Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

31.1.08

कह दो जो दिल में है

नवभारत टाइम्स में पिछले रविवार को फोकस पेज पर ब्लागिंग को लेकर जो कुछ छपा, उसमें भड़ास का भी जिक्र आया। ढेर सारे भड़ासी साथियों ने मुझसे अनुरोध किया कि वो जो कुछ छपा है, उसे भड़ास पर डाला जाय, ताकि वो दूर के शहरों में रहकर भी इसे पढ़ सकें, उनके अनुरोध को ध्यान में रखते हुए मैं एक लिंक यहां दे रहा हूं..
कह दो जो दिल में है
इस पर क्लिक करते ही आप नवभारत टाइम्स की साइट पर पहुंच जाएंगे और ब्लाग वाली स्टोरी को पढ़ सकेंगे।

जय भड़ास
यशवंत

35 साल की उम्र का न्यूज एडीटर चाहिए

हिंदी मीडिया में बदलाव की बयार
जी नहीं, किसी अखबार में वैकेन्सी खाली है, इस तरह की बात नहीं करने जा रहा। दरअसल, इस एक वाक्य के पीछे छिपे हिंदी प्रिंट मीडिया के आंतरिक बदलाव की सुगबुगाहट को पकड़ने की कोशिश कर रहा। इन दिनों जब हिंदी भाषी उत्तरी भारत में मीडिया घरानों में बच्चा अखबारों के कई संस्करणों के धड़ाधड़ प्रकाशन, कई हिंदी बिजनेस डेली के पदार्पण, कई बड़े हिंदी अखबारों के विस्तार अभियान के तहत उनका नए शहरों से प्रकाशन का दौर चल रहा है तो हिंदी प्रिंट मीडिया के कुशल पत्रकारों का अकाल सा पड़ा हुआ दिख रहा है। यहां मैंने कुशल पत्रकारों के अकाल की बात कही है, उनकी नहीं जो शुद्ध हिंदी लिखने में कांखने लगते हैं और बढ़िया हेडिंव व रीडेबल कापी बनाने में पसीना पोछने लगते हैं। इन कुशल पत्रकारों की मांग हर कहीं है। इसके पीछे साफ साफ वजह मार्केट में बढ़ती प्रतिस्पर्धा है। अच्छा लेआउट, बढ़िया प्रजेंटेशन, बेहतरीन कापी, कैची हेडिंग, नए तरह के स्टोरी एंगिल....ये सब चीजें देने वाला पत्रकार अगर मिल जाए तो समझो उसे लपकने के लिए हर मीडिया हाउस तैयार है। और ये सब चीजें पुराने जमाने के जड़ियल-सड़ियल पत्रकार देने से रहे।

पुरानों को बाय-बाय, नयों का वेलकम
पुराने जमाने के जड़ियल-सड़ियल पत्रकारों-संपादकों को नए जमाने के स्टोरी एंगिल, तकनीक, प्रजेंटेशन आदि को समझने-बूझने और इनके साथ चलने में ही पूरी ऊर्जा लगानी पड़ रही है। तो ऐसे में अब हर मीडिया हाउस की ख्वाहिश है कि उसकी संपादकीय और कंटेंट टीम को जो लीड करने वाला लीडर हो वो 35 पार का न हो। 35 पार का होने से एक खतरा आउटडेटेड होने व नई चीजों को न पकड़ पाने का है। मतलब, हिंदी मीडिया में 35 पार वालों की पारी अब ज्यादा दिन नहीं चलने वाली। 35 से नीचे की नई जमाने की नई पत्रकारीय फौज मैदान में है, हालांकि इसमें भी हर फन में दक्ष लोग कम ही हैं, लेकिन जो भी हैं, उनको जल्द ही नेतृत्वकारी भूमिका में लाए जाने की तैयारी है।

एक मित्र ने बताया कि फलां मीडिया हाउस ने ऐलानिया इनहाउस कह रखा है कि उसे अब अपने एडीटोरियल इंचार्ज के रूप में 35 पार के न्यूज एडीटर नहीं चाहिए। उसे नए जमाने के पत्रकार लीडर के रूप में रखने हैं तभी वो अपने रीडर्स को यूथफुल व नए जमाने का अखबार दे पाएगा।

35 पार की पारी इतनी जल्द तो खत्म नहीं होने जा रही क्योंकि ये बदलाव अमल में लाते लाते कई वर्ष गुजर जायेंगे लेकिन इससे एक चीज स्पष्ट है कि वो जो लोग पत्रकारिता में चमचागिरी, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, चेलहाई, चाटुकारिता आदि को प्रश्रय देते थे, उनके दिन लदने के करीब है। इन चीजों से अखबार को पहले भी भला नहीं होता था लेकिन तब अखबारों में कंटेंट व क्वालिटी की लड़ाई नहीं हुआ करती थी। उस समय स्वामिभक्ति और लायल्टी सबसे पहली चीज होती थी जिसे ये बुजुर्ग पत्रकार बखूबी निभाया करते थे। बाकी उनके नीचे के स्तर पर क्या हो रहा है, संपादकीय टीम में क्या रोष या क्या राग चल रहा है, इससे मालिक का कोई खास लेना देना नहीं होता था। पर अब मालिक को लगने लगा है कि उसे मालिकाना ही करना चाहिए और बढ़िया अखबार निकालने के लिए बढ़िया लोगों को रखना चाहिए। इसी के तहत अब नई उम्र के प्रतिभाशालील नौजवानों को मौका दिया जा रहा है।

नए भी दूध के धुले नहीं
हालांकि कई नए लोगों में भी ये पुराने रोग ठीकठाक घुसा हुआ है और वे भी दूध के धुले नहीं हैं लेकिन जब उन्हें लीड करना होगा तब उन्हें अपनी टीम वाकई मेरिट के आधार पर बनानी पड़ेगी और काम न करने वाले व अन्य वजहों से अपनी नौकरी चलाने वाले कामचोर लोगों को हतोत्साहित करना होगा।

कुल मिलाकर हिंदी मीडिया में आ रहा बदलाव स्वागतयोग्य है। उम्मीद की जानी चाहिए की बाजार के दबाव के बावजूद नए लोग पत्रकारिता के आदर्शों व बाजार की जरूरतों के बीच सामंजस्य बनाकर रख सकेंगे।

विस्तार है अपार
प्रभात खबर बिहार में कई जगहों से लांच होने वाला है और उसे संपादकीय के हर तरह के जूनियर सीनियर लोग काफी संख्या में चाहिए, दिल्ली में चार चार हिंदी के बिजनेस अखबारों की भर्तियां चल रहीं हैं और वहां भी मेरिट को पैमाना रखा जा रहा है, आईनेक्स्ट व कांपैक्ट का धड़ाधड़ नए केंद्रों से प्रकाशन हो रहा है। कांपैक्ट ने तो हफ्ते भर में ही संभवतः चार पांच जगहों से प्रकाशन करके एक तरह से रिकार्ड बनाने का दावा किया है। आज खबर है कि इसका प्रकाशन मेरठ से हो गया और इससे ठीक कुछ दिन पहले गाजियाबाद और देहरादून से प्रकाशन शुरू हुआ। इसी तरह आईनेक्स्ट ने देहरादून के बाद अब पटना और रांची में प्रकाशन की तैयारी शुरू कर दी है। डीएलए नामक अखबार जो अभी तक सिर्फ आगरा से प्रकाशित होता था, अब नोएडा और गाजियाबाद से भी लांच कर दिया गया है और मेरठ से जल्द ही लांच होने वाला है। दैनिक भाष्कर ने लुधियाना से अपना संस्करण लांच किया है और कई नए संस्करण लांच करने की तैयारी में हैं। राजस्थान पत्रिका राजस्थान के बाहर हमला करने के लिए पूरे मूड में है।

इन सब जगहों पर जो टीम लीड कर रही है, वो नौजवानों की टीम है जिन्हें अपने काम और अपनी ऊर्जा पर भरोसा है। ये लोग खुद को साबित भी कर रहे हैं। अब सबसे बड़ी दिक्कत आगे होने वाली क्वालिटी की जंग में खुद को अव्वल रखना है और इसके लिए हर पत्रकार को खुद को टीच और प्रीच करते रहना होगा।

बनना होगा एक बेहतर टीम लीडर
हिंदी पत्रकारिता में नेतृत्वकारी भूमिका में जा रही नौजवानों की टीम को भड़ास की तरफ से ढेरों शुभकामनाएं, साथ में नसीहत भी कि, कभी भी अपने जूनियर का सार्वजनिक तौर पर अपामान न करें। वो जूनियर भी एक दिन आपकी तरह सीनियर बनेगा, इसलिए कोशिश करें कि हमेशा संतुलित व धैर्य के साथ स्थितियों से निपटें। अकारण रोब न गालिब करें, चापलूसों से सावधान रहें, मुखबिरों को बिलकुल प्रश्रय न दें, काम और सिर्फ काम की मेरिट पर अपने सहकर्मियों से नजदीकी या दूर के रिश्ते बनाएं। हमेशा टीम वर्क में विश्वास करें। कमियों को अपने उपर लें और अच्छाइयां की क्रेडिट पूरी टीम को दें। ऐसी ढेर सारी चीजें हैं, जिसे आत्मसात करके ही एक टीम का सर्वमान्य लीडर बना जा सकता है। अपन के तो गुरु वीरेन डंगवाल जी अपनी टेबल पर लिख के रखा करते थे....टीम बुरी नहीं होती, कप्तान बुरा होता है। और ये बात सोलह आने सच है। जैसा कप्तान होगा, वैसी टीम हो जाएगी। तो नौजवान कप्तानों, बुलंद इरादों के साथ चुनौतियों का सामना करो। किस्मत आपके साथ है, समय आपके हक में है, तकनीक व प्रतिभा आपके पास है......जाहिर सी बात है, भविष्य भी आपका और हमारा होगा। आप लोगों के क्या खयाल हैं?

जय भड़ास
यशवंत

मीरा कहां हैं? गरिमा और पूजा का स्वागत है...कुछ और फुटकर बातें

रिकार्ड
नए साल के पहले महीने का आज आखिरी दिन। इस पोस्ट को मिला लें तो कुल 270 पोस्टें इस 31 दिनों में भड़ास पर भड़ासियों ने प्रकाशित कीं जो संभवतः अब तक का एक रिकार्ड होना चाहिए, ज्यादा सही सही ब्लाग आंकड़ों के जानकार बताएंगे। आज मेंबरशिप देखी तो कुल 195 लोग भड़ासी बन चुके हैं, मतलब 200 में सिर्फ पांच कम।

पब्लिसिटी
इस महीने ही ब्लाग पर जहां कहीं चर्चा हुई उसमें भड़ास का जिक्र प्रमुखता से हुआ। रवि रतलामी जी ने एक पुस्तक में ब्लागों पे जो लिखा उसमें भड़ास का सचित्र जिक्र किया, आगरा से हाल ही में प्रकाशित एक पत्रिका में भड़ास की चर्चा हुई जैसा कि विनीत कुमार ने मुझे सूचित किया, ग्वालियर में कार्यशाला में भड़ास का जिक्रर किया गया, दैनिक भाष्कर के ब्लाग उवाच कालम में रवींद्र दुबे जी ने भड़ास की बढ़ती लोकप्रियता व इसके भविष्य का वर्णन किया और अभी हाल ही में नवभारत टाइम्स में लगभग पूरे पेज के ब्लाग पर आयोजन में भड़ास का जिक्र किया गया। कुल मिलाकर यह महीना उपलब्धियों और सरगर्मियों से भरपूर रहा। भड़ास पर कई गरमागरम बहसें भी हुईं और अब भी हो रही हैं।

आधी दुनिया
सबसे खास बात जो चुपचाप घटित हुई, जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया कि भड़ास में कई महिला ब्लागर भी शामिल हो चुकी हैं और वे अपनी उपस्थिति टिप्पणियों के रूप में दर्ज करा रही हैं, पोस्ट के रूप में अपने विचार प्रेषित कर रही हैं। इन सभी का स्वागत। मैं नाम लेना चाहूंगा, गरिमा और पूजा नामक दो साथी भड़ास की सदस्य हैं और लगातार सक्रिय हैं। इनसे अनुरोध है कि वे इस मंच का भरपूर इस्तेमाल करें और अन्य महिला साथियों को भी इससे जोड़ें ताकि पुरुष भड़ासियों के वर्चस्व को कम कर आवाज उठाने के माममें में महिला-पुरुष सुर को बराबरी पर लाया जा सके।

और हां, अपनी सबसे पुरानी भड़ासिन साथी मीरा आजकल भड़ास से गायब हैं। गालियों में औरतों को लक्षित किए जाने के बरखिलाफ उन्होंने मर्दवादी गालियों को इजाद किए जाने की बात की थी और बड़े तेवर से पुरुष भड़ासियों को ठीक करने आई थीं पर इन दिनों जाने कहां गायब हैं। अगर उन तक मेरी आवाज पहुंच रही हो तो कृपया वो अपनी उपस्थिति दर्ज करावें और फिर दस्तक दें।

ताजा विवाद
विनीत कुमार की जिस पोस्ट पर गर्मागर्म बहस चल रही है, उसके बारे में मेरा अपना निजी खयाल यही है कि भड़ास पर किसी मीडिया हाउस का नाम लेकर उसे कोसने के बजाय जिस सज्जन से दिक्कत है, पीड़ा है, उनका नाम कोटकर लिखा जाए तो शायद ज्यादा ठीक रहेगा क्योंकि किसी मीडिया हाउस को किसी एक दो खराब टाइप के सज्जनों के कारण गरियाना, नाम उछालना, बदनाम करना उचित नहीं। यही सब हम लोगों ने पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान भी सीखा है और पत्रकारिता के आदर्श भी यही कहते हैं कि कुछ एक लोगों के कारण किसी संस्था को बेकार या बदनाम नहीं कह कर सकते। तो मैं इस मामले में डा. मांधाता सिंह की राय के साथ हूं। हालांकि माडरेटर के नाते मैं विनीत कुमार की पोस्ट का संपादित कर उस मीडिया हाउस के नाम को हटाने का अधिकार रखता हूं लेकिन मैं चाहता हूं कि जितने भी भड़ासी साथी हैं वो खुद में आत्म अनुशासन विकसित करें ताकि भविष्य में इस तरह की स्थिति न आने पावे। हम सभी किसी न किसी संस्थान से जुड़े हुए हैं और हर जगह पर हर तरह के लोग होते हैं इसलिए किसी एक के कारण सभी को खराब या अच्छा नहीं कहा जा सकता और इसके चलते पूरे संस्थान का नाम लेकर बदनाम नहीं किया जा सकता। उम्मीद है इस विवाद को यहीं खत्म समझा जाएगा। अगर फिर भी किसी को कुछ कहना है तो उसका स्वागत है।

नए लिक्खाड़
कई नए लोगों ने भी लिखना शुरू कर दिया है लेकिन अभी ढेर सारे साथी ऐसे हैं जो तमाशाई ज्यादा बने हुए हैं, लेखक कम। मेरे खयाल से भड़ास मंच का मकसद अपने गले को खोलना, आवाज को बुलंद करना ही है। तो, अब गला खंखारते हुए जो कुछ मन में, दिल में भरा हो, उसे निकालिए। सुरेश पांडेय, अबरार अहमद, मयंक, गरिमा, पूजा...और अन्य सभी नए भड़ासियों, सक्रिय साथियों की हम सब हौसलाअफजाई करते हैं। पर पुराने लिक्खाड़ लगातार मौन हैं, उनमें प्रमुख हैं आलोक सिंह, सचिन, रियाज हाशमी, अनिल सिन्हा आदि आदि....। लगता है, इनकी भड़ास सब निकल चुकी है, तभी मौन साधे हैं।

चोरी और नकल
मुझे एक भड़ासी साथी ने मुझे लिखित सूचना दी है कि ....rajiv's Site and Ajit's Site नामक ब्लोगर आज कल भड़ास पर पोस्ट होने वाली पोस्टो को जेसे -की-वैसी कॉपी अपने ब्लोग़ पर चिपका रहे हें ! शाबाश...भाई लोगो क्या बात हें ! स्कूल मे नकल तो हम ने भी बहुत मारी लेकिन एसे नही ! कम से कम थोडा बहुत शब्दो का उलट फ़ेर तो कर लिया करो ,या फ़िर यशवन्त भाई से आज्ञा ले रखी हे?

उपरोक्त मामले को एक बार मैंने पहले भी उठाया था कि राजीव तनेजा जिस वेबसाइट पे हैं वहां ब्लाग वाले कालम में भड़ास की पोस्टें जाती हैं, इस मामले में क्या किया जाना चाहिए, मुझे खुद नहीं पता है। अगर पीडी बाबू कुछ मदद करें या कोई अन्य ब्लागर साथी बताए तो राह समझ में आए। मैं उपरोक्त दोनों साथियों से अपील करूंगा कि वो इस बारे में स्थिति स्पष्ट करें ताकि अगर चोरी या नकल जैसा संगीन आरोप है तो उससे निपटा जा सके।

गूगल एडसेंस
मैंने कुछ दिनों पहले सीखने व प्रयोग करने की मुहिम में गूगल एडसेंस का प्रयोग करके कुछ विज्ञापन उपर नीचे भड़ास पर लगाए थे पर तकनीकी समझदारी न होने की वजह से मैं गूगल एकाउंट नहीं क्रिएट कर पाया और बाद में व्यस्तता की वजह से यह काम पेंडिंग पड़ा रहा। इसलिए आखिरकार विज्ञापन के लफड़े में पड़ने के बजाय मैंने एडसेंस को ही हटा दिया। अब भड़ास पर कोई विज्ञापन नहीं है। विज्ञापन लगाने का मकसद था कि अगर गूगल थोड़ी रकम वकम विज्ञापन से लाभ होने पर भेज देता है तो भड़ास पुरस्कार आदि शुरू किया जा सकता है पर हिंदी ब्लागिग में अभी वो स्थिति नहीं आ पाई ही गूगल एडसेंस से कमाई की जा सके। इसीलिए फिलहाल इस प्रयोग को स्थगित रखने को तय किया है। बाद में देखा जाएगा।

क्या लिखें?
कई साथी सोचते रहते हैं कि भड़ास पर क्या लिखें? भड़ास को एक ऐसा मंच मानिए जो आपकी प्रतिभा और समझ को बढ़ाएगा। आप अगर भड़ास पर लिखते हैं तो पहले तो हिंदी में लिखना सीखेंगे, उसका लिए जो फांट व टूलकिट आदि का झमेला है उसे समझेंगे। दूसरे, अगर इस सबके जानकार हो चुके हैं तो फिर भड़ास के सदस्य होने के साथ साथ अपना ब्लाग बनाइए। कविता, कहानी, संस्मरण, व्यंग्य, सूचनाएं, अनुभव आदि को भड़ास पर व अपने ब्लाग पर प्रकाशित करिए। लिखने को एक लाख विषय हैं, न लिखने के एक लाख बहाने हैं। ये आप पे हैं कि आप क्या करते हैं। मेरे खयाल से अगर आप हिंदी वाले हैं तो आपको ब्लागिंग के इस पवित्र काम में जोरशोर से भाग लेना चाहिए क्योंकि इससे न सिर्फ आप खुद को तकनीक व लेखन की दृष्टि से समृद्ध करते हैं बल्कि हजारों ब्लागरों से आनलाइन संपर्क और संबंध भी बनाने में सक्षम होते हैं।

सुझाव दें
भड़ास पर नया और क्या हो सकता है, इस बारे में अगर आप लोगों के पास कोई सुझाव या विचार हैं तो वो जरूर बताएं। भड़ास एक कम्युनिटी ब्लाग है, इस पर जितना अधिकार यशवंत, डा. रुपेश, अंकित माथुर, आशीष महर्षि आदि का है, उतना ही अन्य कम लिखने वाले या न लिखने वाले भड़ासियों का भी है। इसलिए आप सभी अपनी राय से जरूर अवगत कराएं कि भड़ास पर नया क्या होना चाहिए।


जय भड़ास
यशवंत सिंह
yashwantdelhi@gmail.com

है कोई तुझसे बड़ा

है कोई तुझसे बड़ा, तेरे अस्तित्त्व से, तेरे आधार से।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू आकाश है पहचान खुद को।
तेरा कोई अंत नही, तू अनंत है, है कोई जो तुझे सीमाओं में बांध सके।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू धरा है, पहचान खुद को।
तेरी सहनशीलता, तेरी सुन्दरता का कोई जोड़ नही।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
है कोई तुझसे बड़ा, तेरे अस्तित्त्व से, तेरे आधार से।
तू अग्नि है, अपनी पहचान कर।
तेरा तेज, तेरा ताप, तेरी ऊर्जा जीवन का स्रोत है।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू जल है, खुद को पहचान।
तेरी शीतलता, तेरी निर्मलता, तेरी पवित्रता किसी और में है क्या।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
तू वायु है, अपनी पहचान कर।
तेरा वेग, तेरी शक्ति, तेरा जीवन देने का अंदाज किसी और में है क्या।
फिर क्यों डरता है, क्यों तिल-तिल कर मरता है।
है कोई तुझसे बड़ा, तेरे अस्तित्त्व से, तेरे आधार से।
अबरार अहमद, दैनिक भास्कर, लुधियाना

धन्यवाद

आदरणीय साथियों,
आप सब की बधाइयों के लिए मैं आप सब का शुक्रगुजार हूँ। वक्त से थोडी आँखमिचौली चल रही है। जल्द ही आप सब को अपना चेहरा दिखाऊंगा।
अबरार अहमद

हरिद्वार की ठंडी, धर्म की सरगर्मी, डा. बुधकर और तोमर संग चाय की चुस्की

हरिद्वार की भयंकर ठंडी ने तो दिल्ली की सर्दी को पछाड़ दिया। उंगलियां कड़कडा के यूं ऐंठी हैं कि हिलने डुलने से मना कर रही हैं। इस शहर में आज दूसरा दिन है और दो दिनों में इतनी सारी बातें हुईं कि अगर सभी को बताने बैठूंगा तो जाने कितनी पोस्टें किलो किलो भर की लिखनी पड़ेंगी। संक्षेप में, कुछ बातें...

