्छा विकल्प था। लेकिन भूख से भी बड़ी होती है प्यास। जिससे मिड डे मील का खाना भी बच्चों को स्कूल तक नहीं खींच सका। जिन बस्तियों के बच्चे सुबह से ही साइकिल पर चार-चार बरतन बांध कर पानी की तलाश में कोसों दूर तक जाते हों वे स्कूल तक कैसे पहुंचेंगे यह समझना जरूरी है।
..........मैंने उन बस्तियों के बच्चों के माता पिता से पूछा कि आप अपने बच्चों को स्कूल क्यों नहीं भिजवाते हो। तब उनके सीने में छिपा दर्द बोल उठा-भैया जी कैसे भेजे बच्चों को स्कूल, ऐसी महंगाई में एक अकेले के कमाने से काम नहीं चलता। पेट भरने के लिए सबको काम पर निकलना पड़ता है। कई दफा मुझे और मेरी पत्नी को काम नहीं मिलता ऐसे में बच्चा जो कमाकर लाता है उसी से हम सबके पेट की आग बुझ पाती है। ऐसा नहीं है कि हम बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते बल्कि हम तो चाहते हैं कि हमारे बेटे पढ़-लिख कर साहब बने। पर एक समस्या हो तो सुलझाएं।
फिर मैंने उनसे पूछा और क्या समस्या है? इस पर उसने माथे को सकोड़ा तो उसके माथे पर चिंता की लकीरें साफ नजर आईं। अब चाहे ये चिंता की लकीरें हो या फिर भरी जवानी में अधिक काम के बोझ से आई कमजोरी की लकीरें हों। उसने कहा कि- भैयाजी आप तो देख ही रहे हैं, गरीब के लिए जीना कितना मुश्किल हो रहा है। मेहनत मजूरी करके हम दो वक्त की रोटी की जुगाड़ तो फिर भी कर लेते हैं लेकिन पीने के लिए पानी की जुगाड़ कहां से करें। नल में पानी आता नहीं नेताजी लोग कुछ करते नहीं। बड़े घर वाले लोगों के यहां तो वो बोरिंग करवा कर या फिर टैंकर भेज कर पानी की खूब व्यवस्था कर देते हैं। पर हम लोगों की कौन सुनता है भैयाजी। पानी के लिए हम पूरे परिवार के साथ सुबह से निकलते हैं तब जाकर कुछ पानी का इंतजाम हो पाता है। इसी फेर में हमारे बच्चे सुबह के वक्त भी स्कूल नहीं जा पाते। अब आप ही बताइये कि किस वक्त और कैसे हमे अपने बच्चों को स्कूल भेज दें।
.........अब मैंने उन लोगों के बच्चों से भी बात की तो समझ आया कि उनमें से भी अधिकांश पढऩा लिखना तो चाहते हैं लेकिन जाएं कैसे ये उन्हें भी समझ नहीं आता। उन्होंने कहा-भैया हम लोग सुबह पानी भरने निकल जाते हैं और दोपहर में काम पर अब कब जाएं स्कूल? मेरे पास उनके किसी सवाल का जवाब नहीं था।
पूरी स्थिती को समझने के बाद यह बात निकलकर मेरे सामने आई कि सरकार को पहले लोगों के लिए मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करानी होंगी। तभी उसकी योजनाएं धरातल पर भी पहुंचेंगी और सफल भी हो सकेंगी। किसी महान आत्मा ने ठीक ही कहा है कि-


भूखे पेट भजन न होए गोपाला।
ये ले अपनी कंठी माला।।
अब इसे थोड़ा और मॉडरेट कर लिया जाए तो कोई बुराई नहीं-
सूखे कंठ भजन न होए गोपाला।
ये ले अपनी कंठी माला।।

27.4.10

राजेन्द्र यादव के नाम एक पत्र



हंस का मार्च अंक पढ़ने के बाद
 राजेन्द्र जी नमस्ते,

आपके सानंद होने की कामना करता हूँ.

सबसे पहले तो हंस ऑनलाइन करने पर आपको बहुत सा आभार 

              

एक तरफ सरकारी जमाइयों के आठ प्रतिशत महंगाई भत्ता बढ़  गया है,दूजी और महानरेगा के मजदूर उसी मजदूरी के साथ इस खबर से बेखबर होकर गेंथी ,फावड़ा,तगारी लिए लगे हुए हैं काम में.दोपहरी भी अब तो ज्यादा गरम हो चली है.ऐसे माहौल  में ही हंस के मार्च का अंक पढ़ा-पढ़ाकर अपनी प्रतिक्रियाओं भरा ये पत्र आपको भेज रहा हूँ.राजेन्द्र जी हंस के प्रकाशन में आपका निर्देशन,लेखन और भड़कीले सम्पादकीय का मैं कायल हूँ.आपके द्वारा पाठकों के कटु पत्रों को हु-ब-हु  छापने का काम बहुत पसंद आया.इस बेबाकीभरी अदा पर मैं फ़िदा हूँ.





