30.6.10
नन्हा कल्ला
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आनर किलिंग-माँ ही निकली बेटी की हत्यारिन
भदोही/उत्तरप्रदेश: जनपद के कोइरौना थाना क्षेत्र में गत २३ जून को १६ वर्षीय किशोरी की हत्या का खुलाशा पुलिस ने मंगलवार को कर दिया किन्तु इस घटना ने लोंगो को चौंका कर रख दिया है. माँ ने अपने परिवार का माँ-सम्मान बचाने के लिए अपनी ही बेटी का गला काट डाला.
ज्ञातव्य हो की थाना क्षेत्र के निबिहा गाव में २३ जून को ब्रिजलाल यादव उर्फ़ कल्लू यादव की पुत्री रेखा [१६] की गला कट कर हत्या कर दी गयी थी. इस मामले में पुलिस ने अज्ञात लोगो के खिलाफ ३०२ के तहत मुकदमा पंजीकृत कर जाँच कर रही थी. मामले की विवेचना थानाध्यक्ष सुरेश प्रसाद त्रिपाठी व एस ओ जी प्रभारी फरीद अहमद खान कर रहे थे इसी बीच बिल्ली के भाग से छींका टूटा की कहावत चरितार्थ हो गयी और मृतक रेखा की माँ गीता देवी ने खुद ही राज खोल दिए. खुलासे के एक दिन पूर्व रात को उसने अपने बेटे से बताया की उसने खुद ही रेखा का गला काट डाला और गडासा [जिससे हत्या की गयी] छुपा कर रख दिया है. उसने कहा की गुस्से में आकर उसने अपनी बेटी को मार डाला किन्तु अब पुलिस से डर रही है.यह बात उसके बेटे ने अपने पिता को बता दी फिर बात पूरे गाव में फ़ैल गयी और हत्यारिन माँ को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया , पूछताछ के बाद यह कहानी प्रकाश में आयी.
ब्रिजलाल यादव मुंबई में रहकर टैक्सी चलाकर अपने परिवार का पालन पोषण करता था, घर पर उसकी बेटी और माँ रहती थी, जबकि बेटा पिता के साथ मुंबई में ही रहता था. रेखा जब जवानी की दहलीज पर कदम रखी तो किशोरावस्था की उमंगें उसके मन में भी तरंग पैदा करने लगी और कदम बहकने लगे. इसी बीच उसका अवैध सम्बन्ध पड़ोस के ही चन्द्रबली यादव के पुत्र कैलाश यादव से हो गया. दोनों छुप-छुप कर मिलने लगे. यह जानकारी रेखा की माँ गीता हो गयी, पहले तो उसने समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन बात बनती नजर नहीं आयी, घटना की रात दोनों फिर मिले यह बात रेखा की माँ को नागवार गुजरी. माँ बेटी में इसी बात को लेकर तू-तू मै-मै शुरू हो गयी . रेखा ने कहा की या तो वह उसे मार डाले या खुद ही मर जाय लेकिन वह कैलाश से सम्बन्ध नहीं रखेगी. लिहाजा गुस्से में आकर गीता घर में से गडासा लाई और बेटी का गला काट डाला. फिर घर में जाकर सो गयी. फ़िलहाल पुलिस ने गीता को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया है.
कहा है घटना के खुलाशे में लोच
खैर रेखा की हत्या का खुलाशा पुलिस ने कर दिया है. गीता के बयान पर फाईल बंद कर दी गयी है किन्तु यह बाते अभी भी खटकने वाली है. हत्या की घटना के बाद गाव में चर्चा थी की रेखा की माँ के सम्बन्ध किसी से थे जिसे लेकर उसकी हत्या की गयी. रेखा के अवैध सम्बन्ध किसी से थे यह बात गावो में छुपती भी नहीं किन्तु गाव में यह बात किसी को पता नहीं थी, गीता का कहना है की इस बात को लेकर माँ बेटी में झगडा होता रहता था किन्तु यह जानकारी गाव वालो को नहीं थी, जिस दिन हत्या हुयी उस दिन भी झगडा हुआ किन्तु गाव के शांत माहौल में भी यह लडाई किसी को सुनाई नहीं दी. पुलिस अपने दामन को बचाने के लिए भले कहानी बंद कर दी किन्तु रेखा के सिर्फ और सिर्फ गले पर लगी यह चोट साफ दर्शाती है की घटना की रात उसकी माँ से कोई विवाद नहीं हुआ और हत्या सोने के दौरान की गयी. साफतौर पर सुनियोजित दिखाई देने वाली हत्या की गुत्थी इतनी सरल तो नहीं हो सकती. निश्चय ही इस हत्या में कोई और शख्स शामिल है जो परदे के पीछे है. अभी तक रेखा के प्रेमी कैलाश का पता भी पुलिस नहीं लगा पाई है. भले ही हत्या का खुलाशा हो चुका है किन्तु अभी तक कई सवाल अनसुलझे है..
Posted by हरीश सिंह 0 comments
criminal case registered against Mr. Harbans Singh Dy- Speaker of M.P.Vidhansabha
राजनैतिक हल्कों में हलचल:नगर भाजपा अध्यक्ष ने मांगा स्तीफा: आला नेताओं की चुप्पी चर्चाओं में
भोपाल। कोर्ट द्वारा बार बार दिये गये निर्देश के बाद पुलिस ने विस उपाध्यक्ष हरवंश सिंह, उनके पुत्र रजनीश सिंह एवं नियाज अली के विरुद्ध भां.दं.वि. की धारा 420,120(बी),506,294 के अंर्तगत मामला कायम कर जांच में ले लिया हैं।मामले के राजनैतिक होने एवं पुलिस की लचर कार्यवाही के चलते मामला चर्चित हो गया था। जिला पुलिस अधीक्षक ने कायमी की पुष्टि की हैं। नगर भाजपा अध्यक्ष ने हरवंश सिंह से नैतिकता के आधार पर स्तीफा मांगा हैं।भाजपा के शाीर्षस्थ नेताओं की चुप्पी सियासी हल्कों में चर्चित हैं।प्रदेश विधानसभा उपाध्यक्ष ठा. हरवंश सिंह एवं उनके पुत्र रजनीश सिंह का नाम एक जमीन खरीदी के मामले में शामिल होने पर प्रदेश में बहुचचिZत हुआ आमानाला जमीन काण्ड न्यायालय के आदेश के बाद हरवंश सिंह और रजनीश सिंह पर आपराधिक प्रकरण दजZ होने के बाद एक बार फिर प्रदेश की सुर्खियों में छा गया है। उल्लेखनीय है कि 18 मई को न्याियक दण्डाधिकारी लखनादौन के समक्ष थाना धनौरा की पुलिस चौकी सुनवारा अन्तर्गत ग्राम आमानाला निवासी मो. शाह द्वारा धारा 156/3 दण्ड संहिता अन्तर्गत इस आशय का एक परिवाद पेश किया गया कि उनकी खानदानी शामिल शरीक जमीन जिसका वह स्वयं भी हकदार है उसकी बग्ौैर जानकारी के उसके भाई नियाज अली ने सुनियोजित षडयन्त्र रचकर बेच दी तथा इस खरीदी में रजनीश सिंह एवं हरवंश सिंह भी शामिल हैं। परिवादी ने यह भी आरोप लगाया कि उसके भाई नियाज अली, हरवंश Çसह, रजनीश सिंह ने विरोध जताने पर ना केवल उसके साथ गाली गलौच की वरन जान से मारने की धमकी भी दी। इस घटना की रिपोर्ट पुलिस चौकी सुनवारा में करने के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं की गई। इसीलिये न्यायालय की शरण लेनी पडी, एवं निवेदन किया कि न्यायालय आरोपियों के विरूद्Ëा धारा 420, 506, 294 एवं 120(बी) भादवि अन्तर्गत अपराध पंजीबद्Ëा करने के निर्देश दे। यहां यह उल्लेखनीय है कि परिवाद दायर होने की और न्यायालय द्वारा निर्देश देने के बाद ठा. हरवंश Çसह द्वारा खरीदी में शामिल होने के इस आरोप का बकायदा खण्डन भी जारी कर समाचार पत्रों में प्रकाशित कराया गया था।
इस परिवाद पर प्रथम श्रेणी न्याियक मजिस्ट्रेट ए एस सिसोदिया लखनादौन ने सुनवाई व दण्ड संहिता 156(3) के तहत थाना धनौरा पुलिस को निर्देश दिया कि वह तीनों आरोपियों के विरूद्Ëा अपराध पंजीबद्Ëा कर जांच प्रतिवेदन 28 जून को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करें। 28 जून को न्यायालय में जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया उसमें आरोपी क्रमांक 1 नियाज अली के विरूद्Ëा प्रतिवेदन पेश कर धारा 294, 323, 506 अन्तर्गत अपराध पंजीबद्Ëा करना बताया गया, जबकि आरोपी क्रमांक 2 रजनीश सिंह, एवं क्रमांक 3 हरवंश सिंह का कोई उल्लेख इस प्रतिवेदन में नहीं किया गया ना ही इनके खिलाफ कोई मामला कायम किया गया।
पुलिस चौकी सुनवारा द्वारा प्रस्तुत इस प्रतिवेदन पर न्यायालय ने तुरन्त संज्ञान लिया और थाना धनौरा प्रभारी को कोर्ट के निर्देश का पालन ना करने पर फटकार लगाई तथा पुन: न्यायालय ने मो. शाह द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रतिवाद पर थाना धनौरा प्रभारी को आरोपी नियाज अली, रजनीश सिंह, हरवंश सिंह के विरूद्Ëा दण्ड संहिता 156(3)अन्तर्गत मामला पंजीबद्Ëा करने के निर्देश दिये तथा यह फटकार लगाई कि इस दण्ड संहिता अन्तर्गत न्यायालय द्वारा जिन जिन व्यक्ति के विरूद्Ëा मामला पंजीबद्Ëा करने के निर्देश दिये जाते हैं उसके विरूद्Ëा मामला पंजीबद्Ëा किया ही जाना चाहिये वह दोषी है या नहीं यह अन्वेषण के बाद पुलिस द्वारा प्रषित किये जाने वाले प्रतिवेदन में पुलिस न्यायालय को बता सकती हें लेकिन निर्णय कोर्ट ही करेगा। न्यायालय ने थाना प्रभारी को 28 जुलाई 2010 तक तीनों आरोपियों के विरूद्Ëा अन्वेषण रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश भी दिया।
पुलिस चौकी सुनवारा प्रभारी द्वारा न्यायालय में प्रस्तुत प्रतिवेदन की खबर जब जिला एवं प्रदेश के राजनैतिक हल्कों एवं पि्रंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को लगी तो आमानाला जमीन काण्ड एक बार फिर चचाZ में आ गया। पुलिस की इस कार्यवाही पर तरह तरह की चचाZयें व्याप्त हो गईं। साथ ही न्यायालय के निर्देश के बावजूद पुलिस चौकी प्रभारी के प्रतिवेदन को लेकर यह कयास लगाये जाने लगा कि अब न्यायालय के निर्देश भी राजनैतिक दबाव के सामने बेमानी से हो गये हैं।
गत 28 जून को न्यायालय द्वारा थाना प्रभारी धनौरा के डी गौतम को लगायी फटकार तथा राजनैतिक हल्कों और पि्रंट तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में व्याप्त चचाZओं के बाद थाना प्रभारी धनौरा ने आरोपी क्र. 1 नियाज अली, 2 रजनीश सिंह एवं 3 हरवंश सिंह के विरूद्Ëा धारा 420, 120(बी), 294, 506 का प्रकरण कायम कर लिया गया है। प्रदेश विधानसभा उपाध्यक्ष ठा. हरवंश सिंह एवं उनके ज्येष्ठ पुत्र ठा. रजनीश सिंह के विरूद्Ëा दजZ इस प्रकरण की भनक लगते ही आमानाला जमीन काण्ड एक बार फिर प्रदेश की सुर्खियों में छा गया है।जिला पुलिस अधीक्षक सिवनी डॉ. रमनसिंह सिकरवार ने मामले के पंजीबद्ध किये जो की पुष्टि प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया में कर दी हैं। पेशी के दिन 28 जून 2010 को कोर्ट से जांच के लिये समय लेने के बाद उसी दिन याने 28 जून को मामले के पंजीबद्ध किये जाने की पुष्टि की गई हैं। जबकि कोर्ट के निर्देश के बाद भी पुलिस ने मामला पंजीबद्ध कर कोर्ट को सूचित करने के बजाय समय मांगा था।सिवनी के नगर भाजपा अध्यक्ष प्रेम तिवारी ने एक बयान जारी करके नैतिकता के आधार पर हरवंश सिंह से विधानसभा उपाध्यक्ष के पद से स्तीफा दने की मांग की हैं। तिवारी ने विस अध्यक्ष,मुख्यमन्त्री और नेता प्रतिपक्ष से भी आग्रह किया है कि वे हरवंश सिंह से स्तीफा ले लें। इस मामलेे में आला भाजपा नेताओं की चुप्पी राजनैतिक हल्कों में चर्चित हैं। मालगुजार ने खैरात में फकीर को दी थी जमीन
भोपाल। बहुचर्चित आमानाला जमीन घोटाले में विवादित जमीन के बारे में बताया जाता हैं कि यह जमीन अंजनिया के मालगुजार मरहूम जनाब फेलकूस मोहम्मद खॉन ने विक्रेता के पूर्वजों को, जो कि फकीर थे, खैरात में जमीन दी थी। अपनी मेहनत के कमा कर उन फकीरों ने मालगुजार से कुछ और जमीन बाद में खरीदी थी। मालगुजार द्वारा खैरात में फकीर को दी गई जमीन बिक्री के विवाद में जिले के इकलौते इंका विधायक ठा. हरवंश सिंह का नाम आने से लोगों के बीच तरह तरह की चर्चायें व्याप्त हैं।
धारा 420 का पहला आरोप नहीं हैं हरवंश सिंह पर
