सेवा में
श्री विजय बहादूर सिंह जी
चरण-स्पर्श
वागर्थ के अप्रैल २०१० के अंक में आपका लेखक जात के प्रति रोष भरा आलेख पढ़ा हालांकि यह आलेख के अनुपात में मुझे एक जीवंत आख्यान लगा...यह आख्यान इस स्वघोषित विद्वानों के बाप लोगों के लिए एक आईना भी है....मगर विद्वता एक ऐसी चीज़ है जिसके कारण एक व्यक्ति अपने-आप को एक स्वयंभू सम्राट समझ बैठता है...ज्ञान के घोर और असीम अहंकार में डूबकर वह अपने-आप को देखना तक छोड़ देता है...अपने बारे में सोचना तो बहुत दूर की बात है,
ज्ञान का अहंकार दरअसल एक तरह से आदमी के सम्मुख एक अँधेरा पैदा कर देता है....उस अँधेरे में अच्छे-से-अच्छे ज्ञानि को भी रास्ता नहीं सूझता...एक और विशेष बात तो यह भी है ज्ञान का दर्प एक ऐसी अंधी गली है जिसमें भटक कर अनेकानेक सूरमाओं ने आखिरकार अपना गौरव-अपनी इज्ज़त खोयी है फिर भी यह बुद्धि नाम की जो अपरिमित-अपरिभाषेय-निराकार-सी चीज़ है वो हमें अपने कहे गए-सोचे गए सच या तथ्य के अलावा किसी और के सच या तथ्य को सच या तथ्य मानती ही नहीं....कहते हैं ना कि उपरवाला सबके कान में यह फूंककर धरती पर भेजता है कि उसके अलावा कोई अन्य श्रेष्ठ ही नहीं...यह मुगालता एक तरफ तो आदमी के सरवाइव करने का रास्ता है तो दूसरी तरफ दूसरों से अनवरत एक किस्म की फ़िज़ूल की जंग का वाहक भी...बेशक आदमी में तरह-तरह की बुद्धि है मगर खुद को श्रेष्ठ समझने की प्रवृति इस कदर भयंकर है कि जिसके आगे विश्व का सबसे बड़ा ज्वालामुखी भी फेल है,यही वो प्रवृति है जिससे आदमी आगे भी बढ़ता है,हर एक आदमी अपनी ही तरह के एक अनूठे इंसान में विकसित होता है...तो दूसरी तरफ अपनी कुछ "अनुठताओं"के सामने दुसरे की "दूसरी" तरह की "अनुठताओं" को हेय और विकृत समझ लेता है और यहीं से हर इंसान के बीच एक अंतहीन लड़ाई शुरू होती है जो हरेक इंसान की मौत के साथ ही ख़त्म होती है...अन्य मानवेत्तर प्राणियों को देखें तो हम पाते हैं कि वो सिर्फ पेट की भूख,रहने की जगह और स्त्री पर कब्जे के लिए आपस में लड़ते हैं,जो सरवाईव करने के लिए बुनियादी चीज़ें हैं....आदमी में बुद्धि का इजाफा शायद ऊपर वाले की ओर से आदमी को अपने-आप को समझने के लिए एक नेमत है,जिसे आदमी ने महज अपने अहंकार की लड़ाई में गवां दिया है.....हम मानते हैं कि धरती पर आदमी "सबसे" श्रेष्ठ है [काश होते भी !!]मगर ताज्जुब यह है कि हर आदमी यही माने बैठा है कि एक वही "सबसे" श्रेष्ठ है और यह भाव सबसे ज्यादा लेखक-साहित्यकार-विद्वान-कलाकार नाम की जात में है....दैनिक व्यवहार में विचित्र-फूहड़-मैले और दकियानूसी व्यवहार से परिपूर्ण ये "जातें" यह तनिक भी नहीं देखती कि अभी-अभी उन्होंने परदे पर क्या जीया है....कि किताबों में क्या लिखा है....कि क्या रचा है....क्या गढ़ा है... इस तरह ये लोग अपने ही रचे....जिए....लिखे....गढ़े....चरित्रों से इतना-इतना-इतना ज्यादा अलग हो जाते हैं कि कभी-कभी तो ऐसा भी लगने लगता है कि सामने वाला क्या सचमुच वही है...जिसके रचनाकर्म या सृजन ने हमें इतना गहरे तक प्रभावित किया है....सच कहूँ तो अगर हम किसी के लेखन-अभिनय-या किसी भी किस्म की कलाकारी की कसौटी पर उसके सृजक के ही चरित्र को धर दें....तो हम समझ भी नहीं पायेंगे कि क्या सच है और क्या झूठ....सब कुछ धुंआ-धुंआ हो जाएगा...हमारे सारे ख्यालात गर्दो-गुबार में खो जायेंगे...सच कहूँ तो हम चक्कर-घिन्नी ही खा जायेंगे....