पिछले दो-तीन अंको से पत्रिका के ले-आउट में परिवर्तन नवीनता के साथ थोड़ा जरुरत के मुताबिक़ भी लगा है.चित्तौडगढ ठीक-ठाक शहर है.लेकिन पाठकीयता की कंजूसी की वजह से यहाँ का बाज़ार नहीं के बराबर मानिए.शायद  लोग पढ़ते हो गुपचुप ,तो मालूम नहीं. रेलवे स्टेशन पर तीन-चार बार के जाने पर प्लेटफोर्म टिकट लेकर हंस हासिल हो पाती है.कभी स्टाल बंद,कभी हंस ख़त्म कभी हंस के आने पहले मेरा जा धड़कना.लगभग तनख्वाह से भी जयादा इन्तजार रहता है पत्रिका का.आपकी पूरी और ऊर्जावान टीम को हमारी बधाई.





कवरपेज  के फोटो हमेशा सार्थक ही लगते रहे.मगर भीतर के रेखाचित्रों को उस नज़र से नहीं देख पता हूँ. खैर नए-नवेले रचनाकारों की अंगूली पकड़कर मंच तक लाने की आपकी विलग राह से आपकी सेवा बहुत समय तक पहचानी जायेगी.सम्पादकीय से शुरू पत्रिका पढ़ते-पढ़ते और साथ ही पत्नी को कथाएं सुनाते हुए ये कब ख़त्म हो जाती है कम ही ध्यान रहता है.और अचानक भारत भारद्वाज जी का समकालीन सृजन वाला पेज आ जाता है.


कई और पत्रिकाओं की तरह साग-भाजी के बढ़ते दामों वाले वक्त में भी  पच्चीस रूपये खर्चना हंस के लिए दिल नहीं दुखाता है.मगर ये ही बात औरों पर लागू नहीं होती. अपना मोर्चा स्तम्भ  में पाठको के  सुझावों के साथ कड़वे-मीठे पत्रों को पढ़ना भी एक ख़ास तरह की ताज़गी देता है.यथासमय पत्रिका में आवश्यक विज्ञापन भी सूचनापरक होने से पढ़ने में आते हैं. इस बार पिंडदान जैसी कहानी के ज़रिये जयश्री रॉय को संभावित लेखिका  का दर्ज़ा दिया जाना ठीक निर्णय रहा.वहीं पंचनामा भी बहुत अंदर  तक असर करती कहानी है.पुन्नी  सिंह जी को चित्तौडगढ शहर के सभी पाठकों की और से बधाई.


हंस को हम मित्र-मंडली में ले-देकर पढ़ लेते हैं.ये लेनदेन और पत्रिकाओं तक भी रहता है.युवा कथाकार एम्.हनीफ मदार की लेखनी में बहुत ऊर्जा भरी है,जो कहानी 'अब खतरे से बाहर है' में उफनती नज़र आई है. आजकल कवितायें भी पढ़ने लगा है,और ब्लॉग्गिंग के चस्के से कुछ कविताओं जैसा  भी लिख डालता हूँ.प्रताप राव कदम की असलीयतभरी  और अपने ही मौहल्ले की कथा कहती कविता छू गयी. '  जिन्होंने मुझे बिगाड़ा' स्तम्भ को बहुत आकर्षण के साथ अरसे से  पढ़ता रहा हूँ.अब तो मुझे भी लगने लगा है कि मैं बिगड़ रहा हूँ.मैनेजर पांडे को पढ़ते रहें हैं,मगर उनके लेख से ये अंक और भी वजनदार हुआ है.हमारी अपनी ही लगती इस  पत्रिका हंस का सबसे ज्यादा आकर्षक कॉलम कसौटी है,मुकेश जी के व्यंगभरे असल तस्वीर खींचते विचार पाठकों  को मीडिया के अनछूए पहलुओं से परिचित कराते हैं.ज्ञानवर्धक  सामग्री पर उनके कृतज्ञ हैं.ख़ास तौर पर इस अंक में चेतन भगत के अंग्रेजी उपन्यास 'फाईव पॉइंट समवन व्हाट नोट टु  डु एट आई आई टी  ' की समीक्षा लेखन में अनंत  विजय ने बहुत मेहनत  की है.
कई बार अच्छी  समीक्षाओं के ज़रिये हम पुस्तक पढ़ने के काम से बच जाते हैं और कई बार क्या पढ़ना है ,पर जल्दी निर्णय कर पाते हैं.इसी अंक में प्रकाशित एक और पुस्तक समीक्षा पूरी तरह से पुस्तक के प्रति सच्चे हालचाल दिखाती लगती है,सार्थक और गहरा लेखन है.ऐसी समीक्षाएं पाठकों का कई रूपों में भला कर सकती है.सुधीश पचौरी की ''अध्य-पद्य बिंदास ''के लिए जयपाल सिंह जी तक बधाई पहुचाएं.सफ़र जारी रखें.सम्पादक जी ये पत्र हंस में छपे तो ठीक ना छपे तो भी ठीक वैसे केवल छपाने के मतलब से लिखा भी नहीं जाता,गौतम की ग़ज़ल और संजीव बाबू की बात बोलेगी  भी अच्छी लगी.संजीव जी के आलेख लगातार रूप से ज्ञानवर्धक होने के साथ-साथ पाठकों को पूरे रूप से बांधकर रखते हुए लेख पूरा पढ़ने तक छोड़ते नहीं है.भारत भारद्वाज पूरी मेहनत और दिल से अपने विचार लिख कर हंस के गठन में अपना पूरा मान रखते  दिखते हैं.उनके लिखे को पढ़कर हमें नित-नया छपा हुआ और पत्र-पत्रिकाओं  की पड़ताल सामने लिखी मिल जाती है.लम्बे चौड़े रचना संसार में इस तरह के समीक्षणपरक  आलेख पढ़ने के बाद पठन सामग्री के चयन में बड़ी सुविधा हो जाती है.अप्रैल के अंक का ले-आउट देख लिया है बस इन्तजार है.होकर की आवाज़ का जो इन्तजार रहा बस.वैसे मैं आकाशवाणी और स्पिक मैके  से झुड़ा हुआ  हूँ साथ ही सरकारी अध्यापक हूँ.अब धीरे धीरे  हंस के करीब आ रहा हूँ.