भोपाल। प्रदेश कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष हरवंश पर धोखा दने के आरोप लगने का यह कोई पहला मामला नहीं हैं। आज से 26 साल पहले पिछड़े वर्ग की एक विधवा महिला ने अपने वकील हरवंश सिंह पर जमीन हड़प लेेने का अरोप लगाते धारा 420 के तहम परिवाद पत्र प्रस्तुत किया था।सहायक पंजीयक सहकारी संस्थाओं ने बकोड़ा सिवनी सहकारी समिति के आदिवासियों को डीजल पंप सप्लायी ना कर धोखा दने के आरोप को सही पाते था सिवनी को फर्म के पार्टनर हरवंश सिहं के विरुद्ध धारा 420 का मामला दर्ज कर कार्यवाही करने के निर्देश दिये थे।प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री सुन्दरलाल पटवा ने झूठे शपथपत्र देकर प्रदेश के जिन मन्त्रियों के विरुद्ध उच्च न्यायालय में जनहित याचिका लगयाी थी उनमें भी हरवंश सिंह शामिल थे। माननीय उच्च न्यायालय ने भी सरकार को जांच कर कार्यवाही रिने के निर्देश दिये थे।इंका विधायक हरवंश सिंह के विरुद्ध वर्तमान धोखाधड़ी का मामला न्यायलय के निर्देश पर कायम किया गया हैं।
बाजार मूल्य से आधी कीमत पर खरीदी गई हैं जमीन
भोपाल। घंसौर तहसील के ग्राम आमानाला पटवारी हल्का नंबंर 54/41 की 10.47 हेक्टेयर याने लगभग 21 एकड़ विवादित जमीन की रजिस्ट्री सादक सिवनी निवासी रवि नारायण शर्मा के नाम हुयी हें। उन्होंने यह जमीन विक्रेता नियाज अली एवं अन्य से 4 लाख 50 हजार रुपये में खरीदी हैं। इस जमीन का बैनामा 21 जनवरी 2010 को लखनादौन में हुआ हैं। इस जमीन का कलेक्टर द्वारा निर्धारित कीमत 9 लाख 24 हजार रुपये है। बाजारू कीमत से लगभग आधी कीमत पर एक अनजान व्यक्ति शर्मा के नाम जमीन के बैनाम को हो जाने से तरह तरह की चर्चाओ में एक चर्चा यह भी हें कि कहीं यह बेनामी सौदा तो नहीं हैं।
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29.6.10
चिदंबरम जी.....जारी है नरसंहार
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दो राष्ट्रीय दलों की सीख
स्वस्थ राजनीतिक परंपराओं को दफन करने के मामले में कांग्रेस-भाजपा को एक जैसा बता रहे हैं राजीव सचान
कांग्रेस और भाजपा दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े राजनीतिक दल हैं, लेकिन इन दोनों दलों में प्राय: अद्भुत समानता दिखने लगती है। आम तौर पर ऐसा तब अधिक होता है जब इन दलों को अपने राजनीतिक स्वार्थो का संधान करना होता है। हाल में गोवा की कांग्रेस सरकार ने अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत करने के लिए जो कुछ किया वह ठीक वैसा ही था जैसा कुछ समय पहले कर्नाटक में भाजपा ने किया था। 24 जून की सुबह गोवा के निर्दलीय विधायक और स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे ने विधायक और मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया, दोपहर को वह कांग्रेस में शामिल हो गए और शाम को उन्हें मंत्री पद की शपथ दिला दी गई। विश्वजीत राणे के पहले यूनाइटेड गोवा डेमोक्रेटिक पार्टी के विधायक और शिक्षा मंत्री ए।मोंसेराते ने भी इसी तरह कांग्रेस का दामन थामा था। ये दोनों नेता शीघ्र ही अपनी रिक्त सीटों से विधानसभा चुनाव लड़ेंगे और इस तरह कांग्रेस पहले से मजबूत हो जाएगी। विश्वजीत राणे और मोंसेराते के पिछले दरवाजे से कांग्रेस और सरकार में शामिल होने पर एक पत्ता भी नहीं खड़का। दरअसल कांगे्रस को इस पर कुछ कहने की जरूरत नहीं थी और भाजपा इसलिए नहीं बोली, क्योंकि वह इसी तरीके से बहुमत हासिल करने की कवायद को कर्नाटक में अंजाम दे चुकी है। जब येद्दयुरप्पा ने कर्नाटक में इसी तरह अपना बहुमत मजबूत किया था तो कांग्रेस ने उसे लोकतंत्र विरोधी और न जाने क्या-क्या करार दिया था। अब यदि कल को कोई गैर कांग्रेस और गैर भाजपा सरकार इसी तरह का कदम उठाती है तो न तो कांगे्रस के पास कहने के लिए कुछ होगा और न भाजपा के पास। यदि कोई कुछ कहेगा भी तो उक्त सरकार के पास यह एक मजबूत तर्क होगा कि हमने वही किया जो कांगे्रस और भाजपा कर चुकी हैं। एक तरह से कांग्रेस और भाजपा ने एक नई राजनीतिक परंपरा की शुरुआत कर दी। इस पर गौर किया जाना चाहिए कि इस परंपरा का निर्माण दलबदल रोधी कानून में छिद्र कर और साथ ही संविधान की इस रियायत का दुरुपयोग करते हुए किया गया कि किसी गैर निर्वाचित सदस्य को छह माह के लिए मंत्री बनाया जा सकता है। संविधान निर्माताओं ने यह सोचा भी नहीं होगा कि उनके द्वारा बनाई गई इस व्यवस्था का ऐसा बेजा इस्तेमाल किया जाएगा। इसी तरह दलबदल विरोधी कानून में संशोधन करते समय शायद ही किसी ने यह सोचा हो कि निर्दलीय विधायकों को कोई सत्तारूढ़ दल इस तरह अपने दल में शामिल करेगा। राजनीतिक शुचिता और लोकतांत्रिक मर्यादाओं का निरादर करने वाले तौर-तरीकों ने परंपरा का रूप इसी तरह लिया है। पहले एक राजनीतिक दल गलत उदाहरण पेश करता है। बाद में दूसरा दल भी उसका अनुसरण करता है और इस तरह एक परंपरा बन जाती है। कई बार यह भी होता है कि गलत उदाहरण का अनुकरण कहीं भद्दे तरीके से किया जाता है, लेकिन इस तर्क के साथ कि हमने तो वही किया जो फलां ने इसके पहले किया था। कभी-कभी कोई राजनीतिक दल अतीत में किए गए अपने ही गलत आचरण को और गलत तरीके से दोहराता है। हाल ही में मणिशंकर अय्यर राष्ट्रपति की ओर से नामित होने वाले राज्य सभा सदस्यों की सूची में शामिल होकर उच्च सदन में आ गए और किसी ने चूं तक नहीं की। इसलिए नहीं की, क्योंकि विगत में ऐसा हो चुका है। यानी लोकसभा चुनाव हारने वाले नेताओं को समाजसेवी, बुद्धिजीवी वगैरह बताकर राष्ट्रपति के कोटे से राज्यसभा ले आया गया है। सबसे पहला उदाहरण वैजयंती माला बाली का था। मणिशंकर अय्यर को बुद्धिजीवी या समाजसेवी बताने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन तथ्य यह है कि वह लोकसभा चुनाव हार गए थे और कांगे्रस को जब उन्हें राज्यसभा में लाने का कोई उपाय नजर नहीं आया तो पिछले दरवाजे यानी राष्ट्रपति के कोटे का सहारा लिया गया। हाल ही में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती फिर से विधान परिषद के लिए निवार्चित हुईं। वह उत्तर प्रदेश की पहली ऐसी मुख्यमंत्री हैं जो विधान परिषद की सदस्यता के सहारे इतने लंबे अर्से से इस पद पर बनी हुई हैं। फिलहाल ऐसे कोई आसार नहीं हैं कि वह विधानसभा का चुनाव लड़ने का इरादा रखती हैं। शायद वह अपना कार्यकाल इसी तरह गुजार देंगी। इस पर किसी राजनीतिक दल को आपत्ति भी नहीं है कि वह विधानसभा की सदस्य क्यों नहीं हैं? इसकी एक वजह तो यह है कि भाजपा के रामप्रकाश गुप्त 11 माह तक विधान परिषद का सदस्य रहते हुए मुख्यमंत्री रह चुके हैं और दूसरी वजह, जो कहीं वजनदार है, यह है कि मनमोहन सिंह छह साल से लोकसभा का चुनाव लड़े बगैर प्रधानमंत्री पद पर आसीन हैं। उन्होंने न तो अपने पहले कार्यकाल में लोकसभा का चुनाव लड़ने में दिलचस्पी दिखाई और न ही इस कार्यकाल में दिखा रहे हैं। वह एक मात्र ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं। नि:संदेह संविधान इसकी अनुमति देता है कि राज्यसभा का सदस्य भी मंत्री अथवा प्रधानमंत्री बन सकता है, लेकिन मनमोहन सिंह के पहले परंपरा यह थी कि जो नेता लोकसभा का सदस्य न रहते हुए प्रधानमंत्री पद पर पहुंचे उन्होंने लोकसभा का चुनाव अवश्य लड़ा। इसके पीछे मान्यता यह थी कि जो राजनेता लोकसभा के बहुमत से प्रधानमंत्री बनता है उसे इस सदन का सदस्य तो होना ही चाहिए। अब यदि कोई नेता विधान परिषद का सदस्य रहते हुए मुख्यमंत्री बना रहता है तो कोई भी यह कहने का साहस नहीं जुटा सकता कि उसे विधानसभा का चुनाव लड़कर आना चाहिए। जो ऐसा कहेंगे भी उनकी बोलती बंद करने के लिए मनमोहन सिंह का नाम लेना भर पर्याप्त होगा। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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सपनों का पेटेंट-ब्रज की दुनिया
कल का दिन हिमाचल प्रदेश के लोगों के लिए खास दिन था.अवसर था लेह-मनाली मार्ग पर रोहतांग सुरंग के शिलान्यास का.गांधी-नेहरु परिवार की वर्तमान मुखिया सोनिया गांधी ने अपने कर-कमलों द्वारा इस महत्वपूर्ण परियोजना की नींव डालने के बाद अपनी ख़ुशी जाहिर करते हुए कहा कि यह परियोजना उनके पति स्वर्गीय राजीव गांधी का एक सपना था जिसे उन्होंने पूरा किया.शायद इस सुरंग का नाम भी भविष्य में राजीव गांधी के नाम पर राजीव गांधी सुरंग हो जाए.जब भी कांग्रेस सत्ता में आती है उसे गांधी-नेहरु परिवार के मर चुके लोगों के सपने याद आने लगते हैं और फ़िर उस सड़क,भवन या फ़िर सुरंग आदि का नाम परिवार के किसी मृत व्यक्ति के नाम पर रख दिया जाता है.जवाहर सुरंग, इंदिरा गांधी स्टेडियम वगैरह-वगैरह लाखों उदाहरण हैं.क्या रोहतांग सुरंग सिर्फ राजीव गांधी का ही सपना था?उस इलाके की हरेक आँखों ने यह सपना कभी खुली तो कभी बंद आँखों से नहीं देखा था.कांग्रेस का मानना है कि राजीव जी ने बेशुमार सपने देखे.शायद वे दिन-रात सिर्फ सपने ही देखते रहते थे वरना इतने छोटे से राजनीतिक जीवन वे इतने सारे सपने कैसे देख गए?वैसे भी सपने देखने में कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता.राजीव ने जो सपने देखे हो सकता है वही सपना भैंस चरानेवाले राम खेलावन ने भी देखा हो.लेकिन वे छोटे लोग हैं और छोटे लोगों के पास सिर्फ सपने होते हैं सामर्थ्य नहीं कि जिससे वे अपने सपनों को हकीकत में बदल सकें और उन सपनों को अपना नाम दे सकें जैसा कि कांग्रेस कर रही है.इतिहास के साथ-साथ शिलान्यास और उद्घाटन पट्ट भी इस बात के गवाह हैं कि कांग्रेस के राज में जब भी कोई अच्छा काम होता है तो उसे वे गांधी-नेहरु परिवार के किसी नेता का सपना कहकर उनका नाम दे देती है.वर्तमान सरकार अपने प्रत्येक काम को राजीव गांधी का सपना बताती है यानी यह राजीव गांधी के सपनों के साकार होने का युग है.जब राजीव सत्ता में थे तो वह इंदिरा और जवाहर के सपनों के सच होने का काल था.ऐसा भी नहीं है कि राजीव जी ने सिर्फ अच्छे सपने ही देखे हों लेकिन कांग्रेस उनके बुरे सपनों को बखूबी छिपा लेती है.क्या बोफोर्स घोटाला या एंडरसन को अमेरिका भेजना उनका सपना नहीं था?या फ़िर सिखों का कभी न भुलाया जा सकनेवाला नरसंहार उनका सपना नहीं था या श्रीलंका में शांति सेना भेजना भी तो उन्हीं का सपना था.लेकिन कांग्रेस इन्हें उनका सपना मानने को तैयार नहीं है.यानी चित्त भी उसका और पट्ट भी उसका.वर्तमान काल में कांग्रेस जिस तरह हरेक निर्माण पर राजीव गांधी के नाम का ठप्पा लगाती जा रही है उससे तो ऐसा लगता है मानों भारतीयों की आँखों में तैरने वाले सारे अच्छे सपने सिर्फ राजीव गांधी के सपने हैं.मानों उन सपनों का उन्होंने जैसे पेटेंट करवा लिया था.लोकतंत्र में तानाशाही शासन की तरह की व्यक्ति पूजा को बढ़ावा देना अच्छा नहीं माना जा सकता.लेकिन कांग्रेस को तो आदर-सम्मान और पूजा के लायक एक ही परिवार सूझता है और वो है गांधी-नेहरु परिवार.देश में आज भी ईमानदारों की कमी नहीं है लेकिन किसी निर्माण कार्य को उनका नाम नहीं मिलेगा.फ़िर राजीव गांधी के नाम जितने अच्छे काम दर्ज हैं उससे कहीं ज्यादा उनके नाम बुरे कामों से जुड़े हुए हैं.उनके कई काम तो ऐसे रहे जिनसे देश को भारी क्षति उठानी पड़ी आर्थिक भी और कूटनीतिक या सामरिक भी.फ़िर कैसे इस तरह के व्यक्ति को कांग्रेस जबरन आदरणीय बनाने का प्रयास कर रही है?उनके किस काम से हमारे बच्चे प्रेरणा लें?जनता को धोखा देने और सिखों का कत्लेआम कराने से!
