न्याय की अंधी देवी, तुझको श्रद्धा सुमन चढाता हूँ,
तेरी वन्दना नित करता हूँ, तेरे चरणों शीस झुकाता हूँ .........
सरे आम चौराहों पर, मुझे करते कत्ल नही लगता डर,
तू उतना ही देखती बस, जितना तुझे दिखाता हूँ .........
मैं अपहरण करता, डाके डालता, करता चोरी बलात्कार,
तेरी कमजोरी से ताकत ले, नित नई कलियाँ रोंदे जाता हूँ.........
तू अंधी ये बात अलग, पर तेरे सेवक भी बिकाऊ हैं,
इसी का फायदा उठा तेरे घर, बेखटके घुस आता हूँ .........
तारीखे बस तारीखे, कुछ बिगड़ेगा नही मैं जानता हूँ,
कर २६/११ सरेआम, लोगों को, मौत की नींद सुलाता हूँ .........
लाखों खुली आँखों पर, तेरे बंद दो नैना भरी हैं,
तेरी अन्धता के चलते ही, नित नये पाप कर पाता हूँ .........
हेमंत करकरे जैसों को, सरेआम मौत मैंने दी है,
तेरे नपुंसक क़ानून के चलते, जेल मैं मजे उडाता हूँ .........
31.10.10
*******तेरे नपुंसक क़ानून के चलते, जेल मैं मजे उडाता हूँ
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आपरेशन अरूंधती
उत्तराखण्ड राज्य में प्रतिबंधित जड़ी बुटियों के अवैध कारोबार के खिलाफ आपरेशन अरूंधती में वन विभाग ने बदरीनाथ में पांच किलो से अधिक जड़ी बुटियां बरामद की। प्रतिबंधित जड़ी बुटियों के अवैध कारोबार के खिलाफ चले आपरेशन अरूंधती में नन्दादेवी राष्ट्रीय पार्क के सहायक वन संरक्षक आईएस नेगी के नेतृत्व में वन विभाग ने बदरीनाथ में अवैध कारोबारियों के विरूद्ध छापामारी अभियान चलाया। अभियान के दौरान पारस आर्युवेदाश्रम डोईवाला की तीर्थ स्थित खुदरा दुकानों व फेरीवालों से करीब 5 किलो से अधिक मात्रा में केदार कड़वी, बालछड़, सफेद मूसली व दारू हल्दी, तेजमल व भोजपत्र आदि प्रतिबंधित जड़ी बुटियां बरामद की। यही नहीं प्रतिबंधित जड़ी बुटियों की बिक्री के वैध कागजात और लाइसेंस प्रस्तुत न करने की स्थिति में सहायक वन संरक्षक ने वन अधिनियम 1927 (यथा संशोधित 2001) के तहत आर्युवेदाश्रम की दुकान का चालान काटा। सहायक वन संरक्षक नेगी ने बताया कि समूचे राज्य में जारी आपरेशन अरूंधती के तहत जोशीमठ में डीएफओ एसआर प्रजापति के नेतृत्व में भी अभियान चलाया गया है।
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आपके अपने संस्कृत जाल पृष्ठ संस्कृतं भारतस्य जीवनं पर इस माह प्रस्तुत किये गए लेखों कि सूची प्रस्तुत कर रहा हूँ
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भूमि वर्गः
भ्रष्टाचार छद्म निरोधनं
एका आवश्यकी सूचना ।।
सन्देश
वर्तमान कालस्य कृतानां क्रियाणां वाक्यानां निर्माणप्रक्रिया ।।
--भवदीय: - आनन्द:
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Deewali- An Analysis
कार्तिक अमावस्या पर दीप प्रज्ज्वलन की परम्परा अविस्मरणीय काल से सम्पूर्ण भारतवर्ष में जानी मानी जाती रही है। यही कारण है कि प्रतिवर्ष उत्साहपूर्वक मनाए जाने वाले इस पर्व को दीवाली-दीपावली के नाम से पुकारा गया। इस पर्व को उत्सव के रूप में मनाए जाने के उत्साह में आतिशबाजी-मिठाई आदि इससे जुड़ते चले गए, यह इतिहाससिद्ध है। यही कारण है कि भारतीय शिक्षा में विभिन्न भाषाओं की शिक्षा में विद्यालय स्तर पर निबन्ध लेखन में दीवाली एक महत्वपूर्ण विषय के रूप में स्वीकृत हुआ। किन्तु दीवाली पर निबन्ध की विषयवस्तु में प्राय पूरे भारत में भगवान राम के चौदह वर्षों के वनवास के उपरान्त इस दिन अयोध्या वापसी को ही इस पर्व के मूल में जानने की परम्परा का विकास हुआ है।
भारत के बुद्धिराक्षस सैकुलरों द्वारा पुन: पुन: राम व रामकथा पर प्रश्नचिह्न लगने के इस संक्रमण काल में राम से जुड़े आक्षेपों की जांच करने के कारण मन हुआ कि दीपावली उत्सव के राम से सम्बन्ध की पुष्टि करूं। इसके परिणामस्वरूप जो तथ्य मेरे समक्ष आए उनके कारण मेरे मन में इस पर्व का महत्व और अधिक पुष्ट हुआ है।
यहां चौंका देने वाला तथ्य यह है कि वाल्मीकि रामायण अथवा तुलसी रामचरितमानस में राम की अयोध्या वापसी की तिथि का वर्णन नहीं है तथा न ही अयोध्यावासियों द्वारा दीपमाला करने का संदर्भ। युद्धकांड के १२५वें सर्ग के २४वें श्लोक में ऋषि वाल्मीकि ने हनुमान-निषादराज गुह संवाद प्रस्तुत किया है। हनुमान जी निषादराज को कहते हैं,"वे भगवान राम आज भरद्वाज ऋषि के आश्रम (प्रयाग) में हैं तथा आज पंचमी की रात्रि के उपरान्त कल उनकी आज्ञा से अयोध्या के लिये प्रस्थान करेंगे, तब मार्ग में आपसे भेंट करेंगे।" इसमें मास अथवा पक्ष का उल्लेख न होने से केवल इतना ही विदित होता है कि भगवान राम के वनवास से अयोध्या लौटने की तिथि षष्ठी रही होगी। अभिप्राय यह कि यह तिथि किसी भी प्रकार् अमावस्या नहीं है, अस्तु। किन्तु इससे कार्तिक अमावस्या व अयोध्या की दीपमालिका की लोकोक्ति असत्य सिद्ध नहीं होती, अपितु ऐसा प्रतीत होता है कि त्रेता युग में राम की अयोध्या वापसी से पूर्व कार्तिक अमावस्या पर दीप प्रज्ज्वलन की परम्परा समाज में थी, किन्तु राम की लंका विजयोपरान्त अयोध्या वापसी को अयोध्या वासियों ने अधिक उत्साहोल्लास से प्रकट किया जिससे सम्भवत: दीवाली की जनश्रुति राम के साथ जुड़ गई।
दीपावली का मूल कहां है, निश्चित रूप से कह पाना कठिन है, किन्तु इस पर्व से जुड़े ऐतिहासिक प्रमाणों पर दृष्टिपात से हमारे दीवाली सम्बन्धी ज्ञान में तो वृद्धि होगी ही। आइए प्रयास करें।
स्कन्दपुराण, पद्मपुराण व भविष्यपुराण में इसके सम्बन्ध में भिन्न भिन्न मान्यताएं हैं। कहीं महाराज पृथु द्वारा पृथ्वी का दोहन करके अन्न धनादि प्राप्ति के साधनों के नवीकरण द्वारा उत्पादन शक्ति में विशेष वृद्धि करके समृद्धि व सुख की प्राप्ति के उल्लास में इस पर्व का वर्णन है तो कहीं कार्तिक अमावस्या के ही दिन देवासुरों द्वारा सागर मन्थन से लक्ष्मी के प्रादुर्भाव के कारण जनसामान्य में प्रसन्नतावश इसके मनाए जाने का उल्लेख है।
सनत्कुमार संहित के अनुसार एक बार दैत्यराज बलि ने समस्त भूमण्डल पर अधिकारपूर्वक लक्ष्मी सहित सम्पूर्ण देवी देवताओं को अपने कारागार में डाल दिया तथा इस प्रकार एकछत्र शासन करने लगा। लक्षमी के अभाव में समस्त संसार क्षुब्ध हो उठा, यज्ञ आदि में भी विघ्न उपस्थित होने लगा। तब देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने वामन रूप धर कर उस पराक्रमी दैत्य पर विजय प्राप्त की तथा लक्ष्मी को उसके बन्धन से मुक्त किया। इस अवसर पर जनसामान्य का उल्लास स्वभाविक ही था अत: दीपप्रकाश किया गया होगा। इस ऐतिहासिक आख्यान का यह अर्थ हो सकता है कि दैत्यराज बलि ने प्रजा का धन वैभव कर के रूप में लूट कर् राजकोष में डाल दिया हो तथा वामन रूपी भगवान विष्णु ने बलि पर विजय प्राप्त कर उसका वध करके प्रजा को उसका धन लौटा दिया हो जिसके फ़लस्वरूप आर्थिक लाभ की प्रसन्नता में जनसामान्य ने लक्ष्मी पूजन किया हो।
इसके अतिरिक्त द्वापर युग में कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन भग्वान कृष्ण द्वारा नरकासुर का वध करके उसके बन्दीगृह से १६००० राजकन्याओं का उद्धार करने पर मथुरावासियों ने अमावस्या पर अपनी प्रसन्नता दीप जला कर प्रकट की। महाभारत के आदिपर्व में पाण्डवों के वनवास से लौटने पर प्रजाजनों द्वारा उनके स्वागत में उत्सव मनाए जाने का उल्लेख है, जिससे दीवाली का सम्बन्ध जुड़ता है।
कल्पसूत्र नामक जैन ग्रन्थानुसार कार्तिक अमावस्या के ही दिन २४वें जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अपनी ऐहिक लीला का संवरण किया। उस् समय देश देशांतर से आए उनके शिश्यों ने निश्चय किया कि ज्ञान का सूर्य तो अस्त हो गया, अब दीपों के प्रकाश से इसे उत्सव के रूप में मनाना चाहिए।