माणिक 

 






महेंद्र के छायाचित्र

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पाठक
साथियों नमस्कार
जीवन
में
बहुत सारी भागादौड़ी है मगर एक बात साफ़
है कि हमारा भी दिल करता है कुछ समय निकाल कर हम फुरसत में कहीं घूमने
जाएँ. यहाँ अपनी माटी अपनी अमूल्य प्रकृति के कुछ छायाचित्र पोस्ट कर रहा
है ये एक सिलसिला........... छायाकार हैं: महेंद्र -9829046603
..उन्हें

अपनी राय जरुर दीजिएगा.,ताकी सफ़र जारी रहे.


ब्रमपुत्र नदी ,गुहावटी में नौका विहार करते हुए। नदी के बीच एक बहुत पुराना टापू और मंदिर है.इसी शहर में कामाख्या देवी का मंदिर भी लोकप्रिय है
कोहिमा के बीच बनी नागालेंड विश्वविद्यालय के आलम में बनी रोड ,भरपूर हरियाली.
कोहिमा के संग्रहालय में पड़ी तोफ,जो कभी इतराती थी अपनी ज़वानी पर,एक दिन सभी को यहीं पहुचना है.
कोहिमा संग्रहालय का एक नमूना
संग्रहालय से जुटाया एक और रूप

कोहिमा में पर बसा जीवन
कोहिमा की संकड़ी सड़कें
कोहिमा का शहीद पार्क
कोहिमा का आदामी,मुश्किल से मिला,यहाँ केवल औरतें ही नज़र आती है। आदमी बाहर रहते हैं.

नागालेंड  विश्व विद्यालय की हरीयाली और रास्ता
कलाकारों की एक कार्यशाला में टकटकी लगाई विद्यार्थी ,ऐसा ध्यान चाहिए ,लड़किया कलाकार पर ध्यान लगाती है,और आजकल के लडके लड़कियों पर ,होना क्या,लड़कों के नंबर कम ही आयेंगे ना.
नागालेंड विश्व विद्यालय  का खेल मैदान ,आओ मिलकर खेलें ऐसा खेल जो मैच फिक्सिंग से जुड़ा नहीं हो.
हमारी मिट्टी की एक तस्वीर जो  बरसात के दिनों में बहुत करीब से ली गयी है.
आओ मिलकर हम भी तम्बू गाड़े,करें साकार स्वार्थ अपने,शरमाने  की बात नहीं है,दुनिया लगी है सारी अब तो तम्बू लगाने में अपने अपने