Posted by ब्रजकिशोर सिंह 0 comments
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हंगामा है क्यूँ बरपा
विवेका बाबाजी ने खुदकुशी क्या कर ली, हंगामा मचा हुआ है। मारीशस से मुंबई आयी एक लड़की देखते-देखते सुपरमाडल बन गयी और कुछ ही वर्षों में अकूत पैसा जमा कर लिया। सारी सुख-सुविधाएं, ठाट-बाट, ऐश्वर्य भोग के बाद भी आखिर क्या करे पैसे का। सो बिजिनेस में लगा दिया। यह सब कुछ ध्यान से देखें तो एक लिजलिजी कहानी की ओर संकेत जाता है। ऐसी कहानियां जिस हाई-फाई अंदाज में शुरू होती हैं, उसी तरह खत्म हो जाती हैं। जहां जीवन का मतलब केवल पैसा कमाना हो, अनहद भोग करना हो, वहां लालची निगाहें पहुंच ही जाती हैं। और पैसे के लिए जिस तरह की छीना-झपटी, बेहयाई और अपराध हमारे समाज में चारों ओर दिखायी पड़ रहा है, उसके खतरे से कोई भी मुक्त नहीं है। लेकिन जिस तरह सरकार इस मामले को लेकर सक्रिय है, पुलिस मुस्तैद है और मीडिया रोज नयी-नयी सूचनाएं जुटाने में लगा हुआ है, क्या वह एक ऐसे देश में निरर्थक सी बात नहीं है, जहां हर साल सैकड़ों बच्चे मानसिक दबाव में खुदकुशी कर लेते हैं और हजारों किसान कर्ज में डूबकर अपनी जान दे देते हैं। दरअसल बाबाजी की खुदकुशी भी बिकाऊ माल बन गयी है। बच्चों और किसानों की खुदकुशी में वैसा गलैमर कहां? पूरा पढ़ें
Posted by Subhash Rai 2 comments
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... तो क्या मुसलमान देशद्रोही है?
इस लेख के बाद हो सकता है कुछ खास विचारधारा के ब्लॉगरों की जमात मुझे फास्सिट घोषित कर दे। हो सकता है मुझे कट्टरवादी, पुरातनंपथी, दक्षिणपंथी, पक्षपाती, ढकोसलावादी, रूढ़ीवादी, पुरातनवादी, और पिछड़ा व अप्रगतिशीस घोषित कर दिया जाए। इतना ही नहीं इस पोस्ट के बाद मुझ पर किसी हिन्दूवादी संगठन का एजेंट होने का आरोप भी मढ़ दिया जाए तो कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन मुझे डर नहीं, जो सच है कहना चाहता हूं और कहता रहूंगा।
एक सीधा-सा सवाल आपसे पूछता हूं क्या देश के शत्रु को फांसी पर लटकाने से देश की स्थिति बिगड़ सकती है? क्या किसी देश की जनता लाखों लोगों के हत्यारे की फांसी के खिलाफ सड़कों पर आ सकती है? पूरी आशा है कि अगर आप सच्चे भारतीय हैं तो आपका जवाब होगा-देश के गद्दारों को फांसी पर ही लटकाना चाहिए? लेकिन आपकी आस्थाएं इस देश से नहीं जुड़ी तो मैं आपकी प्रतिक्रिया का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
एक खानदान है इस देश में जिसके पुरुखों ने हमेशा देश विरोधी कारनामों को ही अंजाम दिया। देश में सांप्रदायिकता कैसे भड़के, देश खण्ड-खण्ड कैसे हो? इसके लिए खूब षड्यंत्र किया। उन आस्तीन के सांपों की पैदाइश भी आज उसी रास्ते पर रेंग रहे हैं। मैं बात कर रहा हूं कश्मीर के अब्दुला खानदान की। शेख अब्दुल्ला और फारूख अब्दुल्ला के शासन काल में कश्मीर की कैसी स्थितियां रही सब वाकिफ हैं, कितने कश्मीरी पंडितों को बलात धर्मातरित किया गया, कितनों को उनके घर से बेघर किया गया सब बखूबी जानते हैं। बताने की जरूरत नहीं।
इसी खानदान का उमर अब्दुल्ला कहता है कि - ''अफजल (देश का दुश्मन, संसद पर हमला और सुरक्षा में तैनात जवानों का हत्यारा) को फांसी न दो, वरना कश्मीर सुलग उठेगा और लोग विरोध में सड़कों पर उतर आएंगे। मकबूल बट्ट की फांसी के बाद कश्मीर में जो आग लगी थी। वह अफजल की फांसी के बाद और भड़क उठेगी।" पढ़ें.....
>>>>>बहुत दिनों बाद भारत भक्तों को सुकून मिला जब कांग्रेस के पंजे में दबी अफजल की फाइल बाहर निकली और उसकी फांसी की चर्चाएं तेज होने लगीं। लेकिन, कुछ देशद्रोहियों को यह खबर सुनकर बड़ी पीड़ा हुई। कुछ तो उसे बचाने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं और बहुतेरे अभी रणनीति बना रहे हैं, मुझे विश्वास (किसी के विश्वास बरसों में जमा होता है) है वे भी कूदेंगे जरूर। और अधिक पढने के लिए ब्लॉग अपनापंचू पर आयें.....
>>>>
Posted by लोकेन्द्र सिंह 4 comments
28.6.10
---- चुटकी----
सांसद बोले
बढाओ
हमारी पगार,
मैं बोला
ये भी
खूब कही
सरकार।
Posted by गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर 1 comments
.........किससे जाकर क्या कहूँ......!!!
......किससे जाकर क्या कहूँ.......!!
Posted by राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) 1 comments
क्या अमीर दाल-रोटी नहीं खाते..?
एक पुरानी नैतिक कथा है-एक राजा धन का बहुत लालची था(हालाकि अब यह कोई असामान्य बात नहीं है).उसका खजाना सम्पदा से भरा था,फिर भी वह और धन इकट्ठा करना चाहता था.उसने जमकर तपस्या भी की.तपस्या से खुश होकर भगवान प्रकट हुए और उन्होंने पूछा -बोलो क्या वरदान चाहिए? राजा ने कहा -मैं जिस भी चीज़ को हाथ से स्पर्श करूँ वह सोने में बदल जाये. भगवान ने कहा-तथास्तु . बस फिर क्या था राजा की मौज हो गयी. उसने हाथ लगाने मात्र से अपना महल-पलंग,पेड़ -पौधे सभी सोने के बना लिए. मुश्किल तब शुरू हुई जब राजा भोजन करने बैठा. भोजन की थाली में हाथ लगाते ही थाली के साथ-साथ व्यंजन भी सोने के बन गए! पानी का गिलास उठाया तो वह भी सोने का हो गया. राजा घबराकर रानी के पास पहुंचा और उसे छुआ तो रानी भी सोने की हो गयी. इसीतरह राजकुमार को भूलवश गोद में उठा लिया तो वह भी सोने में बदल गया. अब राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने पश्चाताप में स्वयं को ही हाथ लगाकर सोने की मूर्ति में बदल लिया. कहानी का सार यह है कि लालच हमेशा ही घातक होता है और संतोषी व्यक्ति सदैव सुखी रहता है.
लेकिन हाल ही में दो अलग-अलग अध्ययन सामने आये हैं जो "संतोषी सदा सुखी" की चिरकालीन भावना को गलत ठहराते से लगते हैं.एक अध्ययन में बताया गया है कि संपन्न व्यक्ति दाल-रोटी जैसा मूलभूत भोजन नहीं करते इसलिए यदि देश में महंगाई को कम करना है तो सम्पन्नता बढ़ानी होगी क्योंकि जैसे-जैसे अमीरी बढ़ेगी लोग दाल-रोटी-सब्जी खाना कम करते जायेंगे और जब इनकी मांग घट जाएगी तो इनकी कीमतें भी अपने आप कम हो जाएँगी! इस अध्ययन के मुताबिक देश की आर्थिक वृद्धि की रफ्तार जितनी तेज़ होगी अनाज की खपत उतनी ही कम होगी। सुनने में यह अटपटा लगता है लेकिन रिपोर्ट कहती है कि लोगों की मासिक आमदनी जितनी ज्यादा होगी अर्थात उनकी जेब में जितना ज्यादा पैसा होगा वे उतना ही पारंपरिक दाल -रोटी के बजाए फल, मांस जैसे अधिक प्रोटीन वाले दूसरे व्यंजन खाएंगे और उससे खाद्यान्न मांग घटेगी। नेशनल काउंसिल आफ एप्लायड इकोनामिक रिसर्च (एनसीएईआर) के इस शोध मे कहा गया है, आर्थिक वृद्धि दर यदि नौ फीसद सालाना रहती है तो खाद्यान की सकल मांग जो कि 2008-09 में 20.7 करोड़ टन पर थी 2012 तक 21.6 करोड़ टन और 2020 तक 24.1 करोड़ टन तक होगी। यदि आर्थिक वृद्धि 12 फीसद तक पहुंच जाती है तो अनाज की खपत 2020 तक कम होकर 23 करोड़ टन से भी कम रह जाएगी। अगर आर्थिक वृद्धि घटकर 6 फीसद रह जाती है तो 2012 तक खाद्यान्न मांग बढ़कर 22 करोड़ टन और 2020 तक 25 करोड़ टन हो जाएगी। मूल बात यह है कि खाद्यान्न की मांग-आपूर्ति के बीच संतुलन अनुमान से संबंधित इस रिपोर्ट को कृषि मंत्रालय के उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग ने तैयार करवाया है।
दूसरी रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में करोड़पतियों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है. इस अध्ययन के मुताबिक अब देश में सवा लाख से ज्यादा करोड़पति हो गए हैं. यह बात अलग है कि संपन्न लोगों की संख्या बढ़ने के बाद भी महंगाई तो जस की तस बनी हुई है-उल्टा दाम घटने की बजाय बढ़ने की ही ख़बरें ज्यादा आ रही हैं. रही दाल-रोटी खाने की बात तो अभी तक मैंने तो अमीरों मसलन अंबानी,टाटा,मित्तल या फिर फ़िल्मी दुनिया के बड़े सितारों (जिनकी फीस ही प्रति फिल्म करोड़ों में है)जैसे शाहरुख़ खान,आमिर खान,अमिताभ बच्चन,एश्वर्या राय,काजोल इत्यादि के जितने भी साक्षात्कार(interview)पढ़े हैं उनमें इन सभी ने अपनी दैनिक खुराक में दाल-रोटी का जिक्र अवश्य किया है.फ़िल्मी दुनिया में सबसे कमनीय काया की मालकिन शिल्पा शेट्टी भी भोजन में दाल-रोटी के महत्त्व को खुलकर स्वीकार करती हैं अपनी आय बढ़ाना तो अच्छी बात है लेकिन यह बात कहाँ से आ गयी कि अमीर लोग दाल-रोटी नहीं खाते या सम्पन्नता बढ़ने से दाल-रोटी की मांग घट जाएगी? यहाँ तक कि डॉक्टर भी अपने अमीर-गरीब मरीजों को दाल-रोटी,दलिया या खिचड़ी खाने की सलाह देते हैं.इस तरह के सर्वे की मंशा कहीं आम लोगों को उनके पारंपरिक भोजन से दूर करने की तो नहीं है? या यह महंगाई घटाने का कोई नया नुस्खा है? आप क्या सोचते हैं..?
Posted by संजीव शर्मा/Sanjeev Sharma 2 comments
भारत व्यर्थ के आशावाद में उलझा
भारत व्यर्थ के आशावाद में उलझा हुआ है। हिंदुस्तान के नेता यहां जिस तीखे अंदाज में बोलते हैं, पाकिस्तान की जमीन पर पहुंचते ही उनकी आवाज ठंडी हो जाती है। पता नहीं कौन सा अपनापन उमड़ आता है, किस तरह का दया भाव पैदा हो जाता है कि वे नरम पड़ जाते हैं। गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा है कि मुंबई हमले की जांच को लेकर पाकिस्तान की मंशा पर भारत को कतई संदेह नहीं है परंतु परिणाम तो आना चाहिए। शायद उन्हें यह भय सताता रहता है कि ज्यादा सख्त हुए तो बातचीत टूट जायेगी। क्या बातचीत जारी रखने की जिम्मेदारी केवल भारत की है? पाकिस्तान चाहे जितना ऐंठता रहे, हम उसकी मनौवल करते रहेंगे, यह कौन सी बात है?
