संजय दुबे-
उक्त सारे शब्द 'इटालियन' हैं। आभासी रुप में 'बालक के रूप और विभक्ति' से मिलते स्वरुप के चलते इस पर आगामी जून में दिल्ली के पांच सितारा होटल में विद्वानों, प्रोफ़ेसरों की एक संगोष्ठी आयोजित है। जिसका खर्चा सुनने में आया है सरकार उठायेगी।
इतनी बड़ी इंडस्ट्री के लिए अभी हिन्दी में शब्द नहीं है, ये शर्म की बात है। आज़, भारत में पुराने नामों को नया नाम दिया जा रहा है। आत्मनिर्भर भारत के लिए ये अति आवश्यक है। चाँद पर पहुंचने के बाद भी हमें विदेशी शब्दों से काम चलाना पड़े है जिससे राष्ट्रीय शर्म सी 'फीलिंग' आती है।
'माफिया' माननीय है या गरीबों के मसीहा? इस पर देश के विद्वानों में एक राय नहीं है। इसी को लेकर एक दानिशवरों का एक ख़ास इजलास दिल्ली में होना है। जहां इसके लिए उपयुक्त शब्द निर्धारित किये जाने के आसार हैं। माफिया नामक उपाधि धारक उद्योगपतियों, स्वयंभू घोषित डेरा, आश्रम संचालकों की एक लंबी कतार समूचे देश में दिखती है। बस, उत्तर प्रदेश में फिलहाल इनका सरकारी अनुदान और अनुकम्पा, बर्खास्त है। वहां ये उद्योग दम तोड़ रहा है।
यहां माफिया बनने के लिए क़ोई तैयार नहीं दिख रहा है। अकेले अपने दम पर इतने बड़े सूबे में इतनी बड़ी कुर्सी हासिल करना संभव ही नहीं नामुमकिन है। वैसे माफिया इतने प्रतिभाशाली होते है कि इनके प्रतिभा पुंज से हर खित्ता रौशन है।
शिक्षा, स्वास्थ्य, भूमि-प्रबंधन, परिवहन, खनन, शेयर मार्किट में इनका सिक्का चले है। किसी भी क्षेत्र में जहां विकास की थोड़ी भी गुंजाइश है वहां ये अपना हुनर दिखाने से बाज़ नहीं आ रहे है। उदारीकरण के बाद इनका मान-सम्मान भी तेजी से बढ़ा है। समृद्धि इनके यहां नौबत बजाती है। इस फील्ड की प्रगति ऐतिहासिक है। सारे भौतिक सुखों के साधन इतनी तेजी से इस क्षेत्र में हासिल होते हैं कि आप देश के सामान्य विकास दर से इसे किसी अन्य क्षेत्र में जीवन भर में हासिल नहीं कर पाएंगे।
जैसे ही इस ख़ास सर्किल में आप दाखिल होते हो, आपकी विकास दर दो अंको में ''मासिक "हो जाती है। अब आप ही बताओ क़ोई इनको कैसे सम्मान नहीं दें? लिहाजा इनके सामने सर झुकाने के अलावा आम आदमी के पास क़ोई विकल्प ही नहीं है। इसलिए देश के हर क्षेत्र में इस तरह की दौड़ आपको हर फील्ड में देखने को मिल जायेगी।
माफिया बनना इतना आसान नहीं होता। इसके लिए आपके पास 'माफियसु' होना चाहिए। फ़िर 'माफियोज़' भी बहुत जरूरी है। इन दोनों में अगर एक भी आपके पास नहीं है तो इस क्षेत्र में असफल होना तय है। जबरदस्ती बनने की कोशिश करेंगे तब यमलोक जरा जल्दी ही जाना पड़ेगा। माफिया होना नैसर्गिक गुण है। कुछ, प्रयास और अभ्यास करके भी इस कठिन मुकाम को हासिल करते है। पर उनके सर पर भी किसी अग्रज का ही हाथ होता है। अगर ये हाथ नहीं हो तब, आपके पाँव जमीं पर नहीं जन्नत पर होते है।
नैसर्गीक रूप से कौन-कौन गुण होते है जिससे ऐसे लोगों को पहचाना जाता है। ये गूढ़ बात बतानी नहीं चाहिए। आप इस आलेख को पढ़ रहे हैं तब नैतिक रूप से मेरी ये जिम्मेदारी है कि मैं इस ज्ञान को आप संग साझा करूँ।
जो बच्चा जन्म के समय देर से रोयें। कम रोयें। दांत सहित पैदा हो। हर वो काम करे जिससे माता-पिता को गुस्सा आये। समझ लो प्रतिभावान है। कक्षा में हमेशा देर से पहुंचे। टीचर की क़ोई बात न मानें। हमेशा विद्रोह की बात करे। कॉलेज, यूनिवर्सिटी में पढ़ने के बजाय लड़ने के तरीके सीखे। विद्या प्राप्त करने से ज्यादा रुचि उससे होने वाले नुकसान के बारे में ज्ञान अर्जित करें। कभी भी प्रोफ़ेसरों की बातों पर अमल न करें। विज्ञान, कला, साहित्य की अपेक्षा कानून, संविधान, जुर्माना का समग्र ज्ञान अर्जित करे। किसी भी चीज़ के पास न होने पर उसे दूसरे से कैसे हासिल करें? इसके सम्यक ज्ञान प्राप्ति में अबाध रूप से लगा रहना। ये अति आवश्यक गुण है।
