निशांत-
बीस पच्चीस साल पहले तक प्रेम में पवित्रता थी। इतनी कि अक्सर मैगज़ीन अखबार में मासूम लोगों के पूछे सवाल छपते थे - क्या चूमने से प्रेगनेंसी हो जाती है। लेकिन ये वही दौर था जब "शादी से पहले कुछ नहीं" वाली मासूमियत अपना दम तोड़ने के करीब जा रही थी।
ये वही दौर था जब प्रेम में विरह का मतलब प्रेमी समझ पाते थे। तब बेटियों की शादियां मां बाप ज़िद में जब करा देते तब एक साथ तीन लोगों को दुःख मिलता या चार को भी। बेटी को, उसके पति को, और जो पति न बन सका उसे। और जो पति न बन सका उसकी पत्नी को।
तब लड़कियां बस अपने संस्कारों और परिवार के सम्मान के नाम पर अपने प्रेम का गला घोंट देती थीं। उनके प्रेमी भी उनके और अपने सम्मान में अपने प्रेम का गला घोंट देते।
लेकिन अब ऐसी परिस्थितियों में प्रेम का नहीं, पति का गला घोंटा जा रहा है। ऐसा क्यों?
ऐसा शायद इसलिए क्योंकि तब प्रेम में पवित्रता थी। वो पवित्रता ही थी जो लड़कियों को "बुज़दिल" बनाता था और लड़कों को "नाकाम बर्बाद आशिक" उन्हें कमज़ोर माना जाने लगा। प्रेम में दिलेरी की प्रासंगिकता हमेशा ऐसे किसी नाकाम रिश्ते में सामने आती।
और दिलेरी तब दिखती जब लड़की अपना "सब कुछ" किसी लड़के को दे चुकी होती। क्योंकि तब, लड़की ऐसा तब ही करती जब वो एकदम श्योर होती किसी लड़के के बारे में। और अगर ऐसा कुछ करती, तो फिर अपने प्रेम के लिए आवाज़ उठाती। वो आवाज़ लेकिन बगावत की नहीं होती। वो समझदारी और ईमानदारी की होती। समझदारी और ईमानदारी इस बात की, कि जिससे शादी होगी उसके साथ धोखा नहीं करना है। और जिसके इतने नज़दीक जा चुके हैं, उससे इतनी आसानी से कैसे इतने दूर हो सकते हैं।
लेकिन तब उसी दौर में वेस्टर्न इंफ्लूएंस हम पर बढ़ने लगा क्योंकि केबल टीवी आ गया था, इंटरनेट आ गया था, दुनियाभर की बातें पता चलने लगीं। वेस्टर्न समाज कितना खुला है, ये दिखने लगा। अपने आप को कमतर या कहीं पीछे छूटा हम मानने लगे। इसका असर प्रेम संबंधों पर भी पड़ने लगा।
अब क्योंकि हैं हम संस्कारों वाले समाज से, लेकिन इंफ्लूएंस हो रहे हैं वेस्ट से, तो हमारी समझ और समझदारी का विकास बेतरतीब होने लगा।
संस्कारी लड़कों पर वेस्ट के लड़कों को देख कर अपनी प्रेमिकाओं से अपेक्षाएं बढ़ने लगीं। उन्हें अब प्रेमिका के शरीर के लिए शादी का इंतज़ार करना आउटडेटेड और बेवजह लगने लगा। और संस्कारी लड़कियों में अब "शादी से पहले कुछ नहीं" वाली मासूमियत कहीं सरकने लगी। अब इस सब के बाद उनके मन में आता, "इतना भी क्या हो गया अगर कुछ कर लिया तो" या फिर "अरे उसके साथ रिलेशन में है तो ठीक है न" और या फिर "हम अब बालिग हैं। कंसेंट से कर रहे हैं। समझदार हैं। अपने फैसले ले सकते हैं।"
अब प्रेम में दिलेरी ये नहीं थी कि आप अपने प्रेम और प्रेमी के लिए अपने मां बाप के आगे कुछ साबित करें। अब दिलेरी ये थी कि मां बाप को ख़बर न लगे और प्रेमी/प्रेमिका के साथ शादी से पहले सब कुछ कर लें, बार बार कर लें, जब मौका मिले तब कर लें।
