20.10.10
खतरे में मानवता,करो या मरो-ब्रज की दुनिया
बात ८० के दशक की है.तब मैं मिडिल स्कूल में पढता था.मेरा स्कूल मेरे गाँव से ३ किलोमीटर की दूरी पर था.रास्ते में कई घरों पर गेरूए रंग से लिखा हुआ था:-कलियुग जाएगा,सतयुग आएगा,जय गुरुदेव.मैं सोंचता क्या सचमुच निकट भविष्य में ऐसा होनेवाला है?कब आएगा और कैसा होगा सतयुग?मैं अकसर सतयुग की कल्पनाओं में खो जाता.फ़िर वक़्त आया १९९७-९८ का.पूरी दुनिया में नास्त्रेदमस की ३०० साल पहले की गई भविष्यवाणियों की चर्चा थी.दावे किए जा रहे थे कि अब तक इस फ़्रांसिसी की कोई भी भविष्यवाणी गलत साबित नहीं हुई है इसलिए वर्ष २००० में दुनिया का अंत निश्चित है.संयोग से उस समय मेरा मन भी दुनिया से कुछ उचटा हुआ था.परिणाम यह हुआ कि मैंने भी इस अफवाह पर विश्वास कर लिया और पढाई छोड़ी तो नहीं, कम जरुर कर दी.जब दुनिया समाप्त ही होनी है तो पढ़कर क्या फायदा?वर्ष २००० आया भी और गया भी.लेकिन प्रलय का कहीं अता-पता नहीं था.अभी पिछले कुछ दिनों से अन्धविश्वास बढ़ाने के लिए विख्यात कई टी.वी. चैनलों पर सदियों पहले नष्ट हो चुकी माया सभ्यता के हवाले से यह भविष्यवाणी प्रसारित की जा रही है कि २०१२ दुनिया के लिए अंतिम साल साबित होने जा रहा है.हालांकि यह भी वक़्त आने पर एक अफवाह ही सिद्ध होगी.क्योंकि इस तरह की किसी भी भविष्यवाणी का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है.लेकिन इसका यह मतलब हरगिज नहीं कि हम धरती पर पूरी तरह सुरक्षित हैं.क्योंकि इन भविष्यवाणियों के साथ-साथ दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिकों में से एक स्टीफन हॉकिंग ने भी कुछ कहा है जिसे हम कोरी भविष्यवाणी की श्रेणी में नहीं रख सकते.क्योंकि यह एक महान वैज्ञानिक द्वारा दी गई चेतावनी है और इसलिए इसका वैज्ञानिक आधार भी है.उन्होंने आशंका व्यक्त की है कि अगले दो सौ सालों में धरती इंसानों के रहने लायक नहीं रह जाएगी.चेतावनी में दो तरह के खतरों की बात की गई है.उनके अनुसार मानवता को परग्रहवासी एलियंस,क्षुद्र ग्रहों और धूमकेतुओं से खतरा है.उनका मानना है कि धरती से बाहर भी जीवन है क्योंकि जीवन उबलते पानी और जमी हुई बर्फ में भी संभव है,यह प्रमाणित भी हो चुका है.इन खतरों को हम अन्तरिक्षीय खतरों की श्रेणी में रख सकते हैं.इन पर मानव का कोई नियंत्रण भी नहीं है इसलिए इन पर विस्तार से विचार करने का कोई मतलब नहीं.दूसरी तरह के खतरे वे हैं जिन्हें हम मानवों ने खुद ही पैदा किया है.इनमें बढती जनसंख्या,घटते संसाधन,पर्यावरणीय विनाश,जलवायु परिवर्तन,भूमंडलीय ताप-वृद्धि और परमाणु बम शामिल हैं.जिस रफ़्तार में धरती पर मानवों की तादाद बढ़ रही है वह निकट भविष्य में मानवों के लिए ही नुकसानदेह साबित होनेवाली है.प्रत्येक २०-३० सालों में १ अरब लोग बढ़ जा रहे हैं.इनके लिए भोजन तो चाहिए ही,रहने के लिए आवास भी चाहिए.आवास के लिए उपजाऊ जमीन में घर बनाये जा रहे हैं.अब अगर कृषि-भूमि कम होगी तो खाद्यान्न भी कम पैदा होगा.कितना भीषण दुष्चक्र है?