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Posted by Subhash Rai 0 comments
Labels: subhash rai
27.6.10
हमारे पूर्वज
झंझावतों से लड़े
भिड़े,
मगर टूटे नहीं,
इसीलिए बूढा बरगद
खड़ा रहता है,
आपनी आन- बान और शान के साथ
हर बार कर देता है
ओनर किलिंग
अपनी मर्यादा की खातिर
मार देता है,
अपने ही बीज को
ताकि पैदा हो
अच्छी और बेहतर नस्ल
एक झटके में तोड़ देता है
बाधाएं,
किसी बान्ध की बाढ़ की तरह लड़ जाता है
पूरी सभ्यता से
अपनी इज्जत के लिए
और एक हम
यू के लिपितिस
उखड जाते हैं
बहते यौवानावेश में
कर देते हैं खून,
अपने ही खून का
चाची, भाभी या बहन
किसी भी रिश्ते का,
क्योंकि हम बरगद नहीं
यू के लिपितिस हैं,
सिर्फ
यू के लिपितिस
Posted by baddimag 1 comments
भाजपा में ‘रावण’ से फिर बने ‘हनुमानों’ के आगे संघ बौना
पिछले साल अगस्त में शिमला की वादियों में लोकसभा चुनाव में मिली पराजय पर ‘मंथन’ के लिए आयोजित ‘चिंतन बैठक’ के ठीक पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था।
उस वक्त जसवंत ने पत्रकारों को चर्चा के दौरान इंडिया टुडे में छपी एक कार्टून दिखाया था, जिसमें उन्हें ‘हनुमान’ के रूप में दिखाया गया था। उन्होंने कहा था, ‘भाजपा के ‘हनुमान’ से आज मैं ‘रावण’ बन गया।’
बहरहाल, भाजपा का यह ‘रावण’ एक बार फिर उसका ‘हनुमान’ बन गया है। उसका निष्कासन रद्द हो गया है और गुरुवार को 10 माह के वनवास के बाद उसकी घर वापसी हो गई।
दरअसल, भाजपा या यूं कहिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के ‘रावण’ तो पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना हैं। जसवंत ने जिसकी तारीफ बतौर लेखक अपनी पुस्तक ‘जिन्ना : भारत विभाजन के आइने में’ में की थी। यही उनके भाजपा से निष्कासन का कारण बनी। भाजपा ने उनसे ऐसी रुसवाई दिखाई कि उन्हें चिंतन बैठक में शामिल होने से इंकार ही नहीं किया गया बल्कि फोन के जरिए पार्टी से निष्कासन की जानकारी दी गई।
पार्टी के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी जिन्ना को सेक्यूलर बताया था और 2005 में वह भी पार्टी के ‘रावण’ बन गए थे। इसके लिए उन्हें पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा था।
आडवाणी के अध्यक्ष पद छोड़ने और जसवंत को निष्कासित करने के पीछे सासे ाड़ा हाथ था संघ का। संघ ने ही ‘जिन्ना विवाद’ के कारण दोनों नेताओं को अर्श से फर्श पर पटकने में अहम भूमिका निभाई थी क्योंकि संघ जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष नहीं मानता। वह जिन्ना को विभाजन का जिम्मेदार मानता है।
आश्चर्य की बात है कि न तो आडवाणी ने और न
ही जसवंत ने अपनी कही बात के लिए कभी खेद जताया। इसके बावजूद दोनों ने वापसी की। आडवाणी बाद में गत लोकसभा चुनाव में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने में सफल रहे थे और जसवंत को पार्टी में वापसी के साथ-साथ विदेश नीति, अर्थ नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर पार्टी का मार्गदर्शक करार दिया गया।
इतना ही नहीं संघ ने भले ही डी-4 (अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार और वेंकैया नायडू) के लिए अध्यक्ष का रास्ता बंद कर नितिन गडकरी को आगे बढ़ाया हो लेकिन गडकरी भी आडवाणी व डी-4 की छाया से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। जहां एक ओर उनके सारथी अनंत कुमार बने हैं वहीं दूसरी ओर उनके हर फैसले पर आडवाणी और डी-4 की छाप साफ दिख रही। चाहे राम जेठमलानी को राज्यसभा में भेजने का मामला हो या जसवंत की ही वापसी का मामला हो या फिर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खुली छुट देने का।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि दोनों नेताओं पर जो कार्रवाई हुई थी वह उचित थी या वे अनुचित थे जिन्होंने कार्रवाई की थी। या भाजपा और संघ की जिन्ना पर सोच बदल गई है। या फिर आडवाणी के कद के समक्ष संघ बौना हो गया है। भविष्य में भाजपा व संघ को इन सवालों का जवाब देना ही होगा नहीं तो जिन्ना का भूत उसका यूं ही पीछा नहीं छोड़ेगा।
ब्रजेन्द्र नाथ सिंह
Posted by delhi me bhojpuriya 0 comments
important news ragarding dy speaker of m.p. vidhan sabha mr. harbans singh
हरवंश और रजनीश के विरुद्ध अपराध पंजीबद्ध ना करने पर पुलिस को कोर्ट की फटकार
आरोपियों के विरुद्ध अपराध पंजीबद्ध कर 28 जून को अन्तिम प्रतिवेदन देने के थाने को निर्देश
सिवनी। बहुचर्चित आमानाला जमीन घोटाले में कोर्ट ने दिये गये निर्देशों का पालन ना करने पर पुलिस को फटकार लगायी है। अदालत में प्रतिवादी मो. शाह ने एक प्रतिवाद पत्र पेश कर आरोपी नियाज अली,रजनीश सिंह एवं हरवंश सिंह के विरुद्ध भा.दं.वि. की 420,506,294 तथा 120 बी. के तहत मामला पंजीबद्ध करने का अनुरोध किया था जिस पर न्यायालय ने दं.प्र.सं की धारा 156(3) के तहत धनोरा पुलिस को कार्यवाही कर प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के लिये निर्देशित किया था। लेकिन पुलिस ने आरोपी नियाज अली के विरुद्ध अपराध पंजीबद्ध कर प्रतिवेदन प्रस्तुत कर दिया जिस पर लखनादौन के प्रथम श्रेणी न्यायायिक मजिस्ट्रेट श्री ए.एस.सिसोदिया ने कोर्ट के निर्देशों के अनुसार सभी आरोपियों के विरुद्ध अपराध पंजीबद्ध कर जांच करके प्रतिवेदन 28 जून को कोर्ट में पेश करने के निर्देश पुन: पुलिस को दिये हैं। पुलिस चौकी प्रभारी की इस अवैधानिक कार्यवाही पर आला पुलिस अधिकारियों की चुप्पी कई सन्देहों को जन्म दे रही हैं।
मामला संक्षेप में
उल्लेखनीय हैं कि थाना धनौरा के अंर्तगत आने वाले ग्राम आमानाला निवासी मो. शाह ने अदालत में 18 मई 2010 को एक प्रतिवाद पत्र पेश किया था। इसमें प्रतिवादी ने आरोप लगाया था कि उसके भाई नियाज अली ने उसकी शामिल शरीक खानदानी जमीन षडयन्त्र पूर्वक आरोपियों को बेच दी हैं। उसने यह भी आरोपित किया था कि उसके भाई एवं रजनीश सिंह तथा हरवंश सिंह ने उसे गाली गलौच कर जान से मारने की धमकी भी दी हैं। उसने यह भी लिखा था कि उसने थाने में सूचना दी थी फिर भी कोई कार्यवाही नहीं की गई। इसलिये कोर्ट आरोपियों के विरुद्ध भा.द.वि. की धारा 420,506,294 और 120(बी) के तहत अपराध दर्ज कर कार्यवाही करने के निर्देश दे।
अपराध दर्ज करने कोर्ट ने दिये निर्देश
इस प्रतिवाद पर संज्ञान लेते हुये माननीय न्यायाधीश ने दं.प्र.सं की धारा 156(3) के तहत कार्यवाही कर धनौरा पुलिस को एक महीने बाद 18 जून को कोर्ट में अन्तिम प्रतिवेदन पेश करने के निर्देश जारी किये थे। यह मामला धनौरा थाने की पुलिस चौकी सुनवारा के अंर्तगत आता था अत: चौकी प्रभारी एस.एस.ठाकुर ने प्रतिवेदन पेश कर उसमें यह उल्लेख किया कि आरोपी नियाज अली के विरुद्ध धारा 294,323,506 के अंर्तगत अ.क्र. 79/2010 दर्ज कर लिया गया हैं एवं जांच जारी हैं तथा आरोपी क्र. 2 रजनीश सिंह एवं आरोपी क्र.3 हरवंश सिंह के विरुद्ध कोई कथन परिवादी या किसी साक्ष्य ने नहीं किये हैं। रजनीश सिंह एवं हरवंश सिंह के विरुद्ध प्रथम दृष्टया जांच में कोई अपराध नहीं पाये जाने के कारण अपराध पंजीबद्ध नहीं किया गया हैं। यहां यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि यदि कोर्ट दं.प्र.सं. की धारा 156(3) के तहत कोई आदेश जारी करती हैं तो वह मेन्डेटरी होता हैं। जिसका पालन चौकी प्रभारी ठाकुर ने नहीं किया।
कोर्ट के आदेश का पालन नही किया पुलिस ने
कोर्ट में प्रतिवेदन प्रस्तुत होने के बाद फरियादी के कथन भी रिकार्ड कराये गये। माननीय न्यायाधीश ने अपने आदेश दिनांक 18 जून 2010 को आदेश पत्रिका में लिखा हैं कि पश्चातक्रम में अन्तिम प्रतिवेदन का अवलोकन करने पर यह समझ में आया कि थाना धनौरा द्वारा न्यायालीन आदेश के अनुसार सभी आरोपी गणों के विरुद्ध अपराध पंजीबद्ध कर अन्वेषण उपरान्त विधिवत अन्तिम प्रतिवेदन प्रस्तुत नहीं किया गया हैं। अपने आदेश में कोर्ट ने यह भी लिखा हैं कि थाना धनौरा द्वारा मात्र एक आरोपी नियाज अली के विरुद्ध अपराध पंजीबद्ध किया गया हैं। अत: यह समझ में आता हैं कि आरक्षी केन्द्र धनौरा द्वारा विधिवत न्यायालीन आदेश का अनुपालन नहीं किया गया हैं। इसलिये ये अन्तिम प्रतिवेदन प्रतीत नही होता हैं। कोर्ट ने परिवादी के पूर्व में लिये गये कथन निरस्त करते हुये थाना प्रभारी को पुन: निर्देशित किया है कि परिवाद के आधार पर सभी अभियुक्त गणों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कर अन्वेषण उपरान्त अन्तिम प्रतिवेदन 28 जून को कोर्ट में पेश करें।
इंका विधायक के आरोपी होने से चर्चित हुआ कांड़
प्रकरण में आरोपी के रूप में जिले के केवलारी के इंका विधायक हरवंश सिंह एवं उनके पुत्र रजनीश सिंह आरोपों के घेरे में थे इसलिये मीडिया ने इसे गम्भीरता से लेते हुये प्रमुखता से प्रकाशित किया था। समाचार प्रकाशित होने के बाद इंका विधायक हरवंश सिंह ने बाकायदा खंड़न जारी किया था जिसे सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने छापा था। समाचार और खंड़न के प्रकाशन के बाद लोगों की निगाहें इसी पर लगीं थीं कि कैसे इस मामले का निपटारा होता हैं।
पुलिस प्रशासन की निष्पक्षता हुयी सन्दिग्ध
न्यायालय के आदेश में जिस तरह पुलिस को लताड़ा गया हैं उससे पुलिसिया कार्यवाही सन्देह के घेरे में आ गई हैं। जिले के मशहूर फौजदारी अधिवक्ताओं का यह कथन भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं कि कोर्ट यदि दं.प्र.सं.की धारा 156(3) के अंर्तगत आदेश देती हें तो वह मेन्डेटरी होता हैं और इसकी सुप्रीम कोर्ट की नजीरें भी हैं। इस पुलिसिया कार्यवाही को लेकर भी तरह तरह की चर्चायें हैं। कहीं यह कहा जा रहा हैं कि नेताओं को बचाने के लिये यह कार्यवाही चौकी प्रभारी ने अपने स्तर पर ही कर दी होगी क्योंकि यदि यह जानकारी सख्त मिजाज जिला पुलिस अधीक्षक डॉ. रमनसिंह सिकरवार को लगी होती तो ऐसा हो ही नहीं सकता था। लेकिन ऐसा कहने वालों की भी कमी नहीं हैं कि एक छोटा कर्मचारी इतना बड़ा निर्णय खुद नहीं ले सकता।उसने जरूर जिले के आला अफसरों को विश्वास में लेकर ही यह किया होगा। तभी तो पिछले लगभग दस दिनों से जिले का आला पुलिस अधिकारी चुप हैं अन्यथा ऐसा विधि विपरीत प्रतिवेदन प्रस्तुत करनें वाले चौकी प्रभारी के खिलाफ अभी तक कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही हो चुकी होती। अब इस मामले में सच्चायी क्या हैं यह तो 28 जून को ही स्पष्ट हो पायेगा लेकिन इस प्रकरण ने पुलिस प्रशासन के निष्पक्षता के दावों को जरूर सन्दिग्ध बना दिया हैं।
दैनिक यशोन्नति सिवनी27 जून 2010 में प्रकाशित
Posted by ASHUTOSH VERMA 0 comments
''विभीषणों'' के निशाने पर निशंक सरकार
देहरादून, (राजेन्द्र जोशी)। देश की तरह भारतीय जनता पार्टी पर भी नक्सलवाद की छाया साफ दिखायी दे रही है। जिस तरह से देश के भीतर देश के लोग देशवासियों के खिलाफ नक्सलवाद फैलाकर अपने ही देशवासियों का खून करने पर आमादा है ठीक उसी तरह भाजपा में भी भाजपा के लोग ही भाजपाईयों को नेस्तानाबूद करने की ब्यूह रचना करने पर जुटे हैं। आज यदि देखा जाये तो इनका भाजपा से कोई लेना देना नहीं रह गया है। ये स्वयं को पार्टी समझने की भूल करने लगे हैं। जहां तक देश की सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की बात की जाये तो कभी कभी उसमें एक जुटता तो जरूर दिखायी देती है लेकिन यहां तो अपने ही अपनों का सिर कलम करने को तैयार हैं। उत्तराखण्ड की राजनीति में ऐसा ही कुछ चल रहा है। भाजपा शासनकाल में जितने भी घोटाले सामने आये हैं उनमें भाजपा के आला नेताओं के ही नाम सामने आ रहे हैं। इनमें वे कई नेता भी शामिल हैं जिनको यहां लोग बहुत ही सम्मान की नजरों से देखते थे। इनमें वे लोग भी शामिल बताये जा रहे हैं जो स्वयं को परमपूज्य गुरूजी गोलवरकर जी के मार्ग के अनुयायी कहते नहीं थकते । सबसे विचारणीय प्रश्न तो यह है कि क्या गोलवरकर जी ने यही शिक्षा इन्हे दी? उत्तराखण्ड में चर्चित इन प्रकरणों पर यदि नजर दौड़ायी जाय और इनके पीछे के षड्यंत्रकारियों के बारे में जो जानकारी छन-छन कर सामने आ रही है इसमें भाजपा के वे पिटे हुए मोहरे बताये जा रहे हैं जिन्होने ढाई साल इस प्रदेश पर राज किया और पांचों लोकसभा सीटों को हरवाने के बाद जिन्हे कुर्सी छोडऩी पड़ी थी। अब एक बार वे फिर विरोधी राजनीतिक दलों को आगे कर अपना उल्लू सीधा करने पर जुटे हैं। जहां तक विपक्षी दलों द्वारा इन मामलों पर हो-हल्ला मचाये जाने की बात है तो वह उनकी राजनीतिक मजबूरी भी है। लेकिन भाजपा के ही लोगों द्वारा इस तरह की कोशिशों को तो अपनी ही पार्टी से साथ बगावत ही कहा जाएगा। इन्हे शायद इस बात का ध्यान नहीं है कि जब पार्टी ही नहीं होगी तो ये आखिर किस प्रदेश के मुख्यमंत्री होंगे अथवा अपनी राजनीति कहां चलायेंगे। लेकिन लगता है कि विरोध के लिए विरोध करना इनक ा शगल बन गया है। जहां तक मुख्यमंत्री निशंक की बात है आज तक उनके राजनीतिक जीवन में उन पर एक भी भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा। तो आखिर निशंक मुख्यमंत्री बनते ही बेईमान और घोटालेबाज कैसे बन गये। यह विचारणीय है। मुख्यमंत्री निशंक की राजीतिक मजबूरियों तथा उन पर भाजपा के तथाकथित प्रदेश प्रभारियों के दबाव को किसी ने अभी तक नहीं देखा। जहां तक जानकारियां सामने आयी है इन समूचे प्रकरणों में भाजपा के कई आला नेताओं सहित प्रदेश प्रभारियों का दबाव उन पर था क्योंकि जिन नेताओं ने मुख्यमंत्री पर दबाव बनाया उनक ी पत्नी सहित उनके कई परिजन इन कम्पनियों में निदेशक हैं। इस मामले में सबसे चौकाने वाली बात तो यह है कि अभी तक भाजपा के किसी भी बड़े नेता ने इस प्रकरण पर अपना बयान नहीं दिया है, इनमें चाहे प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री खंण्डूरी अथवा कोश्यारी ही क्यों न हों।
