डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह, सिलीगुड़ी
34 वर्ष की राजनैतिक संस्कृति को बदलना सिर्फ कठिन ही नहीं बल्कि चुनौतीपूर्ण भी है। इसका जीवंत मिसाल है पश्चिम बंगाल की तृणमूली सरकार। अभी इस सरकार को सत्ता पर काबिज हुए पूरे एक साल भी नहीं हुए लेकिन इस दौरान सुश्री ममता बनर्जी के सामने कई सवाल उठ खड़े हो गये हैं। जाहिर है नई सरकार के लिए यह अगिÝ परीक्षा की घड़ी है। परिवर्तन की लहर पर सवार होकर कर आयी इस नयी सरकार से आम-अवाम को काफी उम्मीदें थी। लोगों ने सोचा था कि राज्य में व्या’ अराजकता का अवसान होगा। शिक्षा व स्वास्थ्य के क्ष्ोत्र में बुनियादी सुधार होगा। कानून-व्यवस्था की स्थति बेहतर होगी। हिंसा-प्रतिहिंसा व घात-प्रतिघात का दौर थमेगा। विकास के नये द्बार खुलेंगे। कला, साहित्य- संस्कृति व अभिव्यक्ति सरकारी नियंत्रण से मुक्त होंगे। कानून का राज होगा। अपराधी कानून से डरेंगे। गणतांत्रिक परिवेश में लोग खुलकर सांस ले सकेंगे। लेकिन ये सारी चीजें आज बेमानी साबित होती नज़र आ रही हैं। बेहतरी की जो उम्मीदें लोगों ने की थीं अब उन्हें निराश करने लगी हैं। दरअसल सुशासन व विकास का नारा देने वाली पश्चिम बंग सरकार के लिए यह चिंता का सबब होना चाहिए।
28 फरवरी को वामपंथी ट्रेड यूनियनों और दलों द्बारा बुलाए गए 24 घंटा बंद के दौरान मुख्यमंत्री के भतीजे आकाश बनर्जी (21) समेत उनके अन्य तीन साथी भी ड्यूटी पर तैनात विद्यासागर सेतु ट्रैफिक गार्ड के प्रभारी अधिकारी सुबीर घोष व अन्य दो पुलिस कर्मियों को अपमानित किए जाने के मामले में गिरफ्तार किए गए। लेकिन चूंकि यह मामला मुख्यमंत्री के भतीजे को लेकर था इसलिए पुलिस प्रशासन नरम पड़ गया और आरोपियों को छोड़ दिया गया। लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। इतना गंभीर आरोप अगली सुबह ही मीडिया की सुर्खी बन गई। नई सरकार से स्वाभाविक तौर पर यह सवाल किया जाने लगा कि क्या मुख्यमंत्री का भतीजा होना इस बात की छूट देता है कि वह सरेआम कानून का उल्लंघन करे और किसी भी प्रशासनिक व्यक्ति पर अपना गुस्सा उतार दे। कानून का शासन इसकी इजाजत नहीं देता। फिर हमारा लोकतंत्र तो सिर्फ 62 वर्ष का किशोर है। उसे तो आहिस्ते-आहिस्ते ही कानून के पालन की आदत पड़ेगी। यह दीगर बात है कि मीडिया तक बात पहुंचते ही मुख्यमंत्री ने इस 'अपराध’ को संज्ञेय माना और उन्होंने तत्काल ही तीनों अभियुक्तों को गिरफ्तार करने के आदेश दे दिए। नवीनतम घटना क्रम के अनुसार आकाश बनर्जी को अपने दो साथियों के साथ पुलिस लॉक अप में एक रात गुजारने के बाद एक और रात जेल की सलाखों के पीछे गुजारना पड़ा। यह नहीं है कि गैर संवधानिक सत्ता केंद्र (Extra- Constitutional power center) द्बारा बंगाल में पहली बार कानून को ऐसी खुली चुनौती मिली हो। ऐसे कई वाकया इसके पहले भी हो चुके हैं। पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भSाचार्य की सुपुत्री सुचेतना भSाचार्य और उनकी सहेलियों को पिकनिक में ले जा रही मैटाडोर बैन को ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन को ले टैàफिक सार्जेन्ट ने जब रोका तो उसे मुख्यमंत्री के रुतबे की घौंस दी गई। उसके साथ बदसलूकी की गयी। इसके बावजूद उसने नियमों के तहत मैटाडोर वाहन जब्त कर लिए। ट्रैफिक सार्जेन्ट का बाद में तबादला नाफ़रमानी के बदले श्याम बाजार टैàफिक गार्ड में कर दिया गया। इसलिए वाममोर्चा या खुद माकपा के लिए आकाश बनर्जी की घटना को तूल देने का कोई औचित्य नहीं लगता। उस रोज इस घटना को ले सत्ता पक्ष के किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति ने न्याय के पक्ष में कुछ नहीं कहा। जाहिर है ऐसी घटनाएं लोकतंत्र के लिए शर्मनाक हैं। साथ ही देश के कानून के प्रति सम्मान रखने वाले लोगों के लिए चिंता का कारण भी। ममता बनर्जी की सरकार कठिन चुनौतियों की अगिÝपरीक्षा के दौर से गुजर रही है। अगर सरकार इससे उबर जाती है तो निसंदेह यह पश्चिम बंग के निवासियों और भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ होगा। सरकार में बैठे तमाम मंत्री व नेताओं को यह बात ध्यान में रखनी होगी कि जनता और प्रदेश के बुद्धिजीवी अगिÝपरीक्षा की इस घड़ी को पैनी नज़र से देख रहे हैं। हमें याद है कि सत्ता संभालते ही ममता ने अपने दलीय नेताओं और समर्थकों से कहा था कि उन्हें सतर्क होकर काम करना होगा, चूंकि जनता हमारे एक-एक व्यवहार को जांच-परख रही है। यह हो भी क्यों नहीं। कहावत भी है, कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। 34 वर्ष के वाममोर्चा ने बंगाल की धरती में कुछ अच्छे कार्य भी किये। लेकिन इस दौरान सत्ता पक्ष ने अनेक घिनौने कार्य भी किये, अन्याय-अत्याचार व उत्पीड़न का वीभत्स तांडव बंगाल ने देखा है। उससे जनता ने सबक लिया और अब सरकार में बैठे हुक्मरानों के सबक लेने की बारी है। सत्ता किसी के हाथ की स्थाई बपौती नहीं होती। सत्ता का दंभ जब सिर पर चढ़कर बोलने लगे तो समझ लेना चाहिए कि उसका अंत बहुत नजदीक है। इसे हाथ बदलते देर नहीं लगती। उत्तर प्रदेश में बसपा की हार व राहुल गांधी का जादू नहीं चलना इसका मिसाल है। समय की करवट कब अपना रंग दिखा जाए कोई नहीं जानता। इस लिए यह ज़रूरी है कि कानून का शासन हर जगह दिखना चाहिए। प्रदेश के कालेजों व विश्वविद्यालयों की स्थिति भी कम चिंताजनक नहीं है। विद्या के जिन मंदिरों से प्रदेश की युवा शक्ति को तप-निखर कर बाहर आना चाहिए वहां पहले की तुलना में हालात खराब ही हुए हैं। पहले अगर शिक्षा व्यवस्था पर दलतंत्र का निरंकुश दबदबा था तो उसकी जगह बर्बर हिंसा और तोड़फोड़ ने ले ली है। शिक्षकों पर विद्यार्थी शारीरिक प्रताड़ना कर आखिर कैसी मानसिकता का परिचय दे रहे हैं? इस राजनैतिक अराजकता के भयानक खतरे को उनके राजनैतिक आकाओं को भी बखूबी समझनी चाहिए कि जिस आग से वह सत्ता के नश्ो में ख्ोल रहे हैं, वह उनके हाथ को भी जला सकती है। शिक्षा और स्वास्थ्य को दलतंत्र के शिकंजे से मुक्त करने की मुहिम लगता है ठंडा पड़ गया है। उसकी जगह ले रही है सत्ता में येन-केन-प्रकारेण