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25.11.09

लो क सं घ र्ष !: न्यायपालिका की स्वतंत्रता-1

संवैधानिक मिथ्या या राजनैतिक सत्य


पश्चिमी उदारवादी प्रजातंत्र एवं पश्चिम तुल्य प्रजातांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखने वाले विधिवेत्ता, न्यायाधीश एवं अधिवक्ता न्यायपालिका की स्वतंत्रता का बखान करने से नहीं थकते। परन्तु शायद ही ऐसा कोई हो जो इस संस्था की वाह्य मान्यता एवं आडम्बर के उस पार भी देखने का प्रयास करता हो। शायद ही कोई ऐसा हो जो इस बात का पता लगाने का प्रयास करे कि संवैधानिक व्यवस्था की कार्य प्रणाली की वास्तविकता एवं सिद्धान्त में कितना मेल है? जजों की व्यक्तिगत क्षमता, ईमानदारी एवं उनके द्वारा उच्चतम् कोटि की न्यायिक दक्षता को यदि अलग रख दिया जाये, तो राजनैतिक एवं आर्थिक व्यवस्था की पृष्ठभूमि निर्मित कानूनों की प्रकृति, नौकरशाही एवं पुलिस की कार्यप्रणाली, खुफिया एजेंसियों की कार्यप्रणाली एवं प्रकृति, योग्य वकीलों तक पहुँच, राज्य द्वारा प्रदत्त कानूनी सहायता, मुकदमों का निष्पक्ष एवं त्वरित फैसला ये सभी ऐसे कारक है जो कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को प्रभावित करते हैं। निस्संदेह रूप से जजों की चयन प्रक्रिया न्यायिक स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता की प्राप्ति में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
यदि न्याय बिना भय एवं पक्षपात के प्राप्त करना है तो उसके लिए आवश्यक है कि उन परिस्थितियों पर नियंत्रण रखा जाये, जो समाज को चरम सीमा तक आर्थिक एवं सामाजिक धु्रवों में विभाजित करती हैं। समाज को ऐसे आर्थिक एवं सामाजिक शोषण से मुक्त रखें जो मानव को धर्म, जाति, वर्ग, नस्ल एवं लिंग के आधार पर विकसित करता हो तथा जो राजनैतिक प्रभाव एवं सामाजिक आलोचना से मुक्त हो।
राजनैतिक यथार्थ को सामने रखकर ही हम इस परिचर्चा को आगे बढ़ा सकते हैं। विशेष रूप से हमारे लिए यह प्रश्न करना महत्वपूर्ण है कि क्या न्यायपालिका वर्तमान समय में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से कार्य कर सकती है! जबकि हमारी राजनैतिक एवं संवैधानिक व्यवस्था का सिर्फ ढाँचा ही शेष रह गया तथा कि कारपोरेट घरानों के द्वारा मुख्य क्षेत्रों को पंगु बना दिया गया है। धन का संचय कुछ ही हाथों में सिमट कर रह गया है, जबकि महत्वपूर्ण आर्थिक एवं वित्तीय नीतियाँ धनी वर्ग के पक्ष में हैं। समाज का अपराधीकरण हो चुका है, जबकि नेटवर्किंग कारपोरेटों के द्वारा मीडिया के माध्यम से कई देशों में युद्ध़़ किया जा रहा है एवं राजनैतिक माध्यमों के द्वारा लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से गुलाम बनाया जा रहा है, ताकि वे समाज पर आर्थिक एवं अन्य तरीकों से नियंत्रण बनाये रखने में सफल हो सकें।
इस युग की वास्तविकताओं में अमेरिका, ब्रिटेन नियंत्रित अधिग्रहीत देशों में बागराम, अबू गरीब एवं ग्वान्टानामों बे की जेले हैं, गुप्त रूप से आर्थिक सहायता देकर विभाजित करने के लिए (दूसरे देशों में) बम विस्फोट करवाया जाता है, जिसमें हजारों बेगुनाह लोग मारे जाते हैं एवं हजारो लोग हमेशा के लिए अपाहिज हो जाते हैं। गुप्तचर एजेन्सियाँ इस बात से पूरी तरह भिज्ञ होती हैं। एक अन्य वास्तविकता-अमेरिका का पैट्रियट एवं होमलैण्ड कानून हैं जो वहाँ के नागरिकों के जीवन को नियंत्रित करता है।
