जय माता की , जय गंगा माता की , जय गो माता की , जय भारत माता की
इस नव रात्र पर सबको जय माता की ,
पर हम माता कि कुछ सेवा का निश्चय करे .
अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिये, मन हल्का हो जाएगा...
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दरगाह बाबा बादामशाह, सोमलपुर, अजमेर |
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नोएडा। भारत की राजधानी से सटा उत्तर प्रदेश का नोएडा शहर सूबे में ही नहीं देश में भी अपनी खास पहचान रखता है। वक्त के साथ यहां प्रत्येक आदमी के साथ हर विभाग भी हाईटेक हो गया है। लेकिन पुलिस महकमा शायद सोया हुआ है। लोगों की सहुलियत की लिए पुलिस की एक वेब साईट (www.noidapolice.com) है। वेबसाइट के बैनर पर अंग्रेजी में लिखा हुआ है (always alert & serving people)। उसके बावजूद ये साइट बीते कई महिनों से अपडेट ही नहीं है।
शहर के लोगों, पत्रकारों, वकीलों, समाजसेवकों और आम नागरिकों के लिए पुलिस और शहर से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी के लिए नोएडा पुलिस की एक वेब साइट है, उस पर विभाग के आला अफसरों के मोबाइल नम्बर, शहर के मुख्य अस्पताल, चोरी हुए वाहनों का विवरण , खोए हुए लोगों की जानकारी, अज्ञात शवों की सूचना, ग्राम प्रधानों का विवरण, स्थानीय बैंकों की सूची, स्थानीय इन्सटिट्यूट की सूची, पेट्रोल पम्प, सिनेमा हाल, आरडब्ल्यूए आदि की जानकारी होती है। इतना ही नहीं सन १९९७ से नोएडा पुलिस में तैनात रहे वरिष्ठ पुलिस अधीक्षकों की सूची भी वेवसाइट पर मौजूद रहती है। इसके साथ ही यदि आप पुलिस को कोई सुझाव व फीडबैक देना चाहे तो इसकी भी व्यवस्था वेवसाइट है। आप के घरों और दफ्तरों में काम करने वाले लोगों की वैरिफिकेश के लिए फार्म भी वेबसाइट पर उपलब्ध है। वेवसाइट पर नोएडा के बारे में संक्षिप्त जानकारी, पासपोर्ट सम्बंधी सूचना, सामान्य कानूनी जानकारियां, शस्त्र लाईसेंस आदि का विवरण भी इससे मिल सकता है। यानि कहने को तो वेब साईट पर सभी जरूरी सूचनाएं आपको मिल सकती है। लेकिन वर्तमान में नोएडा पुलिस की वेबसाईट का अपडेट ना होना विभाग की लापरवाही का सबसे बढ़िया नमूना है। आपको बता दें कि उस पर अभी तक नोएडा में तैनात हुए नए एसएसपी प्रवीण कुमार और एसपी सिटी समेत कई बड़े अधिकारियों का विवरण अपडेट नहीं हो सका है। वेबसाईट पर आज भी पुराने एसएसपी ज्योति नारायण की फोटों व विवरण तथा पुराने एसपी सिटी अंनत देव का उल्लेख है।
हैरानी की बात तो तब होती है जब पत्रकारों के लिए मौहय्या कराए जाने वाली रोजाना की सूचना और खबर बीते कई महिनों से अपडेट ही नहीं हुई है। इस कारण कई पत्रकारों को खासी अव्यवस्थाओं का सामना करना पड़ता है। ऐसे में नोएडा पुलिस और उसकी आधुनिकता वाकई सवालों के घेरे में आती है। अब देखना यह होगा कि पुलिस द्वारा जनता और पत्रकारों को मुहैया कराए जाने वाली वेबसाईट कब अपडेट होती है।
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लड़कियों का नूर नासूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
काम आता नहीं, मेल चेक करना तक
कतार में हैं बॉस से अदने चाकर तक
