पुराने शहर की तंग गलियों के बीचोबीच बसा मोहल्ला रोहली टोला।रोहिला नवाबों के नाम पर रखा गया नाम। जिसकी शान बढ़ाता हुआ बीचोबीच बना पुराना हवेली नुमा मकान बब्बन साहब का फाटक।जो इस मुहल्ले की शान हुआ करता था। नवाबों की नवाबियत की तरह इसकी भी दीवारें अब दरकने लगी हैं। और रही सही कसर पूरी कर दी कुछ भू-माफियाओं ने। जिनकी पैनी नज़र इस हवेली नुमा मकान की सैकड़ों साल पुरानी लकड़ी से लेकर फाटक के लोहे के गेट तक पर टिकी है। नये पुराने इस दौर के बीच की कड़ी हैं महबूब चचा। पुरानी ज़मीन जायदाद के साथ-साथ सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान भी चलाते हैं। अपने दौर के चिकन-चंगेजी से लेकर आज के दौर के चाउमीन तक के किस्से हैं उनके पास। चचा के पास बैठना आसान नहीं है। मोहल्ले के हर बुजुर्ग और बच्चों को तालीम का लम्बा पाठ पढ़ाते हैं। और सर सय्यद के किस्से तो ऐसे सुनाते हैं कि जैसे ए०एम०यू० इन्होंने खड़े होकर बनवाया हो। मोहल्ले के ज्यादातर लोगों के बच्चे ज़री का काम करते हैं और कुछ एक मकान धोबियों के भी हैं मोहल्ले में। चचा का कहना है कि सालो तुम से तो अच्छे धोबी हैं कम से कम साफ कपड़े तो पहनवाते हैं प्रैस करे हुए। तुम लोग तो न कल्ब से साफ हो, न दिमाग से, न जिस्म से। पढ़ाई-लिखाई तो तुम लोगों से होने से रही। कम से कम साफ-सुथरी बातें ही कर लिया करो। अबे डॉक्टर-मास्टर न बनाओ, न सही, कम से कम स्कूल तो भेजो बच्चों को। साफ-दिल चचा की साफगोई को हर कोई जानता है। चचा कहते हैं कि अबे अगर मर जाऊं तो जनाज़े में साफ सुधरे कपड़े पहनकर आना और सुनो। पहले धोबी मेरा जनाज़ा उठाएंगे और हां जनाज़े के पीछे साफ-साफ कलमा पढ़ना। कहीं बातें मत करने लग जाना कि तीजे में कोरमा बनेगा या बिरयानी सूतेंगे। धोबियों में भी बड़ी मक़बूलियत है चचा की। साठ साल तक शादी नहीं की चचा ने। मोहल्ले के कुछ हम उम्र लोगों ने फैसला किया कि चचा की शादी करा दी जाए। पहुंच गये सब इशां की नमाज़ के बाद फरियाद लेकर। चचा नमाज़ियों को देखते ही बोले, आ गये फिर शैतान बरगलाने। अबे लीचड़ो-ज़लीलो तुम्हीं लोगों की वजह से नहीं जाता हूं मस्जिद में नमाज़ पढ़ने। तो यह भी गवारा नहीं है तुम लोगों को। मेरे पीछे कहते फिरते हो चचा की राशन की दुकान हिन्दु मोहल्ले में है। चचा जागरण में जाते हैं, तिलक लगवाते हैं, लाला बनारसी चचा के जिगरी दोस्त हैं। होली में गुजिये खाते हैं और पता नहीं क्या-क्या शिर्क करते हैं चचा। तौबा-तौबा अल्लाह मआफ करे। अबे सालो सब जानता हूँ मेरे पीछे घर की रखवाली के बहाने आते हो और छुट्टन नौकर से चाबी लेकर खूब मज़े ले-लेकर गुजियें खाते हो और कम्बख्तो पानी भी मेरे फ्रिज का ही पीते हो। अब जब चचा का फ्रिज है तो क्या ज़रूरत है मोहल्ले में दूसरे फ्रिज की। चचा ने अपने लाल सुर्ख चेहरे पर त्योरियां चढ़ाकर कहा, बोलो कम्बख्तो, किस काम से आये हो जल्दी बको। चंदे के लिये आए होगे। या मस्जिद की पानी की टंकी या लाइट खराब हो गयी होगी या लाउडस्पीकर का मुंह फिर बंदरों ने हिन्दुओं की तरफ मोड़ दिया होगा। अबे इत्ते चंदे से तो मोहल्ले के दो-चार लौंडे वकील-डॉक्टर बन जाते। बरसों से चंदा कर रहे हैं, मस्जिद की लाइट भी ठीक नहीं करा पाए साले। बिल दोगे नहीं तो सरकार ज्यादती कर रही है मुसलमानों पर। मर्ज़ी न चली तो इस्लाम ख़तरे में। सालो तुम लोगों ने नास मार रखा है। मर जाऊंगा तो सारी जायदाद घर के पीछे के सुनार हिन्दुओं को देकर जाऊंगा। जो कम से कम एक प्याली चाय तो पूंछ लेते हैं। मस्जिद की चंदा कमेटी के हेड मिर्ज़ा जी ने डरते हुए बड़ी दबी ज़बान में कहा कि वो...... महबूब भाई ऐसा है कि हम सब चाहते हैं कि आपकी शादी हो जाए तो अच्छा है। आख़िर ऐसे कब तक ज़िन्दगी कटेगी। एक न एक दिन तो अल्लाह को मुंह दिखाना ही है। चचा तपाक से बोल पड़े, क्यूं बे क्या अल्लाह कुंवारों का मुंह नहीं देखता। नहीं...नहीं... हमारा मतलब यह नहीं है, मिर्ज़ा जी ने कहा। हम तो चाहते हैं कि चच्ची आ जाएं बस। चचा ने अपने ढीले कुर्ते की आस्तीनें ऊपर चढ़ाईं, जो कुर्ता चैकदार तहमद के ऊपर लगभग घुटनों तक नीचे आ रहा था और बोले, अबे सालो भाभी को चच्ची बोलते हो। मैं जानता हूं कि मेरे पीछे में, कभी नीबू के बहाने, कभी फ्रिज के ठंडे पानी के बहाने, कभी दूध के बहाने आकर आंखें सेकोगे। अब तक मोहल्ले के बच्चों की गेंदे ही आतीं थीं, मेरे घर में। लगता है कि अब तुम बुड्ढ़ों ने भी क्रिकेट की टीम बना ली है, जिसका निशाना मेरा घर होगा और हर शॉट मेरे घर के अंदर ही आएगा। सालो मुझसे तो फटती है...पर शादी करा दोगे तो सोचते हो चच्ची कहकर खूब घुस-घुसकर बैठेंगे चच्ची के पास। जब इण्डिया-पाकिस्तान का मैच होगा तो जाड़ों में लाइट बंद करके टीवी चलाओगे और एक ही लिहाफ में पूरा मोहल्ला बैठ जाएगा। बहुत खूब चाय चचा की पीओ और मज़े चच्ची से लो। अबे सब जानता हूं तुम बुड्ढ़ों की खुराहफात। खूब जानता हूं क्या होता है नाइट मैच देखने के बहाने। पूरे साल इंतिज़ार करते हो नाइट मैचों का। तुम्हें मतलब नहीं कौन जीते..कौन हारे। बस, रात के मैच हों और सब एक जगह मैच देखें एक लिहाफ में। और अगर रमज़ानों में मैच पड़ जाएं तो जैसे सोने पे सुहागा। सहरी भी चच्चा की। सब जानता हूं क्या-क्या करते हो मैच देखते वख़त। चचा की बेबाक झाड़ से मानो से आफत सी तारी हो गयी हो। सब के चेहरे उतर गये। आख़िर कौन मनाए चचा को शादी के लिये। कुछ पलों के लिए मानो सन्नाटा सा छा गया हो। रात से साढ़े नौ हो चले थे। चचा ने चुप्पी तोड़ी बोले.... अमा मियां जाओ अपने-अपने घरों। बड़े काज़ी बनते हो। देखो... तुम्हारे लौंडे आ गये होंगे अपने-अपने कामों से। जाओ....हिसाब लगाओ किसको कितनी दिहाड़ी मिली है आज। अबे शब्बन जो तेरा छोटा लौंडा स्कूल जाता है न.. उसको भी भेज देना कल से काम पर। कुछ और जुगाड़ हो जाएगी तुम्हारे हुक्के-पानी की। कमबख्त चले हैं चचा की शादी कराने। अपना-सा मुंह लिये सब चचा के घर से निकले और चचा पीछे से कुछ बढ़-बढ़ा रहे थे। कुछ सेकंड के फासले पर एक लम्बी और कड़क आवाज़ ने सन्नाटा तोड़ा... अबे लईक सुबह फज्र की नमाज़ में उठा दीजिओ... नमाज़ को नहीं मियां। तुम लोगों की चाय का भी तो इंतिज़ाम करना होता है रोज़ की तरह। चचा ने मुस्कुराकर कहा।
30.9.09
फज्र की नमाज़ पर महबूब चचा की चाय-----
Posted by drhuda 1 comments
पैसों के लिए ये ईमान बेचने वाले
सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
अब तक तो खाने पीने के सामान में मिलावट, सब्जियों में एक विशेष प्रकार का इंजेक्शन लगाकर उन्हें रातों रात बढ़ाने, असली घी में चर्बी की मिलावट, सिंथेटिक दूध, सिंथेटिक मावा तथा नकली दवाईयां बनाने की खबरे आती थीं, लेकिन अब इससे भी आगे का काम हो रहा है। स्लाटर हाउसों में मरे हुए जानवरों को काट कर उनका मीट बाजार में बेचा जा रहा है। पैसों के लिए ईमान बेचने वालों ने आम आदमी का ईमान भी खराब करने की ठान ली है। हैरत की बात यह है कि पैसों के लिए ईमान बेचने वाले नास्तिक नहीं हैं, बल्कि धर्म कर्म में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने वाले लोग हैं। खबर मेरठ की है। यहां का स्लाटर हाउस, जिसे आम बोल की भाषा में कमेला कहा जाता है, कई सालों से सुर्खियों में है। मेरठ भाजपा की राजनीति केवल कमेले तक सिमट कर रह गयी है। इसी मुद्दे पर जून के महीने में मेरठ तीन दिन का कर्फ्यू भी झेल चुका है।