कुछ देशों में मुकदमे जेल की दीवारों के अन्दर चलाए जाते हैं ताकि लोगों की निगाहों से सत्य को छुपाया जा सके। एक राष्ट्र की कानून व्यवस्था के अन्तर्गत सैनिक न्यायालयों का गठन किया जाता है। अनेक गणतन्त्रात्मक क्रांतियों की ऐतिहासिक स्मृतियों के बावजूद, यूरोप में अवैध रूप से लोगों को गिरफ्तार किया जाता है एवं गुप्त जेलों में रखा जाता है। अफ्रीका एवं एशिया के देशों में विशेष रूप से भारत तथा पाकिस्तान के लोगों को गैर कानूनी ढंग से गिरफ्तार किया जाता है। सरकार अधिग्रहीत सेनाओं से मिलकर अपने देश के लोगों पर बमबारी करवाती है जिसके कारण हजारों बेगुनाह लोग लापता हो गए हैं। वकीलों पर भारत में फासीवादी शक्तियों के द्वारा किराये के गुण्डों के द्वारा आक्रमण कराया जाता है। पुलिस मूक दर्शक बनी देखती रहती है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि फासीवादी शक्तियों पर चलाए गए मुकदमों को रोका जा सके तथा धमाकों एवं सामूहिक हत्याओं के पीछे छिपे सत्य को प्रकट होने से रोका जा सके। मुख्य जाँचकर्ता अधिकारियों की हत्या करवा दी जाती है। फिलीपाइन्स में जन आन्दोलनों के प्रतिनिधियों, जिनमें वकील भी शामिल हैं को मौत के घाट उतार दिया जाता है। इस्राइल के द्वारा, जहाँ कि कानून व्यवस्था नस्ल एवं अन्याय पर आधारित है, पैलिस्टाइन भूमि पर अवैध रुपसे कब्जा कर लिया गया है एवं घरों को तबाह व बरबाद कर दिया गया है। हद तो यह कि इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को प्रजातांत्रिक कहा जा रहा है। इराक में हजारों बेगुनाह जेलों में सड़ रहे हैं। लाखों लोग शरणार्थी बन चुके हैं। उन लोगों के जीवन का कोई महत्व नहीं रह गया है। इराक पर अमेरिका का अनधिकृत कब्जा है एवं सार्वजनिक पदों पर सम्प्रदाय के आधार पर नियुक्तियाँ की जा रहीं है। अफ्रीका महाद्वीप में कांगो में संसाधनों पर कब्जा करने के लिए युद्व चल रहा है। छापा मार सेनाएँ विदेशी कम्पनियों एवं सरकार के साथ साठ गाँठ करके गृह-युद्धभड़का रही हैं । साथ ही साथ व्यक्तिगत सेनाएँ भी सक्रिय हैं । चीन में हजारों फैक्टरियाँ बन्द हो चुकी हैं एवं फैक्ट्रिरियों के मालिक हजारों मजदूरों का बकाया धन लेकर फरार हो चुके हैं। जापान मे बेरोजगारी दिन प्रतिदिन बढ़ रही है जिससे वहाँ आत्महत्या की दर में जो पहले ही बहुत ज्यादा थी अब और बढोत्तरी हो रही है। ये कुछ ऐसे सत्य हैं, जिसकी पृष्ठभूमि में हमारे न्यायिक संस्थान कार्य कर रहे हैं। इन परिस्थितियों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का पुनरावलोकन करना आवश्यक है ताकि हम सत्य की तह तक पहुँच सकें।

लेखिका-नीलोफर भागवत
उपाध्यक्ष, इण्डियन एसोसिएशन आफ लायर्स

अनुवादक-मोहम्मद एहरार
मोबाइल - 9451969854

जारी ....

loksangharsha.blogspot.com

2 comments:

Sunita Sharma Khatri said...

absloutly right .

मनोज कुमार said...

रचना बहुत अच्छी लगी।