मित्रों, कहते हैं कि दुर्भाग्यवश एक बार किसी बन्दर के हाथ नारियल पड़ गया. बन्दर ने उससे पहले नारियल को न देखा और न सुना था इसलिए जबरदस्त फेरे में पड़ गया. इसका वो करे तो क्या करे? कभी हवा में उछालता तो कभी जमीन पर पटकता तो कभी दाँत से काट खाने की असफल कोशिश करता. इस प्रकार उसने उसकी ऐसी-तैसी करके रख दी.
मित्रों, कुछ ऐसा ही व्यवहार हमारे वित्त मंत्री ने २०१२-१३ के बजट के साथ भी किया है. कुल मिलाकर यह बजट बेकार की कवायद है, अकारण की गयी कसरत है. अगर अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी पड़ रही थी तो उसकी चाल को दुलकी से सरपट करने के लिए कृषि और औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाने का उपाय किया जाना चाहिए था. कृषकों को ज्यादा कर्ज दे देने मात्र से अगर कृषि-उत्पादन को बढ़ना होता तब तो वित्तीय-वर्ष २०११-१२ में भी उसे आकाश छूना चाहिए था न कि गोता खाना. साथ ही वित्त मंत्री मात्र १००० करोड़ रूपये में दूसरी हरित क्रांति देखना चाह रहे हैं. इसे ही तो कहते हैं तेलों न लागे पूड़ियो पाके. इस अद्भुत चेष्टा की तुलना हम पागलखाने से भाग निकले उस पागल की करतूत से कर सकते हैं जो सोंचता है कि १०००-२००० रूपये का नमक डालकर वह पूरी दुनिया की नदियों को खारा कर देगा.
मित्रों, कुछ इसी तरह बजट में डूबते हुए औद्योगिक क्षेत्र को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है उल्टे सेवा कर और उत्पाद कर को बढाकर सिर्फ औद्योगिक क्षेत्र ही नहीं बल्कि सेवा-क्षेत्र की भी राहें मुश्किल कर दी गयी हैं. अब आप भी सोंच सकते हैं कि जब कृषि और औद्योगिक उत्पादन बढेगा नहीं तो सिर्फ लंगड़ाते हुए सेवा-क्षेत्र की बदौलत सरकार और जनता की आमदनी कहाँ से बढ़ेगी और जीडीपी का ग्राफ ऊपर कैसे चढ़ेगा; वो तो नीचे ही जाएगा न? कालेधन पर मौजूदा सत्र में श्वेत-पत्र लाने की बात बजट में जरूर कही गयी हैं लेकिन भ्रष्टाचार और कालेधन को लेकर अबतक सरकार का जो रवैय्या रहा है उसे देखते हुए हमें यह उम्मीद बिलकुल भी नहीं करनी चाहिए कि सरकार इस पत्र में खाताधारकों के नाम उजागर करेगी या फिर उसे देश में वापस लाने का दिखावटी प्रयास भी करेगी. अंत में जब वित्त मंत्री को पूर्वोल्लेखित बन्दर की तरह उत्पादन-वृद्धि और आय-वृद्धि का कोई उपाय नहीं सूझा तो वे शरारत पर उतर आए और उन्होंने महंगाई से पहले से ही बेहाल हो रही जनता को और भी परेशान करने की ठान ली. शायद ५ राज्यों के निराशाजनक चुनाव परिणाम का बदला लेना चाहते हों. इस बजट से महंगाई तो शर्तिया तौर पर बढ़ेगी ही जनता को अपनी फटी जेब में से ज्यादा कर भी अदा करना पड़ेगा. आयकर स्लॉट का पुनर्निर्धारण तो इतनी बेवकूफी से उन्होंने किया है कि देखकर पागल का भी दिमाग चकरा जाए. कम आमदनी वालों को कम राहत और ८ लाख से १० लाख सालाना के बीच कमानेवालों को भारी कर-छूट. वाह-वाह!! आम आदमी की सरकार के वित्त मंत्री ने क्या दिमाग पाया और लगाया है? गरीबों पर महंगाई के कोड़े और अमीरों को सौगात. पहले रेल बजट और अब यह आम बजट;आम जनता तो धन्य हुई जा रही है.
मित्रों, कुल मिलाकर वित्त वर्ष २०१२-१३ में आपको ज्यादा कर तो चुकाना पड़ेगा ही उस पर सरकार यह भी सोंच रही है कि ऐसा होने पर हम यानि आम जनता ज्यादा पैसे बचा पाने की स्थिति में होंगे. शायद इसलिए बचत-खाता में बचत को प्रोत्साहित करने के लिए १०००० रूपये तक के ब्याज को करमुक्त कर दिया गया है. सरकार का मतलब तो आप समझ ही गए होंगे जो ज्यादा-से-ज्यादा मिर्ची खिलाकर जबरन हमें मिठास का अहसास करवाना चाहती है. इस तरह के बजट पेश करने से तो अच्छा था कि बजट पेश ही नहीं किया गया होता. कम-से-कम हमारी जेबों पर बेवजह का बोझ तो नहीं बढ़ता. यहाँ मैंने इसे बेवजह का बोझ इसलिए कहा है क्योंकि हमारी जेबों से जो पैसे सरकार निकालने जा रही है उससे देश की अर्थव्यवस्था में वह कैसे सुधार लाएगी, का विजन बजट में है ही नहीं. बस एक लक्ष्य रख दिया गया है कि हमें ७.६ प्रतिशत की विकास-दर प्राप्त करनी है मगर यह चमत्कार होगा कैसे; का उत्तर दिया ही नहीं गया है. वास्तव में प्रणव मुखर्जी बजट द्वारा बैक गेयर लगाकर देश को आगे ले जाना चाहते हैं और शायद डार्विन के इस सिद्धांत को भी सही साबित करना चाहते हैं कि सारे मानवों की तरह वो भी बंदरों की संतान हैं.