चौबीस सितम्बर को कमेले से सटी आशियाना कालोनी के लोग यह देखकर तब दंग रह गए, जब उन्होंने देखा कि एक अहाते में मरी हुई भैंसों को काटकर उनका मीट मैटाडोर में भरकर भेजा जा रहा है। कालोनी के हाजी इमरान अंसारी से यह देखा नहीं गया। उन्होंने इस घिनावने काम का विरोध किया तो मरी हुई भैंसों को काटने वाले लोगों ने इमरान अंसारी के घर में घुसकर उनसे और उनके बेटे कामरान से मारपीट की। भैंस काटने वाले और विरोध करने वालों के बीच पथराव हुआ। पुलिस आ गयी। लेकिन कमाल देखिए कि मरी भैंसे काटने का विरोध करने वाले इमरान और उनके बेटे कामरान को ही पुलिस उठकार ले गयी। इससे पुलिस के ईमान धर्म का भी पता चलता है।
जब से मीट का एक्पोर्ट होने लगा है, तब से मीट व्यापारियों ने मेरठ को नरक बना दिया है। इन मीट व्यापारियों के सामने नगर निगम, शासन, प्रशासन और पुलिस या तो बेबस और लाचार है या फिर ईमान भ्रष्ट करने वाले इस धंधे को चालू रखने के लिए बहुत ईमानदारी से सबको हिस्सा मिल जाता है। वरना क्या कारण है कि कुछ लोग मरी हुई भैंसों को काटते हुए रंगे हाथों पकड़े जाते हैं, लेकिन उनका कुछ नहीं बिगड़ता है ? दरअसल, मीट के काम में इतना लाभ है कि सबका पेट भर दिया जाता है। कहा जाता है कि मरी हुई भैंसों का मीट बहुत सस्ते दामों पर होटलों और ठेलों पर बिरयानी बेचने वालों को सप्लाई किया जाता है। यह भी कहा जाता है कि मेरठ का एक नामी गिरामी बिरयानी वाला मरी हुई भैंस का मीट इस्तेमाल करता हुआ पकड़ा भी गया था, लेकिन मोटी रिश्वत और सिफारिश के बल पर छूट कर आ गया। आज भी उसके यहां बिरयानी खाने वालों की लाईन लगती है। कोई ताज्जुब नहीं कि मरी हुई भैंसों का ही मीट खाड़ी के देशों को भी एक्सपोर्ट किया जाता हो। मरी हुई भैंसों का मीट बेचने वालों, सिंथेटिक दूध और मावा बनाने वालों, मसालों में मिलावाट करने वालों और नकली दवाईयां बनाने वालों से एक ही सवाल है, इंसान के ईमान को खराब करके और भयानक बीमारियां बांटकर पैसा कमाना कहां तक जायज है ? डाक्टरों का कहना है कि मरे हुऐ जानवर का मीट खाने से घातक बीमारियां हो सकती हैं।
पुलिस और प्रशासन मीट व्यापारियों की अप्रत्यक्ष रूप से मदद करके शहर की फिजा खराब करने में मदद ही कर रहा है। उल्लेखनीय है कि मेरठ में भाजपा आए दिन कमेले को लेकर हंगामा करती रहती है। अभी कुछ दिन पहले ही भाजपा के कारण शहर का साम्प्रदायिक सद्भाव बिगड़ने से बच गया था। कोई दिन नहीं जाता, जब भाजपा कार्यकर्ता पशुओं और मांस से लदे वाहनों का रोककर ड्राइवरों से मारपीट नहीं करते। यह तो अच्छा है कि मीट व्यापारियों से आम मुसलमान भी बहुत ज्यादा त्रस्त है। इसलिए बात ज्यादा नहीं बढ़ती, वरना भाजपा कार्यकर्ता दंगा भड़काने की पूरी कोशिश करते हैं। जब भाजपा कमेले को लेकर हायतौबा मचाती है तो उसकी नीयत एक समस्या को खत्म करने के स्थान पर मुस्लिमों का विरोध करना ज्यादा होती है। दिक्कत यह है कि भाजपा कमेले को सभी की समस्या के स्थान पर उसे केवल हिन्दुओं की समस्या बताकर मामले को न सिर्फ उलझा देती है, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से कमेला संचालकों को बच निकलने का मौका दे देती है। सच यह है कि कमेला हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों की समस्या अधिक है। क्योंकि कमेले के आस पास मुस्ल्मि बाहुल्य कालोनियां ज्यादा आबाद हैं। भाजपा यह भी क्यों भूल जाती है की मेरठ में कमेला ही एकमात्र समस्या नहीं है बल्कि समस्याओं का घर है। किसी अन्य समस्या को भाजपा इतनी शिद्दत से क्यों नहीं उठाती, जितनी शिद्दत से कमेले की समस्या को उठाती है ? मेरठ में बहुत सारी ऐसी फैक्टरियां हैं, जिनका सारा कैमिकलयुक्त गन्दा पानी मेरठ से गुजरने वाली काली नदी में डाला जाता है। इसलिए काली नदी के आस पास बसे दर्जनों गांवों का पानी पीने लायक नहीं रहा। हैंडपम्पों से निकलने वाला पानी पीले रंग का और दूषित है। उस पानी को पीकर जानलेवा बीमारियां फैल रही हैं। इन गांवों के बारे में मीडिया में बहुत छपता है। गैर सरकारी संगठन समय समय पर प्रशासन को चेताते रहते हैं। लेकिन भाजपा ने आज तक इस मुद्दे पर कोई आन्दोलन इसलिए नहीं किया, क्योंकि काली नदी के पानी को प्रदूषित करने वाली फैक्टरियां मुसलमानों की नहीं है, बल्कि अधिकतर उन लोगों की हैं, जो डंडा लेकर जानवरों और मीट ले जाने वाले वाहनों के पीछे भागते रहते हैं।
Posted by सलीम अख्तर सिद्दीकी 2 comments
अश्कों के फूल चुन के संवारी है जिंदगी
-राजेश त्रिपाठी
पूछो न किस तरह से गुजारी है जिंदगी।
अश्कों के फूल चुन के संवारी है जिंदगी।।
आंखें खुलीं तो सामने अंधियारा था घना।
असमानता अभाव का माहौल था तना।।
मतलब भरे जहान में असहाय हो गये।
दुख दर्द मुश्किलों का पर्याय हो गये।।
दुनिया के दांव पेच से हारी है जिंदगी। (अश्कों के फूल ...)
आहत हुईं भलाइयां, सतता हुई दफन।
युग आ गया फरेब का, क्या करें जतन।।
ऐसे बुरे हालात की मारी है जिंदगी (अश्कों के फूल ...)
चेहरे पे जहां चेहरा लगाये है आदमी।
ईमानो-वफा बेच कर खाये है आदमी।।
हर सिम्त नफरतों के खंजर तने जहां।
कैसे वजूद अपना बचायेगा आदमी।।
जीवन की धूपछांव से हारी है जिंदगी (अश्कों के फूल..)
सियासत की चालों का देखो असर।
आग हिंसा की फैली शहर दर शहर।।
आदमी आदमी का दुश्मन बना है।
हर तरफ नफरतों का अंधेरा घना है।।
इन मुश्किलों के बीच हमारी है जिंदगी (अश्कों के फूल..)
Posted by Rajesh Tripathi 3 comments
लो क सं घ र्ष !: हवाला, आतंकवाद और नरेश जैन
राजनीतज्ञ, पुलिस, अपराधी और अफसर के गिरोह भी आतंकवाद को प्रशय देते है । यह बात 5000 करोड़ हवाला के मुख्य अभियुक्त नरेश जैन की गिरफ्तारी के बाद उजागर हुआ है नरेश जैन अंडरवर्ल्ड व आतंकवादियो को एक तरफ़ हवाला के माध्यम से धन मुहैया करता था वहीं आतंकवादियों को एजेंट्स को भी धन मुहैया कराने का कार्य कर रहा था। इस कांड को पूर्व 1990 में एस.के जैन की गिरफ्तारी के बाद यह पता चला था की हवाला के माध्यम से हिजबुल मुजाहिद्दीन के आतंकवादियों को धन देता था वहीं शरद यादव से लेकर लाल कृष्ण अडवाणी तक को राजनीति करने के लिए धन उपलब्ध कराता था । नरेश जैन के इस प्रकरण को प्रिंट मीडिया ने एक दिन ही प्रकाशित किया और उसके बाद प्रिंट मीडिया खामोश हो गया ।
हवाला के माध्यम से नरेश जैन और राजनेताओं को आतंकवादियो को तथा ड्रग माफिया को वित्तीय मदद देता था जब बड़े - बड़े राजनेता हवाला के माध्यम से आई हुई रकम लेंगे तो किसी भी इस तरह के बड़े अपराधी के ख़िलाफ़ कोई भी कार्यवाही सम्भव नही है । परवर्तन निदेशालय ने नरेश जैन को विदेशी मुद्रा प्रबंधन कानून (फेमा) के तहत गिरफ्तार किया है लेकिन इन बड़े अपराधियों और आतंकवादियो की मदद करने वालों के लिए कोई सक्षम कानून नही बनाया गया है और कुछ दिन चर्चा होने के बाद मामले को ठंङे बसते में डाल दिया जाता है और पैरवी के अभाव में अपराधी छूट जाता है ।
यहाँ एक विचारणीय प्रश्न यह भी है कि इस तरह का अभियुक्त मुस्लिम अल्पसंख्यक होता तो हिन्दुवत्व के पैरोकार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक चीख चीख कर चिल्लाते और उसे धर्म विशेष से जोड़ कर उस धर्म को भी अपमानित करने का कार्य करते । लेकिन आज वो खामोश क्यों है ? इस समय उनको देश की चिंता भी नही है और न आतंकवाद की है ।
सुमन
loksangharsha.blogspot.com
Posted by Randhir Singh Suman 0 comments
बदलते रिश्ते
रिश्ते ये रिश्ते कितने अजीब ये रिश्ते ...