-इंटरनेट की आभाषी दुनिया के जरिये बने मित्रों से वास्तविक दुनिया में मिलन हुआ। डा. कमलकांत बुधकर और डा. अजीत तोमर, दोनों ही ब्लागर, से मिलना न सिर्फ यह भरोसा दिलाने वाला था कि कमीनों की इस दुनिया में अच्छे अभी बड़ी संख्या में हैं, और ये संख्या, इंशाअल्लाह, ब्लागिंग व ब्लागरों के चलते और ज्यादा बढ़ने वाली है।

-हरिद्वार में उतरने से पहले ही डा. अजीत तोमर का स्नेहिल आमंत्रण आ चुका था कि आप पहले मेरे यहां आएंगे, चाय पियेंगे, फिर जाना हो जाएंगे। मैं हरिद्वार में सिंहद्वार पर उतरा और थोड़ी ही देर में डा. अजीत हाजिर। उनकी बाइक पर उनके कमरे पहुंचा। दो दो पैग चाय के बाद बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ तो फिर थमा नहीं और देखते देखते उनकी जि़द आ गई कि आज रात यहीं गुजारें। उनके साधिकार अनुरोध को टाल न पाया। बतियाते बतियाते कब नींद आ गई, पता न चला।

-सुबह सवेरे उठने की मेरी कोशिशें हमेशा बेकार होती हैं सो देर से उठा और फिर डा. कमलकांत बुधकर जी का आदेश पहुंचा कि यशवंत जी को लेकर मेरे घर आओ। हम दोनों डा. बुधकर जी के यहां पहुंचे। विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के रीडर डा. बुधकर न सिर्फ बेहद अच्छे इंसान बल्कि एक सच्चे दोस्त बन गए, थोड़ी ही देर की बातचीत के बाद। लगे हाथ उन्होंने भड़ास की मेंबरशिप ले ली और इंट्रोडक्टरी पोस्ट भी प्रेषित कर दी।

-धूप में चाय पीते हुए बुधकर जी को सुनना मजेदार अनुभव रहा। महाराष्ट्र के सतारा के बुध गांव के होने के नाते बुधकर पर जब बुध गांव पहुंचे तो वहां कोई अपने नाम में बुधकर नहीं लगाता, पता चला कि जो लोग अपने गांव से बाहर निकले उन्होंने ही अपने नाम में गांव के नाम के साथ कर जोड़ लिया....गावस्कर, बुधकर, मंजरेकर.....आदि आदि। डा. बुधकर जी ने ब्लागर मीटिंग का प्रस्ताव भी रखा, जिसे उन्होंने अपनी पोस्ट में भी लिखा है।

-डा. बुधकर से मिलना, उनको सुनना, उनके लिखे को पढ़ना....बेहद सुखद अनुभव है। अनुभवों की जो थाती, शब्दों का जो शिल्प, बयान करने का अंदाज़, व्यक्तित्व की सहजता...ये सब चीजें उन्हें कुल मिलाकर ऐसा बना देती हैं कि उनसे बार बार बतियाने गपियाने सुनने और जीने का मन करता है।

-डा. अजीत मुजफ्फरनगर के रहने वाले हैं और गुरुकुल कांगड़ी विवि में ही शोध किया और अब यहीं अध्यापन करने लगे हैं। उम्र तो ज्यादा नहीं है लेकिन संवेदना इतनी गहन की जैसे छोटी सी छोटी चीज उनकी निगाह से छूट नहीं पाती। इन चीजों को वे कविता के रूप में आकार देने की कोशिश करते हैं। उनके ब्लाग पर आप कविताएं ही पायेंगे। उनकी मेहमाननवाजी देखकर मैं सोचने लगा कि इस शख्स से पहले कभी मिला नहीं और पहली ही मुलाकात में इतना अपनापा। शायद एक समान सोच व संवेदना के लोग जब मिलते हैं तो लगता है कि जमाने से मिले हुए हैं, बिछ़ड़े ही कब थे।

-डा. अजीत के साथ हरिद्वार घूमने के बाद आज मैंने उन्हें विदा किया और फिर खुद घूमने निकला। हर की पैड़ी के साथ साथ आसपास के पूरे इलाके को घूमा। कुछ यूं दिखा सारा मंज़र...

हर जगह धर्म से जुड़ी दुकानें
कंठी, माला, कपड़े, शंख,
किताबें, प्रसाद, कैसेट,
पूजा का सामान, तस्वीरें
पंडे, लाइन से बैठे भिखारी,
गंगा में डुबकी लगाते श्रद्धालु,
पैसे लेकर ग्रुप फोटो खींचते फोटोग्राफर,
गंगा में डुबकी लगाकर पैसे बीनते लड़के,
रसीद काटकर पैसे मांगती महिलाएं,
गरीबों को भोजन खिलाने का
आह्वान करते ठेले वाले दुकानदार,
धार्मिक गीतों का शोर मचाकर सीडी
व कैसेट बेचते लौंडे,
पतली-पतली गलियां,
ताजी ताजी छनतीं पूड़ियां,
बड़े बड़े धर्मशाले, गेरुआ धारी साधु संत
और इन सबको अगल बगल बसाये
कल कल करतीं बहतीं पावन गंगा,
गंगा को चुनरी ओढ़ाये खड़े बड़े पहाड़
चुपचाप देखते निहारते सदियों से.....
सब कुछ धर्ममय और सबके पीछे पैसे का खेल
बस निष्पाप और निष्कलुष गंगा दिखीं
और पहाड़ दिखे, बाकी सब के मन में
थोड़ा थोड़ा खोट,
जैसे पैसे की जगह
मांग रहे हों रुपये रूपी वोट...
हरिद्वार की ठंडी को मात करती है
सिर्फ धर्म के धंधे की जोरदार गर्मी
लगता है जैसे मौसम सिर्फ धर्म
और भक्ति को बेचकर पैसे बनाने का है।


बातचीत करने पर पता चला कि स्थानीय लोग तो सिर्फ धर्म के नाम पर पैसे बनाकर जीवन चलाने में जुटे रहते हैं और बाहर के लोग सिर्फ धर्म को जीने और बूझने आते हैं।

मुझे जो दो चीजें अच्छी लगीं उनमें से एक था टेलीस्कोप जिससे दूर पहाड़ पर स्थित मंदिरों को साफ देखा जा सकता था, गंगा के बीच में बनी गंगा की प्रतिमा को साफ देखा जा सकता था और टी सीरिज वालों की तरफ से बनाई गई शंकर की विशालकाय मूर्ति की जटा में गंगा की शक्ल को देखा जा सकता था। पांच रुपये लिए सिर्फ ये चीजें दिखाने के लिए।

फिलहाल इतना ही
फिर मिलेंगे
जय भड़ास
यशवंत सिंह

मुझे उजाले से ड़र लगता है

उजाले मे नही आती है नीद मुझे
चुभता है यह फिलिप्स आँखों मे
सिकोड़कर बंद कर लू आंखे तो
दिखता है गोधरा का सच मुझे
लाल हो जाती है आंखे मास के लोथरो से
तड़प कर गिरते पशु महोबा के खेत मे
विदर्भ कि फटी धरती पर किसान का खून सना
गोलियों के छर्रे पर नंदीग्राम का सच लिखा
आंखे ढकता ह कपडे से जब मैं
ओखली सा पेट लेकर नगों कि एक फोज खडी
ड़र कर आंखे खोलता हू जब मैं
दिखता है उजला भारत _उदय मुझे
बंद कर लू उंगलियों से जो कान के छेद को
बिलकिस कि चीखो से कान फटता है मेरा
किसानों कि सिस्किया चित्कारती है मुझे क्यो
शकील के घर ही क्यो सायरन का शोर है
फौज का बूट मेरे सर पर है
अब उजाले मे नीद मुझसे उड़ती है

मैंने गाँधी को मारा है !!

गांधीजी की पुण्यतिथि पर उनको शायद हम सबने याद किया, कुछ को याद था कुछ को याद दिला दिया गया। अच्छा लगा कि कम से कम हमारी ज़िम्मेदार ( तथाकथित ) मीडिया इस दिन को नही भूली। वैसे कई चैनल दूरदर्शन देख कर जगे होंगे, दूरदर्शन को बधाई किसी काम तो आया ....... कुछ निजी चैनल भी तैयारी के साथ आये जैसे एन डी टी वी और समय को बधाई ! कल एन डी टी वी देखते पर कुछ विचार फिर से उठे और शब्दों की शक्ल अख्तियार कर ली ! गांधी की प्रासंगिकता पर सवाल और जवाब की ही उलझन में पड़े हम सब हिन्दोस्तानी शायद यही सोचते हैं !

मैंने गांधी को मारा है !!
मैंने गांधी को मारा है .....
हाँ मैंने गांधी को मार दिया !!
मैं कौन ?
अरे नही मैं कोई नाथूराम नहीं
मैं तो वही जो तुम सब हो
हम सब हैं

क्या हुआ अगर मैं उस वक़्त पैदा नही हो पाया
क्या हुआ अगर गांधी को मैं सशरीर नही मार सका
मैंने वह कर दिखाया
जो नाथू राम नही कर पाया
मैंने गांधी को मारा है
मैंने उसकी आत्मा को मार दिखाया है

और मेरी उपलब्धि
कि मैंने गांधी को एक बार नही
कई बार मारा है
अक्सर मारता रहता हूँ
आज सुबह ही मारा है
शाम तक न जाने कितनी बार मार चुका हूँगा

इसमे मेरे लिए कुछ नया नहीं
रोज़ ही का काम है
हर बार जब अन्याय करता हूँ
अन्याय सहता हूँ
सच छुपाता झूठ बोलता हूँ
घुटता अन्दर ही अन्दर मरता हूँ

अपने फायदे के लिए
दूसरे का नुकसान करता हूँ
और उसे प्रोफेश्नालिस्म
का नाम देकर बच निकलता हूँ
तब तब हर बार
हाँ मैंने गांधी को मारा है ........

जब जब यह चीखता हूँ कि
साला यह मुल्क है ही घटिया
तब तब ......
जब भी भौंकता हूँ कि
साला इस देश का कुछ होने वाला नही
और जब भी व्यंग्य करता हूँ कि
अमा यार ' मजबूरी का नाम .........'
तब तब
हर बार मैंने उसे मार दिया
बूढा परेशान न करे
हर कदम पर
आदर्शो के नखरों से
सो उसे मौत के घाट उतार दिया

तो आज गीता कुरान
जिस पर कहो
हाथ रख कर क़सम खाता हूँ
सच बताता हूँ
कि मैंने गांधी को मारा है
पर इस साजिश में मैं अकेला नहीं हूँ
मेरे और भी साथी हैं
जो इसमे शामिल हैं
और
वो साथी हैं
आप सब !!
बल्कि हम सब !!!!
यौर होनौर आप भी ......
अब चौंकिए मत
शर्मिन्दा हो कर चुप भी मत रहिये .......
फैसला सुनाइयेमेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है !!!!!!!
हां दो मुझे सज़ा दो क्यूंकि मैंने गांधी को ....................

- मयंक सक्सेना

गंगाघाट का नया भड़ासी

यारों, आज एक और चमत्‍कार हो गया। आलोक पुराणिक के बाद आज मेरे घर यशवंत नामक ब्‍लॉगर जी आए और मैंने बाकायदा उनको गण्‍डा बांधकर उनकी चेलाई स्‍वीकार कर ली। अब मैं भीर भड़ासी हो गया हूं। आप सबकी सूचनार्थ सादर।

मेरा प्रोफाइल आप देखकर मेरे बारे में जान सकते हैं। मेरा भी कछु हमरी सुनि लीजै नामक एक ब्‍लॉग है।

अब एक बात और........ सोचा जा रहा है कि हरिद्वार में होली के आसपास एक ब्‍लागर्स मीट का आयोजन गंगाघाट पर किया जाए। कलकल करती पावन गंगा के ऊपर से जब वासंती हवाएं आप हम सबकों छू छू कर बहेंगी तो ब्‍लॉगर्स का मन भी कुछ नया नया करने का होगा। आप लोग बताएं कि यह प्रस्‍ताव कैसा है ?

सादर

कमलकांत बुधकर

30.1.08

कमीने तो हर डाल पर बैठे हैं गालिब........

आदरणीय विनीत कुमारजी, लेख न छपने पर और वाजिब जवाब न मिलने पर आपका गुस्सा जायज है। अगर पत्रकारिता की आज की दुनिया के ही जीव हैं आप तो तो मेरे ख्याल यह आप को भी बखूबी पता होगा कि हर अखबार में वही छपता है जो उसके नियामक चाहते हैं न कि लिखनेवाले। भड़ासी भाई दुकान जरूर जनता के लिए खुली है मगर दुकानदार जो बेचना चाहेगा वहीं बिकेगा। खरीदार की मर्जी तब देखी जाती है जब उसमें व्यावसायिक हित शामिल हो। बहरहाल मैं आपको कोई नसीहत नहीं देना चाहता मगर अपील जरूर है कि वहीं लिखें जहां छपने की संभावना हो। वैसे इसी तरह एक शिकायत एक ब्लागर भाई ने नई दुनिया के संदर्भ में की थी मगर आप की तरह भड़ककर नहीं। उन्होंने सिर्फ यह कहा था कि पता नहीं उन्हें अब क्यों नहीं छापते नईदुनिया वाले।
जनसत्ता बाजार में वैसा बिकाऊ माल नहीं रहा तो इसका मतलब यह नहीं कि इतना तुच्छ हो गया है कि आप उसपर हंस सकें। जनसत्ता का होने के नाते मुझे आपकी यह उपहास वाली टिप्पणी उसी तरह नागवार लगी जैसे न छपने और जनसत्ता के दो टूक जवाब से आपको लगी। अगर कोई आपको नहीं छापता तो इसमें लड़ने वाली बात क्या है। हर किसी के अपने दायरे हैं। जनसत्ता मेरी नजर में कल भी अच्छा अखबार था और आज भी है।
एक शिकायत यशवंतजी से भी है। आपने दुबारा भड़ास शुरू करने पर कहा था कि हम अपने ही तंत्र या व्यवस्था पर टिप्पणी करने से परहेज रखेंगे। इसकी vajaha भी साफ है कि जल में रहकर मगर से बैर कितना जायज होगा। अब उसके बाद से यह मामला आया है जिसपर भड़ास निकालने के लिए शब्दबाण का सार्वजनिक इस्तेमाल सीधे भड़ास ब्लाग पर किया गया। जबकि डा. रूपेश को आप ही समझा चुके हैं कि ङम किस हद तक आग उगलें। जनसत्ता में रहते हुए रिस्क लेकर इस मुद्दे पर भड़ास इस लिए निकाल रहा हूं क्यों मुझे लगता है कि फिर से भड़ास किसी व्यर्थ के बहस में न उलझ जाए। हमारे कहने, बोलने, लिखने को मान्यता हासिल रहे इसके लिए जरूरी है कि कुछ मानदंडों के दायरे में भड़ास को रखा जाए। मंच को सार्वजनिक आपने बनाया है और उसी अधिकार से भड़ासी होने के नाते आपसे यह उम्मीद है कि भड़ास को सिर्फ अपनी अमर्यादित खीझ उतारने का मंच बनने से आप रोकेंगे।
नहीं भूलना चाहिए कि हम बुद्धिजीवी हैं और बुद्धिजीवी के नाराज होने का तरीका भी ऐसा होना चाहिए कि उससे भी लोगों को सीख मिले। कुछ अधिक मुखर हो जाने के लिए भड़ासी भाइयों से क्षमा चाहूंगा मगर कामना यही है कि भड़ास एक मर्यादित मंच बना रहे। कोई नहीं छापकर आपको विचलित नहीं कर सकता। इस आग को सीने में दबाके रखिए , इसके पीछे हमारा कारवां भी है।

जय भड़ास
डा.मान्धाता सिंह

चम्बल घाटी तक पहुँची ब्लोगिंग


ब्लोगिंग की गूँज अब "चम्बल घाटी" तक पहुँच चुकी है! ग्वालियर से प्रकाशित नई दुनिया के संपादक श्री राकेश पाठक ने चम्बल घाटी नाम से ब्लॉग पर अपनी अंगुलियों का जादू चला दिया है ! इससे पहले हम सब उनकी कलम का जादू हर रोज समाचार पत्र में पड़ते रहे हैं! उम्मीद है की ये ब्लॉग ब्लॉग पत्रकारिता में मील का पत्थर बनेगा !


हम सभी ब्लॉग पर आने के लिए उन्हें बधाई देते हैं !

