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17.9.09

जय हिन्दी हो !!

तो जनाब हिन्दी दिवस तो निकल गया पर हम वो थोड़े ही ना हैं जो हिन्दी केवल हिन्दी दिवस वाले दिन ही पढ़ते, लिखते या बोलते हैं... अब जब भारतीय फिरंगियों को (जिन्हें हिन्दी आती ही नहीं) रत्ती भर इस बात का गम नहीं है कि अपनी मातृभाषा ही नहीं आती है तो हम भी कम नहीं... हमें भी उतना ही गर्व है कि हिन्दी शान से बोलते, लिखते और पढ़ते भी हैं..
अब संयोग कि बात ही देख लीजिये.. कल हिन्दी दिवस गया और मैं अपनी ज़िन्दगी का पहला हिन्दी उपन्यास पढ़ रहा हूँ.. बस यह समझ लीजिये की एक-दो दिन में ख़तम ही होने वाली है..
आपको अचरज हो रहा होगा कि बालक पिछले साल भर से हिन्दी ब्लॉगिंग कर रहा है और आज तक इसने एक भी हिन्दी उपन्यास के पन्ने न झाड़े? अब इसे आप मेरे किस्मत के खाते में डालें या फिर मेरे आलस पर थोपें पर सत्य वचन तो यही है कि यह उपन्यास मेरी पहली है और मैं इसका ऐसा कायल हो गया हूँ कि अब तो हर हफ्ते एक न एक नया उपन्यास पढूं... पर देखिये कितना संभव हो पाता है..

रंगभूमि
प्रेमचंद जैसे महान लेखक और हिन्दी के उपासक की जितनी प्रशंसा की जाय कम ही है.. मैंने अपने स्कूल के समय एक-दो कहानियां ज़रूर पढ़ी थीं और लोगों के मुख से इनके बारे में बहुत सुना भी था पर यह न पता था कि इनकी एक किताब मुझे इनका दीवाना बना देंगी..
रंगभूमि जीवन के हर वर्ग को अपनी आगोश में लेता है.. वह हर तरह के चेहरे को बेनकाब करता है.. वह हर तरह के भाव को अपने में समेटे हुए है..

जहां एक अँधा अपनी लड़ाई अकेले ही लड़ रहा है वहीं पर इज्ज़तदारों की नींद एक साथ ऐसी उडी हुई है मानो एक बालक किसी गबरू जवान को उठा कर पटक दे.. सूरदास अँधा है पर निर्बल नहीं.. वह शरीर और मन दोनों से पूरे गाँव का दिल जीते हुए है और शायद यह जीत अंत तक बनी रहेगी (अब मैंने भी पूरा पढ़ा नहीं है और आपको बता दूं तो रोमांच कहाँ रह जाएगा?)..

वहीँ दूसरी ओर गहन चिंतन और मनन करने वाले कुछ नौजवानों की अपनी अलग ही ज़िन्दगी चल रही है जिसे वो अपनी विस्तृत और संकीर्ण सोच से इसे खेल रहे हैं.. यहाँ मौत भी है और ज़िन्दगी भी.. यहाँ प्रेम भी है और नफरत भी.. यहाँ सम्मान भी है और तिरस्कार भी..
इनकी कहानी हम जैसे युवकों/युवतियों से ज्यादा जुड़ी हुई है.. इसलिए नहीं कि हमारे और इनके राह एक हैं पर इसलिए कि ये जैसा सोचते हैं वैसे ही हम भी करते हैं..

तो रंगभूमि मेरे मन को इस तरह रंग चूका है कि छूटे ना छूटे.. जहाँ ज़िन्दगी के हर रंग को प्रेमचंद ने अपनी कलम से इतने गहरे और सुव्यवस्थित तरीके से सरोबार किया है.. मानिए मेरी.. अगर आप भी न रंगे तो यह पोस्ट ही मिथ्या समझियेगा..
जितना प्रेमचंद के बारे में सुना था आज बोल भी रहा हूँ.. और आशा करता हूँ कि उनके द्वारा रचित और भी लेख/उपन्यास मेरी आँखों तले गुजरेंगे और मैं उसका रसपान करने में सफल रहूँगा..

यह हिन्दी दिवस प्रेमचंद को समर्पित और हर उस रचना को, जिसने हिन्दी को और भी सशक्त और उच्च भाषा का ओहदा प्रदान किया है..

जय हिन्दी हो !!
जय हिन्दी ब्लॉगर्स की !!

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