उत्तराखण्ड के जल,जमीन और जंगलों पर भाजपा के ऐसे नेताओं की कुदृष्टि कहीं राज्य में नक्सलवाद को तो जन्म नहीं दे रही है। क्योंकि नक्सवाद पनपने के पीछे यही प्रमुख कारण रहा है कि जब-जब बाहरी लोगों ने प्रदेश के मूलनिवासियों के हक हकूकों पर जबरन कब्जा करने की कोशिश की तो उसकी परिणिति ही नक्सलवाद के रूप में सामने आया है।
Posted by Anonymous 3 comments
26.6.10
---- चुटकी----
कुछ काम
नहीं आये तो
बढ़ा दो
पेट्रोल,डीजल
गैस के दाम,
आप के
अर्थशास्त्र को
मान गए
श्रीमान।
Posted by गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर 5 comments
25.6.10
---- चुटकी----
पेट्रोल,डीजल
गैस पर अब
सरकारी नियंत्रण
नहीं,
वैसे
सच्ची बताओ
सरकार का
नियंत्रण दिखता
भी है कहीं।
Posted by गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर 0 comments
---- चुटकी----
पेट्रोल,डीजल
गैस पर अब
सरकारी नियंत्रण
नहीं,
वैसे
सच्ची बताओ
सरकार का
नियंत्रण दिखता
भी है कहीं।
Posted by गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर 1 comments
नहीं होना चाहिए एक गौत्र में विवाह
काफी समय से मैं सजातिय गौत्र में विवाह की खबरें पढ़ रहा हूं। देश के उत्तर भारत में इस सम्बंध में काफी खून खराबा हो रहा है। भाई अपनी बहनों की मार रहे है। माता-पिता अपने बच्चों की बलि चढ़ा रहे है। सगौत्र विवाह और खाप पंचायतों के फैसलों को भी मैंने पूरे ध्यान से पढ़ने की कोशिश की है। एक तरफ से सारा मीडिया सगौत्र विवाह के खिलाफ है और वो समाज में नईं सोच पैदा करने में जुटा है। क्योंकि मीडिया ही है जिसमें वो ताकत है जो समाज, क्षेत्र, राज्य और देश की सोच में बदलाव ला सकती है।
लेकिन अब सवाल ये उठता है क्या वाकई हमें इस मुद्दे पर बदलाव की आवश्यकता है...
"सगौत्र विवाह के खिलाफ खाप पंचायतों ने जो भी फैसले दिये है मैं उनका समर्थन करता हूं क्योंकि इन पंचायतों पर समाज के प्रति दायित्व होता है कि वो कैसे भी अपराध, कुरीतियों से समाज को बचाये। यदि ऐसे में उसे कहीं पर सजा भी देनी पड़े तो वो इसके लिए हकदार होती है।"
बहरहाल, प्रत्येक परिवार, समाज, क्षेत्र, राज्य और देश की अपनी अलग संस्कृति, विचार, रीति-रिवाज, सोच और कार्य करने का तरिका भिन्न होता है। ऐसे में यदि वो इसके विपरीत कोई काम करे तो वो निश्चित रूप से अपनी पहचान खो देगा। बगैर पहचान के आप स्वंय को कैसा महसूस करेंगे, शायद मुझे कहने जरूरत नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड़ यानि लगभग देश के काफी हिस्सों पर सगौत्र विवाह की संस्कृति नहीं है। इन जगहों पर ऐसा करना ना सिर्फ अपराध होता है, बल्कि ये पाप भी माना जाता है। ऐसे ही अपराध और पाप को रोकने के लिए खाप पंचायत और परिवार वाले ना चाहते हुऐ भी ऐसे फैसले लेने को मजबूर है। यहां पर झूठी शान की नहीं अपितु आन की बात है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने ये हवाला दिया कि हिन्दुओं के किसी भी वेद, पुराण, साहित्य में इस बात की मनाही नहीं है कि एक गौत्र में विवाह नहीं होना चाहिए। माना कि हिन्दु वैदिक साहित्य में ऐसी बात का बिल्कुल भी जिक्र नहीं है, शायद इन साहित्य लेखकों से जरा सी चूक हो गई, जो ये नहीं सोच सके कि भविष्य में बुद्धि इतनी भी भ्रष्ट हो सकती कि सगौत्रिय लोगों में शादियां होने लगे। इस बीच ऐसे उदाहरण आने लगे कि देश के दक्षिण हिस्सों में हिन्दुओं के कुछ वर्णों में एक ही गौत्र अथवा करीबी रिश्तों में शादी को पवित्र और अच्छा माना जाता है। विश्व में ही नहीं, मुस्लिमों और कईं धर्मों सम्प्रदायों में भी करीबी रिश्तों में विवाह हो सकता है। लेकिन ये वहां कि अपनी अलग संस्कृति है वो उसी के साथ जीना चाहेंगे।
अगर भगवान नें मुझे वहां पैदा किया होता तब भी मैं यही लेख लिखता।
मेरे मन मे काफी विचार है लेकिन समय के अभाव के कारण आगे नहीं लिख पा रहा हूं। अगर इस लेख में कोई गलती हो तो आपसे अपेक्षा करता हूं कि मार्गदर्शन करेंगे।
धन्यवाद।
सूरज सिंह।
Posted by Suraj Singh Solanki 7 comments
लोकतंत्र को तानाशाही में बदलने वाली कांग्रेस
आपातकाल के दौरान संविधान के साथ हुए खिलवाड़ का स्मरण कर रहे हैं ए। सूर्यप्रकाश
25 जून आपातकाल की वर्षगांठ है। आपातकाल जिसे दूसरे शब्दों में तानाशाही भी कह सकते हैं, 19 महीने तक जारी रहा। कांग्रेस के विरोधी राजनेताओं को जेल में डाल दिया गया था, मूल अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था, मीडिया पर सेंसरशिप थोप दी गई थी और लोकतंत्र पर पर्दा डाल दिया गया था। कांग्रेस द्वारा फैलाए गए आतंक ने संसद को रबर स्टांप बना दिया था और यहां तक कि न्यायपालिका भी इस अत्याचार के खिलाफ खड़ी नहीं हुई थी। आपातकाल की कहानी बहुत लंबी है, जिसे एक अध्याय में नहीं समेटा जा सकता। इसकी व्याख्या राष्ट्र के प्रत्येक अंग से संबंधित अध्यायों में अलग की जा सकती है। फिलहाल हम मात्र एक घटक-संविधान पर आघात की चर्चा कर रहे हैं। आपातकाल की कहानी न्यायाधीश जगमोहन सिन्हा के एक फैसले से शुरू होती है, जिन्होंने 1971 में रायबरेली लोकसभा चुनाव के दौरान इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध करार दिया और उन्हें छह साल के लिए चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया। न्यायाधीश ने पाया कि उन्होंने निर्वाचन कानूनों के बहुत से प्रावधानों का उल्लंघन किया है। इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की, जहां से उन्हें सशर्त स्टे मिल गया। न्यायाधीश वीआर कृष्णा अय्यर ने उन्हें संसद में जाने की तो अनुमति दे दी, किंतु बहस और मतदान में भाग लेने से प्रतिबंधित कर दिया। उन्होंने यह मामला बड़ी पीठ के पास भेज दिया। अब इंदिरा गांधी के पास यही चारा रह गया था कि पीठ का फैसला आने तक वह इस्तीफा दे दें, किंतु अपने परिजनों और खुशामद करने वालों के कहने पर उन्होंने न्यायपालिका को चुनौती देने की ठान ली। संविधान के एक कभी इस्तेमाल न किए जाने वाले प्रावधान का दुरुपयोग करते हुए उन्होंने आंतरिक उपद्रव से निपटने के नाम पर आपातकाल थोप दिया। उन्होंने राष्ट्रपति से संवैधानिक अधिकार स्थगित करने और संघीय सरकार को असीमित अधिकार देने की घोषणा करवा ली। राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री के साथ देर रात वार्ता के बाद अधिघोषणा जारी की। इस संबंध में मंत्रिमंडल में कोई विचार-विमर्श नहीं किया गया, बल्कि अगली सुबह मंत्रिमंडल को मात्र सूचना दी गई। 27 जून, 1975 को राष्ट्रपति ने आदेश जारी किया, जिसमें नागरिकों को मूल अधिकारों के उल्लंघन पर अदालत में जाने से वंचित कर दिया गया। ये मूल अधिकार अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समता और संरक्षण), अनुच्छेद 21 (कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित न करना) और अनुच्छेद 22 (आधार की सूचना दिए बिना गिरफ्तारी) के तहत आम आदमी को दिए गए हैं। इस आदेश के प्रभाव से नागरिकों से जीवन और स्वतंत्रता का मूलाधिकार छीन लिया गया। बाद में उन्होंने अनुच्छेद 19 के तहत स्वतंत्रता की बहाली के लिए अदालत में जाने के अधिकार को भी स्थगित कर दिया। इस तरह तानाशाही की बुनियाद रख दी गई। इसके तुरंत बाद 38वें संशोधन द्वारा संविधान पर आघात जारी रखा गया, जिसने राष्ट्रपति की घोषणाओं और मूलाधार का उल्लंघन करने वाले केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों पर अदालती हस्तक्षेप खत्म कर दिया। तब 39वां संशोधन आया, जिसने सुप्रीम कोर्ट को प्रधानमंत्री के निर्वाचन पर सुनवाई से रोक दिया। इसे पारित करने में बेहद जल्दबाजी की गई। यह संशोधन भारत के इतिहास में सबसे तेजी के साथ किए गए संशोधन के रूप में कुख्यात है। इसे 7 अगस्त, 1975 को लोकसभा में पेश किया गया और उसी दिन मात्र दो घंटे की बहस के बाद यह पारित हो गया। 8 अगस्त, 1975 को राज्यसभा में पेश किया गया और फिर से उसी दिन पारित कर दिया गया। 9 अगस्त, शनिवार को तमाम प्रदेश विधानसभाओं का सत्र बुलाया गया और इस पर मुहर लगवा ली गई। 10 अगस्त, 1975 को रविवार के दिन इसे राष्ट्रपति की सहमति मिल गई। इस तेज रफ्तार का राज यह था कि कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट को 11 अगस्त, 1975 को इंदिरा गांधी के मामले में सुनवाई से रोकना चाहती थी। अफसोस की बात यह है कि इस रफ्तार पर अंकुश लगाने के लिए कोई संवैधानिक नियंत्रण मौजूद नहीं था। अपने नेता को कानून से ऊपर स्थापित करने के लिए कांग्रेस इतनी बेकरार थी कि इसने लापरवाही और निरंकुशता की सभी हदें पार कर दीं। राज्यसभा में 39वां संशोधन पारित होने के अगले ही दिन 9 अगस्त को सरकार ने 41वें संशोधन को पेश कर दिया। इस दौरान संसद एक बंधक विधायी मशीन बनकर रह गई, जो एक व्यक्ति-प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पक्ष में संविधान संशोधन पर मुहर लगाती चली गई। इस संशोधन द्वारा प्रधानमंत्री को हास्यास्पद रूप से कानून से ऊपर स्थापित करने की अवधारणा ने जन्म लिया। इसमें कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति के कृत्यों के खिलाफ अदालती कार्यवाही नहीं की जा सकती जो प्रधानमंत्री है या रह चुका है। ये कृत्य कार्यकाल के दौरान या इससे पहले के हो सकते हैं। इस संशोधन ने हमारे संविधान की बुनियाद ही हिला डाली, क्योंकि कानून के समक्ष समता और सभी कानूनों को समान रूप से लागू करना लोकतांत्रिक संविधान का मूल ढांचा है। राज्यसभा द्वारा अनावश्यक जल्दबाजी दिखाते हुए इस संशोधन को पारित करने के बावजूद सौभाग्य से इस पर पुनर्विचार हुआ और निचले सदन में इसे पेश नहीं किया जा सका। इसी दौरान 40वां संशोधन भी पारित हुआ, जिसने मीडिया विरोधी कानून बनाया। 42वें संशोधन ने लोकतांत्रिक संविधान के ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी। इसका प्राथमिक उद्देश्य न्यायपालिका के पर कतरना था। इसमें कहा गया कि संविधान में संशोधन का संसद को असीमित अधिकार है और किसी भी अदालत में किसी भी आधार पर इसे चुनौती नहीं दी जा सकती। इसका मतलब यह हुआ कि संसद को संविधान को कायम रखने या नष्ट करने का निरंकुश अधिकार हासिल है। 42वें संशोधन के दो और आपत्तिजनक पहलू थे। एक तो इसने संविधान संशोधन के लिए निर्धारित न्यूनतम समर्थन का प्रावधान खत्म कर दिया। इस प्रकार मुट्ठीभर कांग्रेस सांसदों के लिए यह संभव हो गया कि वे देर रात को संसद में बैठकर अपनी मर्जी से देश के लिए कानून बनाते रहें। दूसरे, इसने राष्ट्रपति को कार्यकारी आदेश द्वारा संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन की शक्ति दे दी। इतिहास गवाह है कि हिटलर और मुसोलिनी उन लोगों में शामिल थे, जिन्होंने संविधान की इस प्रकार की शक्तियों को हासिल किया था। इन संशोधनों के द्वारा संविधान की आत्मा कुचल दी गई और भारत में तानाशाही का सूत्रपात हुआ। सौभाग्य से, मार्च 1977 में लोगों ने कांग्रेस को उखाड़ फेंका। सत्तारूढ़ जनता पार्टी ने इन असंवैधानिक संशोधनों को वापस लेकर संविधान में लोकतांत्रिक मूल्य फिर से स्थापित किए। विडंबना यह है कि लोकतंत्र को तानाशाही में बदलने वाली कांग्रेस को अपने किए पर कोई अफसोस नहीं है। इसके विपरीत बहुत से नेता यह दलील रखते हैं कि कांग्रेस के पास आपातकाल थोपने के अलावा कोई चारा नहीं था। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक jagran