पत्रकार प्रशिक्षण कार्यशाला में भडास की चर्चा

संभागीय जनसंपर्क कार्यालय ग्वालियर द्वारा आयोजित पत्रकार प्रशिक्षण कार्यशाला में सबसे महत्वपूर्ण अंग ब्लोगिंग बना! जिस पर नई दुनिया के संपादक श्री राकेश पाठक ने इसे पत्रकारिता का नया आयाम बताया! उन्होंने भड़ास ब्लॉग की तारीफ की वहीं! मोहल्ला, बोल हल्ला जैसे कई ब्लॉग पत्रकारों के लिए महत्वपूर्ण बताएं! इस दोरान उन्होंने फोटो पत्रकारों के लिए तीन पुरुस्कारों की घोषणा की जो फोटो पत्रकारों के लिए ग्वालियर चम्बल संभाग में पहला सराहनीय कदम है! हम उम्मीद करते हैं वह शीघ्र इंटरनेट पत्रकारिता और ब्लोगिंग पर भी कार्यशाला आयोजित कर युवा पत्रकारों का प्रोत्साहन बढाये ! इस कार्यशाला में करीब १५० पत्रकारों के अलावा क्षेत्रीय अखबारों के करीब सभी संपादकों ने भाग लिया!

namskar yashwant jee

jitna kuch samajh paya haun is dunia ke barre mian utni assan nahin hai yeh dunia. aap ne shahi likha hai ki her waqt aapne ko upgrade karte rahana hoga. yeh guru mantra la liya hooun. kosish hogi ke kuch accha sa likunu.

तेरी माँकी और सायमन्ड्स का मन्कियापा

भड़ासी गुरू सुबह से ही भयानक परेशान थे। गरिया रहे थे और नस्लभेद पर तमाम तरह की टिप्पणियां चेंप रहे थे। हम मन ही मन मु्स्कुराये और चुटकियाने के अन्दाज़ में उन्हे किलकिया दिए कि भड़ासी गुरू अब भड़ास निकालने से क्या फायदा जब अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद ने भज्जी को बरी कर दिया। वो बिफर गये और भज्जी की तथाकथित अभद्र भाषा की उल्टी करने लगे।

बोले- "तेरी माँकी" ही तो कहा था प्यारे भज्जी ने, मंकी तो कहा नहीं उस जटाजूट वाले उद्दंड को, अब उसे पंजाबी और हिन्दी ना आये तो भज्जी का क्या दोष?वो चालू रहे नानस्टॉप बोलते रहे- हम कब तक यूँ ही सहते रहेंगे? महात्मा गाँधी ने जिस नस्लभेद के खिलाफ ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी उसी नस्लभेद के खिलाफ हम घुटने टेक रहे हैं। गाली देना तो ह्युमन बीईंग का नेचर है, चुनांचे भज्जी ने सिर्फ गाली का मुखड़ा बोला था, पूरी गाली नहीं ऐसे में खाली स्थान भरो की तरह ऑप्सन देना था एन्ड्रयू सायमन्डस को कि बेटा पहले भज्जी के भड़ास की मीनिंग तो बताओ?

उछलने लगे ऐसे कि जैसे सही में कपि की औलाद हों।

मैंने कहा-भड़ासी गुरू अब तो मामला दूध का दूध, पानी का पानी हो गया तो खिसियाकर वो अपना सोंटा निकाल लिए। चुटकियों से पैसों कि मुद्रा बनाते हुए बोले- अभी बताता हूँ मेरे सहनशील शिष्य॰॰ अबे तुझे नहीं पता कि सब लक्ष्मी का खेल है॰॰

मैंने फौरन चुटकी ली- कौन मित्तल जी? बोले अबे मित्तल-वित्तल नाहीं, उ जिससे मित्तल आज मित्तल हैं, मनी मनी॰॰ई सब बड़े लोगों का अपनी ओर अटेंशन लेने का तरीका है। भज्जी अन्ततोगत्वा बरी हो गये, मीडिया को भी खूब मसाला मिला लिखने को और दिखाने को। हम लोग नाहक परेशान हुए॰॰ रोज गाली देते हैं लेकिन कोई नोटिस ही नहीं लेता॰॰ तेरी माँकी॰॰॰

काय कराइचे...... ?

आज फिर मुझे इस बात का एहसास हुआ कि मैं किसी मायाजाल में हूं और दुनिया को जिस नजर से देख रहा हूं वह भ्रम में है । बात तो कुल मिला कर ये है कि हम कितने वर्किंग-आवर्स खर्च करके अपनी योग्यता के आधार पर कितना मालपानी कमाते हैं । आज ट्रेन मे मेरी मुलाकात मेरी मैत्रिण मनीषा (जो कि दुर्दैववश लैंगिक विकलांग है जिसे मैं आदर से दीदी कहता हूं वो ग्रेजुएट है लेकिन लोकल ट्रेन में लोगों से अपने अंदाज में अपनी टोली लेकर भीख मांगती है) से हुई ,पूरा डिब्बा निपटाने के बाद वे सब लोग मेरे पास आकर बैठ गये क्योंकि ट्रेन किसी तकनीकी समस्या के कारण रुकी हुई थी । बीमारियां सुनने और औपचारिक बातों के बाद मैंने उनसे पूछ लिया कि दीदी भीख मांगने से गुजारा होने में बहुत कष्ट होता होगा मैं आपको दवाएं कुरिअर से भेज दूंगा इस पर उन्होंने कहा,"डाक्टर भाऊ ! हमें रुपए-पैसे की कोई समस्या नहीं है भूमिका आपको भीख का अर्थशास्त्र समझा देगी ;इस पर भूमिका ने धीरे-धीरे फुसफुसाते हुए मेरे कान में बताया कि आपके सामने जो चार-पांच साल का गन्दा सा भिखारी बच्चा भीख मांग रहा है वो महीने में दस हजार से ज्यादा कमा लेता है । इसपर मेरी आंखें चौड़ी हो गईं ,मैने पूछा कि ऐसा कैसे हो सकता है ? उसने हंस कर कहा कि अगर बारह डिब्बे की या नौ डिब्बे की लोकल ट्रेन के एक डिब्बे में बैठे सौ लोगों में से एक आदमी भी इसे दो रुपया देता है तो एक ट्रेन से इसे अठारह या चौबीस रुपए मिल जाते हैं इस तरह अगर ये बच्चा दिन भर में बीस ट्रेन करता है तो इसे दिनभर में तीन सौ साठ रुपए से लेकर चार सौ अस्सी रुपए तक मिल जाते हैं और महीने में यदि ये बच्चा चार दिन की कैजुअल लीव लेता है तो कुल मिला कर छब्बीस दिनों में इसकी कमाई हो जाती है ----- नौ हजार तीन सौ साठ से लेकर बारह हजार चार सौ अस्सी रुपए...........
ये महज आंकड़ो का जोड़-घटाना नहीं बल्कि यथार्थ है जिसे भिखारी रैकेट चलाने वाले भली प्रकार से जानते हैं । भूमिका ने मुझसे कहा कि भाऊ तुम फ़िल्लम मे दिखाया हर बात को अइसा लाइटली लेने का नईं , वो मधुर भंडारकर कितना स्टडी किया ये भिखारी लोग पर तब ’ट्रैफ़िक सिग्नल’ पिच्चर बनाएला है । साथ में बैठे मेरे एक मराठी समाचार पत्र के रिपोर्टर बोले कि यार ये भीख मांगने का धंधा भी साला बुरा नहीं है कोई पूंजी नहीं लगानी पड़ती और धंधा डुबने का तो सवाल ही नहीं है । अब आप लोग ही विचार करिए कि "काय कराइचे"(यानि कि क्या करना है?).......
जय भड़ास

29.1.08

भदास....की भड़ास

काम की वयस्तता की वजह से कुछ दिनो से ब्लोग़ नही पड़ सका ! आज जेसे ही समय मिला तो ब्लोग़ पड़ने की
खुजली होने लगी ,और जल्दी-जल्दी भड़ास की जगह गुगल पर (भदास) लिखा गया !सर्च करने पर देखा तो
मां बहन की बहुत भद्दी सी गाली लिखी हुई प्रगट हुई ! सोचा भड़ास मे इतनी आग लेकिन दुसरे ही पल सोच का
निवारन भी हो गया !क्योकि यह अपने भडासी भाईयो का भड़ास नही था ! यह तो किसी मस्तराम की अपने
पुरे घरबार की (भदास) निकाली हुई थी ! और फ़िर जेसे स्कूल की एक घटना याद आ गई ! एक बार अपने से
सीनियर बच्चो को बतियाते सुना था ,जो कह रहे थे कि कल मस्तराम की स्टोरी पडी मजा आ गया ! मेरा दिल
भी हुआ मस्तराम की स्टोरी पडने का क्योकि मे कॉमिक्स बहुत पडता था !सोचा कोई कॉमिक्स टाईप बुक
होगी ! घर जा कर अपने भाई से बोला ,भईया अब मेरे लिये बुक स्टोर से मस्तराम की कहानी वाली बुक जरुर
ले के आना ! भाई पहले तो मुस्कराया फ़िर लगा डाट पिलाने ,उस दिन घर से डाट तो पडी ही साथ मे भाई ने
स्कूल के प्रिंसीपल से भी सब बच्चो की शिकायत की !एक बार बचपन फ़िर लोट आया था

आज का क्षत्रिय


यदस्य क्षत्रियासूते, तस्य कालो यमागतः ।
ऊपर जो सूक्ति आप देख रहे हैं, यह बिल्कुल आज के क्षत्रिय के लिए अपील है। इसका अर्थ बदलते परिवेश में लें तो समाचीन यह है कि अगर बदले नहीं तो अब बदल जाओ। हे क्षत्रिय पुत्रों यह जो समय है, यह उनका वरण करेगा जो समय के साथ चलेंगे। किसी और शहर की फिलहाल बात नहीं कर पा रहा हूं क्यों कि कोलकाता के क्षत्रिय समाज को ही कुछ नजदीक से देख पाया हूं। हर साल के आखिर में या फिर कोई उपयुक्त दिन को तलाशकर सालाना आयोजन किया जाता है। इसमें शामिल होते हैं काफी तादाद में क्षत्रिय समाज के लोग और बिरादरी भोज का भी लुत्फ उठाते हैं। और इसके बाद पूरे साल की सामाजिक गतिविधियां लगभग नहीं के बराबर कही जा सकती है। आयोजन में बड़े-बड़े वायदे और शिकायतें भी वरिष्ठ क्षत्रिय वक्ताओं के जोशीले भाषण में दर्ज होती हैं। अपने समाज के उन्नतोमुखी लोगों को सम्मानित भी किया जाता है और यह वर्षों से किया जा रहा है। इस समाज की थोड़ी बहुत गतिविधियां फिर गंगासागर मेले के मौके पर भी दिखती है। कोलकाता जैसी जगह में जहां हिंदीभाषी कुछ उपेक्षित महसूस करते हैं, भोजपुरी, क्षत्रिय या फिर दूसरे तमाम समाजों की गंगासागर के मौके पर गतिविधियां काबिले तारीफ हैं। हम अभी सिर्फ कोलकाता के क्षत्रिय समाज की बात कर रहे हैं इस लिए उनपर ही केंद्रित होकर यह कहना चाहते हैं कि क्षत्रियों आप से हम और भी अपेक्षा रखते हैं। ऐसा नहीं कि आर्थिक तौर पर किसी समाज से आप कमजोर हैं फिर ठोस सामाजिक कार्यों में आप की भूमिका इतनी सिमटी हुई क्यों है कि आपके पास इसी शहर के मारवाड़ी समाज वगैरह की तरह न कोई स्कूल-कालेज है और न अस्पताल। इतना ही नहीं दहेज नामक राक्षस से अपने समाज को उबारने की कोई ठोस गतिविधि भी नहीं दिखाई देती। कम से कम डेढ़ दशक से तो मैं यही देख रहा हूं।
काशीपुर क्षत्रिय समाज कोलकाता ने ( क्षत्रिय समाज की स्थानीय यूनिट जिसके संरक्षक श्री दुर्गादत्त सिंह हैं ) दो साल पहले एक डायरेक्टरी बनवाई थी। मगर इसमें ठोस कामयाबी शायद नहीं मिल पाई। कुल मिलाकर बस छिटपुट प्रयास होते दिखे। यानी कोलकाता के संजीदगी से काम कर रहे दूसरे समाजों के मुकाबले काफी फिसड्डी रहा इनका प्रयास।
फिलहाल बंगाल के स्तर पर लें या कोलकाता के स्तर पर क्षत्रिय समाज पूरी तरह बिखरा हुआ है। कहीं साल्टलेक में तो कहीं गारुलिया, काशीपुर, कोन्ननगर ( इसके संरक्षक श्री देवेंद्र सिंह हैं), मेदिनीपुर वगैरह की ईकाइयां स्थानीय शक्तिशाली लोगों की मुट्ठी में बंद है । अभी तक यह एकछत्र लोकतात्रिक स्वरूप भी नहीं अख्तियार कर सका है। ऐसे में समाज सेवा से तो सभी घटक कोसों दूर दिखते हैं। एक धड़े ( आरपी सिंह गुट ) ने तो एक प्रकाशन भी शुरू किया मगर शायद वह भी अनियमित हो गया। कुल मिलाकर नौ दिन चले अढ़ाई कोस की गति से भी नहीं चल पा रहा है कोलकाता का क्षत्रिय समाज।
ऐसे ही आज के क्षत्रिय और उनके समाज का वह काल आ गया है जब वह अपने घमंड के खोल से बाहर निकलकर सामाजिकता के आज के नियम को मानें। अगर आप खुद को नहीं बदलोगे तो समाज को क्या दिशा दे पाएंगे। क्या अपने समाज से आपको लगाव नहीं ? अगर है तो कृपया इस समाज की सोच को बदल डालें और ऐसी राह पर ले जाएं जहां आपका मुकाबला आपसे भी बेहद संगठित और प्रगतिशील समाजों से है। राजनीति को परे रखकर समाज की चिंता करें।
इस अपील का मकसद देश व दुनिया के क्षत्रिय समाज के लोगों को एक मंच पर लाना है। बदलते परिवेश में इस समाज के प्रबुद्ध लोगों के विचार, अपील और समाज के विविध आयोजनों से आपको अवगत कराने के इस नए तरीके से आपको जोड़ना चाहता हूं। पुरानी लीक पर चलकर कोई समाज प्रगति नहीं कर सकता उसे समय के साथ बदलना होगा। सोच बदलनी होगी और जातीय घमंड की जगह विनम्र मगर सक्षम क्षत्रिय की भूमिका में खुद को ढालना होगा। बेशक इतिहास के किसी दौर में हम सिर्फ रक्षक की भूमिका में थे। देश और समाज व संस्कृति की रक्षा के लिए खून बहाया मगर आज के क्षत्रिय की भूमिका बदल गई है। नए युग के वह परिवर्तन जरूरी है जिससे आज के क्षत्रिय का तालमेल बना रहे और समाज व देश की प्रगति के हम काम आएं । इसी संकल्प के साथ आप इस मंच से जुड़ें। इसके दो तरीके हैं। पहला जो कंप्यूटर का इस्तेमाल करते हैं और अपने विचार हिंदी में इस ब्लाग पर लिखना चाहते हैं वे नीचे दिए मेल पर अपने विचार हमें मेल करें। हम आपको ब्लाग पर प्रकाशित करेंगे। संभव हुआ तो सीधे ब्लाग पर लिखने का आपको अधिकार प्रदान किया जाएगा। दूसरा तरीका है कि आप इस ब्लाग को देखते रहें और जिस लेख पर आप को टिप्पणी करनी हो, तो अवश्य करें। लोग भी आप की टिप्पणी से लाभान्वित होंगे। सूचना क्रांति के नए हथियार इंटरनेट पर आकर वैश्विक स्तर पर अपने संदेश लोगों तक पहुंचाएं। मुहिम छेड़ें कि आज का क्षत्रिय फिर जाग उठे। हम आपके साथ हैं।

अपनी बात कहने के लिए हमें मेल करें-- drmandhata@gmail.com

कोशिश

मैं एक कोशिश कर रहा हूँ सरहदें पाटने की।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ दूरियां मिटाने की।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ सबको अपना बनाने की।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ एक खुला आस्मान बनाने की।
मुझे मत रोको, मेरे जज्बातों, मेरे ख्यालों, मेरे ख्वाबों को उड़ने दो।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ एक नयी दुनिया बनाने की।
मैं कोई ग़ैर नही तुम्हारा अपना ही हूँ।
बस वक्त ने हमारे बीच यह फासला बो दिया है।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ उस फासले को काटने की।
मैं एक कोशिश कर रहा हूँ ..........बस एक कोशिश

हम चुप हैं ।

बर्तन होटल पर धोता है ,फटे कपड़ो में सोता है
वो किसी और का बेटा है ,इसलिए हम चुप है।
सड़को पर भीख मांगती है ,और मैला सर पे है।
वह बहन किसी और की है ,इसीलिए हम चुप है।
बेटी की इज्जत लुट जाने पर भी वो बेबस कुछ न कर पाती है ।
वो माँ है किसी और कि इसीलिए हम चुप हैं ।
दिन भर मजदूरी करता है, फिर भी भूखा सोता है ।
किसी और का भाई है वो ,इसीलिए हम चुप है ।
बेटी का दहेज जुटाने को ,कितने समझोते करता है
वह किसी और का बाप है ,इसलिए हम चुप हैं ।
चुप रहना हमने सीख लिया है ,बंद करके अपने होंठो को ।
और जीना हमने सीख लिया है ,बंद कर के अपने होंट को ।
लकिन याद रखो दोस्तों ,एक ऐसा दिन भी आयेगा ।
अत्य्चार हम पे होगा ,और तब हमसे बोला न जाएगा ।
क्योंकि हम चुप हैं ।
गौतम यादव , भारतीय जनसंचार केन्द्र ,नई देहली

नयी उम्मीद

भड़ास की वजह से मैं खुद भी ब्लागिंग की दुनिया में उतर गया हूं। मैंने नया ब्लाग आखिरकार बना ही लिया। इसे आप देखें और आप अपनी राय जरूर दें। हौसलाअफजाई करेंगे तो ब्लागर के रूप में काम करने में मजा आएगा। मेरे ब्लाग का नाम है, नई उम्मीद


धन्यवाद
दिलीप
http://naiumeed.blogspot.com

मैंने शादी कर ली है

सभी पत्रकार भाइयों को अबरार अहमद का प्रणाम,
बडे हर्ष के साथ आप सबको मैं यह बताना चाहता हूँ ही अब मैं अकेले नही रहा। अब मेरे भी पैरों मे बेडियां पड़ गई हैं। भाइयों मैंने शादी कर ली है और आप सबके आशीर्वाद का इच्छुक हूँ।
अबरार अहमद
दैनिक भास्कर
ludhiana
http://hamarelafz.blogspot.com

