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15.6.10

बार-गर्ल.(शाब्दिक कोलाज)

ग़सक़* से ग़लस* तक का परिदृश्य...........।
जाड़ों की बारिश में
बार के
निबिड़ अँधेरे में
पछीते से,
घुसते ही सड़ांध के झिझोड़ते हुए बफ़्फ़ारे.......।
                     लकड़ियों की सीढ़ियाँ उतर
अबूझा-सा
सीला हुआ एक कक्ष……,
दरवाज़े पर खड़े दम साधे बाउन्सर...,
भीतर हाँफता पंखा
फक.....फक...फ्क...फ......फ.....फ.....
दूर किसी कोने से आती
बेसन में लिपटी कतला की गन्ध…..”|
                      टूटे शीशे के सामने
कम कपड़े पहनने को होती
वह निर्वस्त्र;
-तनती ब्रेज़ियर
-टूटता हुक
-भद्दी-सी गाली(एक लमहा)
हँसने का शोर.......(फेड आउट)
उछलता सेफ्टी पिन.....................।
CLOSE UP:
                    चेहरे पर नर्वसनेस,
ग्लैमर के झीने आवरण के पीछे
गहन अंधकार जैसे सफेद दाँतों
के पीछे जमा टारटर.....................
मौन........(उदास संगीत)
CUT TO:
(लाउड म्यूज़िक………)
                    बड़ा-सा कमरा
धुँआ भरा,
अस्तित्व तलाशने ज़ूक-दर-ज़ूक आए
-लोगों का जमावड़ा,
-सीटियों का शोर,
वो.....वो.....वू.....वो.........वोयू........युहू
-बेलौस ठहाके
-मेज़ों से आते अश्लील इशारे.....
म्म्म्म्म....ह.....पुच्च....पुच्च............
                    कुछ ही ऊँचे चिकने फ़र्श पर
चमचमाती-वैश्विक-रोशनियाँ........
                                        चढ़ती रात..............
बाहर बरसती बारिश
भीतर
चीखता आर्केस्टा
गिरती-पड़ती-रंगीन-रोशनियाँ
फ़ोस्टर परोसती
अर्धफ़ाश-सुन्दरियाँ
नशीले-मदमस्त-रूमानी-माहौल
के रोमांच में मग्न...
                                         सामने बैठा
भूतपूर्व प्रेमी कम दलाल,
वीभत्स मुस्कराहटों के दरमियान
थिरकता जिस्म,
भीतर बढ़ता तनाव
माज़ी की तमन्नाओं के बिखराव की हताशा
साँचे में ढली हताशा का
लोग लेते आनन्द
रोशनी में विलीन होते आँसू.........
CUT TO:
                                                  नीम-बेहोश लोग
उतरता कामुक-चिंतन
इधर-उधर जस्त लगाते नोट……….”
भीतर खुलता सेफ्टी पिन;
रात की पाली में खाली
होती संवेदनाएँ,
सभ्य संसार से छली
बार के अँधेरे की शरणार्थी
और
कतार में लगे
शरीरों-आत्माओं-पीड़ाओं के व्यापारी |
                                            बाहर
बरसती बारिश के सन्नाटे में आवागमन
बार से फार्म हाऊस
फार्म हाऊस से सूनसान फ्लैट
और..........फिर,
                   पुलिस-प्रायोजित-छापा
टीवी पर दिखता
उधार के दुपट्टे से लिपटा
चेहरा.......और झाँकती आँखे....।
                   सुबह में तब्दील होती गीली रात
बगूलों की
क्राक......क्राक........क्राक......|
                  वही बन्द-सीला-अँधेरा-कक्ष
टूटे शीशे के सामने,
ज़मानत पर छूटी, वह
तन ढँपने को होती निर्वस्त्र;
                स्तब्ध करती सुन्दरता के मध्य
ज़िन्दगी से चिपकी ज़िन्दगी की सच्चाई,
गोरी-सी पिच्छल टाँगों में उगते बाल...................
                 तेज पदचाप का स्वर
पीछे छूटती बारिश,
फ़जर की बाँग में ऊँघता शहर
तैयार होते टिफिन
-मैथी भरे पराठे, पुरातन आम का अचार-
नवजात के चोंकने का स्वर,
आत्मा में घुसती
नई बरसाती की गन्ध
बच्चों को स्कूल छोड़कर आ रही,
उनके अस्तित्व में खुद को तलाशती
………………”डाँस-बार-गर्ल................
प्रणव सक्सेना अमित्राघात   
ग़सक़ - रात का प्रारम्भिक अँधेरा
ग़लस – रात के अंत का अँधियारा
ज़ूक-दर-ज़ूक – झुंड के झुंड 

1 comment:

EKTA said...

ek dam vastavik vivaran..
bahut badhiya..