अखबारों में छपने के लिए तेल लगाने पड़ते हैं, मुझे पता है। लेकिन जनसत्ता के बारे में मेरी राय कुछ अलग रही थी। मेरे सारे मास्टर साहब लोग उसी में छपते हैं और सारे के सारे लगभग प्रगतिशील हैं, सो मैंने सोचा कि वो तो तेल लगाते नहीं होगें। यही सब सोचकर मैंने भी एक लेख भेजने की गलती कर दी। लेकिन लेक भेजते समय मैं ये भूल गया कि मैं एक पाठक की हैसियत से लिख रहा हूं जबकि मास्टरजी स्थापित लोग हैं। और अपने इस हैसियत के हिसाब से जनसत्ता की ओर से जो जबाब मिला, जरा उस पर गौर -
नामवर सिंह से मुझे भी दिक्कत है कि अकेले उस आदमी ने नरक मचा रखा है तो क्या उसकी हत्या कर दें। क्यों छपना चाहते हैं और क्यों लिखना चाहते हैं उसके विरोध में। आपके अकेले लिखने से क्या बिगड़ जाएगा नामवर सिंह का। अगर वाकई आप चाहते हैं कि नामवर सिंह न बोलें तो आप सा-आठ लोगों को जुटाइए और उसके खिलाफ मोर्चा खोल दीजिए कि अब आगे से इसे बुलाना ही नहीं है और तब हम भी आपका साथ देंगे।( सूर्यनाथ त्रिपाठी, जनसत्ता की सलाह)
ये सलाह तो उस आदमी ने तब दी जब उसकी बात सुनने के बाद मेरे मन में अजीब ढ़ंग की बेचैनी हो गयी थी और मैंने दुबारा फोन करके कहा कि- आप छापें अथवा न छापें लेकिन मेरी बात सुनिए और मुझे बहुत अफसोस है कि जनसत्ता अखबार के लिए काम करने वाले शख्स से यह सब सुन रहा हूं। इसके पहले कि कहानी कुछ और ही
२४ जनवरी को मैंने नामवर सिंह से असहमति का आलेख जिसे कि मैंने अपने ब्लॉग पर भी पोस्ट किया था, नामवर सिंह से घोर असहमति को प्रिंट के लिहाज से थोड़ा और दुरुस्त करके जनसत्ता के लि फैक्स कर दिया। फैक्स करने के बाद फोन किया श्रीश चंद्र मिश्र को, उन्होंने कहा कि लाइन पर रहे मैं देख कर बता रहा हूं। करीब साढ़े चार मिनट तक लाइन पर रहा। देखकर बताया कि आ तो गया है लेकिन तीसरा पेज साफ नहीं है आप एक बार फिर फैक्स कर दें। मैंने फिर फैक्स किया। फिर फोन करके बताया कि फैक्स कर दिया तो उन्होंने कहा ठीक है।एक दिन बाद मैंने फोन करके पूछा कि सर इसका स्टेटस पता करने के लिए क्या करना होगा। उन्होंने नंबर दिया जिस पर फोन करने पर दुबारा जबाब मिला कि प्रिंट साफ नहीं है आप ऐसा करें कि कूरियर कर दें। मैंने उसे फिर कूरियर किया। ऑफिस में बताया कि आपको जिन्होंने कूरियर करने कहा था वो शायद अरविंद रहे होंगे। कल मैंने फिर फोन किया कि सर मैंने एक लेख भेजी थी।
अबकि दूसरे व्यक्ति थे सूर्यनाथ त्रिपाठी, उन्होने कहा अभी तक तो मिला नहीं, चलिए देखता हूं। चार घंटे बाद फिर फोन किया तो बताया कि अभी-अभी आया है। लेकिन ये छपने लायक नहीं है. मैंने पूछा क्यों. तो उनका जबाब कुछ इस तरह से था-आपने नामवर सिंह पर पर्सनल अटैक किया है। ऐसा हम नहीं छापते। आपने देखा है जनसत्ता में कभी इस तरह का छापते हुए। आपने इसे दुनिया मेरे आगे नाम से दिया है, इसमे तो कभी ऐसा लेख गया ही नहीं। मैंने कहा सर कोई बात नहीं, हमने तो लेख दिया आप देख लीजिए। उन्होंने साफ कहा कि छपेगा तो नहीं लेकिन रख लेता हूं। ये तो सीधे-सीधे किसी के उपर पर्सनली अटैक करना हुआ। मैंने उनसे बात करने की कोशिश की- सर मैं पाठक हूं, नामवर सिंह का श्रोता, मुझे उनके रवैये से असहमति हुई सो लिख दिया और मैं कोई पहली बार तो लिक नहीं रहा इस तरह से.