जनसत्ता में भी हैं कमीने लोग



अखबारों में छपने के लिए तेल लगाने पड़ते हैं, मुझे पता है। लेकिन जनसत्ता के बारे में मेरी राय कुछ अलग रही थी। मेरे सारे मास्टर साहब लोग उसी में छपते हैं और सारे के सारे लगभग प्रगतिशील हैं, सो मैंने सोचा कि वो तो तेल लगाते नहीं होगें। यही सब सोचकर मैंने भी एक लेख भेजने की गलती कर दी। लेकिन लेक भेजते समय मैं ये भूल गया कि मैं एक पाठक की हैसियत से लिख रहा हूं जबकि मास्टरजी स्थापित लोग हैं। और अपने इस हैसियत के हिसाब से जनसत्ता की ओर से जो जबाब मिला, जरा उस पर गौर -
नामवर सिंह से मुझे भी दिक्कत है कि अकेले उस आदमी ने नरक मचा रखा है तो क्या उसकी हत्या कर दें। क्यों छपना चाहते हैं और क्यों लिखना चाहते हैं उसके विरोध में। आपके अकेले लिखने से क्या बिगड़ जाएगा नामवर सिंह का। अगर वाकई आप चाहते हैं कि नामवर सिंह न बोलें तो आप सा-आठ लोगों को जुटाइए और उसके खिलाफ मोर्चा खोल दीजिए कि अब आगे से इसे बुलाना ही नहीं है और तब हम भी आपका साथ देंगे।( सूर्यनाथ त्रिपाठी, जनसत्ता की सलाह)
ये सलाह तो उस आदमी ने तब दी जब उसकी बात सुनने के बाद मेरे मन में अजीब ढ़ंग की बेचैनी हो गयी थी और मैंने दुबारा फोन करके कहा कि- आप छापें अथवा न छापें लेकिन मेरी बात सुनिए और मुझे बहुत अफसोस है कि जनसत्ता अखबार के लिए काम करने वाले शख्स से यह सब सुन रहा हूं। इसके पहले कि कहानी कुछ और ही
२४ जनवरी को मैंने नामवर सिंह से असहमति का आलेख जिसे कि मैंने अपने ब्लॉग पर भी पोस्ट किया था, नामवर सिंह से घोर असहमति को प्रिंट के लिहाज से थोड़ा और दुरुस्त करके जनसत्ता के लि फैक्स कर दिया। फैक्स करने के बाद फोन किया श्रीश चंद्र मिश्र को, उन्होंने कहा कि लाइन पर रहे मैं देख कर बता रहा हूं। करीब साढ़े चार मिनट तक लाइन पर रहा। देखकर बताया कि आ तो गया है लेकिन तीसरा पेज साफ नहीं है आप एक बार फिर फैक्स कर दें। मैंने फिर फैक्स किया। फिर फोन करके बताया कि फैक्स कर दिया तो उन्होंने कहा ठीक है।एक दिन बाद मैंने फोन करके पूछा कि सर इसका स्टेटस पता करने के लिए क्या करना होगा। उन्होंने नंबर दिया जिस पर फोन करने पर दुबारा जबाब मिला कि प्रिंट साफ नहीं है आप ऐसा करें कि कूरियर कर दें। मैंने उसे फिर कूरियर किया। ऑफिस में बताया कि आपको जिन्होंने कूरियर करने कहा था वो शायद अरविंद रहे होंगे। कल मैंने फिर फोन किया कि सर मैंने एक लेख भेजी थी।
अबकि दूसरे व्यक्ति थे सूर्यनाथ त्रिपाठी, उन्होने कहा अभी तक तो मिला नहीं, चलिए देखता हूं। चार घंटे बाद फिर फोन किया तो बताया कि अभी-अभी आया है। लेकिन ये छपने लायक नहीं है. मैंने पूछा क्यों. तो उनका जबाब कुछ इस तरह से था-आपने नामवर सिंह पर पर्सनल अटैक किया है। ऐसा हम नहीं छापते। आपने देखा है जनसत्ता में कभी इस तरह का छापते हुए। आपने इसे दुनिया मेरे आगे नाम से दिया है, इसमे तो कभी ऐसा लेख गया ही नहीं। मैंने कहा सर कोई बात नहीं, हमने तो लेख दिया आप देख लीजिए। उन्होंने साफ कहा कि छपेगा तो नहीं लेकिन रख लेता हूं। ये तो सीधे-सीधे किसी के उपर पर्सनली अटैक करना हुआ। मैंने उनसे बात करने की कोशिश की- सर मैं पाठक हूं, नामवर सिंह का श्रोता, मुझे उनके रवैये से असहमति हुई सो लिख दिया और मैं कोई पहली बार तो लिक नहीं रहा इस तरह से.
करीब सात साल से जनसत्ता पढ़ता आ रहा हूं और शान समझता रहा कि जनसत्ता पढ़ता हूं। ये तो भ्रम तब टूटी जब चैनलों और मीडिया हाउस के इंटरव्यू में पूछे जाने पर कि कौन सा अखबार पढ़ते हो और जनसत्ता बताता तो लोग मुस्कराते और उपहास उड़ाते। फिर भी हिन्दी से हूं और जनसत्ता मे हिन्दी कलह के लिए ठीक-ठाक स्पेस है, सो बिना राजनीति में शामिल हुए, किसी पर कीचड़ उछाले बिना सबकी खबर मिल जाती है, इसलिए खरीदता रहा। मैंने उन्हें इस बात का भी हवाला दिया कि सर ये बड़े-बड़े लोग लेख के नाम पर यही सब कलह तो लिखते हैं, राजनीत और साहित्य के नाम पर कोरा बकवाद। उइनका कहना था कि वो तो सिर्फ संडे को न. कुल मिलाकर बात यही रही उनका कहना था कि नामवर से इस तरह से लिखना पर्सनल अटैक है .
पूरी तरह हिल गया, नहीं छपने के कारण नहीं बल्कि त्रिपाठीजी के इस घटिया लॉजिक से। सो दुबारा फोन किया जिसमें उन्होंने सलाह दिया कि आप नामवर के विरोध में मोर्चा खोल दें और मैं भी शामिल होता हूं। मैं कहता रहा कि मैं पैसिव ऑडिएंस नहीं हूं, जो नहीं पचेगा, उस पर लिखूंगा हीं। लेकिन त्रिपाठीजी की बात समझें तो आप लिखिए मत नामवर सिंह के नाम पर राजनीति कीजिए मोर्चा खोलकर।.....अंत में आवाज कट गई औ जब दुबारा फोन मिलाया तो रवीन्द्र नाम के व्यक्ति ने फोन उठाया और कहा कि त्रिपाठीजी तो कैंटीन चले गए। मतलब किसी पाठक से दो मिनट बहस करने के लायक नहीं।मैं रात से सुबह के चार बजे तक इस मुद्दे पर सोचता रहा कि मठाधीशी की तो हद हैऔर काफी कुछ सोचता रहा।

करीब ५:३० बजे अखबार दे गया और सच बताउँ जनसत्ता देखकर मन किया कि राजू से कहूं कि कल से मत लाना जनसत्ता जैसी शिक्षा त्रिपाठीजी ने हमें देने की कोशिश की फिर रुक गया हल ये नहीं ।अब मेरा बड़ा मन कर रहा है कि एक दिन जनसत्ता के ऑफिस में जाउं और पूछू- क्या सर आप सारे लेखको को यही राय देते हैं कि लिखो मत, सीधे मैंदान में उतर आओ जैसा कि हमें त्रिपाठीजी ने दिया

भारत ऑस्ट्रेलिया सीरीज़ ड्रा

अरे अरे शीर्षक पढ़ कर हैरान होने की ज़रूरत नही है। दरअसल मैं इस वक़्त का इंतज़ार कर रहा था ................ कि सीरीज़ ख़त्म हो और मैं ऐसा कुछ लिखू। हमारे सभी पत्रकार साथी जो कुछ दिन पहले बकनर को बेईमान बता रहे थे अब कह रहे हैं कि ऑस्ट्रेलिया ने सीरीज़ जीत ली है। अब सवाल है कि क्या दूसरे टेस्ट में अम्पयारो की शानदार अम्पायरिंग ना होती तो ऑस्ट्रेलिया वो टेस्ट जीत पाता ?
जवाब तो वही है कि नही ....... तो न्याय के तकाजे पर मैं या तो यह नही मानता कि उस टेस्ट में भारत बेईमानी से हारा या फिर मैं यह नही मानता कि वह मैच अस्तित्व रखता है सो इस लिहाज से यह सीरीज़ दोनो ही हिसाब से ड्रा रही मतलब
१ यह मैच हटा दें तो ३ मैच रह गए ..... एक ड्रा ... एक एक दोनो टीमों ने जीता तो सीरीज़ ड्रा !
२ यह मैच ड्रा करें तो भी सीरीज़ ड्रा !
तो भाई लोगो ये रहा मेरा बदला बकनर, बेन्सन और प्रोक्टर से ........ ( आख़िर ब्लोग भडास निकालने के लिए ही तो है ) अब आप लोग भी चाहे तो कमेंट्स दे कर भडास निकाल लें
जय हिंद
आपका
मयंक सक्सेना
mailmayanksaxena@gmail.com
.taazahavaa.blogspot.com

पत्रकारिता का यथार्थ

अब जब हम देख रहे हैं कि भड़ास का मंच है वो भी मुफ़्त में तो हमारे भीतर का बेहोश हुआ कवि खड़भड़ा कर बाहर आ गया है और आप लोगों को पत्रकार बंधुओ (अरे भाई,बहनों को नहीं भूला हूं ,अब यार मेहरबानी करके गरियाना मत कि कमीना खुद तो सबको बहन कह रहा है लेकिन हमें भाई क्यों कह रहा है क्या जीजाजी कहने में मुंह को लकवा मार जाएगा ,दया करो हम पर हम ससुरे ऐसे ही है रिश्तों के समीकरण समझ नहीं पाए तो लोगों से कहते हैं कि कलाम साहब हमारे रोल-माडल हैं इसी खातिर कुंआरे रह गए) के लिये लिखी एक छोटकई कविता प्रेषित कर रहा हूं ,दरअसल इसमें खुद के लिए भी तो शेखी मारी है न....खैर पिओ यार.....
खोपड़ी की हंड़िया में सवाल की दाल है उत्तरों की छौंक नहीं व्यर्थ का उबाल है , कलम की करछुल का भाल में भूचाल है पेंदी की रगड़ से हाल ये बेहाल है , ओंठो के बीच दबी बीड़ी की नाल है आग फूंक धुंआ खींच राख सा मलाल है , पुष्टि नहीं तुष्टि नहीं जाल है जंजाल है स्वप्निल यथार्थ में कंगाल ये कंकाल है , रौंद दिए सत्य के हाथ में कुछ बाल है बालों की खाल पर उठ रहे बवाल हैं , पत्र-पत्र यत्र-तत्र पत्रकार ताल है सत्यमेव जयते से इनका रक्त लाल है ।

जुगाड़ की इन्तेहा

देश भर में फिर एक बिना सबब बहस छिड़ी हुई है, इस बार पहली बार हमारे नेता और महान मीडिया इस बात पर चोंच लड़ा राहे हैं की भारत रत्न किसे दिया जाए। दुर्भाग्य की बात है कि चर्चा इस बात के लिए नही है कि यह सम्मान अपनी गरिमा के अनुकूल ही दिया जाए बल्कि इस बात पर है कि यह किसी अपने आदमी को मिल जाए। जाहिर है जुगाड़ संस्कृति यहाँ तक आ पहुंची है कि देश का सर्वोच्च सम्मान भी इस से अछूता नही रहा।
जहाँ एक ओर भारतीय जनता पार्टी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई के नाम पर शोर मचा रही है, मायावती ने कांशीराम के नाम पर चीखना चिल्लाना चालू कर दिया है, असली विपक्ष यानी कि वामपंथी ज्योति बाबू के नाम पर रुदाली बन गयी है।
इस पूरे शोर शराबे में कहीं ना कहीं इस सम्मान कि गरिमा को तो ठेस पहुंची है बल्कि इस सम्मान के असली हकदारों के नाम भी धुएं मे खो गए हैं। यह केवल दुख की नहीं बल्कि शर्मसार होने का वक़्त है। हमारे नेता संसद और विधानसभाओ में जूते चप्पल तो चला ही चुके हैं अब बस यही सब होना बाकी था कि भारत रत्न के लिए भी जुगाड़ लगने लगा है। बेहतर होगा कि भारत के सारे नेताओ को एक बार संयुक्त रूप से भारत रत्न दे दिया जाए और साला बवाल ही ख़त्म हो जाए ..... कम से कम ना तो रोज़ रोज़ इन चू..... न्यूज़ चैनलो पर भारत रत्न को लेकर वाहियात बहस सुननी पड़ेगी कि १ लाख की कार के लिए रतन टाटा और फरारी बिना कर दिए मंगाने पर सचिन को यह उपाधि मिल जाए !
वैसे इस तो एक बार फूलन देवी के लिए नोबेल की माँग भी हम कर चुके हैं..... तो देश के सारे बाहुबली सांसद और विधायको को ही................... क्यो सालो भड़क कहे रहे हो ? कई राज्यों में सरकारें ५ साल उन्ही के दम पर चलती हैं ....... मुख्..... और शहा...... का नाम भूल गए क्या !!
खैर भडास निकाल ही रहा हूँ तो उगल ही डालू मेरे पिताजी ने सरकारी नौकरी के ३०-३५ साल ईमानदारी से काट दिए ...... कई अभाव भी रहे पर बेईमानी नहीं की और ऐसे कई करोड़ लोग हैं मुल्क में !!!
तो क्यो ना इस बार भारत रत्न भारत के उस आम आदमी को न दे दिया जाए जो वाकई उसका हक़दार है ?

क्यों सालो सोच क्या रहे हो मुँह में क्या ....... ?
बोलो ???????

28.1.08

नेताओं की बक बक देती ताकत

जैसे जैसे बढ़ता रहा है पाला रे
बाजार गिरता रहा है स्साला ये

ब्यान आया है जब सत्ताधारी का
हो गया है गर्म शेयर बाज़ार का

बढ रही सर्दी और गिर रहा बाजार
उठता संभलता फिर मारता बाजार

चढ़ाता बुखार है बाजार कम्बखत
मौसम से परेशान अब हर शख्स

नेताओं की बक बक देती ताकत
बनती बाद में बाज़ार की गिरावट

भड़ास तुम्हारे हवाले, मैं चला समझदारी के गीत गाने...

कई दिनों से ब्लाग पर नहीं था, आगे भी यही इरादा है। घर पर बच्चों ने लैपटाप पर इस कदर काम (ब्लागिंग)करते देख ताना मारना शुरू कर दिया था.....
..पापा...मान जाओ प्लीज, बंद कर दो लैपटाप, इतने देर तक काम करोगे, तो पागल हो जाओगे।
...पापा, क्या ये तुमको होमवर्क मिलता है आफिस से?
....पापा, बहुत देर से चार्ज हो रहा है लैपटाप, अब बंद भी कर दो वरना गर्म होकर ये ब्लास्ट हो जायेगा,
.....पापा, अब तो लगता ही नहीं कि तुम घर पर हो, इससे अच्छा है कि आफिस में ही रहते, तुम न बात करते हो, न साथ में कार्टून देखते हो, न घुमाने ले जाते हो, न कोई कहानी सुनाते हो.....
...पापा, तुम्हारा दिमगवा जो है न, वो इक दिन ब्लास्ट हो जायेगा, देखो..कितना गरम है।
...पापा, तु्म्हारी आंखें खराब हो जाएंगी, तुम ही कहते हो न, लगातार टीवी नहीं देखते, तो तुम क्यों लगातार लैपटाप खोले रहते हो।
......

और श्रीमती जी क्या कहतीं, पूछिए न....एक बानगी सुनिये...

...एजी, इ का बवाल आफिस से ले आए, ओहरे रख देते, पहले थोड़ा घर पर हंस बोल लेते थे, अब तो जब देखो इहे लैपटाप खोले और चश्मा लगाए बैठे घूरते रहते हैं, चलो ठीक है, भड़ास है, पर क्या इसे भरसांय बना देंगे कि इसकी आंच से परान निकल जाए....


शायद, ब्लागिंग का पागलपन जिसे लग जाए वो उस प्रेमी जैसा हो जाता है जिसे चाहे कंकड़ मारो या पत्थर, वो लैला लैला कहता रहेगा। वो शूली चढ़ जाएगा, जान दे देगा, राज्य और राष्ट्र से द्रोह कर लेगा पर आशिकी न छोड़ेगा। इसी तरह ब्लागिंग है, आफिस में माहौल खिलाफ बन जाए, नौकरी चली जाए, धंधा मंदा हो जाए, परिवार नाराज हो जाए, बच्चे-बीबी त्रस्त हो जाएं....पर ब्लागिंग न जाये। पहले तो सीमित था। जब तक दैनिक जागरण में था, आफिस से ब्लागिंग करता रहा, विरोधों और आरोपों के बावजूद। जब दैनिक जागरण से निकाला गया तो घर पर कंप्यूटर न होने की वजह से साइबर कैफे में ब्लागिंग करता रहा, सैकड़ों रुपये खर्च करने के बाद एक दिन इस चूतियापे को खत्म कर देने की ठानी। और ऐसे महान फैसले हमेशा दारू की अभिन्न शिवत्व की अवस्था में ही लिये जाते हैं। सो ले लिया। उस ब्लाग को डिलीट कर दिया, जिस ब्लाग के कारण इतनी गालियां मिलीं आफिस में, इतनी गालियां मिलीं विरोधी ब्लागरों से।

पर भड़ास ने, मेरी एक पहचान तो बना ही दी थी, बुरी ही सही। नई नौकरी में ब्लागिंग को न सिर्फ प्रमोट किया गया बल्कि भड़ास को फिर से बनाने व चलाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। सो अब भड़ास पहले से ज्यादा तेवर और ज्यादा भड़ासियों के साथ हाजिर हुआ। भड़ास डिलीट करने के बाद से दिल में एक अपराधबोध था, दोस्त व सीनियर ब्लागर साथियों के समझाने का असर था व भड़ासियों की दुआ थी, सो भड़ास फिर उसी जैसा जन्म गया। एक ऐसा पुर्नजन्म जिसमें पुरानी यादें सारी ताजा हों। सो, भड़ास के फिर आने के बाद से मेरे दिल से बोझ उतर गया। आफिस ने जो लैपटाप दिया उससे घर पर बैठकर ब्लागिंग करता रहा। पिछले सालभर में कुल जितनी पोस्टें लिखी गईं भड़ास में, इसी महीने उतनी संख्या में भड़ासियों द्वारा पोस्टें लिख दी गईं। भड़ासियों का जनबल भी 184 पर पहुंच चुका है। मीडिया में ब्लागिंग के साथ भड़ास भी खूब छाया हुआ है। मतलब....बल्ले बल्ले है भड़ास और भड़ासियों के। अभी परसों ही तो, नवभारत टाइम्स में रविवार के फोकस पेज पर दो तिहाई पेज में ब्लागिंग पर कवरेज था और उसमें जिन चार ब्लागों के माडरेटरों से बातचीत थी, उसमें भड़ास ब्लाग भी था। और अपुन की फोटू भी। चलो, जीते जी अपन का छपा हुआ फोटो देख लिया अखबार में, जाने मरने पर लगे ना लगे...:):O:

तो मैं कहना ये चाह रहा था कि पिछले तीन रोज लैपटाप आफिस के हवाले कर घर पर खुल्ला खुल्ला रहा तो लगा फिर से ज़िंदगी लौट आई। खूब खाए, पकाए, घूमे-घुमाए। फिल्म, कार्टून और सीरियल देखे। बच्चों संग खेला। लगा, ब्लागिंग से जो ज़िंदगी चली गई थी, वो लौट आई। इसमें गलती लैपटाप की या मेरी या घर की या आफिस की नहीं, अतिवाद का है, जो मेरे व मेरे जैसा साथियों के साथ दिक्कत है। जो भी करेंगे इतना करेंगे कि उसकी गांड़ में घुस जायेंगे और परान दे देंगे।

जो समझदार लोग होते हैं, संतुलित लोग होते हैं, दुनियादार होते हैं, विजनरी होते हैं, दृष्टि वाले होते हैं...हर काम उतना ही करते हैं जितना जरूरी होता है। पर अपन तो ठहरे भुच्च देहाती। भावना वाले। दिल वाले। इमोशन वाले। पार्टी अच्छी लगी तो चल दिए क्रांति करने। सेक्स उफान मारने लगा तो एकदम से हां कर दिया बियाह के लिए, बिना लड़की देखे। मां के आंसू देखे तो चल दिए नौकरी करने, झोला उठाकर। पत्रकारिता शुरू की तो लगे तेल लगाने जीभरकर। जब मन भर गया व तेल गाने से उबकाई आने लगी तो लगे तेल उतारने, जिनको जिनको लगाया उनसे उनसे हिसाब बराबकर करके तेल निकाल। सारा तेल वापस ले लिया, मय सूद के। इसी तरह ब्लाग शुरू किया तो ऐसा किया कि अपनी ही गांड़ में ब्लाग घुसा दिया और खुद हो गए पैदल....। और अब दुबारा ब्लागिंग शुरू की तो फिर घर में मुसीबत। मतलब, हरामीपने की हद है। जो करेंगे तो इतना की या तो सामने वाला बांय बांय चिल्लाकर डर के मारे भागने लगे या गरियाने लगे या खुद की अपनी ही फट जाए।

तो ये जो अतिवादी आदत है, उसे बदलने की कोशिश करनी होगी। इसी के तहत ब्लागिंग से एक समझदार दूरी बनाना चाह रहा हूं। हालांकि शायद ये अतिवादी आदत ही सच बोलने पर मजबूर करती है, भड़ास निकालने और भड़ास चलाने को कहती है, वरना समझदार और मध्यमार्गी लोग तो सब कुछ इतना स्ट्रेटजिक करते हैं कि पता ही नहीं चलता कब तीर निशान पर जाकर लग गया और वे एकदम से इस्टाइल में चौंकते हुए बोल पड़ेंगे....अच्छा, गुड, मुझे तो पता ही नहीं चला कि तीर कब छूटा था और तीर कब लक्ष्य भेद गया। हालांकि मन में भड़ास वो भी भरे रहते हैं लेकिन निकालते नहीं और एक दिन बस उनका इकट्ठा परान ही निकलता है, भड़ास की जगह। हर्ट अटैक आयेगा, समझदार लोगों को लो जाएगा। लेकिन जो भी हो, मैं तो समझदार बनना चाहता हूं, हर्ट अटैक आएगा तो देखा जाएगा।

समझदारों के गीत गाओ। समझदारों की तरह जियो। समझदारों की संगत करो। कहां भड़ास और भड़ासियों के बीच फंसे हो आप लोग। अनगढ़ लोगों की जमात है। देहातियों का बकवास है। असफल लोगों की बात है।


अपने डा. रुपेश जी हैं, जिद्दी हैं, समझाने पर भी नहीं मानते हैं, पेले रहते हैं, हम्ही लोगों को समझाते हैं, क्रांति के लिए उकसाये रहते हैं। अब तो उनके सपने भी आने लगे हैं। डंडा लिये खड़े हैं सिर पर, कह रहे हैं....