कभी बनते, कभी बिगड़ते ये रिश्ते
तों कभी शांत रहते ये रिश्ते
अलग-अलग चहरे में सामने आते
कभी माँ की, कभी पिता की याद दिलाते
तो कभी बहन बनकर,
कभी भाई बनकर सामने आते ,
दोस्त बनकर हमे हसाते और कभी रूलाते ये रिश्ते...
कुछ रिश्ते बड़े अजीब होते है
हँसते-हँसते हम कभी रोते हैं,
शायद वो रिश्ते हमे बड़े अजीज होते हैं...
क्या कहूँ उस रिश्ते को, जो कभी सब रिश्तों से बड़ा हो जाता है,
कभी-कभी तों सब रिश्तों के सामने दिवार बन खड़ा हो जाता है,
है हम सोचते है किसे पाए और किसे खो जाए...
फिर सोचता है मैं,
कितने बदल जाते है ये रिश्ते
कभी दूर तो कभी पास आते है ये रिश्ते,
कभी रिश्तों को ही भुलवाते है ये रिश्ते,
कभी आपस में उलझ जाते है ये रिश्ते,
तभी शायद कुछ अजीब है ये रिश्ते...
रिश्ते ये रिश्ते, कितने आजीब ये रिश्ते...
-हिमांशु डबराल
www.bebakbol.blogspot.com
Posted by हिमांशु डबराल Himanshu Dabral (journalist) 0 comments
श्री राकेश पाठक को पी एच डी
ग्वालियर नई दुनिया के एडिटर श्री राकेश पाठक को जीवाजी यूनिवर्सिटी ने मिलिटरी साइंस विषय में पी एच डी की उपाधि प्रदान की है !श्री पाठक ने सेन्य विज्ञानं विषय के अंतर्गत आणविक परिछ्नोत्तर साउथ एशिया का स्त्रातेजिक वातावरण शीर्षक पर प्रोफेसर आर के वैध (ऍम एल बी कॉलेज )के मार्ग दर्शन में शोध कार्य पूर्ण किया !श्री पाठक ने इस उपलब्धी का श्रेय प्रो .वैध को दिया है !इसके आलावा उन्होंने शोध कार्य में सहायता के लिए प्रो .दिलीप शितोले और प्रो .के .एस .राठोर का भी आभार जताया है !श्री पाठक की इस उपलब्धी पर समस्त पत्रकारों ने उन्हें बधाई दी है !
Posted by RAVI SHEKHAR 2 comments
प्रवीण क्या कर रहे हो पीछे चलो खड़े हो जाओ। मास्टर साहब की कड़क आवाज प्रवीण के कानों में गूंजी तो प्रवीण चुपचाप अपनी जगह पर खड़ा हो गया। मैं उस वक्त की प्रवीण की बात कर रहा हूं जब डां तिवारी जी काफी छोटे थे। और वो इन्दौर में ही स्लम्स एरिए के स्कूल में पढ़ने जाया करते थे। मास्टर साहब जब प्रवीण से उनके नाम का मतलब पूछा तो प्रवीण ने जोर से कहा –प्रवीण का मतलब होता है जो मन में ठान ले उसे हर हाल में पूरा करे वही प्रवीण कहलाता है। मास्टर साहब उनके इस जवाब पे हंस दिया । मास्टर ने उस बच्चे के गलत जवाब पर नहीं हंसा बल्कि उस मास्टर को आभास हो गया था कि आने वाले वक्त में ये बच्चा जो अपने नाम का मतलब गलत बता रहा है उसी को ही सच बनाकर दिखाएगा।
अब मैं आपको बता दूं कि प्रवीण का मतलब होता है निपुण । मैं जिस बच्चे की बात कर रहा हूं वो बच्चा कोई औऱ नहीं बल्कि आज की तारीख में एक सक्सेस एंकर के तौर पर लाइव इंडिया न्यूज चैनल में कार्यरत हैं। डां. प्रवीण तिवारी आज भले ही जिस मकाम पर खड़े हो लेकिन आज भी वो अपने पुरानें दिनों के साथ जीना पसंद करतें हैं। स्लम्स एरिये के बारें में जब हम कोई बातें सुनतें है तो जाहिर तौर पर गंदी बस्तियों या फिर झुग्गी झोपड़ियों की तस्वीर हमारें जेहन में उभरती है औऱ उभरना भी लाजिमी है क्योंकि ऐसे ही इलाकों को स्लम्स एरिय भी कहा जाता है मैं स्लम्स के बारें में इसलिए जिक्र कर रहा हूं क्योंकि प्रवीण तिवारी आज उन हजारों लाखों लोगों के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं जो स्लम्स एरिये में रहकर पढ़ाई कर रहें है या फिर कुछ बनने की चाहत लिए अपने लाचारी को पीछे छोड़ जिंदगी को जीतने में लगे हुए हैं। स्लम्स एरिये से लेकर सक्सेस तक की कहानी डां. प्रवीण तिवारी जब सुनातें है तो वो मजाकिया लहजें में हर बात कह जातें है । इन्दौर के स्लम्स एरिये की गलियों में नंगे पांव दौड़ना या फिर मिथुन चक्रवर्ती की फिल्में देखना औऱ देखकर उनकी एक्टिंग की कॉपी करना शायद यही सब प्रवीण तिवारी की बचपन की पसंद थी। जब बचपन में मिथुन की फिल्में प्रवीण देखा करते थे तो शायद उस वक्त वो सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वो एक दिन उसी एक्टर का इंटरव्यू ले रहा होगा। शायद इसी को किस्मत कहतें हैं। प्रवीण तिवारी से जब मैं पहली बार मिला तो मुझे लगा कि इनसे बात करना मुश्किल हैं क्योंकि वो उस वक्त किसी बात को लेकर गंभीर थे लेकिन कुछ ही दिनों के बाद जब बातें शुरू हुई तो फिर दोस्ती का सिलसिला भी आगे बढ़ता चला गया ।लेकिन एक सवाल हमेशा मेरे जेहन में गूंजता रहता है कि एक लड़के ने स्लम्स से सक्सेस तक का सफर तय जिस अंदाज में किया वो भले ही काबिलेतारीफ है लेकिन क्या आज के जमानें में ऐसा कर पाना कितना संभव है ? सवालों का पूलिंदा लिए मैं आज भी प्रवीण तिवारी के पास कभी कभी पहुंच जाता हूं मेरे हर सवाल का जवाब वो आसानी से दे देतें हैं लेकिन मुझे लगता है वो इस सवाल का जवाब शायद ही दे पाएंगे कि क्या वो अपने अतीत के साथ जीना पसंद करेंगे या फिर अगर उन्हें मौका मिले तो क्या वो अब एक भी दिन या फिर एक भी रातें स्लम्स में गुजार पाएंगे ?
लेखक- डां.प्रवीण तिवारी के करीबी दोस्त है
Posted by politicskhabar 1 comments
Labels: शख्सियत
29.9.09
लो क सं घ र्ष !: अवध के किसान नेता की गिरफ्तारी पर
"गाँधी जी ने तुंरत माइक संभाल लिया । आप लोग शांत रहिये । बाबा रामचंद्र की गिरफ्तारी हुई है , जो एक पवित्र घटना है । आप उन्हें छुडाने की मांग न करें, न इस मसले को लेकर जेल जाएँ। इससे उन्हें दुःख होगा। हमारा रास्ता शान्ति व अहिंसा का है, उन्हें छुडाने का बेहतर तरीका यही है कि हम शांतिपूर्वक असहयोग करें। "
"कमलाकांत त्रिपाठी के 'बेदखल'से "
Posted by Randhir Singh Suman 0 comments
कोन सोचता है समाज के बारे मैं
जी हाँ कोनसोच रहा है समाज के बारे मैं, नेता, ब्यापारी, सरकार, पत्रकार, या शायद कोई नही !क्यों ?क्योंकि किसी को भी इतनी फुर्सत नही की समाज के बारे मैं सोचे। सब अपने बारे मैं सोच रहे हैं।नेता अपना घर भरने मैं लगे हैं। सोचते हैं क्या पता अगली बार सरकार आए या नही। जितना नोच सकते हैं नोच लो ।व्यापारी कालाबाजारी मिलावटी सामान से अपना उल्लू सीधा कर रहे है । समाज मैं लोग मरते हैं तो मरें।सरकार ने महगाई बढ़ाकर गरीबों की दो जून की रोटी भी छीन ली। लोग भूके पेट सोते है तो सोयें।पत्रकार पत्रकार नही रहा। व्यापारी बन गया हैं। विज्ञापन देने वाले कुछ भी ग़लत करें लेकिन उनके खिलाफ नही छापेगा। क्योकि अखबार मालिक को धंधा चाहिएशायद इनमे से कोई समाज के बारे मैं नही सोचेगा। अब ख़ुद समाज, जनता को अपने बारे मैं सोचना पड़ेगा। जनता अगर अब अपने बारे मैं नही सोचेगी तो ये सुब मिलकर देश को फ़िर से अंग्रेजों का गुलाम बना देंगे।
Posted by Gwaliornama 3 comments
छत्रधर महतो की गिरफतारी और बुद्धिजीवियों की भूमिका
Posted by जगदीश्वर चतुर्वेदी 1 comments
Labels: लालगढ
एक साल पुरा होने को आया जब ये कानून बना था । "सार्वजानिक जगहों पे धुम्रपान वर्जित है "लेकिन आज भीइस कानून का मजाक उड़ते हुए आप एक नजर में देख सकते है । सार्वजानिक जगहों को छोड़ दीजिये दिल्ली कीकिसी भी बस को ले लीजिये उस का ड्राईवर या उस बस का टिकिट देने वाला आप को बीडी पीते हुए दिख जायेंगे । खैर इनको छोड़ भी दे तो किसी चौराहे की मसहुर दुकान को ले लीजिये वहा १ घंटे के अंदर ही थानेदार साहब आपको सिगरेट पीते हुए दिख जायेंगे या फिर आप का संयोग ठीक नही है तो थानेदार साहब नही मिले तो उनका चमचा सिपाही तो जरूर मिल ही जाएगा । और इनके साथ -साथ वहा बहुत से लोग मिलेगे जो आराम से धुम्रपानकर रहे है ।
तो मैं ये जान ना चाहता हु की क्या फायदा इस कानून का होने और न होने का क्यो कानून की किताब में पेज बढ़ाकर देस के कागज को खर्च किया जाता है और साथ ही साथ कानून के स्टुडेंट का भी समय बर्बाद किया जाता है तो क्यो कानून में संसोधन कर के पुराने और बुढे वकीलों को परेसान किया जाता है
.
Posted by The Bihar Vikas Vidyalaya 0 comments
Labels: सिगरेट पीते बस वाले
28.9.09
विजय रावण की!
देश भर ने विजय दशमी मनाई, मुम्बई भी रावण का पुतला जलाने में पीछे नहीं रही। लेकिन, हर साल की तरह इस बार भी वहीं यक्ष प्रश्न कितने रावण जलाओगे- ग्लोबल वार्मिंग से लेकर ग्लोबल रिशेसन तक, पड़ोसी (देशों) की टेनशन से लेकर टेरेरिज्म तक, महंगाई से लेकर तनहाई तक, बीमारी से महामारी तक, राजनीति से समाज तक, साहित्य से पत्रकारिता तक, अर्श से फर्श और जीवन के उत्कर्ष (लिंग जांच व भ्रूण हत्या) तक हर डग पर रावण की दहाड़ व धमक महसूस की जा सकती है। फिर भी, हम कहते हैं कि हमने बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व मना लिया है, रावण को जला दिया है।
सर्वेश पाठक
Posted by sarvesh 1 comments
दिखावे के लिए ही रावण को मार कर दशहरा मनाते है
Posted by dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } 0 comments
आज के रावण जिसे हमने पैदा किया उसे कौन जलाएगा ?
आज के रावण जिसे हमने पैदा किया उसे कौन जलाएगा ?
आज २८ सितम्बर २००९, को विजयदशमी है. सारा देश इस पर्व के रंग में रंगा है.
Posted by मेरी आवाज सुनो 1 comments
महंगाई का रावण
----- चुटकी-----
महंगाई के रावण से
जनता हो गई त्रस्त,
मैडम की भक्ति में
मनमोहन जी मस्त,
उनकी कुर्सी बची हुई है
भज मैडम का नाम,
रावण का वध करने को
अब,कहाँ से लाएं राम।
Posted by गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर 0 comments
Labels: महंगाई का रावण
ग्लोबल चीन वर्चुअल समाजवाद
वर्चुअल रियलिटी के बिना चीन को समझा नहीं जा सकता। चीन का अत्याधुनिक विकास ग्लोबल पूंजीवाद के वर्चुअल पैराडाइम की उपज है। वर्चुअल रियलिटी की दुनिया विराट,विस्तार और शून्य पर टिकी है। इसमें प्रत्येक चीज विराट है,चरम है,अविश्वसनीय है और अंतर्वस्तुरहित है। शेष में सब शून्य हो जाता है। ग्लोबल विराटता खोखलेपन अथवा शून्य है। अमरीका की विराट विकसित व्यवस्था का सामाजिक- राजनीतिक शून्य जगजाहिर है। यही स्थिति चीन की है। विराटता में जब भी किसी चीज का रूपान्तरण होगा तो उससे शून्य ही निकलेगा। जो विराट है वह शून्य है। समाजवादी सोवियत संघ की विराटता का शून्य में रूपान्तरण आदर्श उदाहरण है।
चीन की समाजवादी व्यवस्था में विगत तीस पैंतीस सालों में जो परिवर्तन आए हैं। उनका पश्चिम बंगाल के वामपंथी आन्दोलन के द्वारा निर्मित सामाजिक,सांस्कृतिक और राजनीतिक लक्षणों और एटीट्यूट के साथ गहरा संबंध है। पश्चिम बंगाल में बहुत कुछ ऐसा विकसित हुआ है जो सबसे पहले चीन में आया और वहां जनजीवन में उसका प्रयोग किया गया , तदनन्तर पश्चिम बंगाल में उसका संरचनात्मक तौर पर विकास किया गया। सामाजिक व्यवहार में विकास हुआ। इस नजरिए से चीन के विकास का भारत के लिए खास महत्व है। प्रासंगिकता है। भारत में पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे का पैंतीस सालों का शासन और उसकी निरंतरता अभी भी रहस्य है। लोग आश्चर्य के साथ पूछते हैं इतने लंबे समय तक टिके रहने के क्या कारण हैं ? चीन में कम्युनिस्ट पार्टी की कार्य प्रणाली और व्यवहार के अनेक लक्षण और फिनोमिना पश्चिम बंगाल में सहज ही देखे जा सकते हैं।
पश्चिम बंगाल में चीन जैसे फिनोमिना हैं -1. कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ताा सर्वोपरि है,अन्य सभी संसदीय सत्ता संरचनाएं पार्टी के बिना अपाहिज। 2. शिक्षा ,सामाजिक और राजनीतिक जीवन में बौध्दिकता का क्षय, बुध्दिजीवियों के प्रति घृणा और संशयवाद, 3.सामाजिक जीवन में जिस्म की तिजारत में बेतहाशा वृध्दि, वेश्यावृत्ति की व्यापकता , 4. शिक्षा जगत में औसत का वर्चस्व, 5. गरीबों के बीच में भूमि वितरण और जबरिया भूमि हथियाने की कोशिशें, 6.पर्यावरण की पूर्ण उपेक्षा पर्यावरण क्षय , 7. आम जीवन में निर्भीक स्पष्टवादिता का अभाव , 8. असहमत व्यक्ति की पदावनति अथवा घनघोर उपेक्षा, 9.बांग्ला जातीय उन्माद और बांग्ला स्थानीयता का वर्चस्व।
वर्चुअल युग नकल की नकल का युग है। इसमें अधिकारों की दुनिया समृध्द नहीं होती। बल्कि अधिकारहीनता बढ़ती है। वर्चुअल में पाना दुर्लभ चीज है,वर्चुअल का अर्थ है खोना,दूर होना,अलगाव में रहना, अधिकार हैं किंतु अधिकारों पर उपग्रह निगरानी ,कम्प्यूटर की निगरानी और पुलिस निगरानी। सैटेलाइट के जरिए महाकम्प्यूटर में सब कुछ दर्ज हो रहा है। जांच और निगरानी हो रही है। व्यक्ति की निजता का जितना नाटक आज है वैसा नाटक पहले कभी नहीं था। आज प्राइवेसी है निगरानी के साथ। अब यथार्थ कम और यथार्थ के तमाशे ज्यादा हैं। इसमें अंतर्वस्तु पर कम और तमाशे पर ज्यादा जोर है।
आज आप कोई भी गंभीर से गंभीर सवाल उठाइए आपको अंतत: तमाशे की शरण में जाना पड़ेगा। तमाशा आज के युग का सबसे बड़ा फिनोमिना है। तमाशे को देख सकते हैं,मजा ले सकते हैं। हस्तक्षेप नहीं कर सकते। शिरकत नहीं कर सकते। तमाशा तो सिर्फ नजारे का आनंद है। आंखों का आनंद है। इससे मन को शांति नहीं मिलती,ऊर्जा नहीं मिलती। इसे आप जितना देखते हैं उतना ही थकते हैं। तमाशे का काम है थकाना और सुलाना। रियलिटी टीवी शो से लेकर टीवी समाचारों तक नजारे के दृश्य छाए हुए हैं। तमाशे का असर नहीं होता। तमाशबीन के पास आनंद के अलावा कुछ भी नहीं बचता इस अर्थ में वर्चुअल युग परम मनोविनोद का युग है। चरम छद्म का युग है। कृत्रिम का युग है। कपोल कल्पनाओं का युग है। इसे सत्य की पराजय अथवा सत्य के लोप के युग के रूप में भी याद किया जाएगा। इस परिप्रेक्ष्य में यदि हाल ही में तिब्बत की राजधानी लासा में 14 मार्च 2008 को हुए हिंसाचार और उसके बाद ओलम्पिक मशाल के खिलाफ तिब्बतियों के प्रतिवाद को यदि देखें तो वर्चुअल और गंभीर तथ्य आएंगे।
तिब्बत को लेकर तकरीबन डेढ़ माह तक (10 मार्च 2008से 30 अप्रैल2008) तक चैनलों से रह -रहकर टीवी बाइट्स की वर्षा होती रही है। कभी लासा,कभी लंदन,कभी पेरिस,कभी वाशिंगटन और कभी बर्मा और कभी दिल्ली से संतों,महंत,बुध्दिजीवी,राजनेता,फिल्म अभिनेता,राजनेताओं के वर्चुअल प्रतिवाद और बयान प्रसारित होते रहे हैं। ये तिब्बत के आस्थावान लोगों के बयान हैं। रटे-रटाए तोतों के बयान हैं। वर्चुअल में तोते सुंदर लगते हैं। स्टीरियोटाईप बयान सुंदर लगते हैं। जमघट सुंदर लगता है। नारे और बैनर सुंदर लगते हैं, भीड़ मनोहारी लगती है। सब कुछ मेले जैसा लगता है। वर्चुअल युग में जुलूसों में भाग लेने वाले विदूषक लगते हैं।
वर्चुअल में प्रतिवाद का अवमूल्यन हो जाता है। अब प्रतिवाद अपना विलोम साथ ही साथ बनाते हैं। जितना बड़ा प्रतिवाद उतना ही बड़ा और व्यापक अवमूल्यन। शांति प्रतिवाद जुलूसों और जलसों का अवमूल्यन हम देख चुके हैं। प्रतिवाद अर्थहीन हो जाते हैं। इस अर्थ में पश्चिम बंगाल पूरी तरह वर्चुअल हो चुका है। आप किसी भी दल के हों, किसी भी मुद्दे पर प्रतिवाद करें, उसका कोई असर नहीं होता ,सब कुछ रिचुअल और रूटिन नजारा दिखाई देता है। मीडिया खासकर टीवी चैनलों की दिलचस्पी घटना में कम घटना के नजारे और स्वांग में ज्यादा होती है। मीडिया के द्वारा घटना की सूचना कम स्वांग का आनंद ज्यादा मिलता है। नजारे में हावभाव,एक्शन और नाटक लुभाते हैं। यही नजारे की अंतर्वस्तु हैं। वर्चुअल सत्य की मीडिया पूंजी हैं नजारे,हावभाव और नाटकीय एक्शन । वर्चुअल में सब कुछ नियोजित है कुछ भी स्वर्त:स्फूत्ता नहीं है। सुनियोजन के बिना वर्चुअल निर्मित नहीं होता। प्रस्तुति के पीछे संप्रेषक की मंशा निर्णायक होती है। यहां संप्रेषक मीडियम है।
