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26.11.09

जायें तो जायें कहाँ

jayein to jayein kahan
यह कविता मैंने उन परिवारों लोगों को समर्पित किया है जो की बस्तर में और छत्तीसगढ़ में हो रहे नक्सली घटनाओं से पीड़ित हैं इसी दर्द का नाम है जायें तो जायें कहाँ

आखिर क्यूँ हो गया कोई खून का प्यासा ,
अपनों के ही खून का ,
जाने किस आग में वो बहा रहा है लहू,
अपने ही लोगों का,
वाकई में देखे कोई मंज़र इस खुनी खेल का,
तो सोचे नरक यहाँ तो स्वर्ग है कहाँ,
ज़रा महसूस करो उस दिल क दर्द को जिससे एक गूंज सी आती है,
आखिर जायें तो जायें कहाँ?

वो मुस्कुराते होंठ, और बच्चों की किलकारियां कहाँ?
किसऐ हैं यह धमाके, लाशों के ढेर,
इसी बगिया में खिलने वाले फूल हैं कहाँ?
ज़रा महसूस करो उस दिल के दर्द को जिससे एक गूंज सी आती है,
आखिर जायें तो जायें कहाँ?

जहाँ रंगीन होती थी होली,
रोशन होती वो दिवाली कहाँ,
न जाने कितनो के बेटे और राखी पर बिछड़े कितनो क भाई कहाँ,
ज़रा महसूस करो उस दिल के दर्द को जिससे एक गूंज सी आती,
आखिर जायें तो जायें कहाँ?

जहाँ गुज़रा मेरा बचपन, वो आंगन न जाने अब अब है कहाँ?
जहाँ खेलते हुए बीतते थे दिन वो पीपल की छाँव है कहाँ?
जहाँ बहते हैं अब बेगुनाहों के खून,
वो पहाड़ों के झरने खो गए कहाँ?
ज़रा महसूस करी उस दिल के दर्द को जिससे १ गूंज सइ आती है,
आखिर जायें तो जायें कहाँ?

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