...
बोलो यशवंत बोले, क्रांति का मंच है कि नहीं भड़ास, और मैं चिल्ला कर कह रहा हूं...बस, मेरी मारना नहीं, मेरी लेना नहीं, बाकी जो कहोगे, कहूंगा, जैसे कहोगे, चलाऊंगा। और वो अट्टाहस करके हंस रहे हैं...देखा, साला कितना पोंकू है, डंडा देखते ही पोंकने लगा। थूं....तुम जैसे फट्टू भड़ासी पर।


तो भई भड़ासियों, अब भड़ास तुम्हारे हवाले, मैं चला समझदारी के गीत गाने। लेकिन जाते जाते कुछ हिसाब क्लीयर करना है, कुछ लोगों से। एक एक कर हिसाब क्लीयर करता हूं...


पहला हिसाब विनीत कुमार डीयू वाले शोधार्थी से ...
बच्चा, बहुत सच्चा-सच्चा लिखते हो, ऋचा आईबीएन-7 वाली चाहे जो करे लेकिन वो तुमको याद जरूर रखेगी, अगर कभी गए आईबीएन इंटरव्यू देने और उसने तुम्हे देख लिया तो डंडा डंडा मारेगी और दरबानों से उठवाकर फेंकवा देगी, सो उधरे शोध वोध करके मास्टरी करने की सोचना, अब टीवी में तो तुमको नौकरी नहीं मिलेगी.....:) सच कहने की कुछ तो सजा मिलनी चाहिए तुम्हें....।


दूसरा हिसाब पीडी भाई टेक्नोक्रेट से ...
पीडी भइया, दिल्ली की गर्मी गांड़ फाड़े है और आप फगुवा रहे हैं। मेरे बुरे सपनों के बारे में सबको बताकर काहें मेरी चड्ढी उतार रहे हैं। सपने तो साले ऐसे आते हैं, आते हैं, और आते रहेंगे कि अगर वो लिख दिया जाए तो सबकी फट जाएगी क्योंकि दरअसल सच्ची कहें तो सपने और भड़ास यही दो हैं जहां आदमी हलका होता है, जो नहीं कर पाता है कर लेता है, जो नहीं कह पाता है कह लेता है। अगर ये न हों तो आदमी साला पत्थर की मूर्ति बन जाए जिस पर कुक्कुर आकर मुत्ती कर दे और वो चूं तक न कर सके। ....लेकिन आपने याद दिलाकर अच्छा किया, भौजी की खोज वाली बात तो मैं भूल ही चुका था। ढेर सारी महिला ब्लागर हैं मैदान में, वो जिन महिलाओं ने भड़ास को खास भाव नहीं दिया है, उनमें से ही किसी को घोषित कर देंगे भड़ास की भौजी। दूसरा यह भी हो सकता है कि भड़ास की भौजी के लिए इस समय जितनी महिला ब्लागर हैं, उनके नाम पर भड़ासियों से वोट करा लिया जाए। जिसे ज्यादा वोट मिले, उसे घोषित कर दिया जाए।


तीसरा हिसाब अपने डा. रुपेश श्रीवास्वत जी से......
डाग्डर साहेब। आपसे बहुते उम्मीद है। एक डाग्डर साहेब लोहिया जी रहेन। जिनके चेले आजतक डाग्डर साहब का नाम लेकर अक्सर भांजने लगते हैं। दूसरे आप हैं, कम से कम मैं तो आपका चेला बन ही गया हूं। पर क्या बात है, आप कुछ नाराज हैं क्या, आपको मैंने एक पत्र भेजा था, मेल से। जवाब नहीं आया। अगर फुरसत मिले तो मुझे फोनिया लीजिएगा। आपका ब्लाग देखा, फाड़ू है। उसे आगे बढ़ाइए। मैं कमेंट नहीं कर पाया, बुरा न मानियेगा।

...चौथा हिसाब हिंदी मीडियाकर्मी साथियों से....
भड़ास में दोबारा वो कालम शुरू किया था, कनबतियां मीडिया जगत वाला, चल चला चल नाम से, उससे पहले बढ़ते जाना रे। लेकिन उसे लोगों ने रिस्पांस ठीक नहीं दिया। सूचनाएं मिल नहीं रहीं थीं, सो उसे बंद कर दिया। अब वो कालम इसलिए भी नहीं चलाना चाहता कि उससे अपुन का तो कोई फायदा नहीं, टाइम अलग से लगाना पड़ता था। दूसरे, कई ब्लागर साथी पत्रकारों की आवाजाही से संबंधित कालम चलाने लगे हैं, सो उसकी जरूरत पूरी होती रहेगी। मुझे मुक्ति भी मिल गई। आप लोगों से अनुरोध है कि ये कालम बंद करने के लिए माफ करेंगे और बोल हल्ला ब्लाग पर चल रहे इस कालम में सूचनाएं देकर उसे अपडेट रखेंगे।

अंत में....एक सूचना, हरिद्वार में ब्लागर मिलन होगा......
कल से हरिद्वार हूं, हफ्ते भर के प्रवास पर। वहां दो ब्लागरों से मिलने का प्रोग्राम है, डा. अजीत तोमर जी और डा. बुधकर जी। वहां से लौटकर जरूर अपने अनुभवों के बारे में आप लोगों से शेयर करूंगा।

फिलहाल इतना ही, अब देखो कब मिलते हैं, जय भड़ास
यशवंत सिंह
yashwantdelhi@gmail.com

यसवंत भैया का मूड हुआ आफ, चले भड़ास की भौजी ढूंढने

यसवंत जी का मूड आफ होने का तीन ठो रीजन हैं, हम हियां पहिला और दूसरका रीजन छोड़कर सीधे तीसरके रीजनवा पर आता हूं। आपको सब रीजन जानने का ज्यादा खुजली हो रहा है तो आप ऊ पोस्टवे पढ लिजीये। कौन रोकता है?

उनके लाख चाहने के बाद भी लड़कियां और औरतें
उनके सपने में आने से खुद को नहीं रोक पा रही हैं।
और तो और उनको अपने परिचय में
खुद को भड़ास का भौजी भी बता रही हैं।
अब बताईये, ई कौन बात हुआ जो हमसे शरमा रही हैं??
(अरे वाह ये तो कविता बनता जा रहा है। चलिये कविता ना सही, छनिका ही सही।:D)

बेचारे की नींद हराम हो गई है ये सुन कर की वो एक बिलौगर भी हैं। उन्होंने तो खैर हमसे वादा किया था की नाम बताऊंगा लेकिन होली से ठीक पहले।

अब आज-कल लोगों की यादाश्त अक्सर आदमी को दगा दे जाती है। सो अगर यसवंत भैया भूल गये होंगे तो हम उनको याद दिलाईये देते हैं।

क्या यसवंत भैया!! देखिये फगुनवा भी पास आ गया है। दिवाली से लेकर होली, सब हमने एक कर रखा है। इतने दिनों से हमरे पेट में आपके भड़ासी भौजी को लेकर अपच हो गया है। अब तो बता दीजीये भैया की ये भड़ासी भौजी कौन है?? तनिक बदहजमी ठीक हो। अब भैया सब कुछ आपके उपर ही है। आपने ही सपना देखा सो अब आपकी ही जिम्मेदारी।

ज्यादा डिटेल स्टडी करने के लिये इस लिंक पर जाईये। और आप भी इंतजार किजीये हमारी तरह। भड़ासी भौजी का!!!!!

आज जय भड़ास नहीं..
जय भड़ास की भौजी.. ;)

26 जनवरी और 15 अगस्त भूल जायें और अमेरीकन इंडिपेंडेन्स डे मनायें भारत में

मैं आज बात कर रहा हूं भारत में मौजूद कुछ ऐसी कम्पनियों के बारे में जो भारत में अपना कारोबार कर रही हैं पर वो 26 जनवरी या 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस नहीं मना कर 4 जुलाई को स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिये छुट्टी देती है।

साफ्टवेयर बनाने वाली कम्पनियों में अपनी गुणवत्ता और अपने कर्मचारीयों कि सुविधा का अच्छा खयाल रखने के लिये जाने जानी वाली कम्पनी CSC(कंप्यूटर साईंस कारपोरेसन) के बारे में मेरी एक मित्र ने ये जानकारी दी है जो उसी कम्पनी में कार्यरत है।

अभी मैं इस इंडस्ट्री में नया नया आया हूं सो बहुत ज्यादा कम्पनियों के बारे में जानकारी नहीं है मुझे, पर ये जरूर जानता हूं की इस तरह का काम करने वाली ये अकेली कम्पनी नहीं होगी।

आपका क्या विचार है इस तरह की कम्पनियों के बारे में?? अगर इस पर एक बहस की शुरूवात की जाये तो क्या अच्छा ना होगा??

मैं ऋचा आइबीएन 7 से, मुझसे प्यार करोगे

टीवी एंकर को पत्रकार से जमूरे बनने में समय नहीं लगता और न ही देश के टैलेंट को बंदर-बंदरिया बनाकर नचाने में। लगभग सारे न्यूज चैनलों ने लत पाल लिया है कि मौका चाहे जो भी हो, रियलिटी शो में शामिल बच्चों को अपने स्टूडियो में ले आओ और फिर शुरु कर दो वही सब करना जो मीका और राखी को बुला कर करते हैं।
आप इन बच्चों की बातों को जरा गौर से सुनिए आपको कहीं से नहीं लगेगा कि अब ये बच्चे रह गए हैं, उम्र के पहले ही इतने मैच्योर हो गए हैं कि जब असल में मैच्योर होने की उम्र आएगी तो जानने-समझने के लिए कुछ बचेगा ही नहीं। सारेगम के हॉस्ट आदित्य ने आठ साल की लड़की के अच्छा गाने पर अपनी गर्लफ्रैंड मान लिया है और एंकर इसे मजे से पूछती है कि तुम्हें क्या लगता है। बच्ची का जबाब है, इस बारे में आप आदि से ही बात करें। इधर उसी उम्र के एक बच्चे को रिचा भा गई है जो कि उम्र में 15-16 साल बढ़ी होगी। संयोग से आइबीएन 7 की इस एंकर का भी नाम रिचा है तो वो अपने बारे में भी पूछ लेती है कि मेरे बारे में क्या ख्याल है, मैं ऋचा कि वो ऋचा। बच्चे का जबाब है दोनो। लीजिए अब समझिए और समझाइए परस्त्री और एक के रहते दूसरी नहीं वाला फंड़ा।
मैं ये नहीं कह रहा कि इन चैनलों ने ही इन्हें इस तरह की बातें और जबाब देने को कहा होगा लेकिन इस ओर मानसिकता बनाने में चैनलों का कम हाथ नहीं है। अब बताइए आपको क्या जरुरत पड़ गयी है कि आप आठ साल के बच्चे से ये पूछें कि कौन गर्लफ्रैंड मैं या वो वाली ऋचा। कभी आपके दिमाग ये बात आती है कि इसका इस कोमल मन पर क्या असर होगा। आपको तो बस बकते रहना है और आधे घंटे के लिए बुलाए हो तो उसे दुह लेना है। कभी नहीं पूछते कि तुम इतना आगे आ गए अपने उम्र के लोगों के बारे में क्या सोचते हो और उनके लिए क्या कुछ करना चाहते हो।
मैं जब भी स्कूल के बच्चों से खासकर दिल्ली के बच्चों से मिलता हूं तो आठ साल, दस साल के बच्चों की उलझनों को सुनकर परेशान हो जाता हूं। थोड़ी देर तो अपनी पढ़ाई-लिखाई की बात करता है लेकिन जब मैं उससे खुलने लगता हूं तो बताता है कि कैसे उसकी कोई गर्लफ्रैंड नहीं होने पर और बच्चे उसका मजाक उड़ाते हैं। मतलब बच्चे की कोई गर्लफ्रैंड नहीं है तो उसकी कोई पर्सनालिटी ही नहीं है। दस साल का एक बच्चा, मेयो कॉलेज, अजमेर में पढ़ता है। रोते हुए बताने लगा कि सब खत्म हो गया भइया, मेरा तो ब्रेकअप हो गया। बताइए दस साल, बारह साल में बच्चे ब्रेकअप को झेल रहे हैं और उनमें जिंदगी के प्रति एक अजीब ढ़ंग का असंतोष है। एक ने कहा क्या होगा अब पढ़कर और नंबर लाकर, जिसके लिए पढ़ता रहा साली वो ही दगा दे गई।इसी उम्र में डिप्रेशन, जिंदगी के प्रति अरुचि। कितनी खतरनाक स्थिति हैं।
टीवी चैनल टैलेंट हंट के दौरान स्टेज पर अफेयर को खूब खाद-पानी देते हैं और अपने हीमेश जी एक बंदे को प्यार के लिए प्रमोट करते हैं, उसके प्यार की खातिर वोट मांगते हैं। क्यों भाई, क्या साबित करना चाहते हो आप। कभी ब्च्चों के उपर इसका सोशियोलॉजिकल स्टडी किया कि आपके इस छद्म कल्चर को बढ़ावा देने से बच्चों पर क्या असर पड़ता है। इसी बीच जब कोई बच्चा सोसाइड कर ले तो फिर न्यूज चैनलवाले विशेषज्ञों की पूरी पैनल बिठा देगें। कभी अपने उपर भी रिसर्च कर लो।अच्छी बात है कि आप देश भर में भटक-भटककर बच्चों को खोजते हो, उसे ट्रेंड करते हो लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि टीवी की दुनिया में घुसते ही वो बच्चा रह ही न जाए, उसका बचपन ही चला जाए। और इधर जो बच्चे टीवी से बाहर हैं वो अपने को किसी लायक समझे ही नहीं। उसके दिमाग में बस एक ही बात चलती रहे कि चुन लिए जाते तो खूब सारी गर्लफ्रैंड मिलती और फिर ऐश......। पढ़ने से क्या मिल जाएगा, इस कॉन्सेप्ट को इतनी बरहमी से मत बढ़ाओ, आपको कोई अधिकार नहीं है कि आप देश के इन नौनिहालों का भविष्य इतना डार्क बना दें।

वन्‍दे मातरम् रिंगटोन/सिंग टोन चाहियें

सभी ब्लागर भाईयों से अनुरोध है कि अगर आपके पास राष्ट्रभक्ति से सम्‍बन्धित (विशेष बन्‍दे मां तरम) रिंगटोन/सिंगटोन हो तो कृपया मेरे ई-मेल awasthi.shashikant@gmail.com पर भेजने का कष्ट करें । अगर किसी साईट की जानकारी हो जिसमे राष्ट्रभक्ति से सम्‍बन्धित रिंगटोन/सिंगटोन डाउनलोड करने की सुविधा हो तो उसका लिंक भेजने का कष्ट करें ।

27.1.08

चलो कुछ karen

हम लोग भासन तो खूब पेल रहे हैं लेकिन कुछ ऐसा नहीं कर रहे जिससे समाज में कोई फर्क पड़े.क्या कुछ ऐसा नही हो सकता कि हम लोग कोई मुहिम चलायें। मसलन ओर्गंस डोनेशन के लिए । इस दिशा में प्रेस को अभियान चलाना चाहिऐ ही, हम मीडिया के लोग कुछ ठोस पहल करें. सोचो दोस्तो

ठंढिया क्यों गए......

लग रहा है कि सब भड़ासी बंधु-भगिनी अपने-अपने तरीके से गणतंत्र दिवस मनाने में व्यस्त हैं । एक बात यह भी है कि साथ में रविवार की छुट्टी बोनस के रूप में मिल गई तो हो सकता है कि एकाध दिन की कैजुअल लीव मार कर घूमने(या फिर घुमाने ) का कार्यक्रम बना कर धूप सेंक रहे हों । लेकिन हमें तो भाई आदर्शवादिता का एड्स है तो पूरे तीन दिन झोपड़पट्टियों में घूम कर सूंघेंगे कि ५९ सालों मे क्या वो आदमी गणतंत्र का मतलब जान पाया जो हमारे देश के सभी जनप्रिय नेताओं का सबसे बड़ा वोट बैंक है । इस पूरे कार्यक्रम में धारावी और नई मुंबई की शान मानखुर्द (ये भी धारावी का छोटा भाई ही है) गया और लोगों से बात करी कि क्या आपको पता है आज गणतंत्र दिवस है ? सबने कहा , अरे येड़ा समझा है क्या ?आज के दिन को कैसे भूल सकते हैं ? झंडे का मस्त धंधा होता है लेकिन साला समझ नहीं आता ये साला ३६५ दिन में बस दो ही दिन लोग झंडा क्यों खरीदते हैं ,पन अपुन को क्या कल से वापिस शेंगचना बेचना है।
उन महिलाओं से भी मिला जो दुर्भाग्य से वेश्याव्रत्ति में फंसी हैं ,उन्होंने कहा कि भाईसाहब ये साला दो दिन तो ऐसे आते हैं कि धंधा ही नहीं होता (१५ अगस्त भी) है ,क्या नाटक है ? अरे हां अपने लैंगिक विकलांग मित्रों को कैसे भूल सकता हूं तो उन सबसे भी मिला लेकिन उन लोगों ने जो भी कहा उसे मैं कितना भी समर्पित भड़ासी क्यों न हूं यहां नहीं लिख सकता ।
नये मित्र भड़ास पर आते जा रहे हैं उनमें से हमारी नवागंतुक सखी हैं ’शानू’ इन्होंने पोस्ट लिखा है ye public hai bhai sab janti hai ;इनका स्वागत है । अरे भाई लोग अपुन ने "हम हिजड़े" नाम से नया ब्लाग बनाया है इसे आप देख सकते हैं अगर दम है तो.......
shabanammousi.blogspot.com पर ।
सब लोग लिखते रहो ताकि खली-वली होती रहे...........
जय भड़ास

ठंढिया क्यों गए......