टीवी चैनल नजारे के प्रसारण में सुचिंतित नियोजन को छिपाते हैं और स्वर्त:स्फूर्त्तता को उभारते हैं। किंतु आयरनी यह है कि वर्चुअल में स्वर्त:स्फूर्त्तता नहीं होती। वर्चुअल की स्वर्त:स्फूर्त्तता नकली होती है। नकली में चमक होती है किंतु प्रभावित करने की क्षमता नहीं होती। नकली आकर्षक और एब्सर्ड होता है। वर्चुअल में प्रतिवाद का सम्प्रेषण अर्थहीनता का संचार है। वर्चुअल स्वाभाविक नहीं सुनियोजित होता है। वहां यथार्थ और आख्यान नहीं बाइट्स होते हैं।
मौजूदा दौर में टीवी बाइट्स ही सर्वस्व है। आप जिंदा हैं या मुर्दा हैं ? स्वस्थ हैं या अस्वस्थ हैं ? तरक्की कर रहे हैं या पिछड़ रहे हैं ? आपके देश में मानवाधिकार हैं या नहीं ? सारे सवालों के फैसले टीवी बाइट्स में हो रहे हैं। वास्तव जीवन की बजाय प्रौपेगैण्डा के जरिए मूल्य निर्णय होता है। प्रत्येक चीज का एक ही मूल्य है प्रचार मूल्य। प्रचार मूल्य के सामने बाकी मूल्य धराशायी हैं। मूल्यों की निरर्थकता का ऐसा महाख्यान पहले कभी नहीं देखा गया।
वर्चुअल के कारण तिब्बत की समस्या का चरित्र ही बदल गया है। आज हमारे पास तिब्बत के बारे में राजनीतिक ,वास्तविक सूचनाएं कम और वर्चुअल सूचनाएं ज्यादा हैं। वर्चुअल सूचनाएं प्राणहीन होती हैं। वर्चुअल के जरिए सत्य का रूपान्तरण संभव नहीं है। यथार्थ का संप्रेषण और सत्य का चित्रण भी संभव नहीं है। वर्चुअल में वास्तव का कृत्रिम में रूपान्तरण अनिवार्य है। वर्चुअल सिर्फ स्वयं को संतोष देता है। वर्चुअल प्रचार शोरगुल का प्रचार है। इसमें प्रचार कम और प्रचार का बहम ज्यादा है। यह ऐसा प्रचार है जिसके सत्य पर अनेक पर्दे पड़े हैं। पर्दों को हटाने में समर्थ हैं तो वर्चुअल प्रचार को उद्धाटित कर सकते हैं, उसके मर्म को समझ सकते हैं। वरना इसमें सत्य पर पर्दा पड़ा रहता है। वर्चुअल में स्थायी तौर सक्रिय और एकजुट करने की क्षमता नहीं है। वर्चुअल के जरिए सामाजिक शक्ति संतुलन नहीं बदल सकते।
आज हम कनवर्जन के युग में हैं। यह ऐसा युग है जिसमें सब कुछ शून्य पर आकर टिक गया है। आप कहीं से भी आरंभ कीजिए किंतु पहुँचेंगे शून्य पर। आप किसी भी अधिकार,मूल्य,संस्कार, आदत की मांग कीजिए वह अंत में शून्य पर ले जाएगी। घूम-फिरकर चीजों का शून्य पर लौटने का अर्थ है खोखली अवधारणा में रूपान्तरण। वर्चुअल सूखी रेतीली नदी है। इसमें सूचनाओं का अंधड़ है। इसका तापमान हमेशा बहुत ज्यादा रहता है। इसमें सूचना का आभास है किंतु कुछ कर नहीं सकते। सूचनाओं के बाहर आपको कुछ भी नजर नहीं आएगा। सूचनाओं का अंधड़ वर्चुअल की शक्ति है। अंधड़ में कुछ भी देख नहीं सकते सिर्फ आंखें बंद करके अंधड़ को महसूस कर सकते हैं। सूचना के अंधड़ ने परवर्ती पूंजीवाद में सबको खोखला बना दिया है। वर्चुअल में मानवाधिकार की खोज,युध्द की निंदा,समाजवाद का गौरवगान,धर्मनिरपेक्षता का वैभव,सामंजस्य का इतिहास, सांस्कृतिक मैत्री, पाखण्ड,,व्यापार की चाल ढाल आदि सभी क्षेत्रों में घूम-फिरकर खोखलेपन पर लौट आते हैं।
वर्चुअल प्रचार विशिष्ट किस्म के निरर्थताबोध को पैदा करता है। आप जिंदगी की बजाय डाटा में उलझे रहते हैं। लगता है कुछ करना चाहिए, प्रतिवाद करना चाहिए,नए मूल्यों की बात करनी चाहिए,नए किस्म का प्रतिवाद करना चाहिए,नए किस्म की किताब लिखनी चाहिए,नए संबंध बनाने चाहिए,नया कानून बनाना चाहिए इत्यादि कुछ भी कीजिए अंत में शून्य पर पहुँचना नियति है इस अर्थ में वर्चुअल सारी चीजों को माया बना रहा है। निरर्थक बना रहा है।
वर्चुअल में पुरानी दार्शनिक परंपरा के माया और ईश्वर को एक ही साथ कबड्डी करते देख सकते हैं। यह मानवीय अभिव्यक्ति का चरम है। चरम स्वयं बोगस होता है। अर्थहीन होता है। प्रभावहीन होता है। अवास्तव होता है। चरम खोखला होता है। वर्चुअल भी खोखला है। क्योंकि यह संचार तकनीक का चरम है। इसकी कोई अंतर्वस्तु नहीं है। खोखलेपन के युग में हर चीज ठंडी होती है। विचार भी ठंडे होते हैं। हाथ-पैर भी ठंडे होते हैं। दिल-दिमाग भी ठंडा रहता है। ठंडे यानी निष्क्रिय । वर्चुअल युग निष्क्रिय स्मृतियों, निष्क्रिय संघर्ष और निष्क्रिय आनंद का युग है। इस युग में हर चीज अपने स्वाभाविक आकार से बड़ी नजर आती है। छोटा सा जुलूस, छोटा सा प्रतिवाद छोटी हिंसा ,छोटा विचार ,क्षुद्र चीजें आदि सब कुछ बड़ी नजर आती हैं। छोटी चीजें अपने आकार से बड़ी नजर आती हैं। जबकि बड़ी चीजों को यह छोटा बनाकर पेश करता है। सब कुछ को अतिरंजना ,विलोम और सुपरफलुअस में डुबो देना इसका प्रधान लक्ष्य है।
चीन और समाजवाद के सामयिक संदर्भ पर विचार करने के लिए वर्चुअल रियलिटी के नजरिए से देखना सही होगा। वर्चुअल के कारण समाजवाद के प्रति दर्शकीय भाव पैदा हुआ, दर्शकीय इच्छाएं पैदा हुईं। समाजवाद का जिस समय पराभव हो रहा था। सारी दुनिया के लोग दर्शक के रूप में देख रहे थे, समाजवाद विरोधी और समाजवाद समर्थक सभी दर्शक थे। सामने न तो कोई गिराने वाला था और न कोई रोकने वाला था। सोवियत संघ से लेकर चीन तक सभी जगह चीजें गिरती गयीं, बदलती गयीं, लोग देखते रहे और अपनी दर्शकीय इच्छाएं व्यक्त करते रहे। दर्शकीय इच्छा का अर्थ है मन में ही एक्शन हो रहे थे। भौतिक तौर पर जो कुछ बदल रहा था वह जितना विशाल था उससे विशाल थे मन के परिवर्तन। मन के परिवर्तन ने समाजवाद को गिरा दिया। समाजवाद को लाने के लिए जितना रक्तपात हुआ था उसकी तुलना एक अंश भी रक्तपात समाजवाद के गिरने पर नहीं हुआ।
समाजवाद का रक्तहीन पतन ,लोगों के बृहत्तार प्रयास के बिना पतन इस बात का संकेत है कि अब चीजें मन में,इच्छा के धरातल पर गिरेंगी, विचार अब भौतिक रूप में कम और मन और इच्छा के धरातल पर ज्यादा जिंदा रहेंगे। समाजवाद एक भौतिक व्यवस्था थी ,सामान्यतौर पर किसी भी भौतिक व्यवस्था के पराभव में खून खराबा होता है। किंतु समाजवाद के संदर्भ में एकदम रक्तपात नहीं हुआ समाजवाद का पतन पूर्णत: अहिंसक था। पूंजीवाद से समाजवाद में रूपान्तरण हिंसक था किंतु समाजवाद से पूंजीवाद में रूपान्तरण अहिंसक था। सोवियत संघ में सत्ताा पतन के समय मामूली सा हंगामा हुआ था। मामूली हंगामे में ही समाजवाद ढह गया। यह वर्चुअल की शक्ति का असर है। चीन में माओ के बाद के व्यापक परिवर्तन और विनाश को वर्चुअल के विराट रूप ने ढंक लिया। मूल बात यह वर्चुअल ने समाजवाद को बगैर हिंसा के पछाड़ दिया। सोवियत संघ से लेकर चीन तक कहीं पर परिवर्तन में हिंसा नजर नहीं आयी। जबकि वास्तव जीवन में व्यापक तबाही मची है। कांगो से लेकर इराक तक वर्चुअल की भूमिका सत्य के उद्धाटन की कम सत्य को दुर्लभ बनाने की ज्यादा है। वर्चुअल ने सत्य और मीडिया के बीच महा-अंतराल पैदा किया है। वर्चुअल को दुर्लभ बनाया है।