बने रहने की जोड-तोड़ की प्रवृत्ति जो सिर्फ बंगाल के लोकतंत्र के लिए ही नहीं पूरे देश के लिए घातक है। शासन-प्रशासन को यह तहजèीब होनी चाहिए। शिक्षण संस्थाओं में राजनीतिक दलों की दखलंदाजी कमनी चाहिए। जाहिर यह काम सिर्फ शासन-प्रशासन से ही होने वाला नहीं है। इसके लिए समाज को आगे आना होगा। बेहतर होता कि सरकार उच्च शिक्षण संस्थाओं में चुनाव प्रक्रिया के सवाल पर बुद्धिजीवियों व समाज शुभचिंतकों से राय-विचार कर सार्थक प्रयास की शुरूआत करे। हर हाल में विद्या के मंदिर को अतिरिक्त राजनैतिक दखलंदाजी व सत्ता-संघर्ष से बचाया जाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो विकास की यात्रा बीच में ही अटक सकती है।
हाल के दिनों में मुख्यमंत्री की बेदाग छवि भी कुछ धूमिल हुई है। एक तो अपने परिजनों व करीबी लोगों के असंतुलित आचरण की वजह से तो दूसरे दुष्कर्म के कुछ मामलों को लेकर ममता बनर्जी का जल्दबाजी में बिना विचारे दिए गए बयान से इनका व्यक्तित्व हल्का हुआ है। कानून के शासन का मतलब है कि कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितना ही प्रभावशाली क्यों न हो कानून से ऊपर नहीं है। फिर पार्क स्ट्रीट में चलते वाहन में महिला के साथ दुष्कर्म मामले में मुख्यमंत्री ने हड़बड़ी में बयान दे डाला कि उस आरोप के पीछे माकपाईयों की साजिश है, उनकी सरकार को बदनाम करने की। आखिर में पुलिस की उच्च स्तरीय जांच में आरोप की पुष्टि हुई और आरोपी गिरफ्तार किए गए। उसी तरह उन्होंने ट्रेन डकैती के क्रम में हुए दुष्कर्म को भी साजिश करार देकर पल्ला झाड़ने की कोशिश कीं जिससे आम जनता में उनके प्रति गलत संदेश गया। भावुकतावश, हड़बड़ी में कोई बयान देना किसी भी पदाधिकारी व जिम्मेवार व्यक्ति के लिए उचित नहीं है। मुख्यमंत्री को तो और भी संयत व विवेकशील होना चाहिए।
नई सरकार को विकास व लोकतंत्र के बीच एक संतुलन बनाकर चलना होगा। कानून की मर्यादा हर हाल में बनी रहनी चाहिए। हालांकि इस काम में कांग्रेसी संस्कृति भी एक बड़ा अवरोध है। राज्य के लिए विकास और लोकतंत्र ये दोनों ही चीजें ज़रूरी हैं। सत्ता के प्रति आवश्यकता से अधिक संवेदनशील व आसक्त होना किसी भी राजनेता के लिए उचित नहीं है। हां, पश्चिम बंगाल की जम्हूरियत पसंद अवाम के सामने एक और बड़ा सवाल है, क्या वह फिरकापरस्त ताकतों के आगे घुटने टेकता रहेगा या कभी उद्बेलित भी होगा। पिछले वाम शासन के दौरान मुख्यमंत्री रहे बुद्धदेव भSाचार्य ने तसलीमा नसरीन की 'द्बिखंडिता’ पर प्रतिबंध लगाकर अपनी धर्मनिरपेक्षता की चादर को कलंकित किया और वही काम 'निर्वासन’ पर प्रतिबंध लगाकर ममता बनर्जी ने भी किया। दोनों ही फिरकापरस्त ताकतों व इस्लामी कSरता के आगे अपने घूटने टेके। हमें रंज तो इस बात का है कि बाजार में खुलेआम बिकने वाली सेक्स पत्रिकाओं पर उन्होंने प्रतिबंध नहीं लगाये। शासन-प्रशासन की मजबूरी हमारी मजबूरी क्यों बने?... यह बात राज्य की जनता को सोचनी होगी।
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