सैलरी उठातीं इन बालाओं का सुरूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
टाइम जो जी में आया आ गईं
लंच हुआ तो पेल-पेल के खा गईं
आंसुओं को कह ही रखा है
लगे तुम्हे जरा भी ठेस चले आना
चश्में से झांकती आंखों का गुरूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
लिपस्टिक्स, लाली, गुलाली, फाउंडेशन
चूड़ी कंगन, बेंदी, वॉव, सरप्राइज में मुंह खुला
शैंपू, साड़ी, चप्पल, रंग, रोगन
परफ्यू सा बातों में घुला
काम कहां, किसे करना है
बॉस टैंपरेरी झूठा ही सही हुजूर बन गया
हर दफ्तरान का दस्तूर बन गया
खैर है सरकारी, जहां यह तो नहीं हैं
मगर स्वेटर न जाने कितनी बुनी हैं
ऊन के भाव बैठ वित्त विभाग में बताएं
डंडे के पीले कलर पर पुलिस में आपत्ति जताएं
लाल कर दो प्यार होगा,
काम होगा, मुजरिमों का दीदार होगा
वुमन हरासमेंट सेल में सुबकना जरूर बन गया
हर दफ्तरान का यह दस्तूर बन गया
- सखाजी
Posted by Barun Sakhajee Shrivastav 0 comments
Posted by ब्रजकिशोर सिंह 0 comments
Labels: हमारे यहाँ सामान्य डेलिवरी की सुविधा नहीं है-ब्रज की दुनिया
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शंकर जालान
पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनपुर जिला का नंदीग्राम इलाके पांच वर्ष पहले भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों द्वारा उठाई गई आवाज के बाद देश ह नहीं दुनिया भर में चर्चा में आया था। यहां पुलिस की गोली से मारे गए १ लोगों की मौत ने राज्य में ३४ सालों से सत्तासीन वाममोर्चा सरकार को अर्श से फर्श पर ला दिया था। राजनीति के पंडितों का कहना है कि नंदीग्राम की घटना के बाद से ही
वाममोर्चा के शासनकाल की उल्टी गिनती शुरू हो गई थी।
भले ही नंदीग्राम की घटना के बाद राज्य में २०११ में हुए पहले विधानसभा चुनाव में सत्ता क चॉबी तृणमूल कांग्रेस को मिल गई। राज्य में सत्ता बदल गई हो, राजनीतिक पार्टियों के इंडे बदल गए हो, लेकिन राज्यभर के विभिन्न जिलों व गांवों की स्थिति जस क तस है। विशेषकर गोलीकांड की घटना के पांच साल नंदीग्राम की जनता खुद को ठगा महसूस कर रही है.
भूमि अधिग्रहण आंदोलन में बढ़-चढ़कर शिरकत करने वालों के साथ-साथ इस घटना में अपने परिवार के सदस्यों को खोने वाले लोगों का कहना है कि उन्हें राज्य की तत्कालीन वाममोर्चा सरकार के खिलाफ इस्तेमाल किया गया था। दरअसल, आंदोलन का पूरा फायदा तो ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस को मिला।
नंदीग्राम के दुखी व गरीब लोगों का कहना है कि हमने अपनी पुस्तौनी जमीन के लिए लड़ाई लड़ी थी, जो जीती ली। इनलोगों ने सवाल उछाला जमीन की लड़ाई जीतने और तृणमूल कांग्रेस को जीताने के बाद भी उन्हें क्या मिला ? नंदीग्राम, सिंगूर व खेजुरी के हिस्से क्या आया ? इन लोगों ने आरोप लगाया कि माकपा समर्थकों ने हमारे घरों में आग लगाई और तृणमूस समर्थकों ने उसमें रोटियां सेंकी।
भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति (बीयूपीसी) के एक सदस्य ने नाम नहीं छापने की शर्त पर शुक्रवार को बताया कि २००७ में जनवरी के पहले सप्ताह में किसानों के हितों के ध्यान में रखते हुए समिति का गठन किया गया था। समिति का काम २००७ में नंदीग्राम व खेजुरी में विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए किसानों की भूमि के अधिग्रहण की अधिसूचना के खिलाफ आवाज बुलंद करना था।