वर्चुअल में समाजवाद एकदम विलोम में तब्दील हो जाता है। अब वह सब दिखने लगता है, होने लगता है जिसकी कभी कल्पना नहीं की थी। अब कम्युनिस्ट पार्टी का कोई भी एक्शन समाजवाद के विचारों से मेल नहीं खाता। कोई एक्शन यथार्थ एक्शन नहीं होता। समाजवाद की प्रासंगिता गायब हो जाती है और हठात् पूंजीवादी की प्रासंगिकता और अपरिहार्यता केन्द्र में आ जाती है। कम्युनिस्टों की सभी किस्म की प्रासंगिक भूमिकाएं नकारात्मक लगने लगती हैं। नकारात्मकता से बचने के चक्कर में कम्युनिस्ट वर्चुअल के सामने समर्पण कर देते हैं। उनके सभी अर्थ लुप्त हो जाते हैं।
विगत सत्तार सालों में जितना समाजवादी साहित्य आया आज वह समाजवादी देशों की सामाजिक अवस्था से कहीं पर भी मेल नहीं खाता। बल्कि समाजवादी मुल्कों को देखकर नहीं लगेगा कि वहां पर कभी समाजवाद भी था। चीन को देखकर भौंचक्का रह जाना और फिर अभिभूत हो जाना। सोवियत संघ का नक्शे से गायब हो जाना। हमें चौंकाता है। यही वर्चुअल की शक्ति है। वर्चुअल हमें भौंचक्का बनाता है। अभिभूत अभिभूत करता है। समर्पण के लिए मजबूर करता है। वर्चुअल के खिलाफ प्रतिवाद नहीं कर सकते वर्चुअल के सामने सिर्फ समर्पण कर सकते हैं। प्रतिवाद सिर्फ वाचिक रह जाता है। प्रतिवाद की वास्तव सामाजिक भावभूमि लुप्त हो जाती है। प्रतिवाद का शब्दों तक सिमट जाना,इमेजों में बंध जाना और सामाजिक जीवन से कट जाना,यह आज के युग की सबसे बड़ी दुर्घटना है।
वर्चुअल का आधार है परफेक्शन। अब कोई भी चीज मौलिक नहीं मिलती सभी परफेक्ट रूप में मिलती हैं। परफेक्ट को आप पूरी तरह आत्मसात कर सकते हैं। आज हम जिस जगत को हजम कर रहे हैं ,आत्मसात कर रहे हैं वह चरम पर है। वर्चुअल में चीजें चरम पर होती हैं। अतिवादी या अतिरंजित रूप में होती है। वर्चुअल ने परफेक्शन का तत्व समाजवाद से लिया है। आधुनिक युग में परफेक्शन का दावा सिर्फ समाजवाद ने किया था, समाजवाद ने परफेक्ट रूप में चीजों को पेश करके भी दिखाया था। पूंजीवाद ने कभी परफेक्शन का दावा नहीं किया था। किंतु परवर्ती पूंजीवाद ने वर्चुअल परफेक्शन के जरिए समाजवाद के परफेक्शन को पराजित कर दिया। यह तो वैसे ही हुआ कि लोहा लोहे को काटता है।
परफेक्शन की कला समाजवादी कला है। वर्चुअल ने इसका सबसे पहले व्यापक प्रयोग व्यवस्थागत तौर पर समाजवाद पर ही किया। वर्चुअल तकनीक के प्रयोग सबसे पहले अमेरिका में शुरू हुए ,मजदूर आंदोलन,माक्र्सवाद और सामाजिक परिवर्तन के समाजवादी मॉडल की मूल चीजों को निशाना बनाया गया। जब अमेरिका में इस कार्य में सफलता मिल गयी तो बाद में समाजवादी व्यवस्था को अप्रभावी बनाने के लिए अमेरिका के बाहर व्यापक इस्तेमाल किया गया।
वर्चुअल में प्रत्येक घटना चाहे वह सुख की हो या दुख की। सब कुछ निर्मित है। इससे आप बच नहीं सकते। पश्चाताप प्रकट नहीं कर सकते। वर्चुअल में प्रत्येक चीज अनैतिक और संवेदनात्मक है। सिर्फ शरीर ही नहीं बल्कि इच्छाशक्ति भी संवेदनात्मक और अकस्मात की शक्ल लेती है। अभिनेता अपने अस्तित्व में विश्वास नहीं करते। फलत: वे जिम्मेदारी भी नहीं लेते। अपनी इच्छा और आकांक्षाओं का क्रमश: पालन करते हुए खुश हैं। चीजों की पीड़ादायक दुर्घटनाओं का सम्मान करते हुए खुश हैं। वे सिर्फ अस्तित्व रक्षा के खास नियमों को देखते हैं,ये वे नियम हैं जिनको पहले उन्होंने वैधता प्रदान नहीं की।
वर्चुअल का लक्षण है, अस्तित्व है किंतु स्वीकृति के बिना। इससे हमें संतोष मिलता है। क्योंकि हम उसमें विश्वास नहीं करते। इससे स्वायत्ताता का भ्रम पैदा होता है। यथार्थ वैध अवैध, प्रामाणिक अप्रामाणिक के परे चला जाता है। अब वर्चुअल सत्य है सत्य वर्चुअल है। वर्चुअल को समर्पण चाहिए। अनालोचनात्मक स्वीकृति चाहिए। आज हम आजाद नहीं हैं और न हमारी इच्छाएं ही स्वतंत्र हैं। एब्सर्डिटी साफतौर पर देख सकते हैं। अमूमन ऐसी परिस्थितियों में घिरे होते हैं , ऐसे विषयों पर फैसला ले रहे होते हैं जिनके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते या कुछ भी जानना नहीं चाहते। अन्य की शक्ति निज के जीवन को नियंत्रित कर रही है,उसका दुरूपयोग कर रही है। अब न इच्छा है और न यथार्थ ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि वस्तुओं को पकड़ न पाने का निरंतर विभ्रम है और साथ ही यह भी विश्वास कि हम पकड़ लेंगे,समझ लेंगे। चीजों के बारे में विभ्रम औरउनकी रेशनल त्रासदी हमारी बौध्दिकता के साथ मुठभेड़ कर रही है।
जब पहलीबार सोवियत संघ में समाजवाद आया तो हमने अन्य देशों में उसका अनुकरण किया। नकल की। नकल करते हुए मौलिक से भी ज्यादा अच्छी चमकदार इमेज बनाने की कोशिश की। त्रासदी यहीं से शुरू हुई। समाजवाद की नकल मूलत: विभ्रम पैदा कर रही थी। मूल का विभ्रम पैदा कर रही थी, समाजवाद को पहले कभी किसी ने देखा नहीं था, जाना नहीं था, विश्व में पहले कभी समाजवाद नहीं था, इसलिए जब समाजवाद आया तो विभ्रम के आधार पर आया,इस विभ्रम की नकल मूलत: विभ्रम ही तो थी। विभ्रम को ही हम यथार्थ समझने लगे। विभ्रम से विभ्रम पैदा होता है।
विभ्रम में यथार्थ का संकट नहीं होता यही वजह है कि समाजवाद में भी संकट नहीं था। विभ्रम को यथार्थ बनाने के क्रम में समाजवाद आया था किंतु समाजवाद यथार्थ नहीं था वह तो विभ्रम था। यही वजह है निण्र्ाायक क्षण आते ही ,संकट की घड़ी आते ही समाजवाद का विभ्रम गायब हो गया। समाजवाद का पराभव हो गया। विभ्रम के आधार पर जब भी यथार्थ निर्मित करने की कोशिश की जाएगी तो वह तेजी से फैलता है जैसे पशु फैलते हैं। पशु जब भी फैलते हैं तो अपने से पहले वाले पशु को खत्म करते हुए फैलते हैं।विभ्रम से पैदा हुआ समाजवाद भी इसी बिडम्बना का मारा हुआ था, समाजवाद फैल रहा था किंतु अपने ही बच्चों को खाते हुए और शेष में समाजवाद के विभ्रम को ही हजम कर गया। विभ्रम के गर्भ से पैदा हुआ यथार्थ स्वयं को ही खाता है। यही उसकी वास्तविक त्रासदी है। यह वास्तव जगत का अपरिहार्य अंत है।
कायदे से विभ्रमों की क्रांतिकारी अंतर्वस्तु को हर हालत में बचाए रखना चाहिए। क्रांतिकारी विभ्रमों को बचाए रखना चाहिए। आमतौर पर क्रातिकारी विभ्रमों का ध्यान हटाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। विभ्रम के कारण्ा चीजों को जिस रूप में प्रस्तुत किया जाता है असल में वे वैसी नहीं होतीं। चीजों को वास्तव में जहां मिलना चाहिए,जिस रूप में मिलना चाहिए वैसी नहीं मिलतीं। दृश्यमान स्थिति का वास्तविकता के साथ कोई मेल नहीं होता। वे कब गायब हो जाएंगी और कब सामने उदित होकर आ जाएंगी। हम नहीं जानते।
वर्चुअल रियलिटी में संकेत का विभ्रम खत्म हो जाता है। सिर्फ उसका आपरेशन रह जाता है। सत्य और असत्य के बीच आनंदायी अभेद,यथार्थ और संकेत के बीच का अभेद पैदा हो जाता है। हम निरंतर अर्थ पैदा कर रहे हैं। प्रासंगिक चीजें पैदा कर रहे हैं, यह जानते हुए कर रहे हैं कि ये सब कुछ नहीं बचेगा। प्रासंगिक चीजें भी एक अवस्था के बाद अप्रासंगिक हो जाएंगी। विभ्रमों को अर्थवान मानना सबसे बड़ा विभ्रम है। यह जगत के विध्वंस का प्रधान कारण है।