ऋषि वात्स्यायन अपने ग्रन्थ कामसूत्र में इसको यक्षरात्रि के नाम से स्मरण करते हैं। सम्राट हर्षवर्धन के समकालीन नीलमतपुराण नामक ग्रन्थ में ‘कार्तिक अमायां दीपमालावर्णनम्’ नाम से एक् स्वतन्त्र अध्याय ही है।
सिख सम्प्रदाय के प्रवर्तक गुरु नानक देव जी को बाबर ने इस्लाम न मानने के कारण कारावास में डाल दिया। गुरु जी के अनेक शिष्यों ने दीपशलाकाओं को हाथ में उठाए कारावास के बाहर विशाल प्रदर्शन किया जिससे भयभीत हो बाबर ने उन्हें छोड़ दिया। गुरु जी की मुक्ति पर उनके शिष्यों ने प्रकाशोत्सव मनाया, इसे दीवाली कहा गया। मुग़ल सम्रात जहांगीर ने सिख सम्प्रदाय की छठी पाद्शाही के पद पर आसीन गुरु हरगोविन्द जी को ५२ हिन्दु राजाओं के साथ कारावास में डाल दिया। शिष्यों के व्यापक विद्रोह से वशीभूत जहांगीर ने गुरु जी को छोड़ने का निर्णय लेना पड़ा, किन्तु गुरु जी ने अपने साथ अन्य सभी राजाओं की मुक्ति की शर्त रखी जिसे अन्तत: बादशाह को स्वीकार करना पड़ा तथा अन्य राजाओं के साथ गुरु जी की मुक्ति पर हिन्दु (सिख) समाज ने श्रीहरिमन्दिर अमृतसर में प्रकाशोत्सव किया। इसे सिख इतिहास में बन्दी छोड़ दिवस कहा गया है। श्री हरिमन्दिर अमृतसर के मुख्य ग्रन्थी भाई मणि सिंह ने दीवाली के दिन १७३७ ई. में मन्दिर में उपस्थित सिख समुदाय के समक्ष इस्लामी शासन द्वारा लगाया जज़िया देने के विरोध की घोषणा की, जिसके फलस्वरूप पंजाब के सूबेदार ज़कारिया खान द्वारा भाई मणि सिंह को क्रूरतापूर्वक उनके अंगप्रत्यंगों को काट काट कर निर्दयता से मृत्युदंड दिया गया।
इस समस्त चर्चा से एक बात तो स्पष्ट है कि दीवाली का पर्व आदिकाल से भारत व भारतवंशियों में अत्यन्त लोकप्रिय रहा, कालक्रम से अनेकों घटनाएं व जनश्रुतियां इससे जुड़ती चली गईं व इसको मनाने के स्वरूप में द्यूत-मद्यपान जैसी कुरीतियां भी अपना स्थान पाती गईं, किन्तु इसको मनाने के उत्साह में उत्तरोत्तर वुद्धि ही हुई है।
यही सार्वदेशिक परम्पराएं अपने राष्ट्र की सांस्कृतिक ऐक्य का दर्पण हैं। कुरीतियों से बचते हुए अपने पर्वों-तीर्थों-प्राकृतिक संसाधनों पर श्रद्धापूर्वक परम्पराओं के निर्वहण से हम राष्ट्रीय एकता में अपना सार्थक योगदान दे सकते हैं तथा हिन्दुओं पर आक्षेप करने वालों का मार्ग अवरुद्ध कर सकते हैं।
डॉ. जय प्रकाश गुप्त, अम्बाला
+९१-९३१५५१०४२५
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छत्तीसगढ़ का गुप्त प्रयाग, शिवरीनारायण
राज कुमार साहू, जांजगीर छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़ के गुप्त प्रयाग के नाम से दर्षनीय स्थल षिवरीनारायण को जाना जाता है और इस धार्मिक नगरी को छग षासन द्वारा टेंपल सिटी घोशित किया गया है। वैसे तो इस आस्था के केन्द्र की पहचान प्राचीन काल से है, लेकिन धार्मिक नगरी घोशित होने के बाद इसकी प्रसिद्धि और ज्यादा बढ़ गई।छत्तीसगढ़ के कई धार्मिक नगरी और पुरातन स्थलों में दषकों से मेला लगता आ रहा है। मेले में खेल-तमाषे के अलावा सिनेमा पहुंचता है, जो लोगों के प्रमुख मनोरंजन के साधन होते हैं। साथ ही मेले में समाप्त होते-होते षादी विवाह का दौर षुरू हो जाता है। वैसे तो मेले के आयोजन की विरासत दषकों से छत्तीसगढ़ में षामिल हैं, जो परिपाटी अब भी जारी है। जांजगीर-चांपा जिले में बसंत पंचमी के दिन से कुटीघाट में पांच दिवसीय मेला षुरू होता है। इसके बाद छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा माने जाने वाल षिवरीनारायण मेला, माघी पूर्णिमा से प्रारंभ होता है, जो महाषिवरात्रि तक चलता है। इस बीच जिले के अनेक स्थानों में मेला लगता है और अंत धूल पंचमी के समय पीथमपुर के महाकलेष्वर धाम में लगने वाले मेले के साथ समाप्त होता है। इस मेले में भगवान षिव की बारात में बड़ी संख्या में नागा साधु षामिल होते हैं। इन स्थानों में लगने वाले मेलों में दूसरे राज्यों से भी लोग पहुंचते हैं और यहां की विरासत तथा इतिहास से रूबरू होते हैं। दूसरी ओर महाषिवरात्रि पर्व के दिन प्रदेष का सबसे बड़े एकदिवसीय मेले का अयोजन छग की काषी खरौद लक्ष्मणेष्वर धाम में होता है, जहां श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है और लोगों की आस्था देखते ही बनती है। भक्त कई घंटों तक कतार में लगकर भगवान षिव के एक दर्षन पाने लालायित रहते हैं। इधर हर वर्श माघी पूर्णिमा से षिवरीनारायण में लगने वाले मेले में उड़ीसा, मध्यप्रदेष, उत्तरप्रदेष, महाराश्ट्र, झारखंड तथा बिहार समेत कई राज्यों के दर्षनार्थी आते हैं और माघी पूर्णिमा पर महानदी के त्रिवेणी संगम में होने वाले षाही स्नान में सैकड़ों की संख्या में जहां साधु-संत षामिल होते हैं, वहीं हजारों की संख्या में दूरस्थ क्षेत्रों से आए श्रद्धालु भी इस पावन जल पर डूबकी लगाते हैं। माघी पूर्णिमा के स्नान को लेकर मान्यता है कि माघ मास में दान कर त्रिवेणी संगम में स्नान करने से अष्वमेध यज्ञ करने जैसा पुण्य मिलता है और कहा जाता है कि इस माह की हर तिथि किसी पर्व से कम नहीं होता। इस दौरान किए जाने वाले दान का फल दस हजार गुना ज्यादा मिलता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। षिवरीनारायण को पुरी में विराजे भगवान जगन्नाथ का मूल स्थान माना जाता है और मान्यता है कि भगवान जी माघी पूर्णिमा के दिन यहां विराजते हैं। यही कारण है कि श्रद्धालुओं की आस्था यहां उमड़ती हैं और वे चित्रोत्पला महानदी, षिवनाथ और जोंक नदी के त्रिवेणी संगम में स्नान कर भगवान जगन्नाथ के दर्षन करने पहुंचते हैं। षिवरीनारायण में कई दषकों से मेला लगता आ रहा है। 15 दिनों तक चलने वाले इस मेले की अपनी एक अलग ही पहचान है। अविभाजित मध्यप्रदेष के समय से षिवरीनारायण का यह मेला आकर्शण का केन्द्र रहा है, अब भी इसकी चमक फीकी नहीं पड़ी है। यही कारण है कि मेले को देखने और भगवान के दर्षन के लिए दूसरे राज्यों के दर्षनार्थी भी पहुंचते हैं। साथ ही विदेषों से भी लोग आकर भगवान की महिमा का गान करते हैं और इस विषाल मेले को देखकर मंत्रगुग्ध हो जाते हैं। षिवरीनारायण में भगवान षिवरीनारायण मंदिर के अलावा षिवरीनारायण मठ, केषवनारायण मंदिर, सिंदूरगिरी पर्वत, लक्ष्मीनारायण मंदिर, षक्तिपीठ मां अन्नपूर्णा, मां काली मंदिर षामिल हैं। यहां का भगवान षिवरीनारायण मंदिर का निर्माण कल्चुरी काल में हुआ था। ऐसा माना जाता है िकइस मंदिर की उंचाई, प्रदेष के सभी मंदिरों की उंचाई से अधिक है। मंदिर की दीवारें में उत्कृश्ट स्थापत्य कला की छठा दिखाई देती है, जो यहां पहुंचने वाले दर्षनार्थियों को अपनी ओर आकर्शित कर ही लेती है। यहां के प्राचीन षबरी मंदिर, जो ईट से बना है, इसमें की गई कलाकृति अब भी पुराविदों और इतिहासकारों के अध्ययन का केन्द्र बना हुआ है। सिंदूरगिरी पर्वत के बारे में कहा जाता है कि यहां अनेक साधु-संतों ने तप किया है और उनकी यह स्थान तप स्थली रही है। इस पर्वत से त्रिवेणी संगम का मनोरम दृष्य देखते ही बनता है। किवदंति है कि प्राचीन काल में जगन्नाथ पुरी जाने का यह मार्ग था और भगवान राम इसी रास्ते से गुजरे थे तथा माता षबरी से जूठे बेर खाए थे। इस बात का कुछ प्रमाण जानकार बताते भी हैं। इसी के चलते षिवरीनारायण में लगने वाले मेले में उड़ीसा से आने वाला उखरा और आगरा से आने वाले पेठे की खूब मांग रहती है तथा इसकी मिठास को लेकर भी लोगों में इसे खरीदने को लेकर उत्सुकता भी देखी जाती है। षिवरीनारायण पुराने समय में तहसील मुख्यालय था और इसकी भी अपनी विरासत है। साथ ही भारतेन्दुयुगीन साहित्य की छाप भी यहां पड़ी है और यह नगरी उस दौरान साहित्यिक तीर्थ बन गई थी। मेले के पहले दिन से ही रामनामी पंथ के लोगों का भी पांच दिवसीय राम नाम का भजन प्रारंभ होता है। पुरे षरीर में राम नाम का गोदमा गुदवाए रामनामी पंथ के लोग भगवान राम के अराध्य में पूरे समय लगे रहते हैं। इससे नगर में राम नाम का माहौल देखने लायक रहता है। षिवरीनारायण मेले के बारे में मठ मंदिर के मठाधीष राजेश्री महंत रामसुंदर दास का कहना है कि षिवरीनारायण में मेला का चलन प्राचीन समय से ही चला आ रहा है और यह छग का सबसे पुराना और बड़ा मेला है। इस मेले में दूसरे राज्यों के अलावा सैकड़ों गांवों के लाखों लोगों की भीड़ जुटती है। लोगों के मनोरंजन के लिए सर्कस, सिनेमा, मौत कुआं समेत अन्य साधन आकर्शण का केन्द्र रहते हैं। मेले की यह भी खासियत है कि यहां हर वह सामग्री मिल जाती है, जो दुकानों में नहीं मिलती। यही कारण है कि षिवरीनारायण मेले में लोगों द्वारा जमकर खरीददारी की जाती है। इसके अलावा षादी-विवाह की सामग्री भी लोग खरीदते हैं। उनका कहना है कि माघी पूर्णिमा से लगने वाले इस मेले के पहले दिन महानदी के त्रिवेणी संगम की निर्मल धारा पर लोग डूबकी लगाते हैं और खुद को धन्य महसूस करते हैं। इस दिन लाखों की संख्या में लोगों का आगमन षिवरीनारायण में होता है। पुरी से भी लोग आते हैं, क्योंकि भगवान जगन्नाथ एक दिन के लिए यहां विराजते हैं और वहां भोग नहीं लगता। साथ ही वहां के मंदिर के पट को भी बंद रखा जाता है। कुल-मिलाकर षिवरीनारायण के जगन्नाथ धाम में श्रद्धालु भगवान की भक्ति में रमे रहते हैं। माघी पूर्णिमा की सुबह भगवान षिवरीनारायण के दर्षन के लिए सैकड़ों किमी से श्रद्धालु जमीन पर लोट मारते मंदिर के पट तक पहुंचते हैं। माना जाता है कि ऐसा करने से जो भी मनोकामना होती है, वह पूरी होती है। माघी पूर्णिमा पर यहां आने वाले श्रद्धालुओं को कई स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा भोजन और नाष्ता प्रदान किया जाता है। षिवरीनारायण के नगर विकास समिति द्वारा पिछले कई बरसों से दूर-दूर से आने वाले भक्तों को भोजन कराने की व्यवस्था की जाती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि समिति द्वारा लगातार दो दिनों तक बिना रूके, भोजन प्रदान किया जाता है। एक पंगत के उठते ही दूसरी पंगत बिठा दी जाती है। इस तरह हजारों की संख्या में श्रद्धालु भोजन स्वरूप भगवान षिवरीनारायण का प्रसाद ग्रहण करते हैं। समिति के अध्यक्ष राजेष अग्रवाल का कहना है कि दूसरे राज्यों से भी भक्त आते हैं और सुबह से ही भूखे-प्यासे वे भगवान के दर्षन करने में लीन रहते हैं। इस तरह जब वे भगवान के दर्षन प्राप्त करने कर लेते हैं तो उन्हें भोजन कराकर आत्मीय तृप्ति मिलती हैं। उनका कहना है कि ऐसा पिछले कई वर्शों से किया जा रहा है, ऐसी परिपाटी आगामी समय में कायम रखी जाएगी।बहरहाल षिवरीनाराण में लगने वाले मेले की छाप अब भी वैसा ही बरकरार है, जैसे बरसों पहले थे। मेले में आने वाली लोगों की भीड़ की संख्या में बदलते समय के साथ जितना फर्क पड़ता है, वह नजर नहीं आता। हालांकि मेले और यहां हर बरस होने वाले महोत्सव को लेकर राज्य सरकार की बेरूखी जरूर नजर आ रही है और आयोजन पर पिछले बरस से विराम लग गया है। सरकार द्वारा सहयोगात्मक रवैया अपनाया जाता है तो इस प्राचीन मेले की पहचान को आगे भी कायम रखा जा सकता है।
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सिक्को से बन रहे गहने
अखिलेश उपाध्याय / कटनी
रिजर्व बैंक द्वारा एक, दो और पांच रूपये के सिक्के पर्याप्त संख्या में जारी किये जाने के बाद भी अंचल में चिल्लर का संकट दिन-प्रतिदिन गहराता जा रहा है. दुकानदारो ने 25 -50 पैसे को तो चलन से बाहर ही कर दिया है. इससे बाजार में सिक्को की खनक कम हो गई है. वही खुल्ले पैसो के अभाव में लोगो को जहा अनचाही वस्तुए अथवा अतिरिक्त सामग्री खरीदना पड़ती है. दुकानदारो द्वारा ग्राहकों के ऊपर इस कीमत का अतिरिक्त सामान लेने का दबाव आने लगा है. इसी तरह फुटकर दुकानदारो ने खुल्ले पैसे की जगह टाफिया देना आरम्भ कर दिया है. इसके साथ ही कतिपय दुकानदारो, व्यापारियों ने तो सरकार के सामानांतर अपनी निजी मुद्रा बतौर कूपन प्रचलित कर रखी है. इसी तरह किराना दुकान, सब्जी विक्रेता, चाय और पान के ठेला आदि ने ग्राहकों को खरीददारी के बाद एक या दो रूपये लौटाने के एवज में माचिस, गुटखा, पाउच, टाफी इत्यादि विकल्प तैयार कर रखे है. कतिपय होटल संचालको ने तो एक या दो रूपये के अपनी होटल के नाम के कूपन जारी कर रखे है. शहर में निजी मुद्रा का सरेआम चलन किया जा रहा है और प्रशासन इस ओर ध्यान नहीं दे रहा है.
गहनों में हो रहा उपयोग
सूत्रों के अनुसार कटनी अंचल में सराफा व्यवसाय से जुड़े एवं अन्य लोगो द्वारा सिक्को की कालाबाजारी का काम बड़े ही चालाकी पूर्वक किया जा रहा है. इनका उपयोग वह आभूषण बनाने में कर रहे है. जबकि अन्य प्रदेशो में 25 एवं 50 पैसे के सिक्के आज भी चलन में है. अर्थ व्यथा के नियम के अनुसार प्रत्येक 20 वर्ष में प्रचलित पुराने सिक्को का मूल्य नए सिक्को से ज्यादा हो जाता है. सिक्के आभूषण और अन्य वस्तुओ के काम आने लगते है. इससे निपटने के लिए आर बी आई की कोई तैयारी नहीं होती. पुराने सिक्को के बदले नए सिक्के बाजार में जल्दी नहीं लाये गए तो यह समस्या गंभीर रूप ले सकती है.
शहर में सब्जी विक्रेताओं का कहना है की उन्हें अपने धंधे में रेजगारी की मजबूरी के चलते 80 रूपये के बराबर ऐसे सिक्के के लिए 100 रूपये देने पड़ रहे है. वही बेकरी, दवाई व परचून की दुकानों पर ग्राहक कोई सामान खरीदता है तो दुकानदार उसे 5 रूपये से कम लौटाने को तैयार नहीं होता. वे एक, दो, तीन, चार रूपये के बकाया को सिक्को या नोटों के बदले चुकाने की बजाय या तो कोई सामान दे देते है या फिर सामान देने से ही मना कर देते है वही 25 -50 पैसे के बदले में टाफी थमा दी जाती है. शराफा बाजारों के आलावा शहर के अन क्षेत्रो में भी पुराने सिक्को से धातु निकालकर गहने बनाने का काम धड़ल्ले से जारी है.
100 के सिक्के 180 रूपये में
सराफा बाजार में एक रूपये के सौ सिक्के 165 से 180 रूपये तक में बिक रहे है. इन सिक्को को गलाकर सराफा व्यवसाय से जुड़े लोगो द्वारा पायजेबी, अगूठी और विछिया बनाये जा रहे है. इसका एक प्रमुख कारण यह है की इन सिक्को से निकलने वाला स्टील एवं निकिल उच्च श्रेणी का होता है. वही इनसे बने आभूशनो की चमक चांदी के समान ही रहती है. दूसरा प्रमुख कारण पिछले कुछ महीनो से दोनों कीमती धातुओ के भाव में आया जबरदस्त उछाल है. इस वजह से सोने-चाँदी के आभूषण गरीब और मध्यम वर्ग की पहुच से बाहर होते जा रहे है. ऐसे में बढती महगाई के इस ज़माने में यदि कोई चीज सस्ती मिलती है तो आम आदमी उसी ओर जल्दी आकर्षित होता है.
शासन प्रशासन नाकाम
सरकार के लिए छोटी कीमत वाली मुद्रा की व्यस्था काफी कठिन साबित हो रही है. एक और दो रूपये के कागजी नोटों की छपाई तो सरकार ने लगभग बंद कर रखी है. इसके दो कारण है एक तो कागजी मुद्रा की उम्र ज्यादा लम्बी नहीं होती, वही महगा कागज और छपाई की लागत अंकित मुद्रा से कई गुना ज्यादा होती है. इस कारण सरकार ने काफी पहले ही एक दो और पांच के नोटों की जगह सिक्को को बढ़ावा देने की नीति अपना ली थी. एक, दो रूपये के सिक्को की किल्लत की वजह इनमे प्रयुक्त धातु का महगा होना है यानि सिक्को को गलाने पर धातु को बेचकर उनके अंकित मूल्य से अधिक कीमत मिल जाती है. सरकारी मुद्रा को जलाना और गलाना दोनों ही अपराध है पर सरकार इस गोरखधंधे को रोक पाने में अक्षम है.
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जग बौराना : शहीदों के कफनखसोट
लेखक: श्री नरेश मिश्र
साधो, ताली बजा कर इस सीनरी का स्वागत करो । देश के विकास का सब्जबाग दिखाने वाली कांग्रेस ने जनता के सामने मुखौटा हटा कर अपनी असली शक्ल दिखा दी । मैडम सोनिया गांधी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को मौत का सौदागर कहा था तो सारे कांग्रेसी चारण उनके अंदाजेबयां पर सौ जान से कुर्बान हो गये थे । यह बात दीगर है कि गुजरात की जनता को उनका बयान पसंद नहीं आया। उसने चुनाव में कांग्रेस को चारों खाने चित्त कर दिया ।
अब महाराष्ट्र मे बोतल से कांग्रेस का जिन्न बाहर निकल आया है । बोतल का ढक्कन तो उसी दिन खुल गया था जिस दिन महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष माणिक राव ने कैमरे पर कबूल किया था कि सोनियाजी की वर्धा रैली के लिये महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण से दो करोड़ की वसूली की गयी । चव्हाण ने कांख कांख कर कांग्रेस को दो करोड़ का यह जजिया अदा दिया ।
मीडिया में यह बातचीत उछली तो कांग्रेस हाईकमान ने माणिकराव को दिल्ली तलब कर लिया । शायद उन्हें आगाह किया गया कि कांग्रेस को इस तरह जनता के सामने बेपर्दा करना बेजा हरकत है । माणिक राव बात करने से पहले आस-पास नजर डाल लिया करें । दीवारों के भी कान होते हैं । कैमरा दीवार से ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि उसकी आंख भी होती है । वह सिर्फ सुनता ही नहीं देखता भी है ।
देशवासियों को बताया गया कि इस मामले में गहराई से जांच हो रही है । जांच का बहाना जरूरी था । बिहार में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं । इसलिये मुर्दे को कालीन में छिपा कर रखने में ही दानिशमंदी थी । लेकिन मुर्दा तो मुर्दा ठहरा । उसे नजरों से छिपाया जा सकता है लेकिन उसकी गंध पर काबू नहीं पाया जा सकता । गरज ये कि गंध बेपनाह उड़ कर देशवासियों के नथुने में भर गयी ।
मामला मुंबई के कोलाबा स्थित आदर्श हाउसिंग सोसायटी का है । जिस जमीन पर सोसायटी ने इमारत खड़ी की वह पहले रक्षा विभाग के कब्जे में थी । उसे पहले फौजी अफसरों और नेताओं ने सेना के अधिकार से मुक्त कराया । इस नापाक गठजोड़ का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ । इस जमीन पर कारगिल युद्ध के शहीदों की विधवाओं को बसाने के लिये छः मंजिली इमारत का प्रस्ताव पास कराया गया । कुदरत के करिश्में से छः मंजिल की यही इमारत आसमान की तरफ उठने लगी और 31 मंजिल पर आकर रूकी ।
इस इमारत में फ्लैटों पर काबिज महान विभूतियों के नाम सुनकर चौंकने की जरूरत नहीं है । इन फ्लैटों पर मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की सास, उनकी बहू और दूसरे रिश्तेदारों को कब्जा मिला । स्थल सेना के पूर्व कमाण्डर इन चीफ दीपक कपूर, नेवी के बड़े एडमिरल और दूसरे सैनिक अफसरों को भी फ्लैट बांटे गये । कांग्रेस के विधायकों को भी इस लूट में हिस्सा मिला । शिवसेना के एक नेता को भी इस डकैती पर जबान बंद रखने के लिये हिस्सा दिया गया । डकैती के बचे खुचे माल को मालदार नागरिकों ने आपास में बांट लिया । इस इमारत की तामीर में कारगिल शहीदों का नाम भुनाया गया । इन शहीदों की विधवाओं को एक भी फ्लैट नहीं दिया गया ।
बुरा हो मीडिया का, उसने मुख्यमंत्री को बेनकाब कर दिया । अब कांग्रेस का असली चेहरा देख कर देशवासी दंग है । नरेन्द्र मोदी तो कांग्रेस की डिक्शनरी में मौत के सौदागर हैं लेकिन कांग्रेस क्या है । क्या उसे शहीदों के कफनचोर या कफनखसोट की संज्ञा देने में कोई हर्ज है । जिन शहीदों को कमांडर इन चीफ दीपक कपूर ने चुस्त सलामी दी थी क्या उनके परिवारजनों के साथ यही सलूक होना चाहिये था ।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की नजर में देश की कौन सी शक्ल है । उनके देश की सीमा उनकी सास, बहू और चंद विधायकों पर जाकर खत्म हो जाती है । महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने कोयी अनहोनी नहीं की है । उनके पहले पूर्व केन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री सतीश शर्मा अपने रिश्तेदारों, चापलूसों, नौकर-चाकर, ड्राइवरों तक को पेट्रोल पंप बांट कर सही रास्ता दिखा चुके हैं । अशोक चव्हाण तो कांग्रेस द्वारा दिखाये रास्ते पर चल रहे हैं ।
साधो, एक झूठ को छिपाने के लिये हजार झूठ बोलना सियासी परंपरा है । अशोक चव्हाण ने जो सफाई दी वह काबिले गौर है । उन्होंने बताया आदर्श हाउसिंग सोसायटी को मंजूरी देते वक्त वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री नहीं थे । इस सादगी पर कौन न मर जाये ए खुदा । अशोक चव्हाण मुख्यमंत्री नहीं थे तो क्या वे कांग्रेस के मंत्री भी नहीं थे । कांग्रेस बड़ी पार्टी है । हाथ की सफाई दिखाना, लम्बे हाथ मारना कांग्रेस की आदत, इसीलिये तो हाथ के पंजे को कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बनाया गया है । कांग्रेस के फौलादी पंजों में देशवासियों की गर्दन जकड़ी है । राम भली करें, देश बच जाये तो अल्ला मियां का शुक्रगुजार होना चाहिये ।
साधो, अभी तुमने क्या देखा है । 70000 करोड़ के कामनवेल्थ गेम्स घोटला का असली चेहरा देखोगे तो तुम्हारी अक्ल शीर्षासन करने लगेगी ।शक सिर्फ यह है कि जो महकमें इस घोटाले की जांच कर रहे हैं अपना फर्ज निभायेंगे या नहीं ।
अशोक चव्हाण का चेहरा देख कर हमें कवि जगन्नाथदास रत्नाकर की लंबी कविता ‘सत्य हरीश्चन्द्र’ का एक अंश याद आ गया जो इस प्रकार है -
कीन्हे कम्बल बसन तथा लीन्हें लाठी कर ।
सत्यव्रती हरिचंद हुते टहरत मरघट पर ।
कहत पुकार पुकार बिना कर कफन चुकाये ।
करहि क्रिया जनि कोउ सबहिं हम देत बताये ।
सत्यवादी राजा हरीशचन्द्र ने अपना कर्तव्य निभाने के लिये जहां अपनी रानी से बेटे के कफन का टुकड़ा कर में लिया था वहीं आज के राजा अशोक चव्हाण तो हरीशचन्द्र के भी नगड़ दादा निकले । उन्होंने कारगिल शहीदों का कफन खसोट लिया । उन्हें यह धत् कर्म करने में कोयी शर्म महसूस नहीं हुयी ।
Posted by कृष्ण मोहन मिश्र 1 comments
Posted by गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर 0 comments
30.10.10
‘‘स्वामी रामदेव सही है या मीडिया सलाहकार समिति के अध्यक्ष’’!
देहरादून। रामदेव ने उत्तराखण्ड के विकास को लेकर जो बयान दिया उससे भाजपा में हडकम्प है सरकार के बचाव में राज्य मीडिया सलाहकार समिति के अध्यक्ष ने रामदेव पर हमला बोला। उन्होनें बोला रामदेव ने जो बयान दिया वह तथ्यों से परे है। यहां तक गुणगान कर दिया कि कांग्रेस सरकार के पांच साल के कार्यकाल में जो कार्य हुए उससे अध्कि कार्य प्रदेश के वर्तमान भाजपा सरकार ने तीन वर्षो में कर दिये है। वहीं बीती शाम रामदेव के संगी बालकृष्ण की मुख्यमंत्राी से सचिवालय में भेंट हुई। बाबा रामदेव अपने बयान से पलटे गये दावा किया कि उनके बयान को मीडिया ने गलत ढंग से पेश किया है। ऐसे में सवाल उठ रहे है कि ‘‘बाबा रामदेव सही है या पिफर मीडिया सलाहकार अध्यक्ष’’! उल्लेखनीय है कि हल्द्वानी मेें मीडिया से बातचीत के दौरान योगगुरू बाबा रामदेव ने कांग्रेस शासनकाल में नारायण दत्त तिवारी को प्रदेश में विकास पुरूष का ताज पहना दिया और यहां तक कह दिया कि अन्य सरकार राज्य का विकास नहीं कर पाई। बाबा रामदेव की इस टिप्पणी पर भले ही भाजपा के अन्दर भूचाल मचा और किसी भी बडे या छोटे नेता ने बाबा रामदेव के खिलापफ कोई मोर्चा नहीं खोला लेकिन हर सरकार में मुख्यमंत्राी की परिक्रमा करने वाले डॉक्टर भसीन जोकि मौजूदा समय में प्रदेश मीडिया सलाहकार समिति अध्यक्ष ने मुख्यमंत्राी के सामने अपने नम्बर बढाने के लिए तत्काल एक पत्रा जारी कर दिया जिसमें उन्होंने कहा कि योगाचार्य स्वामी रामदेव ने उत्तराखण्ड के विकास को लेकर जो बयान दिया है वह तथ्यों से परें है और जानकारी के अभाव में दिया गया प्रतीत होता है। अन्यथा स्वामी रामदेव उत्तराखण्ड में कांग्रेस स्थान पर भारतीय जनता पार्टी सरकार के कार्यो की प्रसन्नसा करते। डॉ भसीन ने स्वामी रामदेव के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए कहा कि कांग्रेस सरकार के पांच वर्ष के तुलना में भाजपा के तीन वर्षो मे किये गये कार्यो से सम्बन्ध्ति पुस्तिका सन्दर्भ हेतु स्वामी जी को भेज रहे है। अपने बयान में प्रदेश मीडिया सलाहकार समिति के अध्यक्ष डॉ देवेन्द्र भसीन ने कहा कि स्वामी रामदेव का यह कथन कि नारायण दत्त तिवारी को छोडकर कोई अन्य सरकार राज्य का विकास नहीं कर पाई तथ्यों पर आधरित नहीं है। जबकि वास्तविकता यह है कि राज्य में कांग्र्रेस सरकार के पांच वर्षो मंे जो कार्य किये गये उनसे कई अध्कि कार्य प्रदेश की वर्तमान भाजपा सरकार द्वारा तीन वर्ष में कर लिये गये है। यह बात विकास के आंकडों से सि( होती है। डॉ देवेन्द्र भसीन को आखिरकार बाबा रामदेव का बयान इतना क्यों खल गया कि उन्होंने आनन-पफानन में अपना बयान जारी करने का पहले तो परपंच रचा और उसके बाद अखबार के दफ्रतर मेें पफोन करके कहा कि अब यह बयान मत प्रकाशित मत करना क्योकि बाबा से बात हो गई है। अब सवाल उठ रहा है कि क्या अब अखबार मैं क्या छपना है और क्या नहीं यह मीडिया सलाहकार के अध्यक्ष तय करेगे। क्योंकि वह आजतक भले ही मीडियाकर्मियों की समस्याओं का हल करने के लिए कोई पहल न कर पाये हो लेकिन वह सरकार की पैरवी में ही जुटे रहते है। ऐसे में इस सलाहकार समिति का अस्तित्व में बना रहना एक नौटंकी के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता। वहीं बाबा रामदेव अपने दिये गये बयान से 24 घंटें बाद ही पलट गये और उनका कहना था कि बयान को गलत तरीके से पेश किया गया है। अब बाबा रामदेव से कोई यह पूछे कि अगर उनका बयान गलत तरीके से पेश किया गया है तो क्या वह उन मीडिया कर्मियों के खिलापफ कोई नोटिस देंगे जिन्होंने उनका बयान गलत ढंग से पेश किया है। वहीं अब यह सवाल भी तैर रहे है कि ‘‘स्वामी रामदेव सही है या मीडिया सलाहकार समिति के अध्यक्ष’’!संभार crimestory
