स्वस्थ राजनीतिक परंपराओं को दफन करने के मामले में कांग्रेस-भाजपा को एक जैसा बता रहे हैं राजीव सचान
कांग्रेस और भाजपा दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े राजनीतिक दल हैं, लेकिन इन दोनों दलों में प्राय: अद्भुत समानता दिखने लगती है। आम तौर पर ऐसा तब अधिक होता है जब इन दलों को अपने राजनीतिक स्वार्थो का संधान करना होता है। हाल में गोवा की कांग्रेस सरकार ने अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत करने के लिए जो कुछ किया वह ठीक वैसा ही था जैसा कुछ समय पहले कर्नाटक में भाजपा ने किया था। 24 जून की सुबह गोवा के निर्दलीय विधायक और स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे ने विधायक और मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया, दोपहर को वह कांग्रेस में शामिल हो गए और शाम को उन्हें मंत्री पद की शपथ दिला दी गई। विश्वजीत राणे के पहले यूनाइटेड गोवा डेमोक्रेटिक पार्टी के विधायक और शिक्षा मंत्री ए।मोंसेराते ने भी इसी तरह कांग्रेस का दामन थामा था। ये दोनों नेता शीघ्र ही अपनी रिक्त सीटों से विधानसभा चुनाव लड़ेंगे और इस तरह कांग्रेस पहले से मजबूत हो जाएगी। विश्वजीत राणे और मोंसेराते के पिछले दरवाजे से कांग्रेस और सरकार में शामिल होने पर एक पत्ता भी नहीं खड़का। दरअसल कांगे्रस को इस पर कुछ कहने की जरूरत नहीं थी और भाजपा इसलिए नहीं बोली, क्योंकि वह इसी तरीके से बहुमत हासिल करने की कवायद को कर्नाटक में अंजाम दे चुकी है। जब येद्दयुरप्पा ने कर्नाटक में इसी तरह अपना बहुमत मजबूत किया था तो कांग्रेस ने उसे लोकतंत्र विरोधी और न जाने क्या-क्या करार दिया था। अब यदि कल को कोई गैर कांग्रेस और गैर भाजपा सरकार इसी तरह का कदम उठाती है तो न तो कांगे्रस के पास कहने के लिए कुछ होगा और न भाजपा के पास। यदि कोई कुछ कहेगा भी तो उक्त सरकार के पास यह एक मजबूत तर्क होगा कि हमने वही किया जो कांगे्रस और भाजपा कर चुकी हैं। एक तरह से कांग्रेस और भाजपा ने एक नई राजनीतिक परंपरा की शुरुआत कर दी। इस पर गौर किया जाना चाहिए कि इस परंपरा का निर्माण दलबदल रोधी कानून में छिद्र कर और साथ ही संविधान की इस रियायत का दुरुपयोग करते हुए किया गया कि किसी गैर निर्वाचित सदस्य को छह माह के लिए मंत्री बनाया जा सकता है। संविधान निर्माताओं ने यह सोचा भी नहीं होगा कि उनके द्वारा बनाई गई इस व्यवस्था का ऐसा बेजा इस्तेमाल किया जाएगा। इसी तरह दलबदल विरोधी कानून में संशोधन करते समय शायद ही किसी ने यह सोचा हो कि निर्दलीय विधायकों को कोई सत्तारूढ़ दल इस तरह अपने दल में शामिल करेगा। राजनीतिक शुचिता और लोकतांत्रिक मर्यादाओं का निरादर करने वाले तौर-तरीकों ने परंपरा का रूप इसी तरह लिया है। पहले एक राजनीतिक दल गलत उदाहरण पेश करता है। बाद में दूसरा दल भी उसका अनुसरण करता है और इस तरह एक परंपरा बन जाती है। कई बार यह भी होता है कि गलत उदाहरण का अनुकरण कहीं भद्दे तरीके से किया जाता है, लेकिन इस तर्क के साथ कि हमने तो वही किया जो फलां ने इसके पहले किया था। कभी-कभी कोई राजनीतिक दल अतीत में किए गए अपने ही गलत आचरण को और गलत तरीके से दोहराता है। हाल ही में मणिशंकर अय्यर राष्ट्रपति की ओर से नामित होने वाले राज्य सभा सदस्यों की सूची में शामिल होकर उच्च सदन में आ गए और किसी ने चूं तक नहीं की। इसलिए नहीं की, क्योंकि विगत में ऐसा हो चुका है। यानी लोकसभा चुनाव हारने वाले नेताओं को समाजसेवी, बुद्धिजीवी वगैरह बताकर राष्ट्रपति के कोटे से राज्यसभा ले आया गया है। सबसे पहला उदाहरण वैजयंती माला बाली का था। मणिशंकर अय्यर को बुद्धिजीवी या समाजसेवी बताने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन तथ्य यह है कि वह लोकसभा चुनाव हार गए थे और कांगे्रस को जब उन्हें राज्यसभा में लाने का कोई उपाय नजर नहीं आया तो पिछले दरवाजे यानी राष्ट्रपति के कोटे का सहारा लिया गया। हाल ही में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती फिर से विधान परिषद के लिए निवार्चित हुईं। वह उत्तर प्रदेश की पहली ऐसी मुख्यमंत्री हैं जो विधान परिषद की सदस्यता के सहारे इतने लंबे अर्से से इस पद पर बनी हुई हैं। फिलहाल ऐसे कोई आसार नहीं हैं कि वह विधानसभा का चुनाव लड़ने का इरादा रखती हैं। शायद वह अपना कार्यकाल इसी तरह गुजार देंगी। इस पर किसी राजनीतिक दल को आपत्ति भी नहीं है कि वह विधानसभा की सदस्य क्यों नहीं हैं? इसकी एक वजह तो यह है कि भाजपा के रामप्रकाश गुप्त 11 माह तक विधान परिषद का सदस्य रहते हुए मुख्यमंत्री रह चुके हैं और दूसरी वजह, जो कहीं वजनदार है, यह है कि मनमोहन सिंह छह साल से लोकसभा का चुनाव लड़े बगैर प्रधानमंत्री पद पर आसीन हैं। उन्होंने न तो अपने पहले कार्यकाल में लोकसभा का चुनाव लड़ने में दिलचस्पी दिखाई और न ही इस कार्यकाल में दिखा रहे हैं। वह एक मात्र ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं। नि:संदेह संविधान इसकी अनुमति देता है कि राज्यसभा का सदस्य भी मंत्री अथवा प्रधानमंत्री बन सकता है, लेकिन मनमोहन सिंह के पहले परंपरा यह थी कि जो नेता लोकसभा का सदस्य न रहते हुए प्रधानमंत्री पद पर पहुंचे उन्होंने लोकसभा का चुनाव अवश्य लड़ा। इसके पीछे मान्यता यह थी कि जो राजनेता लोकसभा के बहुमत से प्रधानमंत्री बनता है उसे इस सदन का सदस्य तो होना ही चाहिए। अब यदि कोई नेता विधान परिषद का सदस्य रहते हुए मुख्यमंत्री बना रहता है तो कोई भी यह कहने का साहस नहीं जुटा सकता कि उसे विधानसभा का चुनाव लड़कर आना चाहिए। जो ऐसा कहेंगे भी उनकी बोलती बंद करने के लिए मनमोहन सिंह का नाम लेना भर पर्याप्त होगा। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
29.6.10
दो राष्ट्रीय दलों की सीख
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