जरा पीछे जाए तो याद आता है कि आंदोलन को कुचलने के लिए तत्कालीन राज्य सरकार की सह पर पुलिस ने किसानों के खिलाफ बल प्रयोग किया, जिसके बाद यह आंदोलन और तीव्र हो गया. माकपा के खिलाफ लोगों में नाराजगी का लाभ सीधे तौर तृणमूल कांग्रेस को मिला और बीते साल हुए विधानसभा चुनाव में वह १९७७ से सत्ता में रहे वाममोर्चा को सत्ता से बेदखल करने में कामयाब रही। तृणमूल को सत्ता संभाले नौ महीने से ज्यादा हो गए है, फिर भी नंदीग्रम की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। इस वजह से स्थानीय लोगों में निराशा है।
नंदीग्राम के एक बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा कि वाममोर्चा को परास्त करने के लिए तृणमूल ने हमारा इस्तेमाल किया। उन्होंने आरोप लगाया कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) और क्षेत्र के विकास के लिए अन्य विकास कार्य आपसी मतभेद के कारण रुके हुए हैं.
समिति के एक वरिष्ठ सदस्य ने आरोप लगाते हुए कहा कि सत्ता में आने के बाद तृणमूल का कोई भी विधायक या मंत्री गोलीकांड पर जान गंवाने वाले लोगों के घर नहीं पहुंचे. क्षेत्र के बहुत से लोग अब भी लापता हैं. उस भयावह घटना को भले पांच साल बीत गए हों, लेकिन नंदीग्राम के लोगों को पांच साल पहले जो घाव वह अभी तक भरा नहीं है।
मालूम हो कि जमीन अधिग्रहण का विरोध करने वाले किसानों पर २००७ में १४ मार्च को पुलिस ने गोलियां दागी थी, जिसमें १४ लोग कभी न खुलने वाली नींद में सो गए थे।
वैसे तो नंदीग्राम के लोग सामान्य जीवन-यापन कर रहे हैं, बस १४ मार्च की घटना का जिक्र करते ही लोगों की आंखें भींग जाती हैं। इन पांच सालों में सत्ता के गलियारों में बहुत कुछ बदला, लेकिन नंदीग्राम में कुछ नहीं बदला। मानो यहां वक्त थम सा गया हो। वहीं बदहाल सड़कें, परिवहन का पुख्ता इंतजाम नहीं इत्यादि कई समस्याएं यहां मुंह बाएं खड़ी हैं। यहां के लोगों का कहना है कि चाहे माकपा हो या तृणमूल। दोनों ने वायदे तो बहुत किए थे, लेकिन उन्हें पूरा करने को नहीं आ रहा है। इस दौरान अगर हमें कुछ समझ में आया है तो वह यह है कि कभी किसी का मोहरा नहीं बनना चाहि्ए।
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Posted by Nitin Sabrangi 0 comments
Posted by Vikram 0 comments
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शंकर जालान
कोलकाता। सरकारी व सरकारी सहायताप्राप्त राज्य के विभिन्न पुस्तकालयों में रखे जाने वाले समाचारपत्रों को लेकर राज्य की मुख्यमंत्री व तृणणूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी सरकार के फरमान को विभिन्न पार्टियां जहां गलत बता रही हैं, वहीं आम लोग भी इस आदेश को सहज रूप से गले नहीं उतार पा रहे हैं। आम लोगों का कहना है कि संभवत: देशभर में ममता बनर्जी पहली ऐसी मुख्यमंत्री या किसी पार्टी की प्रमुख होंगी, जिन्होंने इस तरह का फरमान जारी किया है। लोगों का मत है कि समाचार पत्र को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है और ममता ने अपने फैसले से इस स्तंभ को ध्वस्त करने की कोशिश की है।