लग रहा है कि सब भड़ासी बंधु-भगिनी अपने-अपने तरीके से गणतंत्र दिवस मनाने में व्यस्त हैं । एक बात यह भी है कि साथ में रविवार की छुट्टी बोनस के रूप में मिल गई तो हो सकता है कि एकाध दिन की कैजुअल लीव मार कर घूमने(या फिर घुमाने ) का कार्यक्रम बना कर धूप सेंक रहे हों । लेकिन हमें तो भाई आदर्शवादिता का एड्स है तो पूरे तीन दिन झोपड़पट्टियों में घूम कर सूंघेंगे कि ५९ सालों मे क्या वो आदमी गणतंत्र का मतलब जान पाया जो हमारे देश के सभी जनप्रिय नेताओं का सबसे बड़ा वोट बैंक है । इस पूरे कार्यक्रम में धारावी और नई मुंबई की शान मानखुर्द (ये भी धारावी का छोटा भाई ही है) गया और लोगों से बात करी कि क्या आपको पता है आज गणतंत्र दिवस है ? सबने कहा , अरे येड़ा समझा है क्या ?आज के दिन को कैसे भूल सकते हैं ? झंडे का मस्त धंधा होता है लेकिन साला समझ नहीं आता ये साला ३६५ दिन में बस दो ही दिन लोग झंडा क्यों खरीदते हैं ,पन अपुन को क्या कल से वापिस शेंगचना बेचना है।
उन महिलाओं से भी मिला जो दुर्भाग्य से वेश्याव्रत्ति में फंसी हैं ,उन्होंने कहा कि भाईसाहब ये साला दो दिन तो ऐसे आते हैं कि धंधा ही नहीं होता (१५ अगस्त भी) है ,क्या नाटक है ? अरे हां अपने लैंगिक विकलांग मित्रों को कैसे भूल सकता हूं तो उन सबसे भी मिला लेकिन उन लोगों ने जो भी कहा उसे मैं कितना भी समर्पित भड़ासी क्यों न हूं यहां नहीं लिख सकता ।
नये मित्र भड़ास पर आते जा रहे हैं उनमें से हमारी नवागंतुक सखी हैं ’शानू’ इन्होंने पोस्ट लिखा है ye public hai bhai sab janti hai ;इनका स्वागत है । सब लोग लिखते रहो ताकि खली-वली होती रहे...........
जय भड़ास

26.1.08

अपनी आज़ादी

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ye public hai bhai sab janti hai

hamesha ki tarha aaj subah bhi rajpth se gantantra diwas ki pared ka seedha prasaran dekha pehle amar jvan joity per shradhanjali dete defence minister aur pradhan mantri sms phir raj path per atithiyoon ka swagat phir shrimati pratibha patil ke pati dev dikey rengeen rajasthani pagdi pehne jese apne ilake ka pratinadhitv kar rahe hoo ... are aap ye artical padhker ye na soochen ki me raj path ke prasaran ka aankhoo dekha hal suna rahi hoo drasal pehli bar bhadas nikalne ka mouka milla hai isliy sambhav hai ki abhivyakti ki wesi kushalta aapko dekhne ko na mile magar koshi jari rakhoongi
han to shaheedoon ko samaanit karne ka dour aaya aur ek ek karke saheedoon ke parijan ate aur whan lage speekers se un bhadur sipahiyoo ki veerta ki us antim ghadi ka jakre kiya jata jis kshan wo desh ki raksha ke liy shaheed huy apni sadi sambhalti pratibha ji i mean bharat ki phli mahila rashtrapati mhodya (koi baat nahi aadat ho jaygi dheere deery hi to hogi ) aap ye na samjhe ki me khud mahila hote huy yesi baat is liy kar rahi hoon ki me ek mahila ke rashtrapati hone se sehmat nahi hoon , meri sooch bilkol wesi nahi hai . jane mujhe patil mhodya me wo baat najar nahi aati jo indra ji ,ya soniya ji me hai ab jahir hai aap ye andaja lgane ko badhy hongy hongy ki me congras samarthak hoon per aapki jankari ke liy bata doon ki darne wali yesi koi baat nahi hai . kher mera muda rashtrapati badalne ka nahi hai na hi unke mahila hone ka .
me to bas ye sooch sochker preshan hoon ki kese is warsh sirf aur sirf south india soldier aur had mar ke ek ad north indian (jo meri samajh me ya to rajasthni ,ya panjabi the) ko hi veer chakr se samanit kiy gya . kya pore desh me inhi bhadur sipahiyon me desh bhakti ka jasba tha ? ye sab soochti hoo to un sab desh bhakt sipahiyon ke balidan per dukh hota hai jinke privar walon ko muwabje tak ke liye bhi poochha nahi jata . essa rha to bas yehi umeed karni hogi ki aapna koi rishtedar kisi badi post per ho taki sifarish ki jarorat na ho
akhir jaat bhai ka kaam jaat bhai nahi karega to aur kon karega

पीस कर रख दिया बाज़ार

सांड का पना
पना आम का
पापड की तरह
पीस कर रख
दिया बाज़ार
अब न जाने
कब और कितने
दिनों में फिर
फूलेगा तब
झूलेंगे निवेशक
पर सांड को
तो दौडाओ
बी एस ई से
परे हटाओ
हे राम जी.

मेरा बलात्कार मत करो .....एक पत्रकार की अनकही दास्तान



मेरा बलात्कार मत करो .....एक पत्रकार की अनकही दास्तान
आखिरकार लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने यह स्पस्ट कर दिया कि हम सबकी अपनी-अपनी दुकाने है जिनमे बैठने वाले वाले लोग पत्रकार का चोला पहने हुए है जिसमे खबरें विज्ञापन के लिए बिकती है ना कि पत्रकारिता के लिए ....हम आपको बता दे कि खबर वही बिकाऊ होगी जिसमे sex होगा ,खेल होगा .गाने -बजाने होंगे और मोजूद होंगे कुछ हसीनाओं के चेहरे ....जी हां जनाब ०- हम बात किसी गली -मोहल्ले के नही बल्कि आपके -अपने मीडिया की कर रहे है - इन दुकानों को चलाने के लिए मौजूद होते है कुछ हसिनाओ की खुशबु लिए अपने न्यूज़ वाले यानी नए जमाने की नयी पत्रकारिता ..यानी महिला पत्रकार ......हम अगर शब्दों को सही करे तो महिला एंकर .............यानी नया पर्दा नया रूप नया मुकाम और नया और जबरदस्त ग्लैमर लिए पत्रकारिता -यह हकीक़त है की इस नए पत्रकारिता का आगाज हिंदुस्तान में हो चूका है -आप टीवी खोले कर देखिए तो सही -ऐसा लगता है मानो ये महिलाए रेम्प के बजाए न्यूज़ स्टूडियो मे अपने कपडे उतार देंगी ......इंग्लैंड मे तो यह हो चुका है ...खैर पत्रकारिता को बेचकर अपनी दुकान चलाने वालो को यह टी.र.पी का नया फार्मूला लग रही है --कुछ लोगो ने तो एस पर आवाज भे उठाई लेकिन हम कहा बाज आने वाले थे -चलिए अब राज खुले तो मैं बता दु हाल ही मे एक नया न्यूज़ चैनल आया पता चला कि वहा पर जॉब के चांस है मेरी महिला मित्र के साथ हुआ था यह हादसा सारे प्रशन पूछने की बाद वहा के hr ने खा मैं आपसे संतुष्ट हूँ अब यह बताओ मेरे लिए क्या कर सकती हो ? आख़िर इस जिस्म की ज्यादा भूख मीडिया मैं क्यों ? कहा है वो लोग जो blog के jariyehe मुझे पत्रकारिता sikhaa the .... आगे mahilaao और मीडिया पर कुछ विचार ....ये विचार मेरे नही है बल्कि मेरे aadarsho के है ------jara ध्यान से padhe ...मैं महिला पत्रकार हूँ -मेरे अपने aadarsh है मैं ladki हूँ वही लड़कीं जिसके बारे में सिमोन द बोवा ने कहा था कि वो पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। लोग मुझे तरह-तरह से बनाते हैं। मुझे सेवा करने लायक बनाते हैं। सुंदर दिखने लायक बनाते हैं। वो मेरा तन तराशने से पहले मेरा मन तराशते हैं। बताते हैं, खूबसूरत दिखना मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा मकसद है। वो पहले अपने आनंद के लिए मेरा इस्तेमाल करते हैं, फिर अपने कारोबार के लिए। वो मेरी कोमलता से अपना सामान सजाते हैं, मेरी सुंदरता से अपनी दुकान। मैं जब studio par hoti हूं तो सबसे पहले अपने वजूद पर पांव रखती हूं। मुझे मालूम रहता है कि ये नाजुक संतुलन, ये खूबसूरत लचीलापन, ये shandaar kaaya , ये रोशनियां, ये चमक-दमक मेरे लिए नहीं, एक बड़े कारोबार के लिए है। मुझे मुस्कुराना है, मुझे बातें kahanii हैं, मुझे अपनी घबराहट, अपने आंसू रोकने हैं, अपने उस शर्मीलेपन को कुचलना है जो किसी बचपन से कहीं से मेरे साथ चला आया। मुझे आत्मविश्वास और कामयाबी से भरपूर नजर आना है, इस डर को दबाना है कि जब ये तराश नहीं रहेगी, जब वक्त की रेखाएं मेरे जिस्म पर दिखाई देने लगेंगी, जब जिंदगी की आपाधापी में मेरे पांव कांपते रहेंगे, तब मेरा क्या होगा। मैं लड़की हूं। अपनी त्वचा से प्यार करती हूं, सुंदर दिखना चाहती हूं, कोमल बने रहना चाहती हूं, लेकिन नहीं जानती कि इन मासूम इच्छाओं के लिए मुझे कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। सिर्फ मुझे मालूम है कि सुंदरता तन से कहीं ज्यादा मन में होती है, दृश्य से कहीं ज्यादा आंख में होती है, वो तराशी नहीं जाती, अपने वजूद और अपनी शख्सियत की एक-एक शै के बीच ढलती है, और बहुत कम ऐसे मौके आते हैं जब वो अपनी पूरी कौंध के साथ दिखाई पड़ती है। दरअसल वो रैंप पर सैकड़ों लोगों के बीच की नुमाइश में जितना नजर आती है उससे कहीं ज्यादा उन रिश्तों में झलकती है जिसमें देह ही नहीं, रूह तक पारदर्शी हो जाती है।
आखिरकार लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने यह स्पस्ट कर दिया कि हम सबकी अपनी-अपनी दुकाने है जिनमे बैठने वाले वाले लोग पत्रकार का चोला पहने हुए है जिसमे खबरें विज्ञापन के लिए बिकती है ना कि पत्रकारिता के लिए ....हम आपको बता दे कि खबर वही बिकाऊ होगी जिसमे sex होगा ,खेल होगा .गाने -बजाने होंगे और मोजूद होंगे कुछ हसीनाओं के चेहरे ....जी हां जनाब ०- हम बात किसी गली -मोहल्ले के नही बल्कि आपके -अपने मीडिया की कर रहे है - इन दुकानों को चलाने के लिए मौजूद होते है कुछ हसिनाओ की खुशबु लिए अपने न्यूज़ वाले यानी नए जमाने की नयी पत्रकारिता ..यानी महिला पत्रकार ......हम अगर शब्दों को सही करे तो महिला एंकर .............यानी नया पर्दा नया रूप नया मुकाम और नया और जबरदस्त ग्लैमर लिए पत्रकारिता -यह हकीक़त है की इस नए पत्रकारिता का आगाज हिंदुस्तान में हो चूका है -आप टीवी खोले कर देखिए तो सही -ऐसा लगता है मानो ये महिलाए रेम्प के बजाए न्यूज़ स्टूडियो मे अपने कपडे उतार देंगी ......इंग्लैंड मे तो यह हो चुका है ...खैर पत्रकारिता को बेचकर अपनी दुकान चलाने वालो को यह टी.र.पी का नया फार्मूला लग रही है --कुछ लोगो ने तो एस पर आवाज भे उठाई लेकिन हम कहा बाज आने वाले थे -चलिए अब राज खुले तो मैं बता दु हाल ही मे एक नया न्यूज़ चैनल आया पता चला कि वहा पर जॉब के चांस है मेरी महिला मित्र के साथ हुआ था यह हादसा सारे प्रशन पूछने की बाद वहा के hr ने खा मैं आपसे संतुष्ट हूँ अब यह बताओ मेरे लिए क्या कर सकती हो ? आख़िर इस जिस्म की ज्यादा भूख मीडिया मैं क्यों ? कहा है वो लोग जो blog के jariyehe मुझे पत्रकारिता sikhaa the .... आगे mahilaao और मीडिया पर कुछ विचार ....ये विचार मेरे नही है बल्कि मेरे aadarsho के है ------jara ध्यान से padhe ...मैं महिला पत्रकार हूँ -मेरे अपने aadarsh है मैं ladki हूँ वही लड़कीं जिसके बारे में सिमोन द बोवा ने कहा था कि वो पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। लोग मुझे तरह-तरह से बनाते हैं। मुझे सेवा करने लायक बनाते हैं। सुंदर दिखने लायक बनाते हैं। वो मेरा तन तराशने से पहले मेरा मन तराशते हैं। बताते हैं, खूबसूरत दिखना मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा मकसद है। वो पहले अपने आनंद के लिए मेरा इस्तेमाल करते हैं, फिर अपने कारोबार के लिए। वो मेरी कोमलता से अपना सामान सजाते हैं, मेरी सुंदरता से अपनी दुकान। मैं जब studio par hoti हूं तो सबसे पहले अपने वजूद पर पांव रखती हूं। मुझे मालूम रहता है कि ये नाजुक संतुलन, ये खूबसूरत लचीलापन, ये shandaar kaaya , ये रोशनियां, ये चमक-दमक मेरे लिए नहीं, एक बड़े कारोबार के लिए है। मुझे मुस्कुराना है, मुझे बातें kahanii हैं, मुझे अपनी घबराहट, अपने आंसू रोकने हैं, अपने उस शर्मीलेपन को कुचलना है जो किसी बचपन से कहीं से मेरे साथ चला आया। मुझे आत्मविश्वास और कामयाबी से भरपूर नजर आना है, इस डर को दबाना है कि जब ये तराश नहीं रहेगी, जब वक्त की रेखाएं मेरे जिस्म पर दिखाई देने लगेंगी, जब जिंदगी की आपाधापी में मेरे पांव कांपते रहेंगे, तब मेरा क्या होगा। मैं लड़की हूं। अपनी त्वचा से प्यार करती हूं, सुंदर दिखना चाहती हूं, कोमल बने रहना चाहती हूं, लेकिन नहीं जानती कि इन मासूम इच्छाओं के लिए मुझे कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। सिर्फ मुझे मालूम है कि सुंदरता तन से कहीं ज्यादा मन में होती है, दृश्य से कहीं ज्यादा आंख में होती है, वो तराशी नहीं जाती, अपने वजूद और अपनी शख्सियत की एक-एक शै के बीच ढलती है, और बहुत कम ऐसे मौके आते हैं जब वो अपनी पूरी कौंध के साथ दिखाई पड़ती है। दरअसल वो रैंप पर सैकड़ों लोगों के बीच की नुमाइश में जितना नजर आती है उससे कहीं ज्यादा उन रिश्तों में झलकती है जिसमें देह ही नहीं, रूह तक पारदर्शी हो जाती है।

25.1.08

दो बच्चा अख़बार और मेरठ से

मेरठ से दो -दो बच्चा अख़बार आने की खबर है .एक के सुबह सवेरे आने की सूचना है दूसरा लंच टाइम पर आएगा ।
अब मेरठ की भूमी पर तीन बच्चे मचाएंगे सुबह शाम दंगल .बस यही कामना है की यह अख़बार hindi मै
ही निकलें नकी hinglish .मैने i-candy को एक ब्लोग में आइसक्रीम कह दिया तो एक अग्यात्जी बुरा मान गए ।
उनका कहना था i-candy को अंगरेजी मै देखने मै सुंदर को कहते हैं .वह मेरे अल्प्ज्ञान पर शर्मिंदा थे
मै उनकी बैचार्गी पर मगन .भाई लोगों ,इसे कहते हैं थोता चना बाजे घना .i-candy का यह अनर्थ बताने वाली
dictionary का पता हमे भी देदें ?