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भारत में लोकतंत्र नहीं भ्रष्टतंत्र-ब्रज की दुनिया
अमेरिका के १६वें राष्ट्रपति और दुनिया के सार्वकालिक महान नेताओं में से एक अब्राहम लिंकन ने प्रजातंत्र की सबसे प्रसिद्ध परिभाषा देते हुए कहा था कि प्रजातंत्र जनता का,जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन है.शायद अमेरिका में आज भी प्रजातंत्र लिंकन के इन मानदंडों पर खरा है.लेकिन दुनिया के अधिकतर विकासशील देशों में प्रजातंत्र का मतलब वह नहीं रह गया है जो लिंकन के लिए था.भारतीय संविधान सभा ने बहुत ही सोंच-समझकर ब्रिटिश मॉडल की नक़ल करते हुए संसदीय प्रजातंत्र को अपनाया था और मान लिया था कि जिस तरह यह प्रयोग इंग्लैंड में सफल रहा उसी तरह भारत में भी सफल रहेगा.लेकिन वो कहावत है न कि नक़ल के लिए भी अक्ल चाहिए.दूसरे आम चुनाव में ही मतदान केन्द्रों पर कब्जे की घटनाएँ सामने आने लगीं.चुनावों में धन का दुरुपयोग भी होने लगा.विधायिका जो संसदीय लोकतंत्र में सर्वोपरि होती है में भ्रष्ट और आपराधिक पृष्ठभूमिवाले प्रतिनिधियों की संख्या लगातार बढती गई.अब जब रक्षक ही भक्षक हो गए तो समाज का नैतिक पतन तो होना ही था.श्रीकृष्ण ने गीता में कहा भी है कि समाज अपने संचालकों और समर्थ लोगों का अनुकरण करता है.आज स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक को कहना पड़ रहा है कि जब सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना चाहती ही नहीं तो क्यों नहीं इसे वैधानिक स्वीकृति दे देती?प्रत्येक कार्यालय में क्यों नहीं रिश्वत का रेट लिस्ट लगा दिया जाता जैसे भोजनालयों में रोटी-भात के दर की सूची लगी होती है?सच्चाई से भागने से क्या लाभ?इससे जनता की परेशानी भी कम हो जाएगी.सर्वोच्च न्यायालय की सलाह पर निश्चित रूप से अमल किए जाने की जरुरत है.आप सड़कों पर किसी भी आदमी से बात करके देख लीजिए हर कोई यही कहेगा कि बिना पैसा दिए कार्यालयों से कोई काम नहीं कराया जा सकता.हमारा पूरा तंत्र जनता की सेवा के लिए नहीं बल्कि जनता से रिश्वत (लेवी) की उगाही के लिए है.दुनिया के सभी देशों में पारदर्शिता का स्तर बताने वाली सूची में हमारा देश पिछले साल ८४वें स्थान पर था इस साल ३ स्थान लुढ़ककर ८७वें स्थान पर पहुँच गया है.वैसे यह संतोष की बात है कि हमसे नीचे भी कई देश हैं और अभी सूची में हमारे और नीचे खिसकने की गुंजाईश बची हुई है.वास्तविक प्रजातंत्र शक्तियों के विकेंद्रीकरण से आता है लेकिन हमारे यहाँ संविधान के ७३वें और ७४वें संशोधन के माध्यम से शक्तियों का ही विकेंद्रीकरण नहीं किया गया बल्कि बड़े ही धूम से भ्रष्टाचार का भी विकेंद्रीकरण किया गया.कोई पश्चिमी देश होता तो भ्रष्टाचार का मामला उजागर होते ही राजनेताओं का राजनैतिक जीवन ही समाप्त हो जाता लेकिन हमारे यहाँ राजनीतिज्ञ अपने राजनैतिक कैरियर की शुरुआत ही भ्रष्टाचार से करते हैं.पहले उल्टे-सीधे किसी भी तरीके से टिकट और वोट खरीदने लायक पैसा जमा किया जाता है,तब जाकर चुनाव लड़ने का अवसर प्राप्त होता है.अगर विधायक का चुनाव लड़ना है तो कम-से-कम १ करोड़ तो चाहिए ही,संसद बनाने के लिए और भी ज्यादा.चुनाव आयोग उम्मीदवारों का बैंकों में खाता खुलवाता है और यह झूठी उम्मीद करता है कि उम्मीदवार इसी खाते में से खर्च करेगा.ऐसा भी नहीं है आयोग को असलियत नहीं पता लेकिन वह कुछ नहीं कर सकता क्योंकि उनकी नियुक्ति केंद्र सरकार के हाथों में होती है.चुनाव जीतने के बाद शुरू होता है वन-टू का फोर का खेल.अगर कर्नाटक और झारखण्ड की तरह विधानसभा त्रिशंकु हो गई तो और भी पौ-बारह.फ़िर मंत्री-मुख्यमंत्री बनकर राज्य के खजाने पर भ्रष्टाचार का (मधु) कोड़ा जमकर चलाया जाता है.जब राजा ही चोर-लुटेरा हो जाएगा तो उसे अधिकारी-कर्मचारी तो यमराज हो ही जाएँगे और इस तरह तंत्र शासन का नहीं शोषण का माध्यम बन जाता है.चपरासी से लेकर सचिव तक और वार्ड आयुक्त से से लेकर मंत्री तक सभी हमारे देश में भ्रष्ट हो चुके हैं.यदि कोई सत्येन्द्र दूबे की श्रेणी का सिरफिरा ईमानदारी की खुजली से ग्रस्त व्यक्ति तंत्र में घुस भी आता है तो उसे किनारे हो जाना पड़ता है नहीं तो हमारा तंत्र बड़ी आसानी से उसे दुनिया से ही कल्टी कर देता है हमेशा के लिए.अगर अर्थशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो हमारे देश में अमीरों का,अमीरों के लिए,अमीरों के द्वारा गरीबों पर शासन है.गरीबों को बार-बार यह भुलावा जरूर दिया जा रहा है कि अंततः शासन की बागडोर आपके ही हाथों में है.इसी तरह अगर हम राजनीति शास्त्र के दृष्टिकोण से लिंकन की उपरोक्त परिभाषा को मद्देनजर रखते हुए वर्तमान भारत पर विचार करें तो भारत में भ्रष्टों का,भ्रष्टों के द्वारा और भ्रष्टों के लिए शासन है.हमारे यहाँ एक सर्वथा नई शासन-प्रणाली है जिसे हम संसदीय भाषा में भ्रष्टतंत्र कह सकते हैं.लगभग सबका ईमान बिकाऊ है सिर्फ सही कीमत देनेवाला चाहिए.यह मैं ही नहीं कह रहा बल्कि हमारे लिए सबसे बड़े शर्म की बात तो यह है कि माननीय उच्चतम न्यायालय का भी यही मानना है.तालियाँ.
Posted by ब्रजकिशोर सिंह 1 comments
रणभूमि बने गाँव
भारत देश गांवों का देश कहा जाता है...क्यों कि यहाँ कि ७०% जनता गाँव में निवास करती है...भोले भाले लोग,सुबह सुबह गाय भैसों को दुहने जाते ग्रामीण,पनघट पर पानी भरने जाती यहाँ की औरतें..हाँ जमींदारो के यहाँ और बात है..कोई नौकर लगा हो या घर में ही कुआं हो,बात अलग होती है...लेकिन ज्यादातर गाँवों कि पहचान यही होती है...खेत पर जाते किसान ...यहाँ के मौसम भी उतने ही सुहाने लगते है जितने यहाँ के लोग...कभी सर्दी,कभी गर्मी,बारिश और पतझड़......बारिश के जाते ही हिन्दुस्तान की फिजाओं में सर्दीली हवाओं ने दस्तक दे दी है.....एक बयार ठंडी हवाओ की चलना शुरू हो गई...खैर मौसम है तो बयार भी चलेगी..और ठंडक का एहसास भी होगा....२६ जनवरी १९५० को देश का गणतंत्र लागू किया गया....गांधी ने राम राज्य की परिकल्पना दिल में संजोई थी....लेकिन उन्ही के टाइटल का प्रयोग करने वाली एक तानाशाही महिला ने उनकी इस सपने की धज्जियाँ उड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी.....आपातकाल के समय से ही राजनीती में गंदगी का दौर शुरू हुआ...खैर बात मुद्दे की...देश में चुनावों की बयार भी चल रही है...लेकिन इसका एहसास गर्म है.......उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव हो चुके है...तो बिहार में विधानसभा चुनाव अपने पूरे चरम पर है.....बात पंचायत चुनाव की....चुनाव हुए....इन चुनावों में कई रिश्ते टूटे..कई जातीय समीकरण बने...दबंगई देखने को मिली....तो कहीं से हत्या की खबरे भी आई.....और कहीं चुनाव की आचार संहिता के नाम पर पुलिस ने लोगों से अभद्रता की,और मां का अपमान किया....लोकतंत्र है...स्वतंत्रता है.....पंचायत चुनावों में कहीं भाई भाई ही एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लादे,तो कहीं बाप के खिलाफ बेटा....महिलाए भी पीछे नहीं थी...कूद पड़ी समर में और पति के खिलाफ ही ताल ठोंक दी.......लेकिन नतीजे भी सामने है.....जीत एक की ही होती है......पहले कहा जाता था कि जीत अर्जुन की ही होती है लेकिन अब जीत तिकड़मी,दबंगों और पहलवानों की होती है.....ऐसा नहीं है कि नतीजे आने के बाद चुनाव समाप्त हो गए....मेरे लिहाज से चुनाव जंग अब तो शुरू हुई है....जो पूरे पांच साल अगले पंचायत चुनाव तक चलेगी.....कहीं प्रधान अपने विरोधियों से बदला लेगा,तो कहीं प्रधान को ही मौत के घाट उतारा जाएगा.....आम जनता की भावनाओं की किसी को क़द्र नहीं...कि उसने किसे चुना,और क्यों....फिर होंगे उपचुनाव.....और जनता वोट देती रहेगी.....ठप्पा लगाती रहेगी.....जितना वर्णन गाँव के बारे में किया गया...शायद अब वो तस्वीर बदलने लगी है....या बदल चुकी है....गाँव के लोग सीधे नहीं रहे...खूनखराबा और सत्ता की मलाई चखने कई ललक उनमे भी आ गई है....और इस मलाई को चखने के लिए ओ किसी भी हद तक जाने को तैयार है.....खैर देखते है पांच साल का पंचायत चुनाव का अखाडा कितनो की बलि लेता है...कितने घर बर्बाद करता है.....आगे के पांच सालों में ही देखने को मिलेगा....तो देखिये गाँवों का महासंग्राम....