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कारोबारी हितों के नीचे दबा है मीडिया
हाल ही में मैंने अलग-अलग संस्थानों से आए 500 स्नातकोत्तर विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित किया। उनसे जब यह पूछा गया कि उनमें से कितने मीडिया (प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक) का भरोसा करते हैं। इस जवाब में दस से भी कम हाथ उठे। अगर यह सवाल अस्सी के दशक में पूछा जाता तो ज्यादा हाथ उठते। उस समय अखबारों के सकरुलेशन की तुलना में उनकी पाठकों की संख्या का जिक्र किया जाता था। पाठकों की संख्या सकरुलेशन यानी प्रसार से छह गुना ज्यादा होती थी। आज की तारीख में सकरुलेशन बढ़ी और अखबारों की बिक्री भी। लेकिन क्या पठनीयता भी बढ़ी है। बहुत से लोग अखबार खरीदते हैं लेकिन हमेशा पढ़ते नहीं। इसकी दो वजहें है। पहली- निजी सौदेबाजी या कांर्ट्ेक्ट और दूसरा पेड न्यूज। पहले का संबंध बिजनेस की खबरों से है और दूसर का संबंध राजनीतिक खबरों से। एक राष्ट्रीय दैनिक को इस नई खोज का श्रेय जाता है। मामला बेहद आसान है। कोई मीडिया हाउस उस कंपनी में हिस्सेदारी खरीदता है जो शेयर मार्केट में पहले से सूचीबद्ध है या सूचीबद्ध होने जा रही है। बदले में मीडिया हाउस कंपनी के पक्ष में कवरज करता है। कंपनी के बार में नकारात्मक खबरों को दरकिनार कर दिया जाता है।जब से संपादकीय और विज्ञापन की बारीक रखा मिटी है, निजी सौदेबाजियों ने स्वतंत्र मीडिया की अवधारणा काफी हद तक नुकसान पहुंचाया है। न्यूज स्पेस अब बिकाऊ हो गए हैं। सेबी ने 15 जुलाई , 2009 को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को पत्र लिख कर इस प्रवृति के बार में सचेत किया था। लेकिन प्रेस काउंसिल तो कागजी शेर से ज्यादा कुछ नहीं है। करोड़ों में खेलने वाली सैकड़ों कंपनियां आजकल मीडिया फ्रैंडली बनी हुई हैं। इस एवज में मीडिया ने भी समझौतावादी रुख अपना लिया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बार में तो जितना कम कहा जाए तो उतना अच्छा। ऐसे मीडिया के लिए एंकर इन्वेस्टर शब्द का इस्तेमाल ज्यादा प्रासंगिक रहेगा। इस समय दर्जनों विशेषज्ञ और सलाहकार पैदा हो गए हैं, जो दर्शकों को इस और उस कंपनी के शेयर खरीदने की सलाह देते रहते हैं। यहां आपको कोई द्वंद्व या विवाद नहीं दिखेगा। यह सिर्फ आपसी हितों की बात होती है।जमीनी स्तर पर तो हालात बेहद खराब हैं। प्रेस कांफ्रेंस अब लिफाफा कांफ्रेंस कही जाने लगी हैं। कंपनियां अपने पक्ष में खबर छपवाने के लिए पत्रकारों को लिफाफे में भर कर पैसे देती हैं। हालांकि हर पत्रकार के बार में ऐसा नहीं कहा जा सकता। लेकिन आप लिफाफा नहीं देते हैं तो पक्ष में खबर छपने की उम्मीद मत करिये। जब मैंने एक नामी कंपनी के अधिकारी के सामने इस पर आश्चर्य जताया तो उन्होंने कहा आप लिखने-पढ़ने की दुनिया में रमे हैं। एकेडेमिक हैं। आपको जमीनी हकीकत की जानकारी नहीं है। राजनीतिक भाषा में ऐसी खबरों को पेड न्यूज कहा जाता है। महाराष्ट्र में हाल में हुए चुनाव में पेड न्यूज के कई उदाहरण दिखे। कुछ रिपोर्टरों के दबाव व में प्रेस परिषद ने इस मामले के अध्ययन के लिए दो लोगों की कमेटी गठित की। कमेटी ने जो ड्राफ्ट रिपोर्ट पेश की उससे यह निष्कर्ष उभर कर सामने आया कि पेड न्यूज से लोकतांत्रिक मूल्य को चोट पहुंचती है। क्षेत्रीय भाषाओं की बात करें तो, वहां आपको ऐसे राजनीतक नेता मिल जाएंगे जो किसी न किसी अखबार या मीडिया हाउस के मालिक होंगे।पिछले कुछ समय से मीडिया में सुस्ती और दब्बूपन जैसी स्थिति दिखने लगी हैं। हालात दिनोंदिन और खराब ही हो रहे हैं। कुछ उदाहरणों का जिक्र करते हैं। इस देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी कांग्रेस की प्रमुख ने शायद ही किसी मीडिया हाउस को कोई इंटरव्यू दिया हो। न ही उन्होंने किसी ओपन हाउस को संबोधित किया है। यह लाइबेरिया या सोमालिया में संभव है लेकिन भारत में नहीं। लेकि न मीडिया ने इस हालात को स्वीकार कर लिया है।भोपाल त्रासदी में मीडिया ने सारा फोकस एंडरसन पर किया हुआ है। लेकिन केशब महिंद्रा के बार में क्या क हेंगे? केशब महिंद्रा को इस त्रासदी के बाद महत्वपूर्ण पद दिया गया था। लेकिन उनके साथ कोई इंटरव्यू नहीं हुआ। उनके बार में कोई बात नहीं हुई। भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड के फैक्टरी इंस्पेक्टरों का क्या हुआ। उस समय जो मंत्री और उद्योग सचिव प्रभारी थे, उनका क्या हुआ। मीडिया का फोकस कुछ इस तरह से है, मानो एंडरसन ही अकेल अमेरिका से फैक्ट्री चला रहा होगा। भ्रष्ट नौकरशाह और राजनीतिक नेताओं को बेनकाब करना चाहिए। लेकिन मीडिया इस मामले पर चुप्पी साधे हुए है।हाल में बिहार और पश्चिम बंगाल में तूफान से सैकड़ों लोग मर। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चुप रहा क्योंकि उसका सारा ध्यान आईपीएल स्कैंडल में था। कुछ अखबारों ने इन आपदाओं को अपने पन्ने पर बहुत कम जगह दी। अमेरिका और यूरोप में कुछ अखबार आर्ट, ओपेरा, थियेटर और म्यूजिक की खबरं छाप कर अप-मार्केट बने। लेकिन हमार यहां पेज 3 छाया हुआ है। मीडिया भारत को एक सभ्यता नहीं बल्कि एक बाजार मानता है। भारत में लाखों कार बिकती है। जिस दिन यह आंकड़ा चीन में कारों की बिक्री से एक भी ज्यादा हो जाएगा, उस दिन भारत का मीडिया जश्न मनाएगा। मीडिया में काम करने वाले कुछ लोग वास्तव में इस भारत के नागरिक ही नहीं हैं। होना तो यह चाहिए कि जब वे भारत की सुरक्षा पर लिखें और बोलें तो एक डिस्क्लेमर लगाना चाहिए। पारदर्शिता के लिए उन्हें इतना तो करना ही चाहिए।
Source: आर वैद्यनाथन
Published: Wednesday, June 23,२०१०
साभार:- बिजनेस भास्कर
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कारोबारी हितों के नीचे दबा है मीडिया
हाल ही में मैंने अलग-अलग संस्थानों से आए 500 स्नातकोत्तर विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित किया। उनसे जब यह पूछा गया कि उनमें से कितने मीडिया (प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक) का भरोसा करते हैं। इस जवाब में दस से भी कम हाथ उठे। अगर यह सवाल अस्सी के दशक में पूछा जाता तो ज्यादा हाथ उठते। उस समय अखबारों के सकरुलेशन की तुलना में उनकी पाठकों की संख्या का जिक्र किया जाता था। पाठकों की संख्या सकरुलेशन यानी प्रसार से छह गुना ज्यादा होती थी। आज की तारीख में सकरुलेशन बढ़ी और अखबारों की बिक्री भी। लेकिन क्या पठनीयता भी बढ़ी है। बहुत से लोग अखबार खरीदते हैं लेकिन हमेशा पढ़ते नहीं। इसकी दो वजहें है। पहली- निजी सौदेबाजी या कांर्ट्ेक्ट और दूसरा पेड न्यूज। पहले का संबंध बिजनेस की खबरों से है और दूसर का संबंध राजनीतिक खबरों से। एक राष्ट्रीय दैनिक को इस नई खोज का श्रेय जाता है। मामला बेहद आसान है। कोई मीडिया हाउस उस कंपनी में हिस्सेदारी खरीदता है जो शेयर मार्केट में पहले से सूचीबद्ध है या सूचीबद्ध होने जा रही है। बदले में मीडिया हाउस कंपनी के पक्ष में कवरज करता है। कंपनी के बार में नकारात्मक खबरों को दरकिनार कर दिया जाता है।जब से संपादकीय और विज्ञापन की बारीक रखा मिटी है, निजी सौदेबाजियों ने स्वतंत्र मीडिया की अवधारणा काफी हद तक नुकसान पहुंचाया है। न्यूज स्पेस अब बिकाऊ हो गए हैं। सेबी ने 15 जुलाई , 2009 को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को पत्र लिख कर इस प्रवृति के बार में सचेत किया था। लेकिन प्रेस काउंसिल तो कागजी शेर से ज्यादा कुछ नहीं है। करोड़ों में खेलने वाली सैकड़ों कंपनियां आजकल मीडिया फ्रैंडली बनी हुई हैं। इस एवज में मीडिया ने भी समझौतावादी रुख अपना लिया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बार में तो जितना कम कहा जाए तो उतना अच्छा। ऐसे मीडिया के लिए एंकर इन्वेस्टर शब्द का इस्तेमाल ज्यादा प्रासंगिक रहेगा। इस समय दर्जनों विशेषज्ञ और सलाहकार पैदा हो गए हैं, जो दर्शकों को इस और उस कंपनी के शेयर खरीदने की सलाह देते रहते हैं। यहां आपको कोई द्वंद्व या विवाद नहीं दिखेगा। यह सिर्फ आपसी हितों की बात होती है।जमीनी स्तर पर तो हालात बेहद खराब हैं। प्रेस कांफ्रेंस अब लिफाफा कांफ्रेंस कही जाने लगी हैं। कंपनियां अपने पक्ष में खबर छपवाने के लिए पत्रकारों को लिफाफे में भर कर पैसे देती हैं। हालांकि हर पत्रकार के बार में ऐसा नहीं कहा जा सकता। लेकिन आप लिफाफा नहीं देते हैं तो पक्ष में खबर छपने की उम्मीद मत करिये। जब मैंने एक नामी कंपनी के अधिकारी के सामने इस पर आश्चर्य जताया तो उन्होंने कहा आप लिखने-पढ़ने की दुनिया में रमे हैं। एकेडेमिक हैं। आपको जमीनी हकीकत की जानकारी नहीं है। राजनीतिक भाषा में ऐसी खबरों को पेड न्यूज कहा जाता है। महाराष्ट्र में हाल में हुए चुनाव में पेड न्यूज के कई उदाहरण दिखे। कुछ रिपोर्टरों के दबाव व में प्रेस परिषद ने इस मामले के अध्ययन के लिए दो लोगों की कमेटी गठित की। कमेटी ने जो ड्राफ्ट रिपोर्ट पेश की उससे यह निष्कर्ष उभर कर सामने आया कि पेड न्यूज से लोकतांत्रिक मूल्य को चोट पहुंचती है। क्षेत्रीय भाषाओं की बात करें तो, वहां आपको ऐसे राजनीतक नेता मिल जाएंगे जो किसी न किसी अखबार या मीडिया हाउस के मालिक होंगे।पिछले कुछ समय से मीडिया में सुस्ती और दब्बूपन जैसी स्थिति दिखने लगी हैं। हालात दिनोंदिन और खराब ही हो रहे हैं। कुछ उदाहरणों का जिक्र करते हैं। इस देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी कांग्रेस की प्रमुख ने शायद ही किसी मीडिया हाउस को कोई इंटरव्यू दिया हो। न ही उन्होंने किसी ओपन हाउस को संबोधित किया है। यह लाइबेरिया या सोमालिया में संभव है लेकिन भारत में नहीं। लेकि न मीडिया ने इस हालात को स्वीकार कर लिया है।भोपाल त्रासदी में मीडिया ने सारा फोकस एंडरसन पर किया हुआ है। लेकिन केशब महिंद्रा के बार में क्या क हेंगे? केशब महिंद्रा को इस त्रासदी के बाद महत्वपूर्ण पद दिया गया था। लेकिन उनके साथ कोई इंटरव्यू नहीं हुआ। उनके बार में कोई बात नहीं हुई। भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड के फैक्टरी इंस्पेक्टरों का क्या हुआ। उस समय जो मंत्री और उद्योग सचिव प्रभारी थे, उनका क्या हुआ। मीडिया का फोकस कुछ इस तरह से है, मानो एंडरसन ही अकेल अमेरिका से फैक्ट्री चला रहा होगा। भ्रष्ट नौकरशाह और राजनीतिक नेताओं को बेनकाब करना चाहिए। लेकिन मीडिया इस मामले पर चुप्पी साधे हुए है।हाल में बिहार और पश्चिम बंगाल में तूफान से सैकड़ों लोग मर। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चुप रहा क्योंकि उसका सारा ध्यान आईपीएल स्कैंडल में था। कुछ अखबारों ने इन आपदाओं को अपने पन्ने पर बहुत कम जगह दी। अमेरिका और यूरोप में कुछ अखबार आर्ट, ओपेरा, थियेटर और म्यूजिक की खबरं छाप कर अप-मार्केट बने। लेकिन हमार यहां पेज 3 छाया हुआ है। मीडिया भारत को एक सभ्यता नहीं बल्कि एक बाजार मानता है। भारत में लाखों कार बिकती है। जिस दिन यह आंकड़ा चीन में कारों की बिक्री से एक भी ज्यादा हो जाएगा, उस दिन भारत का मीडिया जश्न मनाएगा। मीडिया में काम करने वाले कुछ लोग वास्तव में इस भारत के नागरिक ही नहीं हैं। होना तो यह चाहिए कि जब वे भारत की सुरक्षा पर लिखें और बोलें तो एक डिस्क्लेमर लगाना चाहिए। पारदर्शिता के लिए उन्हें इतना तो करना ही चाहिए।
Source: आर वैद्यनाथन
Published: Wednesday, June 23,२०१०
साभार:- बिजनेस भास्कर
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क्या हम खुद इतने संस्कारित नहीं रहे है कि आने वाली पीढ़ी तक उन संस्कारों को पहुंचा सके?