क्लिक लिंक

http://billoresblog.blogspot.com/2008/01/blog-post_27.html

धरत राष्ट्र के अनुयायी

हम भारतीय अपनी परम्पराओं का पालन बढ़ी ईमानदारी के साथ करते हैं .भाई इसी से तो हमारी संस्कृति इतनी महान है.जरा सोचिएगा अगर धरत राष्ट्र पुत्र मोह में नही पड़ते तो महाभारत कैसे होता और भारतीय संस्कृती का इतना महान ग्रंथ कैसे लिखा जाता ।
इसी परम्परा को अब हमारे नेता बढ़ी निष्ठा के साथ निभा रहें हैं । भारत मेँ अनेक धरत राष्ट्र पैदा हो गए हैं .पुत्र मोह परम्परा के लिए मराठी शेर बल ठाकरे ने तो पार्टी ही तुड़वा ली .अपने देव गोड्डा साहब ने तो बेटे के चक्कर में पार्टी का घनचक्कर ही बना दिया है .बेटे कुलदीप विस्नोई खातिर अपने भजन करने के दिनों मेँ भजनलाल ने कांग्रेस छोड़ कर नई पार्टी ही बना डाली .उधर शरद पंवार के खेमे से भी खबर आ रही है कि भतीजा अजित पंवार ख़म ठोंक सकता है .लकिन इस परम्परा को निभाने का स्वर्ण पदक मिलेगा हमारे माननीय कलिग्नार करुनानिधि जी को ,इन साहब ने तो परम्परा के लिए अपने भांजे को केन्द्रीय मंत्री के पद से सीधे जमीन पर ला पटका .बहरहाल संतोष है कि अब आने वाली जनरेशन के लिए अनेक महाभारतों की सम्र्द्साली विरासत तो छोड़
जायेंगे।
गौतम यादव भारतीय जनसंचार संस्थान ,नईदिल्ली gautamyadav420@gmail.com

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

धरा पर यौवन बसंत का
मन में बसंत सा श्रृंगार
गणतंत्र की पुलक मुख - मंडल पर
ह्रदय करे मात्रभूमि का सत्कार !
सभी भडासियों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
singh.ashendra@gmail.com
www.apnibat-ashendra.blogspot.com

हरामी बोलती लड़कियां, अच्छी लगती है

जरा बच के, मां-बहन भी पढ़तीं हैं ब्लॉग पढ़कर मेरे एक साथी डॉ. रुपेश श्रीवास्तव ने तुरंत पोस्ट डाला कि आप राय-सलाह मत दिया करें और फिर भड़ास यानि दिमागी उल्टी का वैज्ञानिक विश्लेषण किया-उल्टी करने वाले पर आप शर्त नहीं लगा सकते कि उसमें दुर्गंध न हो । एक चिकित्सक होने के नाते बता देना चाहूंगा अन्यथा न लें ,माता जी और बहन जी को भी कहें कि अगर किसी को गरियाना चाहती हों तो भड़ास पर आकर गरिया लें मन हल्का हो जाने से तमाम मनोशारीरिक व्याधियों से बचाव हो जाता है ;ध्यान दीजिए कि यह भी एक विचार रेचन का अभ्यास है ,"कैथार्सिस" जैसा ही या फिर ’हास्य योग’
लेकिन मेरी बात को उन्होंने सुझाव या ज्ञान समझ लिया जबकि था ये व्यंग्य। मैं उनसे ज्यादा बड़ा कमिटेड भड़ासी हूं, ये बताने के लिए पोस्ट पेश कर रहा हूं
हिन्दी में जब एक कवि ने लिखा -
स्त्री के निचले हिस्से में
फूलबगान

बाकी सब जगह श्मशान
तो उस समय के आलोचकों ने उन्हें खूब गरिआया, लात-जूते मारे और बाद तक गरियाने के लिए अपने मठों के आलोचक के नाम पर लूम्पेन छोड़ गए। अभी भी ऐसे लूम्पेन उनकी कविता या उन जैसे कवियों की कविता पर नाक-भौं सिकोड़ते नजर आ जाएंगे. लेकिन दो साल पहले मेरे एक सीनियर ने बड़ी हिम्मत करके इन पर रिसर्च किया और बाद में जब किताब लिखी तो पहली ही लाइन लिखी कि- राजकमल चौधरी जीनियस कवि हैं। दमदमी माई ( अपने हिन्दू कॉलेज की देवी जो वेलेंटाइन डे के दिन प्रकट होती है और उस दिन प्रसाद में लहसुन और कंडोम बांटे जाते हैं) की कृपा से किरोड़ीमल कॉलेज में पक्की नौकरी बतौर लेक्चरर लग गए। किताब के लोकार्पण के समय उन्होंने कहा भी कि जब वो काम कर रहे थे तो लोग उनके कैरेक्टर को लेकर सवाल किए जा रहे थे मानो इस कवि पर काम करने लिए भ्रष्ट होना जरुरी है, एक-दो ने तो पूछा भी था कि कभी जाते-वाते हो कि
लेकिन इधर देख रहा हूं कि ऐसी भाषा लिखनेवालों की संख्या और रिडर्स की मांग बढ़ रही है। राही मासूम रजा ने तो पहले ही कह दिया कि अगर मेरे चरित्र गाली बोलेगे, बकेंगे तो मैं गाली लिखूंगा और देखिए बड़े आराम से हरामी शब्द लिखते हैं।तो क्या मान लें कि अब भाषा के स्तर पर समाज भ्रष्ट होता जा रहा है. अगर मुझे ऐसा लिखने के लिए, दंगा करवाने के लिए कोई पार्टी या संगठन पैसे देती तो सोचता भी, फिलहाल अपने खर्चे पर वही लिखूंगा, जो तथ्यों के आधार पर तर्क बनते
पहली बात तो ये कि अगर हमने कहीं गाली लिख दिया या फिर पेल दिया तो लोग उसे सीधे हमारे चरित्र से जोड़कर देखने लग जाते हैं। अगर अच्छे शब्दों और संस्कृत को माई-बाप मानकर हिन्दी बोलने वाले लोगों से देश का भला होना होता तो पिर मंदिरों में कांड और महिलाओं के साथ बाबाओं की जबरदस्ती तो होती ही नहीं और अपने आइबीएन 7 वाले भाईजी लोग परेशानी से बच जाते। अगर ऐसा है तो हर रेपिस्ट की अलग भाषा होती होगी और संस्कृत बोलने वाला या फिर उसके नजदीक की हिन्दी बोलने वाला बंदा कभी रेप ही नहीं करता। इसलिए ये मान लेना कि ले ली की बजाय आस्वादन किया बोलने से समाज का पाप कमेगा, बेकार बात है और बॉस ने ड़ंड़ा कर दिया बोलने से हम भ्रष्ट हो गए, बहुत ही तंग नजरिया है।
ऐसा वे सोचते हैं जो सालों से वही पोथा लेकर बैठे रहे अपनी मठ बनाने में और अब बचाने में लगे रहे और जब भाषा उनके हाथ से छूटती चली गई तो शुद्धता के नाम पर हो-हल्ला मचा रहे हैं। ये भाषा के नाम पर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं। कईयों की तो ऐसी हिन्दी सुनकर ही उनके कमीने होने की बू आने लगती
और जहां तक सवाल गालियों या फिर शब्दों के तथाकथित अश्लील होने की है तो ये हमारी दिमागी हालत पर निर्भर करता है। मेरी एक दोस्त अपने बॉस पर गुस्सा होने पर कहा करती है, मैं तो उसकी मां...... दूंगी, अब बताइए संभव है। कॉलेज की एक दोस्त जब हमलोग कहते मार्च ऑन तो वो पीछे से कहती वीसी की मां चो..। और कहती हल्का लगता है विनीत, ऐसा करने से।मेरे रुम पार्टनर ने मेरे न चाहने पर भी तीन महीने तक एक गेस्ट को रखा और मैं परेशान होता रहा। लेकिन जब भी वो मुझे दिखता मन ही मन धीरे से कहता- साला भोसड़ी के और तत्काल राहत मिलती। इसलिए अब भाषा पर जो काम हो रहे हैं और उससे जो काम लिया जा रहा है उसमें शब्दों के अर्थ लेने से ज्यादा जरुरी है उन शब्दों को लेकर मानसिक प्रभावों पर चर्चा करना, लोग गाली लिखने वालों के लिए भी जगह बना रहे हैं, दे रहे तो इसलिए कि वे उनका कमिटमेंट देख रहे हैं उनके लिखने से उनके व्यक्तित्व का विश्लेषण नहीं कर रहे और इस अर्थ में आज का समाज पहले से ज्यादा समझदार हुआ है और ज्यादा बेहतर व्यक्त कर रहा है।
जिस लड़की की आवाज को मठाधीशों ने जमाने से दबाए रखा, आज वो अपने बॉस को चूतिया, कमीना, रॉस्कल और हरामी बोलती है तो वाकई अच्छा लगता है, मैं तो इसे भाषा में एक नए ढ़ग का सौन्दर्यशास्त्र देखता हूं।इसलिए एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर काम करते-करते अपने बारे में ही कहता है कि मैं तो बड़ा ही चूतिया आदमी हूं और जब कोई मेरे बारे में कहता है कि बड़ा ही हरामी ब्लॉगर है तो न तो कोई अफसोस होता और न हीं कभी गुस्सा आता है बल्कि लगता है कि पब्लिक को मेरी इमानदारी पर शक नहीं है, मैं बेबाक लिख रहा हूं।

हम फकीरों से जो उलझे उनका भी भला...

सप्ताह का ब्लागरः यशवंत सिंह...कौन कहता है साला कि...

उपरोक्त लिंक पर क्लिक करेंगे तो अपने आशीष महर्षि, बोलहल्ला ब्लाग वाले के ब्लाग पर पहुंच जाएंगे और उन्होंने जो सप्ताह का ब्लागर कालम शुरू किया है, उसमें सबसे पहले मुझे ही पकड़ कर हलाल किया है, को पढ़ पाएंगे।

किसी दुखी अनाम सज्जन से इंटरव्यू मेरा पढ़ा नहीं गया और उन्होंने अनाप शनाप कमेंट शुरू कर दिया। बाद में उन कमेंट को आशीष ने हटा दिया।

खैर, हम, फकीरों से जो उलझे उनका भी भला, जो न उलझे उनका भी भला। क्या लेके आए हैं जो लेके जाएंगे। ज़िंदगी के चार दिन, दो आरजू में कट गए, दो इंतज़ार में....। तो सहज व सरल तरीके से जीकर गुजार लिया जाए। और इस प्रक्रिया में हम चाहें जितने सफल और असफल बन जाएं, अगर एक संवेदनशील मनुष्य खुद को बनाए रख सकें, तो यही सफलता होगी।

आप लोग पढ़िए और अपनी राय वहीं बोलहल्ला पर ही दर्ज कराइए।

जय भड़ास
यशवंत सिंह

क्यो होता है

जब पानी बरसे या कड़ाके की ठंड में अतिक्रमण विरोधी अभियान
जब त्योहार पास हो तो दो पहिया वाहनो का चेकिंग अभियान
जब किसी पत्रकार पर हमला हो तो पत्रकारों का विरोध अभियान
अजीत

BREAKING NEWS..........चैनल को नोटिस

एक खेल चैनल ने जारी किया एक न्यूज चैनल को नोटिस ...........नोटिस के अनुसार खेल के दृश्यों का चोरी का आरोप .......चैनल नोटिस का जवाब देने मे जुटा....
आशीष

24.1.08

कूडा ब्लोगरो के लिये पुरस्कार

आज कुछ सोचने पर मजबूर होना पडा! वैसे मे बहुत कम सोचता हू ! क्योकि कभी सोचने की जरुरत ही नही पडी ,
और मेरा सोंचना भी उन पुरस्कारों पर हुआ जो कुछ ब्लोगर भाईयों ने शुरु किया हें! एक ब्लोगर समूह तो पुरस्कार बात चुका हें !(जिस पर थोडा होहल्ला भी हुआ था) और दूसरे समुह के पुरस्कार पर मतदान की प्रक्रिया शुरु हो गई हें
और इस पुरस्कार को जीतने के लिये कुछ अच्छे-अच्छे चिठ्ठाकारो ने अपना-अपना नामांकर करवा कर वोट भी मागना शुरु कर दिये हें ? पुरस्कार जीतना बहुत गर्व की बात हें! और इस की लालसा हर इंसान मे होती हें ,कि वो अपनी जिंदगी मे कोई पुरस्कार जरूर जीते ? मेरा सोचना हें उन मेरे जेसे (कूडा-कबाड़ा ) लिखने वाले ब्लोगरो के बारे
मे जिन का मेरी तरह साहित्य ज्ञान शून्य हें ! लेकिन दुसरो को देख उत्साहित हो कर लिखने की कोशिश करते हें!
तभी कुछ तथाकथित भ्रमित नामी ब्लोगर उन को (कूडा-कबाड़ा ) कह कर मजाक उडाते हें ! क्यो ना एक एसा पुरस्कार शुरु किया जाये ,जो केवल एसे ब्लोगरो को दिया जाये ,जोकि पेशेवर लेखक नही हें बल्कि लिखने की
कोशिश कर के साफ़ सीधा लिखते हें !जिन के लिखने मे कोई बनावटीपन नही हें और इस पुरस्कार से जहा नये
उभरते नोसिखिये ब्लोगरो का उत्साहा बढेगा वही हिन्दी के प्रति भी प्रेम बढेगा
ओर यह सब निर्णय मै अपने भडासी भाईयो पर छोडता हू ( खासकर यशवन्त भाई पर ) और सात समुंदर पार
मेरे से जितना बन पडेगा मे योगदान दूगा वतन से दुर वतन की याद मे अपनी भाषा से प्यार करता हू
आप सभी भडासी भाई अपनी राय जरुर दे
गुलशन खट्टर पुर्तगाल gulshan221.blogspot.com

घर में चूहे, देना होगा टैक्स

घर में चूहे, देना होगा टैक्स

दिल्लीवासियों सावधान! यदि आपके घर में चूहे या छिपकली हो तो आपको टैक्स देना पर सकता है। भले ही यह आपको एक मजाक लगे, लेकिन दिल्ली सरकार इस मामले पर विचार कर रही है। दिल्ली सरकार कई चरण में इस योजना को लागू करने जा रही है। पहले चरण में सरकार ने दिल्ली में भैस, गाय, घोडा पालने वालों पर टैक्स लगाया है।

सरकार की योजना के मुताबिक, भैस पालने वालों को अब ढाई हजार रूपये, गाय पालने वालों को दो हजार रुपये, घोडा, खच्चर, गधा से चार पहिया वाहन चलाने वालों को दो हजार और दो पहिया चलाने वालों को एक हजार टैक्स ठोंक दिया है।इसे जल्द ही विधानसभा में पेश किया जाना है।

सूत्रों कि माने तो जल्द ही सरकार घरों में चूहों, बिल्ली, छिपकली, मक्खी, मछ्द पालने वालों पर टैक्स लगायेगी। बताया जाता है कि इस बार यदि लोगों का विरोध नही हुआ तो घर के किचन में काकरोच पाए जाने पर भी टैक्स लगाय्गी।

यहाँ बात कर लगाने के नहीं है, बल्कि गरीबों को दिल्ली से दूर करने की है। पहले झुग्गी झोपडी हटाई गयी। सड़क पर पैदल चलने वालों ko प्रतिबंधित किया गया। चान्दिनी चौक इलाका men रिक्शा चलने पर रोक लगाई गयी। दक्षिणी दिल्ली में रिक्शा चलाने पर पहले से प्रतिबंध है।

आमजन कि समस्या से दूर, सरकार हर महीने ऐसे कानून बनाती है, जिससे गरीब और गरीब रहे और अमीर के दिल्ली ही दिल्ली के दिल में बसे।

कानून जमकर बनाओ शीलाजी, लेकिन जरा घर में रहने वाले चूहों, छिपकली, मकरी और हाँ गली में रहने वाले कुत्ता जैसे जानवर से भी निजात दिलाओ। सरकार को चाहिऐ कि पूरी दिल्ली के हर घर की तलाशी ले, और जिस घर में चूहे मिलें उसे दस हजार रूपये का जुर्माना, छिपकली मिले तो पन्द्रह हजार रूपये ....
हाँ, शीलाजी घबराए नही, मेनका गांधी कुछ नही बोलेंगी, क्योंकि यहाँ उन्हें वोट नही मिलेगा।

आइये....हिलमिल के मनाएँ गणतंत्र

मेरा भारत महान है इसमें क्या कोई शक है....?
शायद इस बात पर शक है तभी तो साल में दो बार ये नारा दुहराते हैं ....
. अपने आप के ज़िंदा होने का अहसास दिलाते हैं।
हम देश भक्त हैं तभी तो ए० आर० रहमान के गीत "माँ तुझे सलाम " गुनागुनातें हैं.
हम लोग भाई अपने को बड़ा राष्ट्र प्रेमी साबित करने पे तुले हैं।
ये अलग बात है कि हम माँ के दूध से एकाध बार ही धोए गए अथवा धुले हैं।
सारी सफेदी नेताओं को मिली है
उनकी वाणी में सफ़ेद झूठ
और
खादी की पोशाक गोया नए रिन की बट्टी से धुली है......!
भारत की महानता के नाम पर आत्म-गीत गायेंगे ..... !
और नौकरशाह बंद गले के काले सूट में मंडराएंगे.....?
सरकारी महकमें शहर के स्टेडियमों में गणतंत्र मनाएंगे
अधिसूचित मंत्री जहाँ तिरंगा फहराएगें
वहाँ निकलेंगी झाँकियाँ विकास की झलक और सुनहरे सपन दिखाए जाएंगे
पहली झांकी होगी नग़र निगम की
जहाँ बैठक में हुए झगडे को दिखाना भूल जाएंगे ।
दूसरी झाँकी उद्योगों का दृश्य दिखाएगी
मेरे शहर के बेरोज़गारों को रुलाएगी ।
तीसरी झांकी में शिक्षा के स्तर को बताएगी
स्कूलों की संख्या , के अनुपात में गुणवत्ता छिपाएगी ।
ग्रामीण विकास के दृश्य दिखाने वाली झांकी में
गाँव तक
साफ सुथरी सड़क
रोज़गार की गारंटी बताएंगे
कितना ऊपर से आया कितना मिला गरीब गाँव को
ये बात छिपाई जाएगी ...!
सरकार के स्वास्थ्य विभाग की सफलता
आकाश में नजर आएगी
ये अलग बात है कितने लोग बीमारी से मरें हैं
कितने बेचारे अज्ञानता के तिमिर से घिरे है...!
चलो कुछ पाजिटिव हों जाएँ......!
ये तो रोज़िन्ना का रोना है
भूल के इसे हिल मिल के गणतंत्र की वर्ष गाँठ मनाएं

भड़ासी ब्रांड स्पष्टीकरण

आत्मन विनीत जी,आपका कहना मुझे स्वीकार है पर जरा ये तो विचार करके बताइये कि भड़ास किस भाषा का शब्द है । कदाचित होता यह है कि लोग जब यहां अपना आक्रोश शब्दों के लिखित रूप में निकाल रहे होते हैं तो वे भूल जाते हैं कि उनकी अभिव्यक्ति ऐसे लोग भी देखेंगे जिनके साथ उनका रिश्ता मर्यादा के दायरे में बंधा है । जिनको पित्त विकार है तो स्पष्ट है कि उनकी उगली हुई या वमन करी बात में तेज़ाबी अंश अधिक होगा और अव्यक्त क्रोध ही पित्त विकार का कारण बनता है । यकीन मानिए कि हममें से कोई भी सामान्यतः मर्यादाहीन नहीं है । मैं सभी भड़ासियों की ओर से क्षमा चाहता हूं किंतु उल्टी करने वाले पर आप शर्त नहीं लगा सकते कि उसमें दुर्गंध न हो । एक चिकित्सक होने के नाते बता देना चाहूंगा अन्यथा न लें ,माता जी और बहन जी को भी कहें कि अगर किसी को गरियाना चाहती हों तो भड़ास पर आकर गरिया लें मन हल्का हो जाने से तमाम मनोशारीरिक व्याधियों से बचाव हो जाता है ;ध्यान दीजिए कि यह भी एक विचार रेचन का अभ्यास है ,"कैथार्सिस" जैसा ही या फिर ’हास्य योग’ जैसा । आप विश्वास करिए कि आयुर्वेद में मनोभावों को दबा लेना भी रोगों की उत्पत्ति का बहुत बड़ा कारण स्वीकारा गया है । अरे हां ,मेरे प्यारे भड़ासी भाईयों अब आप ये मत कहने लगना कि हम साले अपनी फोकट कन्सल्टैंसी भड़ास पर खोल कर बैठ गए ।
जय भड़ास