हमारे सब तरफ तमाम तरह के झूठों के साथ सच इस कदर बौने की तरह चस्पां है कि हमें सच्चाई के होने का अहसास ही नहीं हो पाता....इस तरह से सच्चाई कमज़ोर पड़ती जाती है....दरअसल सच्चाई ही बौनों के हाथ में जा पड़ी है....हम तक पहुँच कर मानव के समूचे गुणों की "बोनासायी"हो जाती है....आदमी बाहर-बाहर जितना विकसित होता दिखता है....भीतर-भीतर उतना ही "लंठ" होता जाता है....मगर दिक्कत तो यह है कि जो वो बनता जाता है....वो दिखना नहीं चाहता.....जो वो दिखाई पड़ता है वो वो होता नहीं...यह विरोधाभास एक नयी परिस्थिति को जन्म देता है...वो है "पाखण्ड".....और उपरोक्त बिरादरी का सारा कार्य-व्यापार इसी एक विशेषण के इर्द-गिर्द फैला है....मैं तो अभी महज चालीस वर्ष का एक जीव हूँ...मगर इन चालीस वर्षों में मैंने जो देखा-भोग-सहा है....उससे मेरी आँखे और ह्रदय फटा-फटा जाता है...."विजय दा" आपने इस आख्यान में एकबारगी जैसे सबकी धज्जियां बिखेर दी हैं....आप और कुछ बोलो....मैं ज़रा इन धज्जियों को समेत लूं.....!!इस माहौल को ज़रा अलग कर दूं....पेश है एक कविता जो दो दिनों पूर्व ही लिखी थी.....
जिस वक्त कोई नहीं था / उस वक्त कोई तो था,
जिसने मे्रे कान में कुछ कहा था धीरे से –
तुझे भेज रहा हूं मैं एक ऐसी वादी में,
जहां से वापस आने का तेरा जी ही ना चाहे-
मगर मु्झे भूल मत जाना तू वहां जाकर;
और मैं यहां चला आया,जहां कि मैं आज हूं !!
जिस वक्त मैं किसी से कर रहा था बातें,
वो “किसी” कोई और नहीं “मैं” खुद ही था,
और वो “खुद” कौन था,अगर कोई और नहीं था ??
मैं बहुत हैरान और परेशान होता रहा यहां आकर,
मगर जब उसके “जबरन” बुलावे पर वापस होने लगा,
मुझे अपने भीतर एक असीम शान्ति का अह्सास हुआ;
मगर अगर धरती पर हैरानी-परेशानी,दुख-सुख का,
ऐसा शाश्वत और अन्तहीन साम्राज्य था,
तो यह असीम-अगाध शान्ति कहां से पैदा हुई ?
शायद मेरे भीतर से, तो जो मेरे भीतर था-
वो कौन था ? वो मैं तो न था !!
मैं सुख में उसे भूल जाया करता था और
दुख् में उसी के दर पर जाकर गिडगिडाया करता था,
जिसने मुझे यहां भेजा था,
मेरे कान में धीमे से कुछ कहकर !!
मुझे यह भी नहीं पता कि वो मेरे हालात पर,
रोता था कि हंसता था,मगर मैं जब उसका-
ध्यान करता तब वही शान्ति और आनंद पाता था,
अलबत्ता तो मैं ईमानदारी से ध्यान भी न करता था,
मगर जब भी यह कर पाता था,
तब खुद में शाश्वत जीवन पाता,मौत से निर्भय होता !!
फ़िर भी पता नहीं क्यों अपनी समस्त समझ के बावजूद,
मैं अपने भीतर न रहकर बाहर-बाहर ही मारा-मारा फ़िरता;
आवारा-सा;बज़ारा-सा ,हैरान और परेशान तन्हा और बेकरार !!
कोई मूझे आवाज़ भी देता,भीतर से कि बाहर से-
शायद भीतर ही से……
तो क्या मुझे यहां भेजने वाला……
मुझे यहां भेजने के पूर्व/मेरे ही भीतर समा गया था ??
हां….…!!…कोई तो था…वरना यह आवाज़ कौन देता था ??
कोई हो ना हो मगर कोई तो है,जो मुझे रखे हुए है !!
और कान वैसे ही थोडा ना बजा करते हैं;
हवा की तरह सायं-सायं……!
20.4.10
वागर्थ के सम्पादक के नाम एक पत्र......!!
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
अपने को चालीस वर्ष का ''जीव'' कहने के बजाय आदमी कहलाना पसंद नही करेंगे क्या ? विजय जी के सारगर्भित और साहसपूर्ण तथा ईमानदार समपादकीय पर बहुतों के कान के पर्दे मे दरार आएगी ..., और आपने अपनी कविता के जरिये तो पूरा गीता का पाठ
कर डाला ....,'भड़ास' निकालना अच्छी बात है।
Post a Comment