आजकल अमित भाई साहब
साहब के लेखो पर गरमागरम बहस सी चली हुई है!उन्ही की एक पोस्ट पर टिप्पणी लिखने लगा तो ये लिखा गया...... उन्होंने कहा...
".....लेकिन विकारों को आजादी का नाम देकर जिस तरह से अपनाये जाने की घिनोनी भेडचाल मची उससे सारा ढांचा ही भरभरा रहा है...."
तो इस पर मेरे विचार कुछ यूँ थे....
इस बात से तो कोई भी असहमत नहीं होगा!असल बहस का मुद्दा भी यही होना चाहिए!क्यों हम विकारों को आज़ादी का नाम देने पर तुले हुए है!
श्रेष्ठ कौन है? इसका उत्तर हम किस से ले रहे है और किसे दे रहे है?भगवान् श्री ने अर्धनारीश्वर का रूप सम्भवतः इसी असमंजस के नाश के लिए ही धरा होगा,पर हम जब भगवान् के इशारों को भी अनदेखा कर रहे है तो भला किसी ओर के बताने से तो क्या समझेंगे!
हमारी ऐसी कौन सी मज़बूरी है जो आज़ादी सिर्फ विकारों को ही मानते जा रहे है!क्या सच में कोई पीड़ित वर्ग है जो आज़ाद हो ही जाना चाहिए,या फिर यह कोई मानसिक विकृता भर है!मुझे लगता है हमें ऐसे विकारों से आज़ादी की जरुरत है!
हम ब्लॉग लिख-पढ़ रहे है तो स्वभावतः ही बुद्धिजीवी तो होने ही चाहिए.....और बुद्धिजीवियों में असहमति हो जाए किसी बात पर तो इस से भी सकारात्मक परिणाम ही आने चाहिए!एक सार्थक,निष्पक्ष और निर्णायक बहस के रूप में!लेकिन इसका अर्थ ये नहीं की यदि आपने मेरी बात नहीं मानी तो मै आपके प्रति कटुता पाल लूँ,और एक निरर्थक बहस को जन्म दे दूँ!
हमें कम से कम अपने प्रति जिम्मेवार तो होना ही चाहिए!और मेरे हिसाब से जो अपनी जिम्मेवारी को इमानदारी से निभा रहा है वो ही श्रेष्ठ है अब चाहे वो पुरुष है या नारी,ये महत्त्व नहीं रखता!इसे भी मुझे ऐसा कहना चाहिए कि "अपनी जगह" वो श्रेष्ठ है!
फिर से मुद्दे पर आते है....
क्या हमारी वर्तमान शिक्षा हमें ये सोचने पर विवश कर रही कि जो परंपरा या संस्कृति हमारी पिछली पीढ़ी ने निभायी वो एक ग़ुलामी और दकियानूसी के सिवाय कुछ नहीं...?
क्या वो संस्कृति या परम्परा असल में ही वैसी ही है जैसा कि नयी पौध के कुछ पौधे उसे समझ रहे है?यदि नहीं तो क्यों उसने उन्हें अपने में नहीं ढाला?
क्या हम खुद इतने संस्कारित नहीं रहे है कि आने वाली पीढ़ी तक उन संस्कारों को पहुंचा सके?
जहाँ तक मै अपनी बात करूँ तो स्थिति ये है कि वैसे तो मै उन संस्कारों को,परम्पराओं को अपने मन में सहेजे हुए हों,और दैनिक जीवन में उनका सहारा भी लेता रहता हूँ!पर कई बार मन में आ जाता है कि थोडा सा इन के बिना भी आचरण हो जाए तो कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा और एक-आध बार मै ऐसा कर भी डालता हूँ!तो क्या ये एक-आध बार करने कि प्रवृत्ति ही बड़ा कारण बन सकती है भविष्य में.....?
अब मै अपने माता-पिता और घर की बात करूँ तो वो एक पुरानी सोच वाला परिवार ही है!उन्हें मेरा अथवा मेरे अन्य भाइयो का शाम होते ही घर में होना पसंद है!हालांकि मै कई बार सोचता हूँ कि हमारी वजह से कोई भी,कैसा भी उल्हाना अब तक नहीं आया सो हमें थोड़ी बहुत छूट मिलनी चाहिए पर अन्त में उनकी बात ही ठीक लगती है...जब किसी पर अकारण ही बुराई आती दिखती है तो....!इस पर भी हमारी जितनी बहने है उनमे से जिसने भी पढने की इच्छा जताई है उन्होंने स्नातक तक पढ़ाई की ही है,उस से ऊपर भी पढ़ी है,तो यहाँ कोई बंधन भी दिखाई नहीं देता!
अब मैंने अपनी बात आपके समक्ष रखी...मै आशा करता हूँ कि आप भी एक बार अपना आंकलन इस हिसाब से जरूर करेंगे,यदि योग्य समझे तो उस आत्म-मंथन से हमें भी अवगत कराये....!
आप सभी शुभकामाए स्वीकार करे...
जय हिन्द.जय श्री राम,
कुंवर जी,
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प्रजातंत्र से राजतंत्र की ओर जाता भारत-ब्रज की दुनिया
कहने को भारत में प्रजातंत्र है और यहाँ सत्ता वोटिंग मशीनों के द्वारा बदलती है न कि धनबल और बाहुबल के माध्यम से लेकिन स्थितियां वास्तविकता से कोसों दूर हैं.वास्तव में चुनावों में धनबल और बाहुबल का प्रयोग इतना बढ़ गया है कि साधारण आदमी चुनाव जीतने की बात तो दूर चुनाव लड़ने की भी नहीं सोंच सकता.राज्यसभा चुनावों में तो धनबल इतना हावी हो गया है कि यह बुद्धिजीवियों के बदले पूंजीपतियों का सदन बनता जा रहा है.व्यापक सन्दर्भ में अगर देखें तो सच्चाई तो यह है कि देश लोकतंत्र से ही दूर होता जा रहा है और राजतन्त्र की ओर अग्रसर है.कभी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने चाटुकारिता की सारी हदों को तोड़ते हुए कहा था कि इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया.दुर्भाग्य की बात है कि ३५ साल बाद भी हालात नहीं बदले हैं और केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के लगभग सभी नेता मानते हैं कि सोनिया इज इंडिया एंड इंडिया इज सोनिया.तब कांग्रेसी लम्पट संजय गांधी में देश का भविष्य देख रहे थे आज अनुभवहीन और अक्षम राहुल उनकी नज़र में देश का भविष्य हैं.क्या इसी को लोकतंत्र कहते हैं?जनता खुद ही परिवारवाद को बढ़ावा दे रही है.देश में एक-से-एक नेता भरे पड़े हैं फ़िर भी जनता गांधी-नेहरु परिवार को वोट देती है.राजतन्त्र भी इसलिए बुरा था क्योंकि उसमें वंशानुगतता का गुण था.राजतन्त्र में राजा रानी के गर्भ से पैदा होता था अब भी पैदा हो रहा है.राजतन्त्र में राजा सिर्फ एक ही परिवार यानी राजपरिवार से आता था भारतीय लोकतंत्र में भी प्रधानमंत्री सिर्फ एक ही परिवार यानी नेहरु-गांधी परिवार से ही आता है.राजतंत्र में राजा को चाटुकार सामंत घेरे रहते थे फ़िर उन सामंतों के भी छोटे सामंत होते थे.आज भी नेहरु-गांधी परिवार को चाटुकार यानी रीढ़विहीन कांग्रेसी नेता घेरे रहते हैं और दिन-रात राज-काज की चिंता छोड़कर चापलूसी में लगे रहते हैं.वंशानुगतता का यह गुण सिर्फ नेहरु-गांधी परिवार पर ही लागू नहीं होता छोटे कांग्रेसी सामंतों के यहाँ भी उनके बाद उनकी राजनीतिक विरासत को उनके ही घर-परिवार के लोग सँभालते हैं.नवीन जिंदल,जतिन प्रसाद,अभिषेक मनु सिंघवी आदि बहुत से लोग इसके उदाहरण हैं.वंशानुगतता के इस गुण या अवगुण से सिर्फ कांग्रेस ही ग्रस्त हो ऐसा भी नहीं है उत्तर में लालू-मुलायम-रामविलास और दक्षिण में करूणानिधि परिवार अपने-अपने दलों में सर्वेसर्वा हैं.इनकी पार्टी वास्तव में इनके परिवारों की निजी संपत्ति है जिसे इन्होंने जनता को धोखा देने के लिए छद्म लोकतान्त्रिक स्वरुप दे दिया है.सबसे निचले स्तर के सामंतों में राजतंत्रीय गुण अपेक्षाकृत कम होता है क्योंकि निचले स्तर के चुनाव में स्थानीयता की प्रधानता होती है और जनता को भावनाओं के डंडे से हांक ले जाना आसान नहीं होता फ़िर भी कुछ-न-कुछ वंशानुगतता का गुण वहां भी पाया जाता है.एक विश्लेषण के अनुसार देश की पूरी राजनीति का संचालन सिर्फ ५००० परिवार और उससे जुड़े लोग कर रहे हैं.क्या सामंतवाद अथवा राजतन्त्र इससे अलग होता था?इतना ही नहीं तब भी अधिकतर राजाओं और सामंतों का देश और देश की जनता से कोई लेना-देना नहीं होता था और वे भोग-विलास में लगे रहते थे.आज भी कमोबेश वही स्थिति है नेता सुख भोगने और धन अर्जित करने में लगे हैं.यह किस तरह सामंतवाद से अलग है और अगर प्रजातंत्र है तो कैसे है?अंत में मैं कहना चाहूँगा कि इन परिस्थितियों के लिए सिर्फ नेता ही दोषी नहीं हैं उनसे ज्यादा दोषी जनता है.जहाँ राजतन्त्र में यथा राजा तथा प्रजा का नियम लागू होता था प्रजातंत्र में यथा प्रजा तथा राजा का नियम लागू होता है.अंततः नेताओं को चुनते तो हम मतदाता ही हैं.हम क्यों लालच में आकर अयोग्य उम्मीदवारों को वोट देते हैं और फ़िर पॉँच सालों तक रोते रहते हैं?पॉँच साल बाद फ़िर से वही गलती दोहराते हैं और फ़िर से पॉँच साल तक अरण्य-रोदन.यह हमारे ही हाथों में है कि देश में वास्तविक प्रजातंत्र कैसे आये और देश पर से चंद परिवारों और धनबलियों व बाहुबलियों का राज कैसे समाप्त हो.फ़िर हम क्यों नहीं अपने स्वार्थ में मतदान करने के बदले देशहित को ध्यान में रखते हुए मतदान करते हैं?
Posted by ब्रजकिशोर सिंह 1 comments
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24.6.10
परिवार टुडे की मशीन का पूजन !
Posted by RAVI SHEKHAR 0 comments
परिवार
परिवार टुडे की मशीन का पुजन
ग्वालियर से शीघ्र प्रकाशित परिवार ग्रुप का समाचार पत्र "परिवार टुडे "की मशीन पूजन बाराघाता स्थित प्लांट पर महंत श्री श्री १००८ रामदास जी महाराज दंदरोवा सरकार ने किया !इस अवसर पर परिवार ग्रुप के एमडी परिवार श्री राकेश नरवरिया ,चेयरमेन बसंत शर्मा , डायरेक्टर राज कलेक्टर ,ऐ जी एम अब्बास जी ,एडिटर बालेन्दु मिश्र ,एन ई प्रदीप तोमर ,सब एडिटर रवि शेखर, मार्केटिंग मेनेजर यश जादोन सिटी हेड विवेक श्रीवास्तव ,रीजनल हेड राजीव सक्सेना ,डीटी पी हेड धर्मेन्द्र तोमर ,वरिष्ठ पत्रकार अनिल अरोरा सहित समस्त स्टाफ और परिवार ग्रुप उपस्थित था !
