Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

14.3.25

अखबारों की बढ़ती भूल, कीमत नहीं हो रही वसूल

इन दिनों समाचार पत्र मेरी हिंदी के साथ अजीबो-गरीब प्रयोग कर रहे हैं, मानो भाषा को किसी प्रयोगशाला में डालकर नई परिभाषाएँ गढ़ी जा रही हों। आज दैनिक जनवाणी में एक खबर का शीर्षक पढ़ा—"एक नेता और उसके 'बेट' पर मुकदमा दर्ज।" 


यह पढ़कर भ्रम हुआ कि हिंदी भाषा ने कोई नया मोड़ ले लिया है या फिर संपादन विभाग ने भाषा को स्वतःस्फूर्त प्रवाह में छोड़ दिया है।

इतिहास में यह शायद पहली बार हुआ होगा कि किसी निर्जीव वस्तु पर भी मुकदमा दर्ज हो गया। अब तक अपराधी मनुष्य होते थे, लेकिन इस नई पत्रकारिता ने बेजान चीजों को भी अदालत के कटघरे तक पहुँचा दिया है। इस नवीन प्रयोग को देखकर ऐसा लग रहा है कि आने वाले दिनों में ईंट, पत्थर और बिजली के खंभे भी अभियुक्तों की सूची में शामिल कर लिए जाएंगे। 

शायद यही कारण है कि आज की युवा पीढ़ी अखबारों और पत्रिकाओं से दूर भाग रही है और सोशल मीडिया को अधिक भरोसेमंद मान रही है। कम से कम वहाँ पोस्ट लिखने वाले लोग अपनी भाषा और तथ्यों को लेकर अधिक सतर्क रहते हैं। दुर्भाग्यवश, अखबारों की बढ़ती अशुद्धियाँ उनके घटते पाठक वर्ग का सबसे बड़ा कारण बनती जा रही हैं।

जो अखबार कभी भाषा, विचार और अभिव्यक्ति की शुद्धता के पर्याय थे, वे अब स्वयं सुधार के मोहताज हो गए हैं। इन दिनों अखबारों में बढ़ती गलतियाँ उनके दाम से भी अधिक भारी पड़ रही हैं—पाठक मूल्य चुका रहे हैं, लेकिन बदले में भाषा की त्रुटियों का बोझ उठाना पड़ रहा है। 

भड़ास को भेजे गए मेल पर आधारित

No comments: