उस दिन सुबह-सुबह कवि-पत्रकार मित्र मंगलेश डबराल जी को दिल्ली फोन किया तो उन्होंने छूटते ही बताया- ‘प्रभाष जोशी जी नहीं रहे।' बात होने के बाद बहुत देर तक सोच में डूबा रहा। यह सुबह सुबह ही बेहद उदास कर देने वाली एक दुखद खबर थी।
पिछले तीन-चार दिन से प्रभाष जी के कई चित्र दिमाग में घूमते रहे हैं। प्रभाष जोशी और राजेन्द्र माथुर ने दिल्ली में जब अपनी पारी शुरू की तो हिन्दी पत्रकारिता का वह अद्ïभुत दौर था। दोनों इन्दौर से आए थे। दोनों अपने-अपने ढंग की हिन्दी पत्रकारिता की एक नई भाषा लेकर आए, दिल को छू लेने वाले रूपक और मुहावरे लेकर आए। अंग्रेजी पत्रकारिता की धाक से सराबोर राजधानी दिल्ली में हिन्दी पत्रकारिता के दो नक्षत्र तेजी से चमके और पत्रकारिता के आकाश में छा गए। दोनों की ऐसी जोड़ी थी कि लोग आज भी प्रभाष जी को याद करते हैं तो बरबस ही राजेन्द्र माथुर भी याद आते हैं और माथुर जी को याद करते हैं तो प्रभाष जोशी भी याद आते हैं। मुझे हिन्दी के इन दोनों महान सम्पादकों के साथ काम करने का अवसर मिला। इसे मैं अपना सौभाग्य भी मानता हूं और अपने जीवन की एक उपलब्धि भी।
प्रभाष जोशी जी के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था कि धोती-कुरता पहनने वाला यह शख्स हिन्दी पत्रकारिता में आधुनिक और अनूठे प्रयोग भी कर सकता है और उन्हें पत्रकारिता के राष्ट्रीय फलक पर स्थापित भी कर सकता है। जब पूरा जमाना अखबारों में आठ कॉलम छापता था, तब उन्होंने छह कॉलम से पृष्ठï सजा कर अखबारों में साज-सज्जा का एक नया करिश्मा करके दिखाया। बहुत से पत्रकारों ने उनसे सीखा कि किसी के निधन का समाचार केवल रटे रटाए इसी ढांचे में नहीं लिखा जाता कि-‘फलां साहब का निधन हो गया, वे इतने वर्ष के थे और अपने पीछे ये-ये छोड़ गए है।Ó किसी के दिवंगत होने के समाचार को आत्मीयता और अंदर तक भावनाओं में डूब कर लिखने का एक नया सलीका उन्होंने दिया। उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता की नीरस हो चुकी भाषा के पुराने ढांचे को ध्वस्त किया और नए मुहावरे गढ़े। धोती-कुरते वाले इस गांधीवादी पत्रकार ने क्रिकेट पर जैसा लिखा, उसका अंदाज तो सितारा खिलाड़ी सचिन तेन्दुलकर के इस ताजा बयान से ही लगाया जा स•ता है, जिसमें उन्होंने कहा कि अपने खेल में कई सुधार उन्होंने प्रभाष जोशी को पढ़ कर किए। मैं जयपुर छोड़कर चंडीगढ़ ‘जनसत्ताÓ में गया तो मेरी नियुक्ति की औपचारिकताएं पूरी करने के लिए प्रभाष जोशी जी स्वयं दिल्ली से चंडीगढ़ आए और बड़ी गर्म जोशी से मुझे आशीर्वाद दिया। चंडीगढ़ में वे जब भी आते, संस्थान के सभी लोगों से सहज भाव से मिलते। उस दौर में ही वे एक्टीविस्ट की भूमिका में आने लगे थे और कई स्वयं सेवी संस्थाएं उनके संरक्षण में काम करने लगी। ऐसी संस्थाओं के लिए प्रभाष जी एक बड़ा सहारा थे और उनके संरक्षण में कई कार्यक्रम चंडीगढ़ में हुए। बाद में मैं जयपुर आ गया तो एक बार दिल्ली में उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया और खाना भी खिलाया। उस खाने को मैं कभी नहीं भूलता। उस समय उनमें ऐसी आत्मीयता टपक रही थी, जैसे मेरी मां मुझे खाना खिलाती थी। सभी जानते है, प्रभाष जी के सामाजिक सरोकार बहुत गहरे थे। राजस्थान से शुरू हुए ‘सूचना के अधिकारÓ की लड़ाई में वे भी एक महान नायक थे। राजस्थान कई बार आए। राज्य के कई स्थान उन्हें बहुत पसन्द थे। अलवर की सीलीसेढ़ झील उन्हें बहुत लुभाती थी। वे जब भी छुट्टी बिताने के मूड़ में होते तो झील के किनारे एकांत में बने आरटीडीसी की होटल में जा कर कुछ दिन के लिए ठहर जाते थे।