संकलन
माणिक 

महाकुम्भ पर मौत का साया

हरिद्वार के महाकुम्भ में अंतिम शाही स्नान के दिन हुई दुर्घटना के कारणों को लेकर उत्तराखंड सरकार में भ्रम की स्थिति है। सरकार इसे भगदड़ का नतीजा मानने को तैयार नहीं है। हो भी क्यों यदि सरकार यह मन लेती है तो दुनिया दे सामने उसके महाकुम्भ आयोजन की भद्द पिट जाएगी। अपनी प्रतिस्ठा को बचने के लिए सरकार ने यह दांव खेला है। दरअसल जिस आयोजन को अद्भुत बताते हुए अंतिम शाही स्नान से दो दिन पहले मुख्य मंत्री नोबेल पुरष्कार दिए जाने की बात कर रहे थे। उस आयोजन के अंतिम दिन सारी व्यवस्थाएं ही चौपट हो गयीं। सरकार के अनुसार घटना में सिर्फ सैट लोग ही मारे गए। इनमे से दो तो एक बाबा की गाड़ी के नीचे आकर मरे। बाकी भीड़ ने कुचल कर मार दिए। हैरत वाली बात तो यह है की सरकार यह भी मानने को तैयार नहीं है कि पुलिस ने भीड़ को भगाने के लिए कोई लाठी चार्ज भी किया. हैं न अजीब बात। सरकार यह तो मानती है कि किसी बाबा की गाड़ी के नीचे आकर एक बच्ची की मौत हुई। यह भी मानती है की उस समय पुल पर हजारों लोग भी थे। साथ में यह भी मानती है की दुर्घटना के बाद वहां भीड़ जुट गयी और लोग बाबा व उनके साथियों को पीटने पर उतारू हो गए। लेकिन यह नहीं मानती की पुलिस को वहां लाठी चार्ज करना पड़ा, तो फिर भगदड़ का कारण क्या रहा यह सरकार को नहीं मालूम। इसकी जाँच हो रही है..... वाह री सरकार। सब कुछ दिख रहा है पर देखना कुछ भी नहीं। १४ अप्रैल को हुई इस घटना में मरे हुए तीन लोगों की पहचान अभी तक नहीं हो सकी है। यानी उन्हें पहचानने वाला अभी कोई नहीं आया। कौन जाने कोई बचा भी है नहीं। दरअसल इस घटना में मरने वालों की संख्या पर भी सवालिया निशान लगाये जा रहे हैं। घटना के समय वहां उपस्थित लोगों के अनुसार भगदड़ के समय दर्जनों लोग पुल की रेलिंग टूटने के कारण सीधे गंगा में जा गिरे थे। सरकार का दावा है कि नदी में कुल पांच लोग गिरे थे। फिर जिन शवों को अब तक पहचान के लिए रखा जा रहा है. उनके परिजन कहाँ गए। पुलिस के दावे पर भी अब शक होने लगा है। उसका कहना था कि हर पुल पर और चौराहों पर ख़ुफ़िया कैमरे लगाये गए थे तो उस साधु कि शिनाख्त में इतनी देरी क्यों हुई। अब पुलिस का कहना है कि उन्हें घटना के समय कि फुटेज मिल गयी है। तो भगदड़ या लाठी चार्ज कि फुटेज कहाँ गयी। मतलब साफ है प्रतिष्ठा की लडाई में पुलिस या सरकार बहुत कुछ देखना ही नहीं चाहती। लगता है कि सीधे स्वर्ग पाने की लालसा में न जाने कहाँ से हरिद्वार आये लोगों के शवों को भी लावारिश के रूप में जलाये जाने का दुर्भाग्य झेलना पड़ेगा। सरकार ने तो पांच- पांच लाख रुपये दे कर अपना पल्लू यह कहते हुए छुडा लिया कि मेला अद्भुत रहा। सरकार को बधाइयाँ मिलने का क्रम जारी है. लेकिन तीन लाशें ऑंखें बंद होने के बावजूद सब कुछ देख रहीं हैं। आप और हम भी.......

बच्चे हैं की भेड़ बकरी


पत्रकारों के धरने व डिप्टी रजिस्टर के कड़े पत्र के बाद मेरठ प्रेस क्लब में चुनाव की घोषणा










Al Jazeera English - Sport - Afghanistan against the odds

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मेहनत का रंग जो बेरंग है




भ्रष्टाचार और घूसखोरी को हमने ही जन्म दिया हैं.


आज कल के इस दौर में अगर कुछ भी काम करवाना हो तो बैगैर पैसे और जान पहचान के संभव नहीं हैं.
 ऊपर लिखे कथनमें कितनी सच्चाई हैं ये तो हर समझदार व्यक्ति के समझ में आ जाएगा. जहाँ तक मेरा मानना हैं की हर व्यक्ति की एक इच्छा होती हैं की वो जिस चीज की चाह कर रहा हैं वो जल्द से जल्द पूरी हो जाये. चाहे उसकी चाह भारत के सविधान का ही उलंघन ही क्यों न कर रही हो. क्योंकि इस दौर में हर व्यक्ति सिर्फ अपने फायदे और अपने हित के लिए ही कार्य कर रहा हैं और उन सभी नियमो और कानूनों का उलंघन करता चला जा रहा हैं जिन्हें हमसे पहले हमारे देश के कुछ महान व्यक्तियों द्वारा देश की हित की रक्षा और कानून व्यस्था बहाल रखने के लिए बनाया था. लकिन क्या हम ये सही कर रहे हैं और किस हद तक और क्या हम उस भारतवर्ष देश के निवासी जिसे आजाद करने के बाद फिर से सोने की चिड़िया बनाने का ख्वाब देखने वाले चाचा नेहरु या फिर महात्मा गाँधी जी आदि जैसे कई महान व्यक्तियों ने देखा था.
वैसे भी आज की क़ानून व्यवस्था ही कुछ ऐसी हो चुकी हैं जैसा की उन अंग्रेजो के ज़माने में थीबस फर्क इतना हिन् की अंग्रेज सैनिक कम से कम अपने देश के लिए तो वफादार थे लेकिन अब तो हमारे देश में कानून नाम की कोई चीज नहीं बची.

आये दिन संचार पत्रों में खबर आती हैं :-
किसी नेता के चमचों ने उस नेता को लाखो करोडो की नोटों की माला पहनाई हैं और बाद में जब पता चला इसके बारे में तो उसका मूल्य कम बता कर उस तरफ से सबका ध्यान भी हटा दिया गया.
और इसमें हमारी देश की मीडिया ने भी कुछ कम साथ नहीं दिया इस खबर को शुरुवात में तूल तो दिया लेकिन बाद में इनको भी पता नहीं क्या हो गया की इन्होने भी ये खबर दिखानी बंद कर दी.
और वहीँ दूसरी तरफ मुबई के एक बड़े राज्यप्रेमी राज ठाकरे की ने शाहरुख़ को सिर्फ इस लिए माफ़ी मंगवाई की उन्होंने दो चार बाते पाकिस्तान की बडाई में क्या कह दी और इस खबर को तो मीडिया ने कितने दिनों तक दिखाया.
बात फिर वहीँ आ गयी की भई यहाँ पर सच्चाई का जमाना नहीं बस अपना घर देखो भई बाकी दुसरो के घर में चाहे कुछ भी दिक्कत क्यों ना आ जाये.


अब आपको किसी सरकारी काम को करवाना हो तो बाबु को घुस दो नहीं तो आपका काम नहीं होगा और या फिर सरकरी दफ्तरों में कोई रिश्तेदार हैं तभी आपका काम होगा वरना नहीं होगा.
वरना फिर चक्कर काटते रहिये कभी ना कभी तो फिर काम आपका हो ही जायेगा.



अब तो किसी व्यक्ति की शिकायत हमारे क़ानून के रखवाले पुलिस वालो से करनी हो तो भी डर लगता हैं.
क्योंकि ये भी क़ानून की खूब धज्जिय उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. बेकसूरों को मार मार कर मर डालते हैं और कसूरवार बहार घूमते हैं अपने पैसे के बल पर. और जिस देश में क़ानून के रखवालो का ही ये हाल हैं तो वहां पर सब बन्दे ही ऐसे होंगे.अपने अगर किसी बदमास के खिलाफ कोई भी रिपोर्ट दर्जभी कराई तो और वो बदमास थोडा पैसे वाला हुआ तो फिर आपकी शामत आ गयी फिर आप अपने आप को ही कोसेंगे.




फिर अभी मैंने कहीं पढ़ा की अब शिक्षा के साथ भी बहुत बड़ा खिलवाड़ हो रहा हैं क्योंकि बिना चंदा सिये किसी भी अच्छे स्कूल में आपके बच्चे का प्रवेश या दाखिला नहीं हो पायेगा.
लेकिन इसके लिए हम जिम्मेदार हैं क्या ?

अभी भी आप मे से कई लोग सोच रहे होंगे की मैं तो नहीं हूँ इन घूसखोरी जैसी चीजो के लिए लेकिन कहैं ना कहीं आप भी इससे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जुड़े हुए हैं.
मैं आपको इसका सीधा सा एक उदहारण से समझाता हु जिससे मैं आशा करता हु की आपलोगों को भी समझ आ जाये की मैं क्या कहना चाहता हु, होता क्या हैं की

आप का बेटा बड़ा हो गया हैं और आपको उसका दाखिला करवाना हैं और वो भी बढ़िया से बढ़िया स्कूल में और आप स्कूल जाते हैं उसके दाखिले के लिए और वहां के प्रधानाचार्य से आप मिलते हैं और वो आपको बोलता हैं की भई हमारे यहाँ पर तो सीते काफी कम हैं और हम सिर्फ उन्ही विद्यार्थियों का दाखिला करेंगे जो इन सीटो के लिए उपयुक्त होंगे और जिनके नंबर भी अच्छे होंगे. लेकिन अब आपके बच्चे के नमबर कम हैं और दाखिला नहीं हो पाया, फिर ? आपने सोचा की क्यों ना प्रधानाचार्य जी से थोड़े से लेन-देन की बात की जाये और दाखिला हो जाये. बस यहीं पर आकर अपने एक ऐसा सिलसिला चालू कर दिया की जो बाद में दुसरो के लिए कठिनाई पैदा कर देगा. क्योंकि आपके एक बच्चे का तो दाखिला तो हो गया लेकिन उस बेचारे दुसरे बच्चे के बारे में अओने बिल्कुल भी नहीं सोचा जिसके जगह पर आपके बच्चे को दाखिल किया गया. चलिए इसे भी छोड़े आपने जो एक सिलसिला चला दिया घुस देने का वो शायद ही भविष्य में कभी रुकेगा क्योंकि अब उस प्रधानाचार्य के पास और धन कमाने के साधन के रूप में एक नया जरिया भी मिल गया जिसमे उसे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी.

बात आईने की तरह साफ़ हो गयी की ये घूसखोरी का सिलसिला भी अपने ही शुरू किया हैं और जब आपका बुरा वक्त चल रहा हो और आपसे भी कोई
घुस मांग रहा हो तो आपबस दिमाक में यहीं ख्याल लेंगे की कितना भ्रष्टाचार और घूसखोरी के दलदल में हमारा देश डूब चूका हैं लेकिन आपको हक़ नहीं हैं ऐसा ख्याल लाने का क्योंकि शुरुवात भी तो आपलोगों से ही हुई हैं.

इसे शुरू भी आपने किया हैं तो बंद भी आपको ही करना पड़ेगा. तो लग जाईये अपने भविष्य को बचाने में अभी से. और इस मुहीम को और लोगो तक भी पहुचाये और उन्हें भी जागरूक बनाये क्योंकि वो पैसा जो पानी की तरह आप घूस में बहा देते हैं वो आपकी मेहनत की कमाई का हैं और आप इसे ऐसे ही व्यर्थ में ना जाने दे.

बौद्धिक क्षमता से लबरेज़ हैं चिदम्बरम

              (उपदेश सक्सेना)
केंद्रीय गृहमंत्री पी.चिदम्बरम से सतारूढ़ और विरोधी राजनेताओं की चिढ़ने की वजह है उनकी तीव्र बौद्धिक क्षमता, तल्ख हाजिर जवाबी और उस पर डटे रहने वाला साहस। गृहमंत्री पी चिदम्बरम उस समय बेबाक़ हो जाते हैं जब उनके सही कार्यों को, उनके धैर्य को, उनकी बौद्धिक क्षमता और कर्त्तव्य परायणता को पक्ष-विपक्ष या कहीं से भी चुनौती दी जाती है। दंतेवाड़ा की दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर में बैठकर ज़ुबानी जमा-खर्च की जुगाली से काम नहीं चलेगा। जरूरत है माओवादी, नक्सलवादी समस्या से दो टूक निपटने की। आम आदमी अब त्रस्त है। स्वयं नक्सलवाद के प्रणेता चारू मजूमदार हों या कानु सान्याल अन्त में निराशा से उत्पन्न हुई इस हिंसा से सबका मोहभंग हो चुका था। पर निराशा की व्यापकता में कमी नहीं आई बेरोजगारी, गरीबी और अभाव नक्सलवाद के लिए उर्वरक का काम करने लगे। नक्सलवाद भी महानगरों से क़स्बों और फिर गांवों और जंगलों में जाकर सक्रिय हो गया। उसकी विष वेल को बड़ा होने में तीन-चार दशक लगे। पिछले कई सालों से नक्सलवाद ने तकनीकी हथियारों, सूचना तन्त्रों वाले उपकरणों का प्रयोग तीव्रता से किया। धन जुटाने के लिए उसने अब आम आदमी को भी घेरना शुरू कर दिया और मध्यप्रदेश, बंगाल, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश व महाराष्ट्र के कई जिलों में पसरने लगा। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने शुरू-शुरू में इसे कानून व्यवस्था का मुद्दा मानकर इस हिंसा की अनदेखी की और धीरे-धीरे नक्सलवाद का नासूर बढ़ता चला गया। जब केंद्रीय रिजर्व बल के 76 जवानों को एक साथ भून दिया गया तो सरकार सकते में आ गई। गृह मंत्री पी चिदम्बरम घरेलू नक्सल समस्या से दो-चार होने के लिए भारतीय सेना का इस्तेमाल नहीं चाहते थे। उन्हें अपना और भटका हुआ मानकर उनसे बातचीत द्वारा समस्या का हल चाहते थे। पर जब पानी सिर से ऊपर निकल गया तो सरकार को कठोर कदम उठाने पड़े। बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और उनकी वामपंथी सरकार चिदम्बरम की आलोचक बन गई। पिछले दिनों कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने चिदम्बरम की नक्सल नीति को कोरी बौद्धिक तल्खी का नाम दिया। चिदम्बरम धैर्य रखते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अमेरिकी-ब्राजील यात्रा पर जाने से पहले अपने इस्तीफे की पेशकश की थी। जिसको डॉ. सिंह ने नहीं माना और उन्हें डटे रहने को कहा। लोकसभा में दंतेवाडा सैन्य हत्या काण्ड पर श्रध्दांजलि अर्पित की गई और उसके बाद चिदंबरम ने अपना वक्तव्य दिया। भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रवाद के संदर्भ में गृहमंत्री के साहस-धैर्य और अडिग रहने की नीति की प्रशंसा की और उन्हें नक्सलवाद के मुद्दे पर पूरा समर्थन देने का आश्वासन दिया।
चिदम्बरम ने अपने विरोधियों को आड़े हाथों लेते हुए साफ कहा कि आज छत्तीसगढ़ राज्य में नक्सलवादी हिंसा का जोर है जहां 76 केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवानों की जघन्य हत्या कर दी गई है। छत्तीसगढ़ आज इस समस्या से जूझ रहा है। यह सब वहां बरसों से चल रहा है। सन् 2000 तक छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश का ही एक हिस्सा था जहां दस साल तक स्वयं दिग्विजय सिंह ही मुख्यमंत्री थे। उनका इशारा था कि अगर उस समय विकास और रोजगार एवं गरीबी की ओर ध्यान दिया जाता तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता। हमें जहां हिम्मत से नक्सलवाद से निपटना है वहां विकास क कार्यों को भी तीव्रता से लागू करना होगा। दोनों काम साथ-साथ चलाने होंगे। यह नक्सलवाद का अन्तिम अलार्म है। नक्सलवाद की समस्या अब असहनीय और हिंसक बनकर शत्रुता का रूप ले चुकी है। बकौल राज्यसभा में विपक्षी नेता अरूण जेटली के सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी अपने ही होम मिनिस्टर की टांग खींचने में लगी हुई है. गृहमन्त्री ने कहा कि देश को भ्रम से बाहर निकालना होगा। अब नक्सल राजनीतिक सत्ता चाहते हैं। पीपुल्स लिबरेशन की बात करते हैं। उनकी गुरिल्ला सेना जो पीपुल्स आर्मी की शक्ल ले चुकी है, सत्ता की कुर्सी हथियाना चाहती है। सीधे अब युद्ध का आह्वान करती है। नक्सलवादी हमें अपना शत्रु मानते हैं। वे संसद को एक चिल्लाने वाला सुअरबाड़ा मानते हैं। गृह मंत्री ने कहा, मैं नक्सलवादियों से नहीं डरता-अपनी नैतिक जिम्मेदारी को मानते हुए दंतेवाड़ा सैनिक हत्याकाण्ड के संदर्भ में मैंने अपना इस्तीफा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपा था। सोनिया गांधी (कांग्रेस अध्यक्ष), प्रधानमंत्री दोनों ने मुझमें विश्वास जताया है और मेरे इस्तीफे को नामंजूर कर दिया। गृहमंत्री चाहते हैं कि राज्य सरकार नक्सल प्रभावित क्षेत्र में प्रशासन को अपने हाथ में पुन: ले और वहां विकास कार्यों को शिद्दत से शुरू कर दे। स्मरण रहे कि मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ डॉ. रमन सिंह ने भी विकास कार्यों में तेजी लाने और विकास कार्यों में लगे लोगों की पूरी मदद और सुरक्षा देने का वायदा व व्यवस्था की है। भारत जब तालिबानों की धमकियों के बावजूद अफगानिस्तान में विकास कार्यों में डटा हुआ है तब यह तो अपने देश और अपनी मातृभूमि की बात है। डॉ. रमन सिंह पिछले एक वर्ष से केंद्रीय सरकार की सतर्कता व गंभीरता से अत्यन्त प्रभावित हैं और गृहमंत्री के प्रति प्रदेश की ओर से अहसानमंद भी हैं।
गृहमंत्री नक्सल क्षेत्र में बाकायदा ट्रेंड सैनिकों को बेहतर हथियारों के साथ भेजना चाहते हैं। सेन्टर-स्टेट व इंटर स्टेट को आर्डिनेशनल के भी पक्षधर हैं। राज्यों के मुख्यमंत्रियों (नक्सल प्रभावित क्षेत्रों) के समर्थन और सहयोग से नक्सल विरोधी नकसल आपरेशन  की नीति बनाई और अपनाई गई है। नीति है : पुलिस एक्शन और विकास दोनों साथ-साथ चलेंगे। आबादी वाले क्षेत्रों, आदिवासी क्षेत्रों में नीति कैसे लागू की जाए या वहां किस प्रकार हमें काम करना है-क्या-क्या नये कदम उठाने हैं-कहां चूक हुई है, इसके लिए ईएन राममोहन कमेटी की रपट आने के बाद ही बाकी चीजों का खुलासा हो सकेगा। पी.चिदंबरम बौध्दिक ही नहीं कार्यशील व हाजिर जवाब मंत्री भी हैं। शायद यही वजह है कि उनके पार्टी के अंदर विपक्ष के बजाय ज्यादा लोग डाह रखते हैं। पर श्री चिदंबरम साहसी हैं, मंत्रालय जो भी हो वे काम को समझते हैं, विचारते हैं, नीति बनाते हैं। कार्यान्वित करते हैं। लोकतन्त्र में हैं इसलिए संवेदनशील भी हैं। शायद उनकी सफलता भी लोगों में द्वेष का एक कारण हैं। विशेषकर राजनेताओं में। 



---- चुटकी----

दादा,नाना,चाचा.....
भूल गए हम
अंकल
हुए मशहूर,
रिश्ते लोग
दिखावे के अब
स्नेह हो गया दूर।

26.4.10

हमारी डलहौज़ी यात्रा




मैं पिछले माह सपरिवार ग्रीष्मकालीन भ्रमण हेतु दिल्ली, डलहौज़ी, खज्जियार, साच पास, अमृतसर, मथुरा और वृन्दावन गया था। हमारा बेटा वैभव हमारे साथ नहीं जा सका, इस बात का बड़ा दुख था। वहां मेरी सॉफ्टवेयर पुत्री ने सख्त चेतावनी दे दी थी कि पूरे भ्रमण के दौरान मैं न तो अलसी की बात करूंगा और न ही अलसी के बारे में सोचूंगा वर्ना वो मेरे लेपटॉप में वायरस डाल देगी। अलसी से संबन्धित प्यारी प्यारी बातें, अच्छे अच्छे संस्मरण बार बार मेरे गले तक आ रहे थे तथा बाहर निकलने को उतावले हो रहे थे, बार बार उबकाई सी आती थी और हर बार मैं मिनरल वाटर का घूंट पी पीकर अलसी की बातों को दबा कर नीचे धकेलने की कोशिश कर रहा था। पर मुई जानलेवा अलसी पानी के संपर्क में आने से और ज्यादा फूलती ही जा रही थी तथा मेरा पेट फाड़ने की पूरी तैयारी में थी। तभी यकायक मेरा ध्यान एक जगह बड़े से होर्डिंग पर लगे लक्स साबुन के नये विज्ञापन की ओर गया, जिसमें यह बताया गया था कि लक्स साबुन द्वारा नहाने मात्र से आपकी त्वचा कली से भी कोमल हो जायेगी। वाह कितना आसान तरीका था!!! लग रहा था कि कुछ ही समय बाद हमारे देश की सारी लड़कियां और स्त्रियां केटरीना जैसी हो जायेगी।



मैंने सोचा विज्ञापनों का वास्तविक उद्देश्य किसी भी वस्तु की खूबियों और वास्तविकता को उपभोक्ता के सामने यथार्थ रूप में प्रस्तुत करना होता है। लेकिन आजकल लगभग सभी संस्थान अपने कर्तव्य और जिम्मेदारी को भूल गये हैं और उनका उद्देश्य सिर्फ अपनी वस्तु की बिक्री बढ़ाना ही रह गया है। इसके लिए वे विज्ञापनों में झूठ बोलते हैं, गलत जानकारियाँ देते हैं, उपभोक्ता को भ्रमित करते हैं (या सरल शब्दों में कहें तो शुद्ध रूप से बेवकूफ बनाते हैं) और महत्वपूर्ण तथा आवश्यक जानकारियां या तो छुपा ली जाती हैं या इतनी बारीक किसी कोने में लिखी जाती हैं जिन्हें सूक्ष्मदर्शी यंत्र के द्वारा ही पढ़ा जा सकता है या conditions apply लिख दिया जाता है

कुछ माह पूर्व एक बार टी.वी. में लुभावना विज्ञापन देखकर मेरी एक चिकित्सक मित्र ने स्लाइसर डाइसर को मंगवाने के लिए ऑर्डर दिया था, जिसकी कीमत 3200 रुपये के लगभग थी। वे बड़ी खुश थी और बेसब्री से स्लाइसर डाइसर की प्रतीक्षा कर रही थी। उन्हें लग रहा था कि स्लाइसर डाइसर आने के बाद फल और सब्ज़ियां काटना व खाना बनाना बहुत ही सरल, सुगम, सहज तथा मनोरंजक हो जायेगा। जीवन सफल और आनंदमय हो जायेगा जैसाकि टी.वी. पर विज्ञापन में रोज बताया जाता था।



हम सब लोग भी इन्तजार कर रहे थे कि कब स्लाइसर डाइसर आयेगा, कब हमको इसका लाईव डेमो देखने को मिलेगा, अच्छा लगा तो हम भी स्लाइसर डाइसर मंगवायेंगे और हम भी रोज चुटकियों में सारे फलों और सब्ज़ियों को काट डालेंगे और सचमुच खाना बनाना कितना आसान और मजेदार होगा। बस इस कल्पना मात्र से मन में खुशियों की हजारों फुलझड़ियां झड़ उठती थी। इस छोटी सी जिंदगी से हम कितना सारा समय भी बचा लेंगे और फिर रोज शाम को बिंदास होकर बहु-पटीय चलचित्रशालाओं में बीबी बच्चों के साथ सैर किया करेंगे, मूवीज़ देखा करेंगे।


आख़िरकार एक दिन स्लाइसर डाइसर का पार्सल लेकर कोरियर वालों का बंदा चिकित्सालय में आ ही गया। तब हम सभी चिकित्सक कॉफी की चुस्कियां ले रहे थे। तुरंत पार्सल खोला गया और अस्पताल की किचन से फल व सब्ज़ियां मंगवाई गई । लेकिन उससे न तो सब्ज़ियां स्लाइस हो पाई और न ही फलों के डाइस तैयार हो सके। देखकर भी लग रहा था कि यह मुश्किल से 150-200 रूपये तक का आईटम है। लगता था कि उसकी ब्लेड घटिया स्टील की थी और धार भी ठीक नहीं थी। उसमें प्लास्टिक भी घटिया काम में लिया गया था। सबके चेहरे से खुशी और मुस्कुराहट गायब हो चुकी थी, सब एसे गुमसुम थे जैसे दोबारा सुनामी आ गया हो। लम्बी ख़ामोशी के बाद, मैं अपने आपको रोक नहीं पाया और मेरे मुंह से निकल ही पड़ा, इससे बढ़िया और जल्दी तो सब्ज़ियाँ पांच रूपये वाला चाकू ही काट देता है।बदले में सबके सामने मुझे मेडम की डांट खानी पड़ी।


चलिए आप तो अब लक्स का वो विज्ञापन देखिये जिसमें मैंने थोड़ा सा बदलाव करके उसे एक यथार्थ विज्ञापन बनाने की कोशिश की है और जिसे मैंने साच पास (जो 2 वर्ष पहले ही डलहौज़ी के पास खोजी गई एक बर्फीली चोटी है तथा रोहतंग पास से भी सुंदर है) के मनभावन, मनोरम, रमणीक, अविस्मरणीय और बर्फीले नज़ारों पर चिपकाया है।


यदि आप केटरीना कैफ की कली से भी कोमल, कमसिन, कांतिमय व कुंदन सी काया की कामना करती हैं तो उसकी कुंजी है केवल और केवल अलसी, न कि कोई सौंदर्य साबुन ।




अधिक जानकारी के लिए http://flaxindia.ning.com पर चटका करें।


Dr. O.P.Verma


M.B.B.S.,M.R.S.H.(London)


+ 919460816360