इस बारे में वृहत्तर बड़ाबाजार के कई लोगों से पूछा गया तो लगभग सभी लोगों ने इस गैर जरूरी बताया। लोगों ने कहा- ममता बनर्जी की अपनी पसंद हो सकती है वे निजी तौर पर किसी अखबार को पंसद या नापसंद कर सकती हैं, लेकिन पुस्तकालय में रखे जाने वाले अखबारों के बारे में उनका आदेश सरासर गलत है।
सर हरिराम गोयनका स्ट्रीट के रहने वाले साधुराम शर्मा ने बताया कि खर्च में कटौती करने के मसकद से मुख्यमंत्री या राज्य सरकार उन पुस्तकालयों को राय दे सकती है कि सरकार तीन या चार या फिर पांच अखबार का खर्च ही वहन करेगी। जहां तक अखबारों के चयन की बात थी यह अगर पुस्तकालय अध्यक्ष पर छोड़ा जाता तो ज्यादा बेहतर होता।
इसी तरह रवींद्र सरणी के रहने वाले आत्माराम तिवारी ने कहा कि संख्या और भाषा तक तो ममता बनर्जी की हां में हां मिलाई जा सकती है। लेकिन ममता बनर्जी ने हिंदी, बांग्ला और उर्दू के अखबारों के नाम का जिक्र कर लोगों को उनके खिलाफ बोलने का मौका दे दिया है। लोगों ने बताया कि मुख्यमंत्री ने अपने फरमान में हिंदी का एक, उर्दू का दो और बांग्लाभाषा के पांच अखबारों को जिक्र किया है। इससे उनकी मंशा साफ हो जाती है कि वे पुस्तकालय में आने वाले लोगों को वही पढ़ाना चाहती है, जो उनके या उनकी सरकार के पक्ष में हो।
वहीं, पेशे से वकील कुसुम अग्रवाल का कहना है कि आर्थिक तंगी तो एक बहाना है। बात दरअसल पैसे की होती तो ममता पुस्तकालयों में केवल अंग्रेजी अखबार रखने की वकालत करती। क्योंकि हिंदी, बांग्ला और उर्दू की तुलना में अंग्रेजी अखबार सस्ते हैं। मजे की बात यह है कि रद्दी में भी अंग्रेजी अखबार अन्य भाषाओं के अखबार की अपेक्षा अधिक कीमत पर बिकते हैं।
ध्यान रहे कि ममता ने जिन तीन भाषाओं के आठ अखबारों के नाम का उल्लेख किया है, वे कहीं ना कहीं तृणमूल कांग्रेस से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। ममता द्वारा सुझाव गए आठ अखबारों के नामों में से हिंदी, बांग्ला और उर्दू अखबार के प्रमुख को ममता ने ही में पश्चिम बंगाल से राज्यसभा में भेजा है।
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संसार के जंगल में रोज जाती है वो
गठरी मजबूरियों के भर-भर लाती है वो
चूल्हा धधकता तभी है पेट का
चुन-चुन बूंद जिंदगी को बुझाती हो वो
ओहदे, चेहरे, नाम, धर्म सबने कहा
चंद दिनों का और मुफलिसी का जीवन रहा
पर, मगर, सदियां बीत गईं सुनते-सुनते यही
अब तो बात बस उसके नहीं रही
बसें तो नहीं पर बस्तर पहुंचे लक्कड़. लोहा,
मिट्टी, गिट्टी, रेती, पानी, हवा,
पत्ते, पौधे, यहां तक कि जिंदगियों को चोर
मैना, कोयल, कूक, शाल, बीज
दशहरा, सल्फी, शहद, और मसूली भी
छोड़ हटरी उसकी बिक रही देश में चारो ओर
सियासत आती कहने मत रखो फूल पर
दुनियावी नाइंसाफियां भूलकर
रमन, रहनुमा है तुम्हारा
क्या नहीं जानते यह एहसान हमारा
छोड़ दो संस्कृति, संसार, मनाओ खैर कि
कम से कम बची तो है जान...
-सखाजी
Posted by Barun Sakhajee Shrivastav 0 comments
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Posted by Shalini kaushik 0 comments
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