क्योंकि अब, प्रेम में सब करना नॉर्मल होने लगा था। अब संस्कारों और मूल्यों पर वेस्ट का ज्ञान भारी जो होने लगा था। अब "प्रेम है इसलिए किया" का तर्क अपने आप को सही महसूस कराने के लिए दिया जाने लगा। फिर एक कदम और आगे बढ़ के "सेक्स को शादी जोड़ कर क्या देखना" वाले विचार उपजने लगे। फिर बात होने लगी "शादी का आधार तो दोस्ती है।"
अब धीरे धीरे शादी से पहले सेक्स नॉर्मल होने लगा और ऐसे लोग जब शादी करने चले तो उन्हें शादी के बाद कुछ नया मिला ही नहीं। वही दोस्ती मिली जो बिना शादी के भी चल सकती थी। और सेक्स तो पहले ही कर लिया था। अब बस दोस्त के साथ सेक्स कर रहे हैं....जो कि सोचने चलो तो बड़ा अजीब विचार है।
अब नया करें भी तो क्या? घूम फिर लिया, मौज हो गई शुरुआती एक्साइटमेंट वाली, घर की थोड़ी बहुत ज़िम्मेदारी निभा ली, लेकिन रिश्ते में नया क्या है?
दोस्ती में ज़िम्मेदारी कहां से आ गई? और क्यों लें हम ज़िम्मेदारी? आखिर दोस्ती है। तुम अपना काम करो हम अपना करें। मौज मस्ती कर लेंगे जब मौका मिला तब। सही ही सोच है। दोस्त से हम ऐसी अपेक्षाएं तो पालते नहीं। और दोस्त का काम हमें नीतिगत जीवन जीना सिखाना तो है नहीं। उसका काम है हमारे सही गलत में साथ दिखना। तो वो भला क्यों आपको रोकेगा टोकेगा। जो करना है करो। लेकिन शादी तो बंधन होता है। उसमें आज़ादी की उम्मीद? और जहां आज़ादी और कोई ख़ास जवाबदेही नहीं, वहां शादी बचती ही नहीं, बस उसका आभास दिखाया जाता है। क्योंकि अब न निगला जा रहा है न उगला जा रहा है।
ऐसा इसलिए क्योंकि इंसान अपनी फितरत से कहां पलटने वाला। रिश्ता अपने रंग दिखाता ही है। मर्द जब एक दिन अचानक दोस्त से पति की अपेक्षा करती है और मर्द दोस्त से पत्नी बनने की अपेक्षा करता है तो दोस्त को ये अजीब लगता है। क्योंकि शादी का आधार कभी दोस्ती से इतर कुछ ख़ास रहा नहीं। दोस्ताना और दोस्त का फ़र्क़ कभी समझा ही नहीं न समझना चाहा।
तो अब दोनों दोस्तों को ये नया कुछ बर्दाश्त नहीं होना शुरू हुआ। अब ऐसे में शादियों में खटास और दूरियां बढ़ने लगीं और बहुत से मामलों में अलगाव तक होने लगे।
अब इसके ठीक उलट वो लोग जिन्होंने सेक्स को शादी के बाद के लिए रखा था। उन्हें, आइडियल हालात में मोस्टली, दोस्ताना पति या पत्नी मिले। जिनके साथ उन्होंने शादी को सार्थक किया।
ऐसे सब जोड़े खुश भले न रहते हों, लेकिन इस नई वाली कौम से तो ज़्यादा खुश और मानसिक रूप से सॉर्टेड हैं। इनके पास एक दूसरे के करीब होने की सबसे बड़ी वजह सेक्स और उससे उपजा प्रेम था। और ये जो शादी से पहले सब कुछ करने वाली कौम है, उसके पास ऐसी कोई मेजर यूनिफाइंग फोर्स थी ही नहीं जो सेक्स की ताकत का मुकाबला कर पाए।