कृष्ण कुमार द्विवेदी
छात्र (मा.रा.प.विवि,भोपाल )
Posted by kishan dwivedi 2 comments
payo ji maine ram ratan dhan payo
payo ji maine ram ratan dhan payo
sadawanee prabhu atal bihaareee
jinake kahe patiyaayo
payoji .......................
payoji maine ram ratan dhan payo
dharma drohiyon se bach bach kar dono dhaam bachaayo
payoji maine ...............
payoji maine ram ratan dhan payo
dharma drohiyon se bach bach kar donon dhaam bachaayo.
payoji
sadawaanee prabhu atal bihaaree jinke kahe patiyayo.
payoji
pawain bhot sabai ko sadguru jin mandir banawayo .
payoji
payoji maine ram ratan dhan payo
Posted by Dr Om Prakash Pandey 0 comments
दिखने वाले कलमकार के रूतबे
राजकुमार साहू, जांजगीर छत्तीसगढ़
बदलते समय के साथ पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में कई बदलाव आए हैं और बाजार में जब से पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ आई है, तब से लिखने वाले कलमकारों की रूतबे कहां रह गए हैं, अब तो दिखने वाले कलमकारों का ही दबदबा रह गया है। सुबह होते ही काॅपी, पेन और डायरी लेकर निकलने वाले कलमकारों के क्या कहने, वैसे तो ऐसे लोग अपनी पाॅकिट में कलम रखना नहीं भूलते, लेकिन यह जरूर भूले नजर आते हैं कि आखिर वे लिखे कब थे। लोगों को अपनी कलम की धार दिखाने उनके लिए जुबान ही काफी है, जहां से बड़ी-बड़ी बातें निकलती हैं। ऐसे में उन जैसे कलमकारों से कौन भौंचक्के न खाए। कलम की स्याह कागज पर रंगे, ना जाने कितने दिन बीत गये, मगर लिखने का जुनून हर पल सवार रहता है। हर रोज लिखने की तमन्ना जाहिर की जाती है और यही फलसफा रोजाना चलता रहता है। ऐसे ही कई कलमकारों से मैं परिचित हूं और उनसे मेरी मुलाकात खबरों के माध्यम से कभी उनके पत्र-पत्रिकाओं में नहीं होती। हां, किसी बड़े नेताओं की प्रेस कांफ्रेंस या फिर कुछ ऐसे आयोजनों में भेंट हो जाती है, क्योंकि सवाल यहां चेहरा दिखाने की होड़ जो मची रहती है। चेहरा दिखाए और खबरों का कव्हरेज भी किए, लेकिन वही रोजाना का भूत, फिर भूल गए कि सफेद कागज का रंगना कैसे है ? दिखने कलमकारों से यहीं बेचारे लिखने वाले कलमकार फेल हो जाते हैं, क्योंकि उनकी जिंदगी चार खबरों तक सिमटी रहती है। दिखने वाले कलमकार भाई, वैसे तो दिन में कई जगहों पर अपना पग रखकर, आयोजन और आयोजनकर्ताओं को धन्य कर देते हैं, लेकिन लिखने वाले कलमकारों की मजबूरी कहंे कि उन्हें हर दिन कलम कागज पर रगड़ना ही है। उपर से बढ़िया खबर बनाने का दबाव अलग, इस तरह भला कैसे वो दिखने वाले कलमकारों के सामने ठहर सकते हैं और उस होड़ में षामिल होने की हिम्मत जुटा सकते हैं, क्योंकि रोजी-रोटी का सवाल है। वे तो अपना जुगाड़ कहीं न कहीं से जमा लेंगे, लेकिन हमें तो इन चार खबरों का ही सहारा है। सुबह से षाम तक खबरों की ठोह लेने में ही लिखने वाले कलमकारों के चैबीसों घंटे बीतते हैं और क्या खाना और क्या पीना, हर पल केवल खबरों की भूख। इन सब बातों से हमारे दिखने वाले कलमकार भाई परे रहते हैं, क्योंकि उन्हें न तो खबरें तैयार करने की झंझट होती है, ना ही किसी तरह का कोई और बंदिषें। उनके पास केवल एक ही झंझट होती है कि कैसे अपने दिखावे के रूतबे को बढ़ाया जाए। वे हर जगह नजर आते हैं, उनकी सोच रहती है, इसी बात से रूतबा बढ़ जाए। यहां सभी ओहदेदार अफसरों से परिचय होता है। इस मामले में बेचारे लिखने वाले कलमकार किस्मत के मारे होते हैं, रोज-रोज लिखने के बाद भी दिखने वाले चेहरे के सामने उनके चेहरे कहीं गौण हो जाते हैं। मीडिया क्षेत्र में आई क्रांति से कलमकारों की संख्या में एकाएक इजाफा हुआ, मगर पत्रकारिता और साहित्य के बारे में सोचने की भला उनके पास समय कहां, वे तो अपने बारे में सोचते हैं कि कैसे अपना रूतबा बढ़ाया जाए और अपना धाक बढ़ाया जाए। बेचारे लिखने वाले कलमकार इन आंखों देखी हालात पर सिसककर रह जाते हैं। उन्हें ऐसी हालात देखकर दुख भी होता है, होना भी चाहिए, क्योंकि कोई दिन भर गधा की तरह काम करे और दूसरा उसका मेहनताना आकर ले जाए, यह तो सरासर गलत है। दिन-रात खबरों के पीछे भागकर खून कोई और सुखाए तथा अपनी जिंदगी को खबरों के नाम कर दे, लेकिन जब उसका भुगतान लेने की बारी आई तो लाइन में किसी और खड़ा होना, कौन भा सकता है। दिखने वाले कलमकारों की साख के आगे भला लिखने वालें की क्या साख हो सकती है, क्योंकि वे तो मंत्रियों और अफसरों के चहेते जो होते हैं, भले ही इसके लिए उन जैसे दिखने वाले कलमकारों को अपना स्वाभिमान ही गिरवी ना रखना पड़े। आखिर में सवाल, दिखावे के रूतबे का जो है, यदि यहीं नहीं रहेगा तो धंधा फिर मंदा पड़ जाएगा और जब धौंस ही नहीं रहेगी तो काहे का कलमकार।
Posted by jindaginama 0 comments
गाज़ियाबाद के पत्रकार वी के मिश्र नही रहे
गाज़ियाबाद के पत्रकार वी के मिश्र का कैंसर की लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया .
उनका अंतिम संस्कार हिंडन तट पर( ३० अक्टूबर २०१० को ) किया गया ..
Posted by Vikram 1 comments
धुएं में उड़ रहा कानून
अखिलेश उपाध्याय / कटनी
उच्चतम न्यायालय ने सार्वजानिक स्थानों पर धूम्रपान करने वालो पर भले ही पाबन्दी लगा दी पर हकीकत कुछ और बया कर रही है. शहर का शायद ही ऐसा कोई सार्वजानिक स्थान हो जहा धूम्रपान न किया जाता हो. हाईकोर्ट का आदेश बेअसर होने का कारण धूम्रपान करने वालो के खिलाफ कोई कार्रवाई न होना है, पुलिस रिकार्ड के अनुसार अभी तक सिगरेट व बीडी पीने वाले लोगो के खिलाफ गिने-चुने ही मामले दर्ज किये गए है.
उल्लेखनीय है की जब सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजानिक स्थानों पर धूम्रपान करने वालो को रोकने के लिए सख्त नियम बनाकर जुर्माने की चेतावनी दी तब से शायद किसी भी शासन प्रशासन के अधिकारी ने धूम्रपान करने वालो पर कोई कार्रवाई नहीं की है हालत यह है की सार्वजनिक स्थानों तथा थाना परिशर में पुलिस कर्मियों व लोगो को खुलेआम धुँआ उड़ाते देखा जा सकता है. नए कानून के तहत सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करते पाए जाने पर दो सौ रूपये जुर्माने का प्रावधान है लेकिन कही भी इस आदेश का पालन नहीं हो रहा है.
होटलों पर नहीं स्मोकिंग जोन
शहर में कई होटल व रेस्टारेंट है लेकिन किसी में भी धूम्रपान करने वालो के लिए अलग से स्मोकिंग जोन नहीं है. कई होटल ऐसे है जहा पर आला अफसरों को खुलेआम सिगरेट का सेवन करते देखा जा सकता है. प्रशासन द्वारा कभी भी होटलो पर स्मोकिंग जोन होने या न होने की जाँच नहीं की गई. होटलों, ढाबो एवं बारो आदि पर पुलिसकर्मी और होटल संचालको की साथ गाथ के चलते न्यायलय के आदेश की धज्जिया खुलेआम उडाई जा रही है.