हमारा समग्र इतिहास तर्कों पर ही खड़ा है। आज हम उसके किनारे पर आ लगे हैं। हमारी अर्थपूर्ण संस्कृति नष्ट हो गयी है। यथार्थ की संस्कृति खत्म हो गयी है। यथार्थ के अति रूपायन के कारण यथार्थ से पकड़ खत्म हो गयी है। अति सूचना के कारण सूचना की संस्कृति नष्ट हो रही है। समाजवाद के अति प्रयोगों के कारण समाजवाद भी नष्ट हो गया। उपयोगी बुध्दिमत्ता ही प्रासंगिक रह गयी है। क्रांतिकारी विभ्रम अब जीवन में नहीं विचारों में रहते हैं।
समाजवाद के पतन का बुनियादी कारण है बिना शर्त्त समाजवाद की स्वीकारोक्ति। सभी किस्म के यथार्थ, घटनाओं,विचारों और कार्यकलापों को समाजवाद केन्द्रित बना देना। मसलन कहना कि कम्युनिस्ट जो करता है समाजवाद के लिए करता है। नागरिक जो भी कुछ करता है समाजवाद के लिए करता है। अथवा पार्टी के लिए करता है। समाजवाद अथवा पार्टी के लिए करने का स्वांग ही है जो समाजवाद के पतन का प्रधान कारण है। व्यक्ति का यह कहना कि उसके समस्त कार्यकलाप समाजवाद के लिए हैं और समाजवाद से ही प्रेरित हैं, यही वह बुनियादी चीज है जिसने समाजवाद को नष्ट कर दिया। समाजवाद का क्षय बाहर से नहीं अंदर से हुआ है। समाजवाद के शत्रु अंदर हैं।
यह तरंगों और कोड का युग है। तरंगों से जुड़ते हैं कोड से खुलते हैं। समाचार ,संवाद,संपर्क, व्यापार,युध्द,संस्कृति आदि सब कुछ रेडियो तरंगों की देन हैं। तरंगे हमारे जीवन का सेतु हैं। तरंगें न हों तो हम अधमरे हो जाएं। आज तरंगें ही सत्य है और सत्य ही तरंग है। तरंगें भ्रम पैदा करती हैं। स्थायित्व का भ्रम पैदा करती हैं। तरंगें संतुलन पैदा कर सकती हैं और तरंगें अतिवाद अथवा अतिरंजना में डूबो सकती है। तरंगों में सब कुछ चरम पर घटित होता है। तरंग का सार है अतिवाद,चरमोत्कर्ष,अतिरंजना। अंत है विलोम।
तरंगों के जमाने में समानता,मानवधिकार आदि वायवीय हैं। इन सवालों में दर्शकों की दिलचस्पी घट जाती है। ये सिर्फ नजारे अथवा तमाशे की चीज बन जाते हैं। वर्चुअल ने इन सबको नजारा बना दिया है। हम सबको तमाशबीन बना दिया है। नागरिक को तमाशबीन बना दिया है। तमाशबीन के कोई अधिकार नहीं होते। तमाशा देखा और खिसक लिया। तमाशबीन का किसी से लगाव नहीं होता। वह निर्वैयक्तिक होता है। आज तमाशा वर्चुअल है और वर्चुअल तमाशा है। सूचना बेजान और देखने वाला भी बेजान। निर्वैयक्तिकता का चरम वर्चुअल की धुरी है। अपनी ढपली अपना राग इसका मूल मंत्र है।
तरंगों के कारण कथनी और करनी में आकाश पाताल का अंतर आता है। जिसने कभी कोई चित्र नहीं बनाया , चित्रकला नहीं सीखी वह कलाप्रेमी और कलामर्मज्ञ का स्वांग करता नजर आता है। जिसकी राजनीति में आस्था नहीं है वह सत्ताा और राजनीति का सबसे बड़ा भोक्ता है। जिसने दर्शन नहीं पढ़ा वह दार्शनिक मुद्रा में डूबा नजर आता है। जो कभी सच नहीं बोलता वह सत्य का पुजारी नजर आता है। अयथार्थ या यथार्थ का अंश विराट और यथार्थ छोटा नजर आता है। सच झूठ और झूठ सच नजर आता है। प्रत्येक चीज सिर के बल खड़ी नजर आती है। सीधी चीज उल्टी और उलटी चीज सीधी नजर आती है। प्रत्येक चीज विलोम दिखती है। यही वर्चुअल का विचारधारात्मक चरित्र है।
अब प्रत्येक चीज में वर्चुअल मिल गया है। अच्छे -बुरे,पानी और शराब आदि सभी में वर्चुअल आ गया है। वर्चुअल के स्पर्श से सब कुछ कपूर होगया है। अब मौत भी सुंदर लगने लगी है। हत्या में आनंद मिलने लगा है। दुख में आनंद मिलने लगा है, दुख मनोरंजन देने लगा है। वर्चुअल ने सब चीजों को नकल और आनंद में बदल दिया है। चीजों की सतह की महत्ताा बढ़ गयी है। अब सत्य की आत्मा महत्वपूर्ण नहीं है। सत्य की सतह महत्वपूर्ण है। सतह को ही मर्म मान बैठे हैं।
आज मनुष्य के पास समय का अभाव है। समय के अभाव के कारण मनुष्य हमेशा मानसिक तौर पर समयाभाव में रहता है। समय का अभाव कालान्तर में स्थान के अभाव में रूपान्तरित होता है। आप जहां से चले थे एक अर्सा बाद फिर वहीं पहुँच जाते हैं। अब स्थान समय में तब्दील हो जाता है। इसे बदला नहीं जा सकता।
मौजूदा दौर में हमारी सारी गतिविधियां वर्चुअल से संचालित हैं। वर्चुअल में मिलते हैं, वर्चुअल सपने देखते हैं। वर्चुअल में बातें करते हैं। वर्चुअल में प्यार करते हैं। वर्चुअल में दोस्त बनाते हैं,वर्चुअल समुदाय में भ्रमण करते हैं। वर्चुअल ने समूचे संसार को इस कदर घेरना शुरू किया है कि हम असली नकली का अंतर भूल गए हैं। तमाम किस्म के पशुओं की विलुप्त प्रजातियां हठात् पैदा हो गयी हैं। हम मानने लगे हैं कि संभवत: उन्हें किसी ने देखा होगा। डायनोसर इसका आदर्श उदाहरण हैं। किसी ने डायनोसर को नहीं देखा किंतु वर्चुअल ने उसका जो प्रचार किया है उसने भरोसा दिला दिया है कि जैसा देख रहे हैं डायनोसर वैसा ही रहा होगा। यह भी संभव है मानव जाति कुछ समय के बाद विलुप्त प्रजाति बन जाए और उसके बारे में भी वैसे ही बताया जाए जैसे डायनोसर के बारे में बता रहे हैं। जिस तरह पशुओं की विलुप्त प्रजातियों को बचाने के लिए अभयारण्य बसाए जाते हैं। वैसे ही भविष्य में मनुष्यों के सुरक्षित जनक्षेत्र बनाए जाएंगे।
Posted by जगदीश्वर चतुर्वेदी 0 comments
Labels: वर्चुअल समाजवाद
27.9.09
मासूम उमर,पथरीली डगर
मासूम उमर की जो लड़की चुनरी की छाँव में जा रही है। आम तौर पर इस प्रकार से लड़की को शादी के मंडप में ले जाया जाता है। दुल्हन के परिधान में यह लड़की जा तो मंडप में रही है लेकिन यह मंडप उसे भोग के रास्ते पर नहीं त्याग के रास्ते पर ले जाने वाला है। भौतिक सुख सुविधाओं का त्याग। स्वाद का त्याग, आराम का त्याग। इस लड़की का नाम है नेहा जैन। १८ साल की नेहा ने
ढाई साल पहले सन्यास लेने का निर्णय कर लिया था। एक संपन्न परिवार की नेहा को उसके परिजनों ने समझाया लेकिन उसने अपना निर्णय नहीं बदला। आज उसके परिवार ने उसको अपनी स्वीकृति दे दी। इस मौके पर नेहा का नागरिक अभिनन्दन किया गया। उसके पिता मनोज जैन,माता स्वीटी जैन ने उसको आशीर्वाद दिया। अब नेहा अपनी गुरु के पास रहेगी। इसकी विधिवत दीक्षा ६ दिसम्बर को दिल्ली में होगी। अभिनन्दन समारोह का माहौल बहुत ही भावुक था। नेहा चार भाई बहिनों में सबसे बड़ी है।
Posted by गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर 2 comments
Labels: पथरीली डगर, मासूम उमर
मंत्री जी की इकोनोमी यात्रा...
Posted by RAJNISH PARIHAR 0 comments
Labels: नेता..
गूंजा महाराष्ट्र में चुनावी बिगुल
जैसे जैसे राजनीतिक दल गठबंधन व प्रत्याशियों की औपचारिक घोषणा करते जा रहे हैं, वैसे वैसे महाराष्ट्र में चुनावी सरगर्मी तेज हो रही है। कुछ खुशी में नाम घोषित होते ही प्रचार में जुट गए, तो कुछ पार्टी का बैनर न मिलने से नाराज हो बगावत पर उतर आए। हर किसी को गठबंधन और मोर्चे की दरकार है।
पार्टी का टिकट न मिलने से पिछले दिनों कुछ लोगों ने वरिष्ठ शिवसेना नेता के यहां हल्ला बोल दिया, तो कइयों ने अपनी पार्टी ही बदल दी। अभी 13 अक्टूबर को चुनावी महासंग्राम होना है, ऐसे में महाराष्ट्रीयन जनता का महाऊंट किस करवट बैठेगा, यह कहने में बड़े बड़ों को पसीने आ रहे हैं। पिछले चुनाव में राज ठाकरे की सेना को हल्के में लेने वाले बड़े राजनेता, विश्लेषक और टिप्पड़ीकार इस विधानसभा चुनाव में पांडित्य से बचने की कोशिश में हैं। खैर, हम भी सयाने नहीं बनेंगे और इंतजार करेंगे चुनाव के दिन व वोटों की गिनती का॥!
