मित्रों, कुछ लोगों की आदत होती है कि करते बहुत कम हैं लेकिन ढोल बहुत ज्यादा का पीटते हैं और कुछ इसी तरह की आदत से ग्रस्त हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. उनके शासनकाल में कुछ क्षेत्रों में सुधार हुआ तो है लेकिन उम्मीद से बहुत कम जबकि कुछ क्षेत्र ऐसे भी रहे हैं जिनमें धनात्मक की बजाए ऋणात्मक प्रगति हुई है और दुर्भाग्यवश इनमें सबसे अव्वल है शिक्षा जो सही मायने में आदमी को इन्सान बनाती है. यही वह सबसे बड़ी बेचारी है जिसे सुशासन के दिमाग में चल रहे केमिकल लोचे का दुष्परिणाम सबसे ज्यादा भुगतना पड़ा है.
मित्रों, सबसे पहले तो सत्ता में आते-आते नीतीश जी ने स्व. परम आदरणीय तत्कालीन शिक्षा सचिव मदनमोहन झा के मार्गदर्शन में शिक्षामित्रों की अत्यंत मूर्खतापूर्ण तरीके से बहाली की. बहाली सही थी परन्तु बहाली का तरीका निहायत गलत था और गलत थी और है भी शिक्षामित्रों के प्रति सरकार की नीति. सबसे पहली गलती तो थी शिक्षामित्रों के मानदेय का बहुत कम रखा जाना जो २००६ में आश्चर्यजनक तरीके से मात्र १५०० रूपया था. अभी भी यह महंगाई के हिसाब से बहुत कम ५-७ हजार रूपया है. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मेधावी छात्रों ने बहुत कम संख्या में इन नौकरियों के लिए अपनी अभिरूचि दिखाई और अगर अभिरुचि दिखाई भी तो बहाली की गलत और दोषपूर्ण प्रकिया ने उन्हें बहाल होने ही नहीं दिया. दरअसल इस सरकार की आदत है कि वो जो कुछ भी करती है बड़े पैमाने पर करती है इसलिए वह शिक्षामित्रों की बहाली में सिर्फ नीतिगत गलतियाँ करके ही नहीं रुकी और उसने प्रक्रियागत भूलें भी कीं. उसने शिक्षामित्रों को बहाल करने की महती जिम्मेदारी से पूरी तरह अपना पल्ला झाड़ते हुए यह भार पंचायतों के भ्रष्ट कन्धों पर डाल दिया. फिर तो जमकर पैसा बनाया गया और अपने नालायक भाइयों-भतीजों की जिंदगियां बड़े ही करीने से संवारी गयी. जिसका परिणाम वही हुआ जो किसी भी स्थिति में नहीं होना चाहिए था. ऐसे-ऐसे शिक्षक बहाल हो गए जिन्हें गिनती तक नहीं आती थी. वैसे भी ५-६ हजार रूपयों में विश्वविद्यालय टॉपर तो मिलने से रहे. बाद में एक सांकेतिक योग्यता परीक्षा लेकर इस ढीठ सरकार ने अपनी गलतियों को सही साबित करने का असफल प्रयास भी किया.
मित्रों, नीतीश जी की शिक्षा-सम्बन्धी तथाकथित गौरव गाथा का अगला काला अध्याय है विद्यालयों का उत्क्रमण. दरअसल १५ साल के लालू-राबड़ी राज में सरकार ने लगातार तेज गति से बढती छात्र-छात्रों की संख्या को ध्यान में रखते हुए न तो नए विद्यालय-भवनों का निर्माण कराया और न ही यथोचित संख्या में नए शिक्षकों की बहाली ही की. नीतीश-सरकार ने भी पूरे मन से कदम नहीं उठाते हुए बहुत-से प्राइमरी स्कूलों को मध्य विद्यालयों में, मध्य विद्यालयों को उच्च विद्यालयों में और उच्च विद्यालयों को उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में उत्क्रमित कर दिया. इन उत्क्रमित विद्यालयों में नए कमरे तो बना दिए गए परन्तु नई कक्षाओं को पढ़ाने योग्य शिक्षकों की बहाली नहीं की गयी. अब समस्या यह है कि पुराने शिक्षक इतने योग्य नहीं हैं कि वे पहले से उच्चतर कक्षाओं को पढ़ा सकें. सबसे ज्यादा परेशानी हो रही है उत्क्रमित उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में. वहां तो कक्षा-सञ्चालन पूरी तरह से ठप्प ही हो गया है और विद्यार्थी कोचिंग शरणं गच्छामि के लिए बाध्य हैं. दरअसल नीतीश जी की पतली अक्ल में यह बात समा ही नहीं रही है कि बच्चों की पढाई और साइकिल में सीधा सम्बन्ध नहीं है बल्कि पढाई का सीधा सम्बन्ध है शिक्षकों से और उनकी योग्यता से. उच्च विद्यालयों में शिक्षक बहाली की प्रक्तिया तो हालाँकि ठीक थी लेकिन ७-८ हजार रू. में इस महंगाई में काम करेगा भी तो कौन मेधावी छात्र? फलतः यहाँ भी ज्यादातर अयोग्य शिक्षक ही बहाल हो गए हैं.मित्रों, केंद्र सरकार ने शिक्षा का अधिकार कागजों पर तो प्रदान कर दिया है परन्तु बिहार के विद्यालयों में अभी भी कमरों और शिक्षकों की भारी कमी है और कमी है बिहार सरकार में ईच्छा-शक्ति की भी. ऐसे में यह कानून शायद ही कभी सही मायनों में राज्य में लागू होने पाए. राज्य में सरकार महादलितों के बीच रेडियो तो बाँट रही है लेकिन राज्य के अम्बेडकर विद्यालयों और छात्रावासों को रामभरोसे छोड़ दिया गया है. प्रतिवर्ष इन पर करीब एक अरब रूपये खर्च किए जाते हैं लेकिन इनमें रहनेवाले दलित-महादलित बच्चों की थालियों में आता है ऐसा भोजन जो शायद जानवर भी नहीं खाना पसंद करेंगे और इसके साथ ही उन्हें बिना शौचालय और स्नानघर की मूलभूत सुविधा के जीवन बिताना पड़ रहा है. वे चाहते तो नहीं फिर भी वे सरकारी उदासीनता के चलते खुले में शौच करने और स्नान करने के लिए अभिशप्त हैं.