प्रतिबंधित क्षेत्र
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने जिन सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान प्रतिबंधित किया था उनमे अस्पताल, स्वास्थ्य संस्थान, मनोरंजन पार्क, रेस्टारेंट, न्यायलय भवन, सार्वजनिक कार्यालय, पुस्तकालय, स्टेडियम, शिक्षण संस्थान, रेलवे स्टेसन, बस स्टेंड, शापिंग माल, सिनेमा हाल, नाश्ता कक्ष, काफी हाउस, पब्स बार, एअरपोर्ट लाउंज शामिल है.
बोर्डो पर नहीं अधिकारियो के नाम
नियम के मुताबिक रेलवे स्टेसन , बस स्टेंड तथा शहर के अन्य सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान को रोकने के लिए धूम्रपान निषेध का बोर्ड तो टांग दिया लेकिन उस पर कार्रवाई के लिए नियुक्त अधिकारी का नाम नहीं है. जबकि आदेशो में साफ़ तौर यह निर्देश दिए थे की सार्वजानिक स्थानों के मालिक, प्रबंधक, सुपरवाइजर या प्रभारी, एक बोर्ड पर उस अधिकारी का नाम अधिसूचित एवं प्रदर्शित करेगे, जिसके पास धूम्रपान प्रतिबंधित क़ानून के उल्लंघन की सूचना दर्ज कराई जा सके.
दोनों पर जुर्माना का प्रावधान
सार्वजानिक स्थानों पर धूम्रपान प्रतिबंधित आदेश को प्रभावी करने के लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा सार्वजनिक सूचना जारी कर सूचित किया था की यदि सार्वजनिक स्थान के मालिक, प्रबंधक, सुपरवाइजर और अधिकृत अधिकारी नियम के अल्लघन सम्बन्धी शिकायत के निपटारे में लापरवाही के दोषी पाए जाने पर धूम्रपान करने वाले के साथ उन पर भी दो सौ रूपये का जुर्माना किया जाएगा लेकिन अन्य आदेशो के माफिक यह आदेश भी फ़ाइल में ही बंद है.
Posted by sahaj express 2 comments
अफसरों के पीछे चलती पत्रकारिता
मोबाइल फोन की घंटी बजी...टू..न न,टू न न [ आपकी मर्जी चाहे जैसी बजा लो] । गोविंद गोयल! जी बोल रहा हूँ। गोयल जी ...बोल रहा हूँ। फलां फलां जगह पर छापा मारा है। आ जाओ। इस प्रकार के फोन हर मीडिया कर्मी के पास हर रोज आते हैं। सब पहुँच जाते हैं अफसर के बताए ठिकाने पर। एक साथ कई पत्रकार, प्रेस फोटोग्राफर,पुलिस, प्रशासन के अधिकारी को देख सामने वाला वैसे ही होश खो देता है। अब जो हो वही सही। श्रीगंगानगर में पत्रकार होना बहुत ही सुखद अहसास के साथ साथ भाग्यशाली बात है। यहाँ आपको अधिक भागादौड़ी करने की कोई जरुरत नहीं है। हर विभाग के अफसर कुछ भी करने से पहले अपने बड़े अधिकारी को बताए ना बताए पत्रकार को जरुर फोन करेगा। भई, जंगल में मोर नचा किस ने देखा। मीडिया आएगा तभी तो नाम होगा। एक साथ कई कैमरे में कैद हो जाती है उनकी फोटो। जो किसी अख़बार या टी वी पर जाकर आजाद हो जाती है आम जन को दिखाने के लिए। ये सब रोज का काम है। गलत सही की ऐसी की तैसी। एक बार तो हमने उसकी इज्जत को मिट्टी में मिला दिया । जिसके यहाँ इतना ताम झाम पहुँच गया। सबके अपने अपने विवेक, आइडिया। कोई कहीं से फोटो लेगा, कोई किसी के बाईट । कोई किसी को रोक नहीं पाता। आम जन कौनसा कानून की जानकारी रखता है। वह तो यही सोचता है कि मीडिया कहीं भी आ जा सकता है। किसी भी स्थान की फोटो अपने कैमरे में कैद करना उसका जन्म सिद्ध अधिकार है। उसकी अज्ञानता मीडिया के लिए बहुत अधिक सुविधा वाली बात है । वह क्यों परवाह करने लगा कि इस बात का फैसला कब होगा कि क्या सही है क्या गलत। जो अफसर कहे वही सही, आखिर ख़बरों का स्त्रोत तो हमारा वही है। अगर वे ना बताए तो हम कोई भगवान तो है नहीं। कोई आम जन फोन करे तो हम नहीं जाते। आम जन को तो यही कहते हैं कि जरुरत है तो ऑफिस आ जाओ। अफसर को मना नहीं कर पाते। सारे काम छोड़ कर उनकी गाड़ियों के पीछे अपनी गाड़िया लगा लेते है। कई बार तो भ्रम हो जाता है कि कौन किसको ले जा रहा है। मीडिया सरकारी तंत्र को ले जा रहा है या सरकारी तंत्र मीडिया को अपनी अंगुली पर नचा रहा है। जिसके यहाँ पहुँच गए उसकी एक बार तो खूब पब्लिसिटी हो जाती है। जाँच में चाहे कुछ भी न निकले वह एक बार तो अपराधी हो ही गया। पाठक सोचते होंगे कि पत्रकारों को हर बात कैसे पता लग जाती है। भाइयो, अपने आप पता नहीं लगती। जिसका खबर में कोई ना कोई इंटरेस्ट होता है वही हमको बताता है। श्रीगंगानगर में तो जब तक मीडिया में हर रोज अपनी फोटो छपाने के "लालची" अफसर कर्मचारी रहेंगे तब तक मीडिया से जुड़े लोगों को ख़बरों के पीछे भागने की जरुरत ही नहीं ,बस अफसरों,उनके कर्मचारियों से राम रमी रखो। इस लिए श्रीगंगानगर में पत्रकार होना गौरव की बात हो गया। बड़े बड़े अधिकारी के सानिध्य में रहने का मौका साथ में खबर , और चाहिए भी क्या पत्रकार को अपनी जिंदगी में। बड़े अफसरों के फोन आते है तो घर में, रिश्तेदारों में,समाज में रेपो तो बनती ही है। श्रीगंगानगर से दूर रहने वाला इस बात को समझाने में कोई दिक्कत महसूस करे तो कभी आकर यहाँ प्रकाशित अख़बारों का अवलोकन कर ले। अपनी तो यही राय है कि पत्रकारिता करो तो श्रीगंगानगर में । काम की कोई कमी नहीं है। अख़बार भी बहुत हैं और अब तो मैगजीन भी । तो कब आ रहें है आप श्रीगंगानगर से। अरे हमारे यहाँ तो लखनऊ ,भोपाल तक के पत्रकार आये हुए हैं । आप क्यों घबराते हो। आ जाओ। कुछ दिनों में सब सैट हो जायेगा। श्रीगंगानगर में पत्रकारिता नहीं की तो जिंदगी में रस नहीं आता। ये कोई व्यंग्य,कहानी, टिप्पणी या कटाक्ष नहीं व्यथा है। संभव है किसी को यह मेरी व्यथा लगे, मगर चिंतन मनन करने के बाद उसको अहसास होगा कि यह पत्रकारिता की व्यथा है। कैसी विडम्बना है कि हम सब सरकारी तंत्र को फोलो कर रहे है। जो वह दिखाना चाहता है वहीँ तक हमारी नजर जाती है। होना तो यह चाहिए कि सरकारी तंत्र वह करे जो पत्रकारिता चाहे। ओशो की लाइन पढो--- जो जीवन दुःख में पका नहीं ,कच्चे घट सा रह जाता है। जो दीप हवाओं से न लड़ा,वह जलना सीख न पाता है। इसलिए दुखों का स्वागत कर,दुःख ही मुक्ति का है आधार। अथ तप: हि शरणम गच्छामि, भज ओशो शरणम् गच्छामि ।
Posted by गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर 1 comments
Labels: श्रीगंगानगर
जिन्ना विवाद ने मुझे हिला दिया था'
26 Mar 2008, 2203 hrs IST,नवभारत टाइम्स
धनंजय नई दिल्ली : बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी को अपने राजनीतिक जीवन में लंबे समय तक मन की शांति व परिवार के लोगों के बीच रहने के सुख से वंचित रहना पड़ा। उनके जीवन को अर्थ तो मिला लेकिन वह खुशी नहीं मिली जो परिवार के साथ रहकर मिलती है। आडवाणी ने अपने मन की यह बात अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री माई लाइफ' के जिन्ना प्रसंग से संबधित चैप्टर 'आई हैव नो रेगरेट्स' में कही है। लेकिन उनकी यह व्यथा कथा उनकी किताब के उस चैप्टर से मेल नहीं खाती जिसमें उन्होंने लिखा है कि उन्होंने अंग्रेजी के उस चर्चित लेखक को गलत साबित कर दिया है जिसने लिखा है कि आप जीवन में सार्थकता व पारिवारिक खुशी, दोनों में से एक ही प्राप्त कर सकते हैं। मुझे अपने जीवन में दोनों चीजें एक साथ मिलीं। लालकृष्ण आडवानी
Posted by Shri Sitaram Rasoi 0 comments
29.10.10
तस्वीर में दिख रही एटीएम की पर्ची केवल देखने के लिये है, बल्कि इसमें एक मानवीय संवेदना भी है । जरा गौर से इस एटीएम से निकाली गई रकम और बची हुई रकम को देखिये । 100 रूपये निकालने के बाद इस खाते में शेष रकम मात्र 28 रूपये बची हुई है । अब आप सोचेंगे इस बात से क्या खबर बन रही है तो अब खबर भी देखें ।