करीब सात साल से जनसत्ता पढ़ता आ रहा हूं और शान समझता रहा कि जनसत्ता पढ़ता हूं। ये तो भ्रम तब टूटी जब चैनलों और मीडिया हाउस के इंटरव्यू में पूछे जाने पर कि कौन सा अखबार पढ़ते हो और जनसत्ता बताता तो लोग मुस्कराते और उपहास उड़ाते। फिर भी हिन्दी से हूं और जनसत्ता मे हिन्दी कलह के लिए ठीक-ठाक स्पेस है, सो बिना राजनीति में शामिल हुए, किसी पर कीचड़ उछाले बिना सबकी खबर मिल जाती है, इसलिए खरीदता रहा। मैंने उन्हें इस बात का भी हवाला दिया कि सर ये बड़े-बड़े लोग लेख के नाम पर यही सब कलह तो लिखते हैं, राजनीत और साहित्य के नाम पर कोरा बकवाद। उइनका कहना था कि वो तो सिर्फ संडे को न. कुल मिलाकर बात यही रही उनका कहना था कि नामवर से इस तरह से लिखना पर्सनल अटैक है .
पूरी तरह हिल गया, नहीं छपने के कारण नहीं बल्कि त्रिपाठीजी के इस घटिया लॉजिक से। सो दुबारा फोन किया जिसमें उन्होंने सलाह दिया कि आप नामवर के विरोध में मोर्चा खोल दें और मैं भी शामिल होता हूं। मैं कहता रहा कि मैं पैसिव ऑडिएंस नहीं हूं, जो नहीं पचेगा, उस पर लिखूंगा हीं। लेकिन त्रिपाठीजी की बात समझें तो आप लिखिए मत नामवर सिंह के नाम पर राजनीति कीजिए मोर्चा खोलकर।.....अंत में आवाज कट गई औ जब दुबारा फोन मिलाया तो रवीन्द्र नाम के व्यक्ति ने फोन उठाया और कहा कि त्रिपाठीजी तो कैंटीन चले गए। मतलब किसी पाठक से दो मिनट बहस करने के लायक नहीं।मैं रात से सुबह के चार बजे तक इस मुद्दे पर सोचता रहा कि मठाधीशी की तो हद हैऔर काफी कुछ सोचता रहा।
करीब ५:३० बजे अखबार दे गया और सच बताउँ जनसत्ता देखकर मन किया कि राजू से कहूं कि कल से मत लाना जनसत्ता जैसी शिक्षा त्रिपाठीजी ने हमें देने की कोशिश की फिर रुक गया हल ये नहीं ।अब मेरा बड़ा मन कर रहा है कि एक दिन जनसत्ता के ऑफिस में जाउं और पूछू- क्या सर आप सारे लेखको को यही राय देते हैं कि लिखो मत, सीधे मैंदान में उतर आओ जैसा कि हमें त्रिपाठीजी ने दिया
29.1.08
जनसत्ता में भी हैं कमीने लोग
Labels: गाहे-बगाहे की भसर, भड़ास
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6 comments:
फाड़ो सालों की, नौकरी करते करते नौकर वाली मानसिकता के हो गये हैं सब, पत्रकारिता के नाम पर कलंक हैं ये......
यशवंत
विनीत भइया,नौकरी और गु़लामी में अंतर होता है लेकिन हम लोग ही अपने स्वार्थों की अधिकतम पूर्ति के चक्कर में कब यह पतली लकीर पार कर जाते हैं पता नहीं चलता लेकिन फिर जब कोई अपनी बजाता है तो क्ल्लने पर चिल्लाते हैं । दादा ने जो कहा वह तभी मानना जब रोजीरोटी का कोई वैकल्पिक उपाय जुटा लेना फिर तो इन ससुरों की ऐसी फाड़ना की कोई मोची न सिल सके और शेष जीवन फटी ही लेकर घूमें......
जय भड़ास
"प्रिय तुमने जब से"
http://bhadas.blogspot.com/2007/12/blog-post_08.html
वाला बेचारा जनसत्ता में आपको मिल गया कोई नहीं बात नही आप तो आस्तीन में ही रखी बेचारे का जीवन बच जाएगा !!
saach ko aach nahi,per aap kahi bhi aapni prtikriya leker jayengy to sab se pehle wo aapni sthiti dekega phir kahi jaker kuchh karne ya kehne ki himat karega , ye to jahir hai aur hum sab samajh hi chke hai ki itna swatantr aadmee kisi sansth ke adhaksh pad se kiski aawaz ka sanchalan karta hoga .sanstha ke naam `jansataa` yani janta ki sataa . ab pta nahi ki pragati ki rah per uthaya jane wala ye konsa kadam hai jo age le jayega yaaaaaaaa
जनसत्ता में अब यही सब होता है. वहां एक से एक तथाकथित पत्रकार हैं जो धमकियां देने से लेकर परले दर्जे की नीचता पर उतरने में एक मिनट की भी देर नहीं लगाते.
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