एक तरफ जनसंख्या सुरसा के मुंह की तरह बढ़ी जा रही है तो दूसरी ओर अनाज-उत्पादन कम होता जा रहा है.पूरी दुनिया में इस समय जो अनाजों के दाम चढ़े हुए हैं वह इसी दुष्चक्र का दुष्परिणाम है.हम जानते हैं कि धरती पर उपलब्ध जल में से सिर्फ ३ प्रतिशत हमारे काम के लायक है.आदमी बढ़ रहे हैं लेकिन पानी की मात्रा तो सीमित है.धीरे-धीरे इस शताब्दी के अंत तक स्थितियां ऎसी हो जानेवाली हैं कि पीने के लिए भी पानी पूरा नहीं पड़ेगा फ़िर खेती के लिए कहाँ से आएगा?आदमी बसने के लिए धड़ल्ले-से पेड़ काट रहा है.एक घर बनाने के लिए औसतन ३ पेड़ काटे जा रहे हैं.आदमी एक साल में जितने ऑक्सीजन का उपयोग कर जाता है उतना ऑक्सिजन बनाने के लिए ४ पेड़ चाहिए.लेकिन यहाँ तो स्थितियां उल्टी है.हम पेड़ लगाने के बदले काट रहे हैं.धीरे-धीरे धरती पर ऑक्सीजन भी कम होता जाएगा और वह दिन भी आएगा जब धरती मानवों के रहने लायक रह ही नहीं जाएगी.हमने पारंपरिक खेती को छोड़कर बहुत बड़ी गलती की है.रासायनिक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग से अन्न-पानी दूषित हो गए हैं जिससे मधुमेह और रक्तचाप जैसी बीमारियाँ आम हो गई है.इतना ही नहीं भूमि का तात्विक संतुलन भी बिगाड़ गया है जिससे जमीन ऊसर होने लगी है.निकट भविष्य में धरती से कोयला और खनिज तेल भी समाप्त होनेवाला है.बांकी खनिज-अयस्कों के साथ भी यही होनेवाला है.भगवान न करें अगर तीसरे विश्वयुद्ध की नौबत आई तो दो सौ साल से पहले भी मानवता समाप्त हो सकती है.क्योंकि धरती पर जितने परमाणु बम उपलब्ध हैं वे धरती को एक बार तो क्या कई बार विनष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं.खतरों की सूची में अगला नाम है धरती की ताप-वृद्धि और उसके कारण होनेवाले जलवायु परिवर्तन का.धरती लगातार गरम हो रही है.इस साल तो वैश्विक औसत तापमान के सामान्य १५ डिग्री सेंटीग्रेड से डेढ़ डिग्री ऊपर हो जाने का अनुमान है.अगर ताप-वृद्धि की यही रफ़्तार रही तो वह दिन दूर नहीं जब हम घर में बैठे-बैठे उबल जाएँगे.रेगिस्तान में बाढ़ आएगी और चेरापूंजी रेगिस्तान बन जाएगा.पूरी कृषि विनष्ट हो जाएगी.गंगा और अन्य हिमालीय नदियाँ सरस्वती की तरह विलुप्त हो जाएंगी.वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला है कि पहले इंसान के आनुवांशिक कोड में जो आक्रामक प्रवृत्तियां थी,वे अब नहीं है.यानी अब इन्सान का खुद को बदलती प्राकृतिक स्थितियों के अनुसार ढाल पाना संभव नहीं है.हौन्किंग साहब की चेतावनी से पूरी तरह निराश होने की जरुरत नहीं है.ऐसा करने से कुछ नहीं हासिल होनेवाला.जो हमारे हाथों में है वह तो हम कर ही सकते हैं.जनसंख्या नियंत्रण,जैविक कृषि,वृक्षारोपण,परमाणु बमों की समाप्ति,पारंपरिक जल-संरक्षण विधियों को अपनाना,प्लास्टिक के प्रयोग पर पूर्ण प्रतिबन्ध,बिजली की बचत,उद्योगों को एको-फ्रेंडली बनना और नवीकरणीय बिजली-उत्पादन आदि कई कदम उठाये जा सकते हैं.लेकिन क्या हम ऐसा करेंगे?करेंगे तो बचेंगे,नहीं तो प्रलय दूर नहीं.
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