(उपदेश सक्सेना)
दो-तीन दशकों पहले पंजाब में जारी आतंकवाद के पीछे पृथक खालिस्तान की मांग एक बड़ा कारण था. उस वक़्त कश्मीर में भी आतंकवाद का दौर जारी था, यह लड़ाई पकिस्तान की इस हिस्से को हड़पने की अतृप्त कामना का नतीजा थी, वह लड़ाई अब भी जारी है, मगर भारत के कई अन्य राज्यों में अब नक्सलवाद ने भी सर उठा रखा है. हालांकि भारत में यह मान्यता है कि, अब तक की सभी लड़ाईयों के पीछे ज़र-जोरू-ज़मीन कारक रहे हैं, मगर नक्सलवाद के आन्दोलन (इसे अब आन्दोलन कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि यह लक्ष्य विहीन हो चुका है) में इन तीनों कारणों में से एक भी नहीं है. विकास किसी सभ्यता के विकसित होने का प्रमुख पैमाना है, मगर नक्सलवादी समानांतर सरकारें चलाकर व्यवस्था को लगातार चुनौती देने में जुटे हैं.नक्सलवादी जिन नंगे-भूखों-अशिक्षितों को हथियार बनाकर उनके रक्षक होने का स्वांग रच रहे हैं, वे आज भी विकास शब्द के मायने नहीं जानते.पिछले लगभग तीन दशकों से चल रही नक्सलवादी गतिविधियाँ भले ही इसके पोषकों द्वारा सफल बतायी जा रही हों, इसका भविष्य ज्यादा सुनहरा नहीं माना जा सकता. दंतेवाडा हमले की देश भर में जिस तरह से निंदा हुई है, कहा जा सकता है कि जनता भी मानती है कि गन-तंत्र का रास्ता गलत है, गण-तंत्र को कोई चुनौती नहीं दे सकता.
नक्सलवादियों का कामकाज अब पूरे कार्पोरेट तरीके से संचालित हो रहा है. यहाँ जानकार लोग नक्सली व्यवस्था की शासन तंत्र से भी तुलना कर सकते हैं, जैसे लोकशाही में नीचे से ऊपर की ओर भ्रष्टाचार का गंदा नाला बहता है उसी तर्ज़ पर बेरोजगार-नौजवानों के जरिये नक्सलवादी उगाही का धंधा चलाने लगे हैं. सरकारी कर्मचारियों से प्रतिमाह वसूली जाने वाली राशि हो या ठेकों में हस्तक्षेप के मामले हों, नक्सलवादी अब अपने इरादों को नयी दिशा की और मोड़ चुके हैं. इस (अ)व्यवस्था में नक्सलवादी अपना वर्चस्व बनाने के लिए बेरोजगारों के कन्धों पर बन्दूक रखकर स्वयं का विकास तो कर रहे हैं मगर इसका खामियाजा भुगत रहे हैं कमजोर-बेबस नागरिक, हाँ वे भी नागरिक ही कहलायेंगे, भले ही उनको किसी तरह के अधिकार नहीं हों, समाज उन्हें अपनी मूलधारा में नहीं मानता हो, सरकार की नज़र में उनकी 'औकात" कीड़े-मकोड़े से भी बद्तर हो और उनकी गिनती शायद देश की किसी जनगणना में नहीं होती हो, यदि वे 'आदि' काल से भारत की भूमि पर रह रहे हों उनके पूर्वज यहीं मरे-खपे हों, तो उन्हें भी नागरिक ही मानना चाहिए, आज़ादी के ६३ बरसों में हमारी सरकारों ने उन्हें क्या दिया, तन पर लंगोटी, खाने को को कोंदो-कुंदरू. लक्ष्य से भटकना मेरी फितरत में नहीं है फिर भी भावनाएं हैं, जो कभी-कभी दिल और दिमाग का अंतर पाट देती हैं, वापस लौटता हूँ अपनी मूल अभिव्यक्ति की ओर.
गांधी का यह देश इसके पहले कभी इतना हिंसक नहीं हुआ कि रक्त के रंग के नाम वाले 'लालगढ़' को अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिला देता. यह भी बुद्ध की इस धरती का इतिहास रहा है कि गोली से यहाँ कभी कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ, यहाँ तो बोली ने ही बदलाव किये हैं.नक्सलवाद की मूल समस्या आदिवासियों की ज़मीनों से जुडी है.अब तक सरकारों द्वारा भू अधिग्रहण के नाम पर किसानों-आदिवासियों की ज़मीनों को 'हथियाया' गया है. सरकार को चाहिए कि आदिवासियों को समाज की मूल धारा से जोड़ने की योजनायें बनाए, इसके लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सोचना होगा.आदिवासियों का भरोसा जीतना सरकार की प्राथमिकता होना चाहिए.लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर बात का समाधान होता है. सामाजिक संघटनों की भूमिका भी ऐसे काम में कारगर साबित हो सकती है.
18.4.10
नक्सलवाद: यह आग कब-कैसे बुझे?
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment