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10.6.10

भोपाल कांड पर श्वेत-पत्र जारी करे केंद्र-ब्रज की दुनिया

 ७ जून २०१० यूं तो एक तारीख भर है लेकिन यह तारीख सिर्फ तारीख नहीं रह गई है और बन गई है भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर लगा बदनुमा दाग जिसे अब किसी भी उपाय से नहीं छुड़ाया जा सकेगा.२६ साल के लम्बे इंतजार के बाद प्रत्यक्ष तौर पर १५ हजार और अप्रत्यक्ष रूप से एक लाख से भी ज्यादा भोपालवासियों की हत्या के लिए जिम्मेदार लोगों को भोपाल की निचली अदालत ने सिर्फ दो साल की सजा सुनाई.इतने लम्बे समय से न्याय के लिए लड़ रहे परिजनों को खो चुके और दुर्घटना में विकलांग हो चुके लोगों को आख़िरकार न्याय नहीं मिल सका.केंद्र सरकार ने फ़िर से एक कमिटी बना दी है जो पूरे मामले पर विचार करेगी.वैसे भी यह सरकार कमिटी सरकार है जो देश का शासन-प्रशासन चलाने के बदले सिर्फ कमिटी बना रही है.मुद्दा सामने आने पर कमिटी बना दी और मामले को भूल गए.लेकिन वो कहते हैं न कि राजनीति में मुद्दे और मुर्दे मरकर भी नहीं मरते और मौका मिलते ही सच उगलने लगते हैं.भोपाल गैस दुर्घटना के मुर्दे भी जीवित होने लगे हैं.इनमें से पहला मुर्दा हैं भोपाल का तत्कालीन डी.एम. मोती सिंह और उनके द्वारा उगला गया सच कांग्रेस के गले की हड्डी बनता जा रहा है.जनता भी सच सामने आने के बाद सन्नाटे में है.वह सच यह है कि यूनियन कारबाईड के अध्यक्ष एंडरसन चोरी छुपे भारत से अमेरिका नहीं भागा था बल्कि मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने खुद उसकी जमानत और दिल्ली प्रस्थान की व्यवस्था की थी.कितना घिनौना सच है कि जिसकी लापरवाही ने पूरे एक शहर को तबाह कर दिया सरकार उसे गिरफ्तार करने के बदले भागने के लिए सुविधा उपलब्ध करा रही थी लेकिन यह सच पूरा सच नहीं है क्योंकि सच तो उस बर्फ की शिला के समान होती है जिसका सिर्फ दसवां हिस्सा ही पानी के बाहर होता है और बांकी पानी के भीतर ढंका रहता है.भारतीय जनता के मन में कई तरह के संदेह उठने लगे हैं.यह एक तथ्य है कि ७ दिसंबर 1984 को जिस दिन या यह कहना ज्यादा सही होगा कि जिस काल-खंड में एंडरसन भागा राजीव गांधी भारत में सर्वशक्तिमान की स्थिति में थे और अर्जुन सिंह उनके सिपहसलार मात्र थे, हुक्म के गुलाम से ज्यादा कुछ भी नहीं.यह उनके बस की बात नहीं थी कि वे एंडरसन जैसी बड़ी हस्ती को भगा दें.फ़िर एंडरसन दिल्ली आया और आज तक के पास मौजूद क्लिप्स के अनुसार वह संसद भवन के पास किसी दफ्तर में भी गया.ऐसे में यह संदेह भी उत्पन्न होता है कि क्या उसने बड़े नेताओं और हुक्मरानों से बातचीत भी की.उसके बाद वह संसद भवन के पास से गाड़ी में बैठकर हवाई अड्डे की ओर लिए रवाना हो गया.बिना केंद्र सरकार की सहमति या मर्जी के वह कैसे बाकायदा हवाई जहाज से अमेरिका के लिए रवाना हो सकता है.किसी भी क्लिप में उसके चहरे पर अपराध-बोध तो क्या उदासी तक के भाव भी नहीं हैं.भागते समय वह इतना खुश क्यों था?अगर उसने नेताओं से बातचीत की तो क्या बात हुई थी उसकी?कहीं पैसों का सौदा तो नहीं हुआ था?सुप्रीम कोर्ट ने किन दशाओं में मुकदमे की धाराएँ बदल दी.जज घूसखोर तो नहीं था या फ़िर उस पर केंद्र सरकार का कोई दबाव तो नहीं था?1989 की वी.पी. सिंह की सरकार भी क्या पैसों पर बिक गई थी जिसने बहुत कम मुआवजे पर यूनियन कार्बाईड के साथ समझौता कर लिया?२६ सालों में केंद्र में रही विभिन्न सरकारों ने एंडरसन को भारत लाने के लिए क्या किया?सवाल बहुत से हैं जो जनता के मन में उमड़-घुमड़ रहे हैं और जिनका जवाब सिर्फ केंद्र सरकार दे सकती है.वैसे भी केंद्र में १९८४ की तरह ही अभी कांग्रेस की सरकार है और उसे मामले पर पड़ी धुंध को हटाने के लिए अविलम्ब श्वेत-पत्र जारी करना चाहिए जिससे पूरा सच सामने आ सके और जनता का लोकतंत्र और सरकार में विश्वास और भी पुख्ता हो.केंद्र को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सच को छुपाने से जनता का भारतीय लोकतंत्र पर विश्वास कमजोर होगा जो कहीं से भी देशहित में नहीं होगा.

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