मित्रों, राज्य के विश्वविद्यालयों में; जो बिहार सरकार के पूर्ण नियंत्रण में नहीं हैं, में भी हालात अच्छे नहीं हैं. महामहिम कुलाधिपति यानि राज्यपाल कथित रूप से पैसे लेकर कुलपतियों की नियुक्ति कर रहे हैं. कई कुलपति तो अपराधी भी है और उन पर आपराधिक मामले भी चल रहे हैं. पैसा देकर कुलपति बने कुलपति जी पैसे लेकर बिना जमीन, बिना भवन और बिना शिक्षक वाले महाविद्यालयों को भी धड़ल्ले से संबंधन प्रदान कर रहे हैं. इस मामले में हमारा विश्वविद्यालय यानि बाबा साहेब भीमराव अम्बेदकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर खासी तत्परता प्रदर्शित कर रहा है. परन्तु ऐसा भी नहीं है कि विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में शिक्षा का बंटाधार करने जैसा महान कार्य सिर्फ राज्य के बूते ही सम्पन्न हुआ है वरन बिहार सरकार ने भी इस महायज्ञ में अपने हिस्से की जिम्मेदारी बखूबी निभाई है. बिहार सरकार ने गैर मान्यताप्राप्त महाविद्यालयों को मानदेय देना शुरू किया है जो एक स्वागतयोग्य कदम है परन्तु उसने साथ-ही-साथ मानदेय को परीक्षा-परिणामों से भी जोड़ दिया है. जिसका परिणाम यह हुआ है कि महाविद्यालय अब पढाई का स्तर ऊँचा उठाने के बदले येन-केन-प्रकारेण परिणाम को ऊँचा उठाने में लगे रहते हैं. इसके लिए पहले परीक्षा-सञ्चालन में जान-बूझकर कदाचार किया-करवाया जाता है और फिर मूल्यांकन-केन्द्रों पर जाकर पैसा देकर रिजल्ट को जबरन उत्तम कोटि का करवाया जाता है. इतना ही नहीं नीतीश सरकार ने, जबसे वह सत्ता में आई है एक भी स्थाई शिक्षक की न तो विश्वविद्यालयों में और न ही महाविद्यालयों में ही बहाली की है. पुराने शिक्षकों के रिटायर होते जाने से शिक्षकों की विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में इतनी कमी हो गयी है कि कई विभाग तो पूरी तरह से शिक्षक-विहीन ही हो गए हैं. बीच में इनकी नियुक्ति के लिए विश्वविद्यालयों की ओर से विज्ञापन भी दिया गया जिसमें शिक्षकों को अधिकतम १२००० रूपये मासिक मानदेय या हथउठाई देने की महान दुस्साहसिक घोषणा की गयी. भारी विरोध होने पर और इस लेखक द्वारा पढोगे लिखोगे बनोगे ख़राब लेख लिखने के बाद विज्ञापनों को वापस ले लिया गया और कहा गया कि अब बहाली पुराने तरीके से विश्वविद्यालय सेवा आयोग की पुनर्स्थापना के बाद उसके द्वारा ही की जाएगी. देखते-देखते दो साल बीत गए मगर उक्त आयोग का पुनर्गठन सरकार को नहीं करना था सो नहीं किया गया. अब फिर से जनता की कमजोर याददाश्त पर अटूट विश्वास करते हुए विश्वविद्यालयों को बहाली अपने स्तर से करने का अधिकार दे दिया गया है. शायद फिर से मानदेय अधिकतम १२००० रूपया ही रहेगा. अब आप ही बताईए कि क्या एमए, पीएचडी की डिग्री प्राप्त करने और नेट/सेट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद कौन मेधावी चाहेगा १२००० रूपये पर बेगार करना? यानि एक बार फिर शिक्षा के इस हिस्से का भी अयोग्य शिक्षकों के हाथों में जाना निश्चित है. साथ ही बहाली में भ्रष्टाचार भी जमकर हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
मित्रों, इस प्रकार हमने देखा और पाया कि नीतीश सरकार जो प्रतिवर्ष लाखों विद्यार्थियों की परीक्षा लेकर उत्तीर्णता का प्रमाण-पत्र देती है खुद ही शिक्षा-व्यवस्था और शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के मोर्चे पर साल-दर-साल फेल हो रही है. मामले का सबसे निराशाजनक पहलू तो यह है कि आगे इस सरकार की यह मंशा भी नहीं दिख रही है कि बिहार में शिक्षा की स्थिति में सुधार हो और वह आईसीयू से बाहर आकर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करे.
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