हॉकी -'हिंदी'' पीती अपमान का गरल !
एक दिन हॉकी मिली ;
क्षुब्ध थी ,उसे रोष था,
नयन थे अश्रु भरे
मन में बड़ा आक्रोश था .
अपमान की व्यथा-कथा
संक्षेप में उसने कही ;
धिक्कार !भारतवासियों पर
उसने कही सब अनकही .
पहले तो मुझको बनाया
देश का सिरमौर खेल ;
फिर दिया गुमनामियों के
गर्त में मुझको धकेल .
सोने से झोली भरी
वो मेरा ही दौर था ,
ध्यानचंद से जादूगर थे
मेरा रुतबा और था .
कहकर रुकी तो कंधे पर
मैं हाथ रख बोली
सुनो अब बात मेरी
हो न यूँ दुखी भोली .
अरे क्यों रो रही है अपनी दुर्दशा पर ?
कर इसे सहन
मेरी तरह ही पीती रह
अपमान का गरल
मैं ''हिंदी'' हूँ बहन !
मैं'' हिंदी '' हूँ बहन !!
शिखा कौशिक
[हॉकी -हमारा राष्ट्रीय खेल ]
1 comment:
sach kaha aapne yahi vyatha hai .bahut sundar prastuti.badhai.ये वंशवाद नहीं है क्या?
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