जरा बच के, मां-बहन भी पढ़तीं हैं ब्लॉग

भाई हमने तो अपना मामला नोट्स से हटाकर यूआरएल लिंक तक पहुंचा दिया। पहले जो जूनियर्स नोट्स या किताब मांगते थे अब वे मेरे ब्लॉग का लिंक पूछते हैं, धीर-धीरे ब्लॉग की दुकान जम रही है।परसों ही एक जूनियर मेरे ब्लॉग का लिंक लिखकर ले गई और आज मिलने पर बताया कि अच्छा लिखते हैं सर आप। मैंने तो मम्मी को भी दिखाया।
मैं मन ही मन खुश हो रहा था कि अच्छा है दिल्ली की आंटी लोग जो कि मां के बहुत दूर होने की वजह से मां ही लगती है, इम्प्रेस होगी और कभी खाने पर बुला लिया तो एक पोस्ट की मेहनत तो सध जाएगी, सो पूरे ध्यान से उसकी बात सुन रहा था। लेकिन आगे उसने जो कुछ कहा उससे मेरे सपने तो टूटे ही, आगे के दिनों के लिए चिंता भी होने लगी। जूनियर का कहना था कि सर मैं अपनी मम्मा को आपका ब्लॉग पढ़ा रही थी कि अचानक एक लाइन आ गयी। आपने लिखा था कि- हिन्दी की ही क्यों लेने लगते हो। मम्मा ने कहा ऐसा लिखना ठीक नहीं है, ऐसे नहीं लिखना चाहिए और फिर उठकर वहां से चली गई। मैं समझ गया कि आंटी ने इस शब्द को अश्लील समझा।
इधर वीचैनल को लगातार देख रहा हूं। उस पर एक कैंपस शो के लिए एड आती है जिसमें लाइन है- किसकी फटेगी। आंटी इसका अर्थ भी उसी हिसाब से लगा सकती है और चैनल को अश्लील कह सकती है। मुझे याद है मैं अपने कॉलेज के दिनों में खूब एक्टिव रहा करता था- क्या डिवेट, क्या प्ले। करता भी और कराता भी और हांफते हुए अपनी मैम के पास पहुंचता और मैम पूछती कि क्या हुआ तो अचानक मेरे मुंह से निकल जाता मैंम सब तेल हो गया या फिर मेरे दोस्त राहुल ने स्पांसर्स का केला कर दिया और मैम मेरे कहने का मतलब समझ जाती।एफएम में आए दिन आपको ऐसे शब्द सुनने को मिल जाएंगे। तीन-चार दिनपहले ही तो रेडएफएम पर बज रहा था जब इंडिया ने पर्थ में परचम फैलाया था- मैं भज्जी, आपका हरभजन सिंह रेड एफएम 93.5 बजाते रहो, किसकी पता नहीं। अब तक तो यही समझ रहे थे किरेड एफएम बजाते रहना है, अभी समझ रहे हैं कि आस्ट्रेलिया जैसी टीम को बजाते रहना है और फिर धीरे-धीरे एक मुहावरा बन जाता है कि यार उसकी तो बजा कर रख दूंगा। मेरा दोस्त कहा करता है उसकी टू मैंने रेड लगा दी, हम मतलब समझ जाते हैं लेकिन कभी भी अश्लील अर्थ की तरफ नहीं जाते।
पॉपुलर मीडिया में शब्दों की तह तक जाने की बात नही होती, लोग संदर्भ के हिसाब से उसका मतलब समझ लेते हैं, खुलापन सिर्फ जीने के स्तर पर नहीं आया है। व्हीस्पर का एड देखिए हर लड़की एक दूसरे के कन में दाम घटने की बात करती है बावजूद इसके हम सुन लेते हैं और फिर सुनेगें नहीं तो बिकेगा ।
आंटी को मेरी पोस्ट को देखने पर उठकर जाना पड़ा और मैं सोचने लगा कि वाकई कैंपस में बोली जानेवाली इस भाषा पर विचार करने की जरुरत है। ये भाषा के स्तर पर संस्कारी होने का मामला है, अच्छा बच्चा होने का आग्रह है या फिर बदलती बिंदास हिन्दी को नहीं बर्दास्त कर पाने का हादसा। फिलहाल लड़की ने मेरा हौसला बढ़ाया कि सर आप लिखिए- मैंने तो मम्मा को बताया कि हिन्दी में लोग अब ऐसे ही लिखते हैं।
अपने ब्लॉगर साथियों से तो इतना ही कहूंगा कि भाई लोग आपलोग जो इतना धुंआधार गालियां लिखते हो, जरा चेत जाओ। पहले चेक कर लो कि ये मां-बहन के पढ़ने लायक है भी या नहीं।

जुगाड़ सास्तर

यह सही है कि अभाव मेँ एक अलग किस्म की रचना शक्ति को जनम देता है.उसका नाम है जुगाड़ .और यह कला हम भारतियो मेँ कूट कूट कर भरी हुई है.हमने एक बार फिर साबित कर दिया कि जुगाड़ सास्तर के हम सबसे बडे कलाकार हैं ।
कहीं कि ईंट कही का रोड़ा कि तर्ज पर बना डाली दुनिया कि सबसे सस्ती कार .पूरी दुनिया हमारा मुहं तकती रह गयी ।
पर बेचारे दुनिया वाले क्या जाने कि जुगाड़ एक ऐसी कला है जिसे हम भारतीय बचपन से ही एक अतिरिक्त योग्यता के रूप मेँ सीखते हैं .अब चाहे पेपर मेँ पास होने के लिए 'नक़ल' , किराया बचाने के लिए' रेल की छत पर बैठकर सफर करना',शादी के लिए 'कुंडली' का जुगाड़, झमेले से बचने के लिए' रिश्वत 'का ,या फिर नोकरी पाने के लिए सोर्स का जुगाड़ हो । इस कला मेँ हम पारंगत हो जाते हैं ।
अब बाकी दुनिया जले तो जले .उसकी बला से .पर एक लाख की कार तो भारतीय इंजिनियर ही बना सकते है न .भाई ,एक अतिरिक्त गुण जो दिया है उपरवाले ने.

जुगाड़ sasthar

jugad

ह्ग्थ

मेरा संगीतिया भड़ास

अरे यसवंत जी, संगीतिया भड़ास की बात हो और मैं कुछ ना बोलूं ये तो हो ही नहीं सकता है। मैं ठहरा बाथरूम गवैया, पर छात्रावास के दौर में मित्र मुझे अच्छा गाने वाला बोल कर चने की झाड़ के फ़ुनगी पर चढाये फिरते थे। जब मैं नहाने जाता था तब उसी समय मेरे कई मित्र भी नहाने आते थे की चलो नहाते हुये गाना भी सुनने को मिल जायेगा।

चलिये अपना संगीतिया भड़ास कभी फुर्सत में बैठ कर निकालूंगा। अभी तो आपकी इच्छा को सर आंखों पर रखते हुये उसे पूरा कर रहा हूं। वैसे ये गीत मैंने उसी दिन सुनी थी जिस दिन ये बाजार में आया था। अगर आपको कहीं से "सुर" का कैसेट या सीडी मिलता है तो उसे खरीद लें, मेरा दावा है की आपको पछताना नहीं पड़ेगा। :)


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ख़त्म हुआ टनाटन, घोषित हुआ भारत रत्न

ख़त्म हुआ टनाटन, घोषित हुआ भारत रत्न
विनीत उत्पल
आखिरकार भारत रत्न की घोषणा हो ही गयी। इतना वाद-विवाद होने के इतर यह सम्मान ऐसे शख्सियत को दिया गया, जिसने देश में ऐसा काम किया जिससे पिछले पंद्रह साल में किसी भी राजनीतिक और सामाजिक समीकरण को लीक से हटने नही दिया। सरकार द्वारा दौउद इब्राहीम को भारत रत्न से सम्मानित करने के फैसले के बाद सभी नेताओं और अभिनेताओं के मुहं पर ताला लग गया है। सूत्रों के मुताबिक इस बात भारत रत्न की होड़ में जिस तरह अटल बिहारी वाजपेयी, ज्योति बसु, काशीराम, बाला साहेब ठाकरे सहित ऐरे-गेरे नेता इसे पाने की होड़ में शामिल हो गए थे कि समिति को इस के लिए काफी परेशानी का सामना करना पड़ा। बताया जाता है कि इस बार गाजर-मुली की तरह प्रधानमंत्री के पास नेताओं के अनुरोध को देखते हुए केन्द्र सरकार के पास अत्मसंकट की समस्या आ गयी थी। जानकारों के अनुसार, इस बार इन टूट पुन्ज्ये नेताओं को छोड़ ऐसे व्यक्ति को दी गई, जिसने सही मायने में देश के सेवा की। इस क्रम में छोटा राजन, अबु सलेम सहित और भी कई नामों पर विचार-विमर्श हुआ। बैठक में वीरप्पन के नाम पर भी चर्चा हुई, लेकिन अहिन्दी भाषी होने के कारण और उसके मर जाने के कारण समिति सदस्यों ने इस नाम पर गंभीर नही huve। समिति सदस्यों ने बताया कि दौउद ने ना सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में अमन और चैन का रास्ता दिखाया है। १९९२ ऐसा मुम्बई बम विस्फोट के बाद सिर्फ गुजरात में दंगा हुआ, नही तो पहले हर साल पूरे देश में अक्सर दंगा होता रहता था। दौउद का आतंक इस कदर रहा कि अमेरिका भी उसे खोजने में लगी रही। वह तो पाकिस्तान का भला हो जिसने उसके रहने-खाने की व्यवस्था कर दी। माना जा रहा है कि जिस तरह भगत सिंह, चन्द्रशेखर सहित को अंग्रेज आतंकवादी मानती थी उसी तरह दौउद को अभी तक की सभी सरकार आतंकी मानती रही है। सरकार के सूत्रों का मानना है की जल्द ही दौउद, छोटा राजन सहित दुसरे समाज सेवी की जीवनी पाठ्य पुस्तक में पढ़ने को मिलेगी। उनकी आदमकद तस्वीर संसद में भी लगाने पर भी विचार किया जा रहा है।

23.1.08

नैनो कार 1 मुझे 1 किर्तीश भट्ट को दिलाइये

चिट्ठाकारों के स्वर्ण कलम 2007 पुरस्कार

पुरस्कार नहीं नैनो कार चाहिये
1 मुझे 1 किर्तीश भट्ट को दिलाइये
उन्होंने कार्टून बनाये
मैंने नहीं बनाये.

वरिष्ठों को दे रहे हैं
कोई एतराज़ नहीं
भ्रष्टों को नहीं
इसकी खुशी है.

हम भ्रष्ट भी नहीं
वरिष्ट भी नहीं
हमें सांत्वना ही दे दो.

सांत्वना स्वरुप हौसला
ही दे दो, पर कुछ तो
दे दो, जब दे रहे हो
तो नैनो कार ही दो.

...तो मेरे दिल में आ जाना...उर्फ खटिया पर पेटकुनियां लेटकर रेडियो सीलोन सुनना

कभी शाम ढले तो मेरे दिल में आ जाना, कभी चांद खिले तो मेरे दिल में आ जाना... सुर फिल्म का यह गीत जिसे संभवतः महालक्ष्मी नामक गायिका ने गाया है, जब पहली बार सुना था तो पागल हो गया था। और सुना भी कहां, एक मित्र को फोन किया तो उनके डायल टोन के रूप में यह था। उन्होंने फौरन उठा लिया था, इसलिए उनसे रिक्वेस्ट करना पड़ा कि दुबारा डायल कर रहा हूं, फोन न उठाइयेगा, गाना बहुत बढ़िया है। और मैं कई बार फोन करके सुनता रहा।

बाद में इस गाने से इतना प्रभावित हुआ कि इसे खुद के मोबाइल का डायल टोन बनाना चाहा पर कई कोशिशों के बाद भी सफल नहीं हो पाया। आखिरकार इसे एक मेरे मित्र ने आनलाइन म्यूजिक साइट smashits.com पर सुनवाया। तभी जान पाया कि यह सुर फिल्म का गाना है, 2002 में बनी फिल्म है यह, महालक्ष्मी ने गाया है, डायरेक्टर तनूजा चंद्रा हैं और म्यूजिक डायरेक्टर एमएम करीम। आज ये गाना सुनते हुए मुझे अपनी कई कमियों पर तरस आई....जैसे..

1- ब्लागिंग में अगिया बेताल की तरह भड़ास लेकर चला आया पर ब्लागिंग की तकनीक जानने के मामले में गदहा ही रह गया। कई गानें चाहता हूं भड़ास पर डालूं, पर इसलिए डाल नहीं पाता क्योकि मैं पाद-वाद आदि कास्टिंग करना नहीं जानता। काश, ये आता तो इस गाने को आप सभी को सुनाता। अगर कोई साथी मेरी मूढ़ता पर तरस खाकर इस गाने को भड़ास पर डाल दे तो मजा आ जाय। उसकी जय जय होगी।

2- आईटीओ और कनाट प्लास तो मशहूर जगहें हैं, दिल्ली या नोएडा या गुड़गांव या गाजिबायाबद या किसी शहर में देख लो, लड़के लड़कियां कान में खोंसे रहते हैं, जरूर गाना ही सुनते होंगे। स्साला, मैं सोचता हूं कि ये मैं क्यों नहीं कर सकता। पता है, बहुत महंगा या मुश्किल नहीं है, पर कर नहीं पाता। ये जो काम चलने वाली मानसिकता है, अनाप-शनाप के काम में उलझ रहने की आदत है, उससे निजात मिलने तो कुछ नया करूं। हालांकि सच कहूं, ये जो कान में खोंसे रहते हैं, इन्हें देखकर जाने क्यों दया भी आती है। कई तो जिनुइन तौर पर संगीत सुनने वाले लगते हैं, लेकिन कई तो लगता है सिर्फ मुझे चिढ़ाने के लिए बजा रहे हों...

किशोर उम्र के रूमानी दिनों में जब अभाव जिंदगी को खुशगवार बनाये हुए थी और गांव का जीवन व्यक्तित्तव में नाजुकता व संवेदना भरे था, रेडियो खटिया के कोने में धीमी आवाज में बजाते हुए, पेटकुनिया सोते हुए गानों के शब्दों के अर्थों को बंद आखों में विजुवलाइज किया करते थे, लगता था, किसी कोने से आसमान से उतरकर वो परी बस मेरे लिए ही आने ही वाली है, यही गाते हुए, जो सुन रहा हूं....। खैर, वो परी नहीं आई, खयालों में हमेशा बसी रही, और जो परियां दिखीं वो सिर्फ नाम की थीं, दिल-दिमाग में हमारे आप जैसे दुखों-सुखों स्वार्थों-दुविधाओं को जीती हुईं लड़कियां थीं। तो उन दिनों जो गाने मुझे बेहद पसंद थे, जिन्हें आज भी शाम को घर जाते वक्त गाड़ी में गाता रहता हूं. वो इस प्रकार हैं--

तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी मे शामिल है,
जहां भी जाऊं ये लगता है मेरी महफिल है

ये आसमान, ये बादल, ये रास्ते, ये घटाएं
हर एक चीज है अपनी जगह ठिकाने पे
कई दिनों से शिकायत नहीं जमाने से...

समझे आप, रुमानी दिनों मे किसी को किसी से भला क्या शिकायत हो सकती है। फंतासी, कल्पना, सपने, गाने, संगीत, खोया खोया सा रहना, आसमान निहारना, अकेले सूनसान नदी किनारे या बगीचे में बैठकर सोचना.....और दूर से सीलोन, या विविध भारती, या आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस से आ रहे गानों को सुनना, गुनना, बूझना, शरमाना, समझाना, हंसना......

पता नहीं क्या लेकर बैठ गया, लेकिन संगीत भड़ास का अनिवार्य पार्ट होना चाहिए और इस दायित्व को अगर कोई भड़ासी निभाएं तो बड़ी खुशी होगी, उनसे मैं चाहूंगा कि उपरोक्त तीनों गाने, ओह....तीसरा तो लिखना भूल ही गया...वो इस तरह है....

तुमसे मिलकर
ना जाने क्यूं
और भी कुछ याद आता है
ये प्यार के दुश्मन, प्यार के कातिल
लाख बने ये दुनिया....
पर हमने वफा की राहन न छोड़ी
हमने तो अपनी.....
उस राह से भी हम गुजरे हैं,
जिस राह पे सब लुट जाता है...
लुट जाता है...

भई, एक और ....प्लीज, मेरा बड़ा फेवरिट है, लव सांग में....

मेरे प्यार की उमर हो इतनी समन
तेरे नाम से शुरू तेरे नाम से खतम
बिन तेरे एक पल भी मुझे रहा नहीं जाये
ये दूर दूर रहना अब सहा नहीं जाये
टूट जाये न कहीं मेरे प्यार का भरम
तेरे नाम से शुरू तेरे नाम से...
मेरे सपने गुलाबी नीले हो गये जवां
लो आके तेरी बाहों में मैं खो गई कहां
हाजिर है जान जानेमन जान की कसम
तेरे नाम से शुरू तेरे नाम से कसम


देखा...इतनी लाइनों को लिखने का मतलब है कि मैं इन्हें वाकई गाता हैं, खामखा पेल नहीं रहा हूं कि देखो, बहुत बड़ा गवइया भी हूं। भगवान ने गला तो सबको दिया है, सो मेरे पास भी है और महेंद्र कपूर मार्का भरे गले वालों का गाना गवाना हो तो कभी भी आदेश करियेगा, मैं तो लोगों को खोज खोज के सुनाता हूं...सुन लो यार, एक और.....। और अगला कहता है, पक गया, अब अगली मीटिंग में सुनाना.....हा हा हा हा।

तो भई, इन दिनों के अपने फेवरिट गाने ....आना तो फिर ना जाना, कभी शाम ढले तो मेरे दिल में आ जाना ...को सुनते हुए ये पोस्ट लिख रहा हूं और इस गाने को बार बार सुन रहा हूं।

कुछ दिन पहले तक भिखारी ठाकुर के गाने डगरिया जोहत ना, जिसे देवी ने गाया है और जिसे मेल के जरिये अविनाश भाई मोहल्लेवाले ने भेजा था, लगातार सुनता था, पर उसे इतना सुना कि घर पर बच्चा लोग लैपटाप खोलते ही चिढ़ाने लगते हैं...डगरिया..बबरिया, डहरिया.....पता नहीं क्या क्या सुनेंगे पापा। तो, मैंने धीमी आवाज में सुनना शुरू कर दिया है।

अंत में, आप सबसे भी, खूब सुनें संगीत, खूब जियें संगीत, जीवन के जितने पल इनके पास रहकर गुजारेंगे, उतने ज्यादा पल जीवन में जोड़ेंगे वरना जीवन खत्म करने वाले पल से तो हम लोग हमेशा दो चार हो रहे हैं।

और अगर विमल वर्मा का नाम न लूं तो शायद मेरी समकालीन संगीत सोच पर यह पोस्ट अधूरी रह जायेगी। विमल वर्मा जी के ब्लाग ठुमरी (http://thumri.blogspot.com) पर जाकर मैंने वो गाने सुनें, जिन्हें हम लोगों ने जिया है। इलाहाबाद और बीएचयू में अपनी पार्टटाइमरी होलटाइमरी क्रांतिकारिता के दौरान दस्ता ग्रुप से जुड़कर जो कुछ सुना, सीखा, गाया उनें से कई कुछ लिखित व कुछ संगीत रूप में विमल जी के ब्लाग पर मिला। वैसे, विमल जी का नाम तो इलाहाबाद से ही सुन रखा था लेकिन जब उनसे उनके ब्लाग के जरिये संपर्क कायम हुआ तो वो संगीत की तरह सरल व सहज दिखे। प्रमोद सिंह जैसे भाव मारने वाले नहीं, जिनसे कई बार रिक्वेस्ट किया कि भइया, हमहूं से बतिया लो, लेकिन बंदा है कि लिफ्टे नहीं मारता, पता नहीं क्या क्या अपने ब्लाग पर पेले रहता है। हालांकि लिखता अच्छा है भाई, कुंभ के मेले में बिछड़ा हुआ भाई लगता है।

चलो, अब फिर कह दें.....
संगीत ज़िंदाबाद,
गद्यकार मुर्दाबाद
भड़ास की जय जय
सकल भड़ासियों की जय जय
यशवंत सिंह