मित्रों, कुछ ऐसा ही व्यवहार हमारे वित्त मंत्री ने २०१२-१३ के बजट के साथ भी किया है. कुल मिलाकर यह बजट बेकार की कवायद है, अकारण की गयी कसरत है. अगर अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी पड़ रही थी तो उसकी चाल को दुलकी से सरपट करने के लिए कृषि और औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाने का उपाय किया जाना चाहिए था. कृषकों को ज्यादा कर्ज दे देने मात्र से अगर कृषि-उत्पादन को बढ़ना होता तब तो वित्तीय-वर्ष २०११-१२ में भी उसे आकाश छूना चाहिए था न कि गोता खाना. साथ ही वित्त मंत्री मात्र १००० करोड़ रूपये में दूसरी हरित क्रांति देखना चाह रहे हैं. इसे ही तो कहते हैं तेलों न लागे पूड़ियो पाके. इस अद्भुत चेष्टा की तुलना हम पागलखाने से भाग निकले उस पागल की करतूत से कर सकते हैं जो सोंचता है कि १०००-२००० रूपये का नमक डालकर वह पूरी दुनिया की नदियों को खारा कर देगा.
मित्रों, कुछ इसी तरह बजट में डूबते हुए औद्योगिक क्षेत्र को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है उल्टे सेवा कर और उत्पाद कर को बढाकर सिर्फ औद्योगिक क्षेत्र ही नहीं बल्कि सेवा-क्षेत्र की भी राहें मुश्किल कर दी गयी हैं. अब आप भी सोंच सकते हैं कि जब कृषि और औद्योगिक उत्पादन बढेगा नहीं तो सिर्फ लंगड़ाते हुए सेवा-क्षेत्र की बदौलत सरकार और जनता की आमदनी कहाँ से बढ़ेगी और जीडीपी का ग्राफ ऊपर कैसे चढ़ेगा; वो तो नीचे ही जाएगा न? कालेधन पर मौजूदा सत्र में श्वेत-पत्र लाने की बात बजट में जरूर कही गयी हैं लेकिन भ्रष्टाचार और कालेधन को लेकर अबतक सरकार का जो रवैय्या रहा है उसे देखते हुए हमें यह उम्मीद बिलकुल भी नहीं करनी चाहिए कि सरकार इस पत्र में खाताधारकों के नाम उजागर करेगी या फिर उसे देश में वापस लाने का दिखावटी प्रयास भी करेगी. अंत में जब वित्त मंत्री को पूर्वोल्लेखित बन्दर की तरह उत्पादन-वृद्धि और आय-वृद्धि का कोई उपाय नहीं सूझा तो वे शरारत पर उतर आए और उन्होंने महंगाई से पहले से ही बेहाल हो रही जनता को और भी परेशान करने की ठान ली. शायद ५ राज्यों के निराशाजनक चुनाव परिणाम का बदला लेना चाहते हों. इस बजट से महंगाई तो शर्तिया तौर पर बढ़ेगी ही जनता को अपनी फटी जेब में से ज्यादा कर भी अदा करना पड़ेगा. आयकर स्लॉट का पुनर्निर्धारण तो इतनी बेवकूफी से उन्होंने किया है कि देखकर पागल का भी दिमाग चकरा जाए. कम आमदनी वालों को कम राहत और ८ लाख से १० लाख सालाना के बीच कमानेवालों को भारी कर-छूट. वाह-वाह!! आम आदमी की सरकार के वित्त मंत्री ने क्या दिमाग पाया और लगाया है? गरीबों पर महंगाई के कोड़े और अमीरों को सौगात. पहले रेल बजट और अब यह आम बजट;आम जनता तो धन्य हुई जा रही है.
मित्रों, कुल मिलाकर वित्त वर्ष २०१२-१३ में आपको ज्यादा कर तो चुकाना पड़ेगा ही उस पर सरकार यह भी सोंच रही है कि ऐसा होने पर हम यानि आम जनता ज्यादा पैसे बचा पाने की स्थिति में होंगे. शायद इसलिए बचत-खाता में बचत को प्रोत्साहित करने के लिए १०००० रूपये तक के ब्याज को करमुक्त कर दिया गया है. सरकार का मतलब तो आप समझ ही गए होंगे जो ज्यादा-से-ज्यादा मिर्ची खिलाकर जबरन हमें मिठास का अहसास करवाना चाहती है. इस तरह के बजट पेश करने से तो अच्छा था कि बजट पेश ही नहीं किया गया होता. कम-से-कम हमारी जेबों पर बेवजह का बोझ तो नहीं बढ़ता. यहाँ मैंने इसे बेवजह का बोझ इसलिए कहा है क्योंकि हमारी जेबों से जो पैसे सरकार निकालने जा रही है उससे देश की अर्थव्यवस्था में वह कैसे सुधार लाएगी, का विजन बजट में है ही नहीं. बस एक लक्ष्य रख दिया गया है कि हमें ७.६ प्रतिशत की विकास-दर प्राप्त करनी है मगर यह चमत्कार होगा कैसे; का उत्तर दिया ही नहीं गया है. वास्तव में प्रणव मुखर्जी बजट द्वारा बैक गेयर लगाकर देश को आगे ले जाना चाहते हैं और शायद डार्विन के इस सिद्धांत को भी सही साबित करना चाहते हैं कि सारे मानवों की तरह वो भी बंदरों की संतान हैं.
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