सेक्स से बड़ा आकर्षण एक आम इंसान के लिए कुछ नहीं। और अगर शादी का आधार वो है ही नहीं, तो शादी कहां से टिकेगी? शादी से पहले ही लड़की अपने कपड़े उतार चुकी हो किसी और के आगे या होने वाले पति के ही आगे, तो शादी की ज़रूरत क्या? क्या सामने वाले का परिवार पालने के लिए शादी की थी? मानो भले न, लेकिन निभाना तो पड़ेगा ही।
और फिर इसमें वो भी आए जिन्हें बच्चे भी नहीं पैदा करने का इरादा था। वो लोग शादी क्यों कर रहे थे ये भी नहीं समझ आता? लेकिन कर ली उन्होंने भी।
सेक्स पहले कर लिया, बच्चे पैदा नहीं करने, लेकिन शादी कर ली। ये हुआ इसलिए क्योंकि अन्ततः संस्कार तो थे ही। घर से प्रेशर था शादी करने का। लेकिन "अवेयरनेस और एक्सपोज़र" ने शादी से पहले ही सब एक्सपीरियंस करा दिया था। ऐसे में अब मां बाप को क्या ही बोलें कि शादी नहीं करनी...बच्चे नहीं पैदा करने...बस मौज करनी है...लाइफ़ एंजॉय करनी है...बिंदास रहना है... सेक्स कर ही लेते हैं।
एक वेस्ट इंस्पायर्ड तबका वो भी है जो समझता है ये बन्दा या बंदी सही है, इसके साथ सेक्स भी किया है, मज़ा आता है इसके साथ, पेरेंट्स मान जाएंगे तो चलो इससे शादी कर लेते हैं। सब खुश। लेकिन ये सब न इधर के न उधर के रहते हैं। वेस्ट की मॉडर्निटी ने समझदारी का बंटा धार कर दिया।
शादी के पहले वेस्ट वाले तरीके से "सब कुछ" कर लिया और अपने घरेलू तरीकों के चलते शादी भी कर ली।
अब शादी तो लॉन्ग टर्म कमिटमेंट होता है। उस वक्त तो दिलेरी दिखा के एक्साइटमेंट में मौके का फ़ायदा उठाते हुए सेक्स कर लिया, एक आकर्षण पाल लिया, लेकिन बाद में शादी के बाद समझ आया कि एक्साइटिंग तो बस शादी के पहले था सेक्स। अब तो इसमें एक्साइटिंग उतना कुछ है ही नहीं और साथ में इतने बंधन अलग से गले पड़ गये।
इसी सब के चलते पिछले दो दशकों में डाइवोर्स और मैरिटल डिस्कोर्ड के मामले बढ़ने लगे। लेकिन अब स्थितियों में और बदलाव आ गया है।
अब शादी के पहले प्रेमी के साथ सब हो रहा है। शादी के बाद पति के साथ भी सब हो रहा है, जिससे पति को शक़ न हो। और अगर पति के साथ सब नहीं हो रहा तो इतना वबाल हो रहा है कि पति खुद ही छोड़ दे। और फिर उसकी आधी संपति ले कर वापस प्रेमी के पास आया जा रहा है या फिर अगर वबाल न हो तो प्रेमी के साथ मिल के मासूम पति को ही मौत के घाट उतारा जा रहा है। इस इरादे से कि बाद में प्रेमी के साथ रहेंगे।
पहले जहां दिलेरी लड़के दिखाते थे, अब लड़कियां क्रिमिनल दिलेरी दिखा रही हैं। इसी सब के मद्देनजर कहता आ रहा हूं कि शादी की प्रासंगिकता घट चुकी है। आने वाले सालों में लगता है शादी होना ही बंद हो जाएगा। या शायद बस एक अनोखा रिश्ता या बोल्ड चॉइस बन के रह जाएगा।
क्योंकि शादी की वजह बची ही कहां? शादी सिर्फ जिम्मेदारी नहीं है। रोमांस और सेक्स शादी का आधार हैं। जब वो ही शादी से पहले होने लगेगा तो शादी किस आधार पर लंबी चलेगी? फ़िलहाल इतना ही।
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