Posted by RAVI SHEKHAR 0 comments
किशोरी की गला रेतकर हत्या
भदोही/उत्तरप्रदेश: जनपद के कोइरौना थानान्तर्गत निबिहा गाव में बुधवार की रात एक १५ वर्षीय किशोरी की गला रेतकर हत्या कर दी गयी, गुरुवार की सुबह लोगो ने किशोरी का शव पास के बगीचे में देखा तो हडकंप मच गया, सूचना पाकर मौके पर पहुंची पुलिस मामले की जाँच कर रही है.शव को पोस्ट मार्टम के लिए भेज दिया गया है.
जानकारी के अनुसार गुरुवार की सुबह लोग शौच के निकले तो पास के बगीचे में देखा ब्रिजलाल यादव की १५ वर्षीय पुत्री रेखा देवी का शव बगीचे में पड़ा था, उसकी गर्दन किसी धारदार हथियार से काती थी जो आंशिक रूप से जुडी थी. शव मिलते ही पूरे गाव में हडकंप मच गया, लोंगो की भीड़ घटना स्थल पर जमा हो गयी. सूचना पाकर मौके पर पहुंची पुलिस शव को कब्जे में लेकर जाँच में जुट गयी. घटना का खुलासा करने की जिम्मेदारी एस ओ जी प्रभारी फरीद अहमद खान को दी गयी है. अभी तक हुयी जाँच में किशोरी की माँ की आशनाई सामने आयी है. चर्चा है की उसकी माँ की आशनाई किसी से थी. संभवतः रात को वह अपने प्रेमी से मिलने गयी होगी जिसका पीछा किशोरी ने किया होगा, अपना भांडा फूटने के डर से किशोरी की हत्या कर दी गयी. फ़िलहाल गाव में हो रहे इस चर्चे को आधार मानकर भी पुलिस जाँच कर रही है. साथ ही दूसरी सम्भावना पर भी जाँच चल रही है.
बता दें की कोइरौना थाना क्षेत्र में डेढ़ माह के अन्दर यह तीसरी हत्या है. डेढ़ माह पूर्व इंजीनियरिंग के छात्र देवेन्द्र उर्फ़ बाबा सिंह की हत्या आशनाई के चक्कर में गोली मरकर की गयी थी. इसके पूर्व जिला पंचायत सदस्य लालजी पाल की हत्या जमीन विवाद में की गयी है. उसके बाद यह तीसरी घटना है. जिसकी जाँच पुलिस कर रही है. फ़िलहाल अटकलों का बाज़ार गर्म है.
Posted by हरीश सिंह 1 comments
---- चुटकी----
बस !
ओनर किलिंग
मत करो यारो,
वैसे चाहो
जिसको मारो।
Posted by गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर 0 comments
23.6.10
बस प्यार नहीं खरीदा जा सकता
ये दोनों भाई हमें जानें यह जरूरी नहीं, लेकिन हम में से ज्यादातर लोग इन्हें जानते हैँ। लगभग हर महीने एकाध बार मुकेश और अनिल अंबानी की संपत्ति, इनके वेतन, बंगला निर्माण, मंदिर दर्शन के दौरान भारी भरकम दान, समाजसेवा के कार्य आदि को लेकर कुछ ना कुछ पढऩे-सुनने में आता ही रहता है। अंबानी बंधुओं की संपत्ति की खबरों से अधिक हममें से ज्यादातर लोगों को इस बात ने सुकून दिया है कि सुबह के भूले शाम को घर आ गए। ये अलग थे तब और अब एक हो गए तो भी हम में से तो किसी का भला होना नहीं लेकिन इस एक केस स्टडी से हमें यह तो समझ ही लेना चाहिए कि अकूत संपत्ति से भी बढ़कर कोई अनमोल चीज है तो वह है भाइयों, परिवार के बीच का प्यार।
झोपड़ी में रहने वाले दो निरक्षर भाइयों के बीच मतभेद की यही स्थिति रही होती तो संभवत: इनमें से कोई एक दूसरी दुनिया में और दूसरा भाई सींखचों के पीछे होता। सम्पन्न और संस्कारिक भाइयों को यह बात जल्दी ही समझ आ गई कि सब कुछ होते हुए भी पे्रम का अभाव है। मुझे तो यह समझ आया कि पैसे से प्रेम प्रदर्शित करने वालों की फौज तो खड़ी की जा सकती है फिर भी पे्रम नहीं खरीदा जा सकता। कहने को यह भी कहा जा सकता है कि पैसा कमाने की ऐसी होड़ भी क्या कि अंधी दौड़ में एक ही कोख से जन्में दो भाई एक दूसरे को फूटी आंख न सुहाए।
कहा भी तो है एक लकड़ी को तो आसानी से तोड़ा जा सकता है लेकिन जब लकडिय़ों का ढेर हो तो कुल्हाड़ी के वार भी बेकार साबित हो जाते हैं। अंगुलियां जब एक होकर मुट्ठी में बदल जाती हैं तो उस घूंसे की चोंट ज्यादा प्रभावी होती है। बिखरा हुआ परिवार सबकी अनदेखी, हंसी का पात्र भी बनता है। परिवार के बीच बहती प्रेम की नदी ही सूख जाए तो हिलोरे मारता अथाह संपत्ति का समुद्र भी किस काम का। पैसा होना चाहिए लेकिन पैसा ही सब क ुछ हो जाए तो भी महल से लेकर झोपड़ी तक भूख मिटाने के लिए तो रोटी ही चाहिए। फ र्क है भी तो इतना कि अमीर आदमी रोटी पचाने के लिए दौड़ता है और गरीब रोटी कमाने के लिए भागता रहता है। रोटी चाहे घी में तरबतर हो या रूखी-सूखी, वह तभी अच्छी लगती है जब परिवार के सभी सदस्यों के बीच प्यार हो, परिवार में मतभेद हो तो भाई लोग अपने कमरे में बैठकर चाहे रसमलाई ही क्यों ना खाएं वह भी बेस्वाद लगती है।। एक कतरा प्यार पाने के लिए पैसों का पहाड़ खड़ा किया जाए यह जरूरी नहीं है। रोटी से पहले गोली खाना पड़े, नींद भी बगैर गोली खाए नहीं आए तो मान लेना चाहिए हमारे तन,मन और मानसिकता में विकार पैदा हो गए हैं और बुजुर्गों से जो संस्कार हमें मिले थे उनका हम हमारे स्वार्थों, सुविधा के मुताबिक पालन कर रहे हैं।
Posted by कीर्ति राणा 0 comments
देवदूत नहींथे राजीव गांधी
राजीव गांधी की आलोचना को अपराध बताने के कांग्रेस के रवैये पर हैरत जता रहे हैं राजीव सचान
भोपाल गैस त्रासदी को लेकर गठित मंत्रियों के समूह ने प्रधानमंत्री को अपनी रपट सौंप दी। इस रपट की सिफारिशों पर चाहे जितनी तत्परता और दृढ़ता से अमल किया जाए उस क्षति की भरपाई होने वाली नहीं है जो गैस पीडि़तों की 25 वर्ष तक अनदेखी के कारण हुई? इस अनदेखी के लिए भारतीय लोकतंत्र के तीनों प्रमुख स्तंभ-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका समान रूप से जिम्मेदार हैं। यदि इन तीनों में से किसी ने गैस पीडि़तों के प्रति अपनी न्यूनतम जिम्मेदारी का निर्वाह किया होता तो शायद 7 जून 2010 को भारत को शर्मिदगी नहीं झेलनी पड़ती। इस दिन भोपाल की अदालत ने गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार माने जाने वाले लोगों को जो सजा दी उससे भारत न केवल अपने, बल्कि दुनिया के लोगों की नजरों में भी शर्मसार हुआ। वस्तुत: इस दिन भारत कलंकित हुआ। यह कलंक आसानी से धुलने वाला नहीं-भले ही वारेन एंडरसन को भारत लाकर सलाखों के पीछे क्यों न भेज दिया जाए। एक तो ऐसा करना सहज संभव नहीं और यदि लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद एंडरसन को भारत लाने में सफलता मिल भी जाती है और तब तक वह जीवित बना रहता है तो उसे कोई कठोर सजा शायद ही दी जा सके। यदि ऐसा हो भी जाए तो लाखों गैस पीडि़तों को राहत नहीं मिलने वाली। दरअसल संतोष तो तब होता जब गैस पीडि़तों को मामूली राहत देकर उनके हाल पर नहीं छोड़ दिया जाता और एंडरसन एवं अन्य लोगों को घटना के चार-छह वर्ष के अंदर पर्याप्त सजा सुना दी जाती। दुर्भाग्य से ये दोनों काम नहीं हुए। गैस पीडि़तों की अनदेखी उतनी ही पीड़ादायक है जितना यह देखना-सुनना कि गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार लोगों को 25 साल बाद दो-दो साल की सजा जमानत के साथ मिली और ऐसे लोगों में एंडरसन का नाम शामिल न होना। संभवत: देश में गुस्से की लहर इसलिए उमड़ी, क्योंकि अदालत के फैसले के साथ ही उसे यह पता चला कि एंडरसन को गुपचुप रूप से रिहा करने के बाद ससम्मान दिल्ली भेजा गया ताकि वह आसानी से अमेरिका जा सके। जब देश में गुस्से की लहर थी तब केंद्रीय सत्ता गैर जिम्मेदारी और राजनीतिक अपरिपक्वता का अभूतपूर्व प्रदर्शन कर रही थी। यह शर्मनाक प्रदर्शन अभी भी जारी है और सिर्फ इसलिए कि एडंरसन के बाहर जाने में राजीव गंाधी का नाम सामने आ रहा है। कांग्रेस के नेताओं ने इसके लिए पूरी ताकत लगा रखी है कि किसी तरह राजीव गांधी का नाम न उछलने पाए। पार्टी के प्रवक्ता से लेकर केंद्रीय मंत्री तक ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे राजीव गांधी ईश्वरीय अवतार हों और उनकी आलोचना करना ईशनिंदा करने के समान हो। जिन लोगों ने यह कहा अथवा संकेत भी किया कि एंडरसन की फरारी में राजीव गांधी की सहमति रही होगी उन्हें स्वार्थी और झूठा ही नहीं, बल्कि राष्ट्रविरोधी तक कहा गया। कांग्रेस का नजला अभी भी उन सब पर गिर रहा है जो एंडरसन की फरारी में तत्कालीन केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह यह अच्छी तरह बता सकते हैं कि एंडरसन को किसके इशारे पर छोड़ा गया, लेकिन वह सार्वजनिक रूप से कुछ कहने से बच रहे हैं। किसी स्वाभिमानी और जनता के प्रति जवाबदेह शासन वाले देश में अर्जुन सिंह या तो अब तक गिरफ्तार कर लिए गए होते अथवा उन्हें सच बयान करने के लिए विवश किया जा चुका होता। यह मजाक नहीं तो और क्या है कि अर्जुन सिंह यह कह रहे हैं कि वह सारी सच्चाई अपनी आत्मकथा में बयान करेंगे? वह कुछ भी कहें, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि एंडरसन गिरफ्तार होने के बाद रिहा होकर देश से बाहर चला जाए और प्रधानमंत्री को इसकी भनक तक न लगे। जो यह सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं कि एंडरसन की फरारी में राजीव गांधी की कोई भूमिका नहीं थी और न हो सकती थी वह या तो देश को बेवकूफ समझ रहे हैं या बेवकूफ बना रहे हैं। सच तो यह है कि इसे एक तथ्य के रूप में प्रचारित करना राजीव गांधी के लिए कहीं अधिक अहितकर है कि उनकी जानकारी के बगैर एंडरसन देश से निकल गया। यदि एंडरसन की फरारी के पीछे केंद्र सरकार की कहीं कोई भूमिका नहीं थी, जैसा कि कांग्रेस साबित करना चाहती है तो इसका मतलब है कि अमेरिका ने तत्कालीन केंद्रीय सत्ता को दरकिनार कर मध्य प्रदेश शासन को अपने दबाव में ले लिया। यदि ऐसा कुछ हुआ था तो यह तत्कालीन केंद्रीय सत्ता के लिए और अधिक शर्मनाक है। आखिर कांग्रेस को अपनी गलती मानने में इतना कष्ट क्यों हो रहा है? क्या राजीव गांधी कोई गलती नहीं कर सकते थे? जब गांधी जी और नेहरू जी की उनकी गलतियों के लिए आलोचना की जा सकती है तो फिर राजीव गांधी की क्यों नहीं? क्या यह कहना सही होगा कि बतौर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो कोई गलती की ही नहीं? क्या श्रीलंका में भारतीय सेनाओं को भेजने का उनका निर्णय विवादास्पद नहीं था? क्या वह प्रेस को दबाव में लाने के लिए मीडिया पर केंद्रित एक मानहानि विधेयक लाने नहीं जा रहे थे? सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने वाले लोगों को अपनी आलोचना सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए। हालांकि भारतीय परंपरा में यह एक तरह से निषेध है कि गुजरे हुए लोगों की आलोचना करने से बचा जाता है, लेकिन यह कोई नियम नहीं है और इसका प्रमाण गांधी और नेहरू पर लिखी गईं वे तमाम पुस्तकें हैं जिनमें उनकी नीतियों और निर्णयों को लेकर तीखी आलोचना की गई है। चूंकि भोपाल गैस त्रासदी के बाद जो कुछ हुआ वह किसी त्रासदी से कम नहीं इसलिए तत्कालीन केंद्र और राज्य सरकारों को खेद प्रकट करने में संकोच नहीं करना चाहिए। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार :- दैनिक जागरण
Posted by V I C H I T R A 1 comments