सबसे ज़्यादा जरुरी अहर्ता होती है मौके को भांपना। ये माफियाओं में मिलने वाला सबसे कॉमन गुण है। बातों से फिरना, लाभ के लिए दुश्मन से भी हाथ मिला लेना। दोस्तों को दगा देने में थोड़ा भी संकोच नहीं करना। कुल मिला कर धूर्तई, मक्कारी, चालाकी, मौकापरस्ती का पूरा कम्प्लीट पैक होना ही एक अच्छे माफिया की पहचान है। इतनी बड़ी सम्मानित कुर्सी पाना आज़ सहज नहीं है। आईएएस परीक्षा में भले सीटें लगातार कम हो रही हों लेकिन यहां तो शुरू से ही कम रही है। फिर भी किसी माफिया बनने की चाहत रखने वाले छात्रों को इसका रोना रोते देखा है? ये सबसे बड़ा गुण है। धैर्य तो इतना कि 'काक दृष्टि वको ध्यानम' इन्हीं को देख कर लिखा गया है।
इतने सारे गुणों के साथ-साथ 'माफियोज़' का भी इनके साथ होना जरुरी होता है। इस शब्द का क्या अर्थ हो सकता है? इस पर जून में दिल्ली की मीटिंग में फैसला होगा। फ़ौरी तौर पर जो मेरी जानकारी है उसे मैं आपको दे रहा हूं। इसको हिन्दी में कहते है 'चेला-चपाटी।' ये जिनके साथ रहें समझो दुनिया उसकी मुठ्ठी में। कभी-कभी ये वो काम कर देते हैं जिस पर माफिया सोच भी नहीं पाता। किसी को ठिकाने लगाते-लगाते ख़ुद इच्छा होने पर बॉस को ही ठिकाने लगा देना। गला नापने से लेकर काटने तक के हुनर वालों की टीम रखना एक अच्छे माफिया की ख़ूबी होती है।
ये माफियोज़ को बहुत जल्दी पहचान जाते है। किसको, कब, क्या जरुरत है? सब इनको पता होता है। माफियोज़ ही तय करते है कि माफिया कितना बड़ा होगा। रही बात सबसे अहम योग्यता की तो वो अकड़ की होती है। पता नहीं इतालवी भाषा में माफियसु जैसे शब्दों का इस्तेमाल क्यों किया गया?
खैर! हिन्दी के जानकारों की प्रस्तावित जून की मीटिंग तक इसी से काम चलाइये। लब्बोलुआब ये कि अकड़, दोस्त, सहयोग ही आपको एक सफल माफिया बना सकता है। ये ही माफिया, माफियोज़, माफियसु का साधारण बोलचाल की भाषा में अनुवाद है। आप चाहे तो अपने क्षेत्र के किसी माफिया को देखकर उससे सीख सकते है। बिना हुनर के कैसे सफल हो सकते है? गंभीरता से बस इन्हें देखिये। सब पता चल जायेगा।
ये हर जगह है। निजी, सरकारी, सहकारी हर ऑफिस से लगाये घास मंडी, सब्जी मंडी, ग़ल्ला मंडी, दूध मंडी हर पैसा बनाने वाली जगह में मिल जायेंगे। यहां तक कि प्रसिद्ध मंदिरों के पास भी। बिना नुक्स के नुक्स निकालते। फ़िर उसका समाधान करने का उपाय बताते। काम करने वाले को हतोत्साहित करते। नाकारों की बड़ाई करते। चाटुकारों की फ़ौज के दम पर हवाई किले बनाते। मौका देखकर दूसरे की करी गई मेहनत को अपनी बता कर ख़ुद की पीठ ठोंकवाते। ये सारे गुणसम्पन्न व्यक्ति आपको अपने पास दिख सकते हैं। बशर्ते आप कोशिश करो।
ख़ैर! माफिया, माफियोज़, माफियसु के बारे में इतनी ही मेरी जानकारी है। अगर आपके पास इन शब्दों के लिए हिन्दी में क़ोई शब्द हो तो "भड़ासी गुरु" के 'विपत्र' पर पत्र से सूचित करियेगा। हाँ! तो बंधुओं, अब! जून तक का इंतज़ार करिये। देश के विद्वान दिल्ली में जुटान कर तफ़सील से इसका हिंदुस्तानी तरजुमा करेंगे। तब तक के लिये दीजिये इज़ाज़त। आदाब अर्ज़ है।
मऊ निवासी संजय दुबे कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं में पिछले 20 वर्षों से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं. उनके कॉलम हिंदुस्तान, जनसत्ता, दैनिक जागरण, देशबंधु इत्यादि अखबारों में लगातार छपते हैं. उनसे संपर्क- 98898 34756 पर कर सकते हैं।