सौरभ कुमार-
सूचना क्रांति के दौर में जहां हर हाथ में स्मार्टफोन है, इंटरनेट मीडिया ब्लॉगरों और मेनस्ट्रीम मीडिया के पत्रकारों के बीच का विरोधाभास तेजी से बढ़ रहा है। यह टकराव सिर्फ माध्यमों का नहीं बल्कि विश्वसनीयता, पहुंच, एजेंडा और पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों को लेकर है।
एक तरफ पारंपरिक या मेनस्ट्रीम मीडिया है, जिसके पास दशकों का अनुभव, स्थापित प्रक्रियाएं, पेशेवर प्रशिक्षण और संस्थागत विश्वसनीयता है। ये मीडिया संगठन बड़े पैमाने पर रिपोर्टिंग करते हैं, तथ्यों की जांच करते हैं, संपादकीय नीतियों का पालन करते हैं और आमतौर पर नैतिक पत्रकारिता के मानकों का पालन करने करते हैं। इनके पास एक स्थापित तंत्र होता है, जिससे वे गहन जांच-पड़ताल और विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत कर पाते हैं।
दूसरी ओर इंटरनेट मीडिया ब्लॉगर और यूट्यूबर हैं। ये व्यक्ति या छोटे समूह होते हैं, जो फेसबुक, इंस्टाग्राम, यू ट्यूब, स्नैपचैट जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपनी सामग्री प्रकाशित करते हैं। इनकी सबसे बड़ी ताकत इनकी तात्कालिकता और व्यक्तिगत पहुंच है। ये बिना किसी संस्थागत फिल्टर के सीधे दर्शकों से जुड़ते हैं, जिससे अक्सर एक अनौपचारिक और आत्मीय संबंध बनता है। ब्लॉगर अक्सर उन मुद्दों को उठाते हैं जिन्हें मुख्यधारा का मीडिया नजरअंदाज कर देता है या जिन पर गहराई से बात नहीं करता। इनके पास 'आवाजहीन' लोगों की आवाज बनने की क्षमता होती है। लेकिन, इनकी विश्वसनीयता अक्सर सवालों के घेरे में रहती है। तथ्यों की जांच का अभाव, सनसनीखेज हेडलाइन, व्यक्तिगत राय को तथ्य के रूप में प्रस्तुत करना और 'फेक न्यूज़' का प्रसार इनकी बड़ी खामियां हैं। एल्गोरिदम और व्यूज की होड़ में अक्सर गुणवत्ता और नैतिकता पीछे छूट जाती है।
यह विरोधाभास कई आयामों में प्रकट होता है। जहां मेनस्ट्रीम मीडिया खुद को 'लोकतंत्र का चौथा स्तंभ' बताता है, वहीं कई ब्लॉगर उन्हें 'बिकाऊ' या 'पक्षपाती' करार देते हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया अक्सर ब्लॉगरों को 'गैर-जिम्मेदार' और 'अपरिपक्व' बताता है, जो पत्रकारिता के मानकों को नहीं समझते। वहीं, ब्लॉगर मुख्यधारा के मीडिया को 'कुलीन' और 'आम लोगों से कटा हुआ' मानते हैं।
इस टकराव का सबसे बड़ा नुकसान जनता को होता है, क्योंकि वे सही और विश्वसनीय जानकारी के लिए संघर्ष करते हैं। सूचना के इस महासागर में, जहां सच और झूठ का भेद करना मुश्किल हो गया है, जनता को यह तय करना मुश्किल होता है कि किस पर भरोसा किया जाए।
भविष्य में, दोनों के बीच समन्वय और सह-अस्तित्व की आवश्यकता है। मेनस्ट्रीम मीडिया को अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने और जनसरोकार के मुद्दों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। उन्हें दर्शकों की बदलती पसंद और डिजिटल माध्यमों की शक्ति को स्वीकार करना होगा। वहीं, ब्लॉगरों को भी पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों और तथ्यों की जांच के महत्व को समझना होगा। उन्हें केवल सनसनीखेज सामग्री के बजाय विश्वसनीय और गहराई से विश्लेषण वाली सामग्री पर ध्यान देना होगा।
शायद आने वाले समय में, पत्रकारिता का एक नया स्वरूप उभरेगा, जहां पारंपरिक मीडिया की विश्वसनीयता और ब्लॉगरों की पहुंच व तात्कालिकता का एकीकरण होगा। यह तभी संभव है जब दोनों पक्ष एक-दूसरे की भूमिका को स्वीकार करें और बेहतर व अधिक विश्वसनीय पत्रकारिता के लिए मिलकर काम करें। अन्यथा, यह विरोधाभास सिर्फ गैर प्रमाणित सूचनाओं के जाल को और फैलाएगा, जहां सच्चाई ढूंढना और भी मुश्किल हो जाएगा।
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