दुर्ग स्टेशन में हमारे अखबार के रिपोर्टर अनिल राठी अपनी माताजी के साथ दुर्ग रेल्वे स्टेशन में आज दोपहर 1.30 बजे गोंदिया जाने वाली ट्रेन में बैठाने स्टेशन पहुंचे । दोपहर 2.05 बजे पर रायपुर की ओर जाने वाली ट्रेन प्लेटफार्म में खडी हुई थी कि तभी उसकी नजर एटीएम पर उमडी भीड की ओर पडी । वहां जाने पर पता चला कि इस 128 रूपये शेष रकम वाले खाते से निकाला गया सौ रूपये एक तरफ से छपा हुआ था और दुसरी ओर से कोरा । वह लडका रूआँसा हो रहा था क्योंकि उसके पास पैसे नही थे और उसकी गाडी छुटने को थी , इस संवाददाता नें उस लडके को तत्काल 200 रूपये देकर ट्रेन की ओर भेजा और इस एक तरफ से कोरे नोट को लेकर कार्यालय पहुंचा । नोट देखने के बाद बडी देर विचार विमर्श हुआ और तय किया गया कि इस नोट को संभाल कर रखा जाय । लेकिन एक बात दिमाग में ये बराबर उठ रही है कि क्यों ना रिजर्व बैंक इसी तरह के नोटों को छापना शुरू कर दे ........ एक तरफ की छपाई का पूरा खर्चा बच जाएगा साथ ही पूरा कोरा नोट बैंक वालों को भी दिखाई दे जाएगा ।
Posted by Unknown 2 comments
गुमराह करना देश सेवा तो नहीं………………!लोकतान्त्रिक ब्यवस्था होने की वजह से देश के अन्दर हमेशा जनता को अपने अधिकारों का प्रयोग करने का स्वर्णिम अवसर समय समय पर मिलता ही रहता है अब इसमें जनता कभी केंद्र के लिए तो कभी अपने प्रदेश के लिए अपने मत का प्रयोग करती है,जनता का चुनाव करने काम यहीं तक ख़तम नहीं हो जाता छेत्रिय और फिर ग्राम पंचायत(प्रधानी)टाईप के बहुत से चुनाव को पूर्ण करके जनता के द्वारा अपने एक मात्र वोट डालने जैसे प्रावधान को पूरा किया जाता है! दरअसल ये(जनता के द्वारा जनता के लिए जनता का शाशन) ब्यवस्था तो किसी भी देश को सुचारू और निस्पछ तथा जनता के पसंद का शासन के लिहाज से बेहद सुन्दर दिखता है, ये ब्यवस्था शायद सिर्फ इसी लिए है की जनता अपने अनुसार कौन सही और कौन गलत का निर्णय कर एक उपयोगी ब्यक्तित्व को चुने जो वाक्य्यी देश या अपने छेत्र के विकाश के लिए कुछ कर गुजरने की हिम्मत रखता हो और जो वाक्य्यी अपनी छेत्र व देश की जनता के समस्यायों से परचित हो और हकीकत में उससे लड़ने में सछम या फिर लड़ता हो! पर हकीकत तो ये है की जनता को अपने मत का सम्पूर्ण अधिकार तो है लेकिन बावजूद इसके देश की मासूम जनता को चुनाव के अंतिम समय तक उसे कन्फ्यूज/गुमराह करने का काम जारी रखा जाता है चुनाव प्रचार तो ठीक है लेकिन चुनाव के प्रचार में सिर्फ अपनी बड़ाई और बाकि सबकी बुराई ये कहाँ तक एक देश व छेत्र के विकास के लिए उचित है,एक ब्यक्तित्व जो शायद हकीकत में नेता की उपाधि दिए जाने के योग्य है और जिसको खुद जनता चिल्ला चिल्ला कर कह रही हो की यही नेता है और जिसने भले ही पांच साल तक ईमानदारी से अपने शाशन को चलाया हो और अपने कार्यकाल का पूरा समय सिर्फ जनता की छोटी बड़ी समस्यायों के निवारण में ही बिताया हो,अपने छेत्र में कई महत्वपूर्ण कार्यों को किया हो शायद जिसे अपने लिए चुनाव प्रचार भी करने की जरुरत न हो और सिर्फ अपने कार्यकाल में किये गए कार्य के बल पर ही चुनाव जितने की अपेछा रखता हो,जिसे शायद उसके किसी से कहने की बजाय उस छेत्र की जनता के साथ साथ पुरे देश की जनता उसके कार्यकाल के शासन के बारे में खुद ही बोल या मह्सुश कर रही हो,अब ऐसे में चुनाव के येन मौके पर उसके विरोध में विपछि पार्टियों द्वारा चुनाव के अंतिम दौर तक उसके खिलाफ जबरदस्ती शब्द ढूंढ़ ढूंढ़ कर बोलना कहाँ तक देश के हित में है! चुकी देश में लोकतान्त्रिक शाशन की ब्यवस्था है और यहाँ सभी इन्शान को अपनी मर्जी से बोलने की स्वतंत्रता व अपने विचार को रखने अधिकार प्राप्त है! आज हर एक नेता अपने आप को देश का सच्चा सेवक ही कहता है लेकिन चुनाव प्रचारों में शायद किसी एक विकाश करने वाले ब्यक्तित्व के विरोध में जबरदस्ती कुछ भी इधर उधर बोलना तो कुछ लोग अपनी शान ही समझते है ये कहाँ तक उचित है,किसी योग्य पुरुष को सत्ता में न आने देने के लिए मुहीम चलाना कहाँ की देश सेवा है! शायद जनता को इसी चीज से बचाने के लिए कुछ वर्ष पहले से चुनाव आयोग ने चुनाव के कुछ घंटे पहले प्रचार को बंद कर देने का प्रावधान बना दिया ताकि जनता को कुछ घंटे तो शांस मिल सके अपने सच्चे नेता का चुनाव करने के लिए जो हकीकत में विकाश करने के गुण रखता हो,ऐसे में शायद आज कोई इस प्रकार का प्रावधान होना बेहद जरुरी आवश्यक जान पड़ता है की किसी भी चुनाव के दौरान हर एक नेता को किसी भी चुनावी रैली में सिर्फ अपने बारे में या अपने पार्टी के बारे में ही कहने भर की ही छुट हो अब इसमें चाहे वो अपने या अपने पार्टी के बारे में बड़ाई करे या बुराई ये उसके ऊपर निर्भर करता है,लेकिन किसी दुसरे नेता या पार्टी के बारे में बोलने का अधिकार बिलकुल जायज नहीं लगता क्योंकि अगर एक पहलु (जिसमे किसी शाशन के गलत सही कारनामे को जनता के बीच रखने) के दृष्टी से ये सही है तो दुसरे पहलु में ये बिलकुल ही बेकार नजर आता है क्योंकि आजकल ये आसानी देखा जा सकता है की अगर एक ब्यक्तित्व कितना भी इमानदार व विकास करने वाला या उसने कार्यकाल में जबरदस्त विकास कार्य क्यों न हुआ हो लेकिन विपछि पार्टी का नेता हमेशा उसकी बुराई करने में ही लगा रहता है यानि विपछि पार्टियों द्वारा उस ब्यक्तित्व के सही कारनामो को कोसो दूर रख कर चुनाव प्रचार किया जाता है,शायद ऐसा करने से जनता गुमराह भी हो सकती है जबकि ऐसा करने से किसी एक विशेष वर्ग पर इसका प्रभाव निश्चित ही पड़ता है! अब हकीकत में यहाँ ऐसे तो सारे ब्यक्तित्व या नेता है नहीं जो किसी नेता के बारे में बोलते समय पार्टी या पछ/विपछ को ध्यान में रख कर न बोलते हों अगर किसी के बारे में निस्पछ तरीके से सिर्फ उसके ब्यक्तित्व को ध्यान में रख कर बोला जाय तो शायद इससे बेहद देश की और जनता की सेवा और कुछ नहीं हो सकती लेकिन ऐसा कहीं कहीं शायद ही देखने को मिल जाय,सो इस लिए हर एक नेता को सिर्फ उसे अपने या अपने पार्टी तक के ही बारे में ही बोलने का अधिकार शायद बेहद आवश्यक सा लगता है! हर एक नेता व पार्टी को दुसरे और अपने बीच आंकलन करने वाला काम सीधे जनता के ही ऊपर छोड़ देना चाहिए क्योंकि शायद जनता बेहद उचित आंकलन कर सकती है और आज की जनता उसके छेत्र के लिए बेहतर कौन का चुनाव करने में सझम है!
Posted by Dharmesh Tiwari 2 comments
A BOOK ON ” EMERGENCY ON JOURNLISM IN INDIA ” by AMRENDER RAIA BOOK ON ” EMERGENCY ON JOURNLISM IN INDIA ” by AMRENDER RAI” पत्रकारिता का आपातकाल “ पर अमरेन्द्र राय ================================ ” पत्रकारिता का आपातकाल “ विषय पर , २०१० में एक नई किताब आयी है .किताब का नाम है ” पत्रकारिता का आपातकाल ” ,जिसका प्रकाशन माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचारविश्वविद्यालय की शोध परियोजना के तहत हुआ है . इसे प्रभात प्रकाशन , नई दिल्ली ने छापा है . इस के लेखक वरिष्ठ पत्रकार अमरेन्द्र राय हैं . इस किताब में आजादी के बाद से लेकर २० ०९ तक के काले कानूनों का विस्तार से वर्णन किया गया है. पाठकों को यह तथ्य एक हद तक चौंका सकता है क़ि २६ जनवरी १९५० को प्रभावशील हुए , भारत के संविधान में पहला संशोधन प्रेस के निमित्त किया गया था . आजादी के बाद प्रेस पर किस किस तरह की बंदिशे लगीं . प्रेस को शिकंजे में कसने के लिए कौन कौन से काले कानून लगाये गए और प्रेस ने उसका किस तरहमुकाबला किया .इसकी सारी जानकारी लेखक ने बडेअच्छे ढंग से प्रस्तुत की है . १९६२ के चीन युद्ध के समय प्रेस पर क्या गुजरी .आपातकाल में किस तरह से प्रेस का गला घोंटा गया .कुख्यात बिहार प्रेस बिल , मानहानि विधेयक . कुछ अख़बारों के खिलाफ हल्ला बोल से गुज़रते हुए बाजारवाद से पत्रकारिता के खतरे का भी किताब में ज़िक्र किया गया है .स्वस्थ पत्रकारिता के लिए सतत लड़ायी जारी रखनेवाले विख्यात पत्रकार और माखन लाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति श्री अच्युतानंद मिश्र ने किताब को एक महतवपूर्ण और उपयोगी दस्तावेज़ बताया है .Posted by Vikram 0 comments
डॉ.रमेश पोखरियाल 'निशंक' की उपलब्धियों से भयभीत हो रही हैं कांग्रेस Posted by jagmohan 0 comments
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