सर्वेश पाठक
Posted by sarvesh 0 comments
लो क सं घ र्ष !: कर्मयोग की फिलॉसफी
"उनका पूरा कर्मयोग सरकारी स्कीमों की फिलॉसफी पर टिका था । मुर्गीपालन के लिए ग्रांट मिलने का नियम बना तो उन्होंने मुर्गियां पालने का एलान कर दिया । एक दिन उन्होंने कहा कि जाती-पाँति बिलकुल बेकार की चीज है और हर बाभन और चमार एक है । यह उन्होंने इसलिए कहा की चमड़ा उद्योग की ग्रांट मिलनेवाली थी। चमार देखते ही रह गए और उन्होंने चमड़ा कमाने की ग्रांट लेकर अपने चमड़े को ज्यादा चिकना बनाने में खर्च भी कर डाली...उनका ज्ञान विशद था । ग्रांट या कर्ज देनेवाली किसी नई स्कीम के बारे में योजना आयोग के सोचने भर की देरी थी, वे उसके बारे में सब कुछ जान जाते ।"
-श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी से
Posted by Randhir Singh Suman 0 comments
लालगढ मूलत: हमारी समग्र वामपंथी राजनीति का सबसे विद्रूप चेहरा है। लालगढ प्रसंग बेहद दर्दनाक और बहशी प्रसंग हैं। माओवादियों के हाथ 200 से ज्यादा निर्दोष ग्रामीणों,आदिवासियों और राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं की नृशंस हत्या के खून से रंगे हैं। छत्रधर महतो और उनके साथियों के ऊपर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में इन हत्याओं की जिम्मेदारी आती है। महाश्वेता देवी से लेकर जयगोस्वामी तक जिन लोगों ने छत्रधर महतो की गिरुफतारी का विरोध किया है। उल्लेखनीय लोकसभा चुनाव के बाद लालगढ में निर्दोष ग्रामीणों की माओवादी खुलेआम हत्या कर रहे हैं। पुलिस प्रशासन का निकम्मापन साबित हुआ है। माकपा के लोगों ने जब भी निर्दोष लोगों पर हमले किए हैं हमने उसका प्रतिवाद किया है। उसके खिलाफ लिखा भी है। आज अचानक मीडिया के एक ग्रुप और महाश्वेता देवी बगैरह के साथ के बुद्धिजीवियों के द्वारा माकपा के खिलाफ विरोध व्यक्त करने के नाम पर माओवादियों के द्वारा की जा रही हत्याओं की जिस बेश्ार्मी के साथ हिमायत की जा रही है,उसकी मिसाल भारत के इतिहास में मिलनी असंभव है। लालगढ में मूल मसला अब वह नहीं है जो इस इलाके में केन्द्रीय सरकार के द्वारा अर्द्धसैनिकबलों के भेजे जाने के पहले था। इस प्रसंग में पहली बात यह कि छत्रधर महतो की गिरफ्तारी सही कदम है।आश्चर्य की बात यह है कि पुलिस ने उसे अब तक गिरफ्तार क्यों नहीं किया ? नयी बदली परिस्थितियों में माओवादी हिंसाचार और छत्रधर महतो के नेतृत्व वाली पुलिस जुल्म विरोधी कमेटी मूलत: अपराधी और हत्यारे गिरोह के रूप में परिणत हो चुकी है। जिस तरह माफिया गिरोह सुपारी लेकर हत्याएं करते हैं, ठीक वैसे ही वे माकपा के कार्यर्त्ताओं की वेवजह हत्याएं कर रहे हैं। आज की तिथि में लालगढ में कोई राजनीतिक विवाद या टकराव जैसी चीज नहीं है। सीधे इलाका दखल की जंग चल रही है। यह जंग माओवादी और छत्रधर महतो के संगी-साथी लड रहे हैं। यह सच है कि लालगढ इलाके की विगत 35 सालों में जबर्दस्त उपेक्षा हुई है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि लोग हथियार उठाकर एक-दूसरे की जान के प्यासे हो जाएं। गरीबी और अभाव को हिंसाचार का बहाना बनाकर हिंसा को वैधता प्रदान नहीं की जा सकती।
उल्लेखनीय है विगत बीस सालों से भी ज्यादा समय से इस इलाके की विभिन्न स्थानीय संस्थाओं जैसे पंचायत वगैरह पर गैर माकपाई राजनीतिक दलों का कब्जा रहा है। इसके बावजूद माकपा और वामपंथी दलों को इस इलाके की उपेक्षा के लिए माफ नहीं किया जा सकता। छत्रधर महतो के पकडे जाने की पद्धति पर सवाल उठाए जा रहे हैं और दुर्भाग्य से ये सवाल मानवाधिकार संगठनों और बुद्धिजीवियों ने उठाए हैं। उन्होंने कलकत्ते में दशहरे के मौके पर प्रतिवाद भी किया।
मानवाधिकार संगठन जिस अंध कम्युनिस्ट विरोध की नीति पर चल रहे हैं उससे उनकी राजनीतिक समझ उजागर हो रही है। इस प्रसंग में दो बातें महत्वपूर्ण हैं, पहली बात यह कि भारत में लोकतंत्र है,लोकतंत्र को हत्याओं और अपराधियों के बल पर अपहृत करने की किसी भी कोशिश को भारत की जनता हमेशा से ठुकराती रही है। लालगढ में यही चल रहा है,भविष्य में लालगढ की जनता भी वही करेगी जिस तरह अमनपसंद जनता करती है,वह हिंसा को ठुकराती रही है। इलाका दखल का फार्मूला लागू करने के कारण ही माकपा की हाल के चुनावों में जमकर धुनाई हुई है, माकपा और वामदल हारे हैं। माकपा के निकम्मेपन और अपराधी गिरोहों के साथ मिलकर काम करने की राजनीति का प्रत्युत्तर अपराधी गिरोहों और हिंसक गिरोहों की सहायता से इलाका दखल करना नहीं हो सकता। यदि यही माओवादियों का लक्ष्य है तो उन्हें इस काम में कभी सफलता नहीं मिलेगी। लालगढ में माओवादी हिंसाचार में जो लोग शामिल हैं उन्हें कानून के हवाले किया जाना चाहिए और इलाके के लोगों के जानोमाल की हिफाजत की जानी चाहिए। छत्रधर महतो आज जनसंघर्ष का नायक नहीं रह गया है, यह सच है कि उसने जंग पुलिस दमन का प्रतिवाद करते हुए शुरू की थी, उसकी आरंभ में मांगे भी जायज थीं, उन्हें यदि राज्य सरकार मान लेती तो स्थिति यहां तक नहीं पहुँचती।राज्य सरकार ने उसकी पुलिस ज्यादती से संबंधित मांगों पर गौर न करके गलत किया। आज सारे इलाके की जनता तकलीफ भोग रही है।
आज छत्रधर महतो उस जमीन पर नहीं खडा है जहां वह विगत वर्ष नवम्बर में खड़ा था। आज उसके साथियों के हाथ 200 से ज्यादा ग्रामीण आदिवासियों की हत्या में रंग चुके हैं। सैंकड़ों लोगों को छत्रधर महतो और माओवादियों के हिंसाचार की वजह से अपने इलाके को छोडकर शरणार्थी की तरह बाहर रहना पड रहा है। हजारों बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं,सारे इलाके में प्रशासनतंत्र ठप्प पडा है। आम दैनिक जीवन में प्रशासनिक तंत्र की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर माओवादी अपनी मनमानी अपराधी हरकतें कर रहे हैं। आज छत्रधर महतो पश्चिम बंगाल से भिन्न एक स्वतंत्र राज्य की मांग कर रहा है। ग्रामीणों की हत्याएं कर रहा है। ऐसी स्थिति में मीडिया,बुद्धिजीवियों और लोकतंत्रप्रेमी जनता का यह दायित्व बनता है कि वह लालगढ में सामान्य स्थिति की बहाली के लिए जो भी प्रयास राज्य प्रशासन की ओर से उठाए जा रहे हैं उनका साथ दें। अंत में हमें इस सवाल पर जरूर गौर करना चाहिए कि क्या किसी भी संगठन को (चाहे वह माकपा हो,तणमूल या माओवादी हों)यह अधिकार है कि वह निरीह लोगों पर हमले करे,उनके जनतांत्रिक हक छीन ले ?हम माओवादियों पर पाबंदी के खिलाफ हैं,हम किसी भी किस्म की इलाका दखल की राजनीति के कट्टर विरोधी हैं। बुद्धिजीवी के नाते हमें सत्य का भक्त होना चाहिए। सत्य यह है कि लालगढ में निरीह लोगों के मानवाधिकारों का हनन माओवादी कर रहे हैं। हमें इस सत्य को खुली आंखों से देखना चाहिए। जो बुद्धिजीवी सत्य से मुँह मोडता है उसे न तो इतिहास माफ करता है और न जनता ही माफ करती है। छत्रधर महतो की गिरफतारी सही कदम है। इसके लिए जो भी पद्धति अपनायी गयी है वह भी तर्कसंगत है। मानवाधिकार कर्मी उसके लिए न्याय की अदालत में जाएं और उसकी रक्षा करें। राज्य प्रशासन का यह दायित्व है कि विगत चार महीनों में लालगढ में जो 200 लोग मारे गए हैं उनके हत्यारों को वह कानून के हवाले करे। लालगढ इलाके में शांति लौटे। इलाके के लोगों पर पुलिस जुल्म के बिना जो भी संभव कार्रवाई हो उसे किया जाए। इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि लालगढ में 25 हजार से ज्यादा पुलिस और अर्द्धसैनिक बल लगे हैं लेकिन कहीं से भी ग्रामीणों पर पुलिस दमन की कोई भी रिपोर्ट कम से तीन माह से अखबारों में नहीं आयी है। छत्रधर महतो को गिरफतार करने के समय भी पुलिस को कोई जोरजबर्दस्ती नहीं करनी पडी ,महतो को वह छल करके पकडकर ले आयी। इसके विपरीत माओवादियों के द्वारा माकपा कार्यकर्त्ताओं के खिलाफ अहर्निश जुल्म की खबरें प्रतिदिन अखबारों में आ रही हैं। माओवादियों को इसका जबाव देना चाहिए कि उनके जुल्मोसितम की क्या सजा दी जाए ? यह कैसे संभव है कि पुलिस और माकपा का जुल्म तो जुल्म है,अपराध है। और माओवादियों के द्वारा किए जाए रहे अपराध,जुल्म और बर्बर हत्याकांड पुण्यकर्म हैं ? हत्या और जुल्म का हर स्थिति में प्रतिवाद करना चाहिए। यही भारतीय बुद्धिजीवियों की सही नीति हो सकती है। बुद्धिजीवी को जुल्म का पक्षधर नहीं होना चाहिए। छत्रधर महतो और माओवादियों के पक्ष में लालगढ के प्रसंग में जो बुद्धिजीवी बोल रहे हैं वे जुल्म और हिंसा के पक्ष में खडे हैं। यह बुद्धिजीवियों के लिए अपशकुन की सूचना है।