प्रभाष जी का एक प्रसंग मुझे याद आता है। मैं शाहपुरा (भीलवाड़ा) के एक कार्यक्रम में उनके साथ था। कस्बे में कोई धार्मिक यात्रा बैण्ड-बाजों के साथ निकल रही थी। गाने की आवाज कुछ ऐसी आ रही थी- ‘’है अपना दिल तो आवारा, न जाने किस पे आएगा।ÓÓ प्रभाष जी ने चौंक कर मुझसे कहा- ‘ये क्या ‘आवाराÓ फिल्म का गाना बजा रहे हैं?Ó मैंने उन्हें बताया कि गाने के बोल तो धार्मिक हैं, लेकिन इसकी धुन ‘आवाराÓ फिल्म की है। उन्होंने तत्कातल मुझसे कहा- ‘इस पर लिखा जाना चाहिए।Ó मैंने बाद में जयपुर के एक अखबार में इस फूहड़ता पर लिखा भी।
प्रभाष जी ने राजस्थान की बहुत यात्राएं की, लेकिन उनकी एक यात्रा के अधूरी रह जाने का अफसोस मुझे भी है। कभी बातचीत में मैंने उन्हें बताया था कि जयपुर तो मात्र 250 वर्ष पुराना शहर है, लेकिन इसके पड़ोस में ही ढाई हजार साल पुरानी ऐतिहासिक नगरी सांभर है, जहां खुदाई में मोहन जोदड़ो-हडप्पा के आस-पास के काल का एक पूरा नगर मिला है। ब्रिटिश कॉलोनी का नजारा और उस जमाने का बना अद्ïभूत सर्किट हाउस आज भी वहां देखा जा सकता है।
अकबर-जहांगीर से जुड़े ऐतिहासिक प्रसंग और वहां खारे पानी की झील में बिछी पटरियों पर चलने वाली छोटी ट्रेन ट्रॉलियों के बारे में भी मैंने उन्हें बताया। इससे वे इतने उत्साहित हुए कि मुझसे कहा- ‘कभी सांभर का कार्यक्रम बनाओ।Ó
उनकी व्यस्तताओं के दौर के चलते यह कार्यक्रम कभी बन नहीं पाया और यह यात्रा उनकी अधूरी ही रह गई। वैसे हमारा मलाल तो यह है कि वे जीवन यात्रा बीच में ही छोड़ कर चले गए।
उनकी अभी हमें और जरूरत थी। उनका हर चाहने वाला आज यही सोच रहा होगा कि उनकी जिंदगी का सफर अभी और चलना चाहिए था, लेकिन नियति को शायद यही मंजूर था। वे बेशक अपनी कई यात्राएं अधूरी छोडक़र चले गए, लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में वे हमेशा जीवित बने रहेंगे। हमारी यादों के सफर में वे हमेशा साथ रहेंगे।
पिछले तीन-चार दिन से प्रभाष जी के कई चित्र दिमाग में घूमते रहे हैं। प्रभाष जोशी और राजेन्द्र माथुर ने दिल्ली में जब अपनी पारी शुरू की तो हिन्दी पत्रकारिता का वह अद्ïभुत दौर था। दोनों इन्दौर से आए थे। दोनों अपने-अपने ढंग की हिन्दी पत्रकारिता की एक नई भाषा लेकर आए, दिल को छू लेने वाले रूपक और मुहावरे लेकर आए। अंग्रेजी पत्रकारिता की धाक से सराबोर राजधानी दिल्ली में हिन्दी पत्रकारिता के दो नक्षत्र तेजी से चमके और पत्रकारिता के आकाश में छा गए। दोनों की ऐसी जोड़ी थी कि लोग आज भी प्रभाष जी को याद करते हैं तो बरबस ही राजेन्द्र माथुर भी याद आते हैं और माथुर जी को याद करते हैं तो प्रभाष जोशी भी याद आते हैं। मुझे हिन्दी के इन दोनों महान सम्पादकों के साथ काम करने का अवसर मिला। इसे मैं अपना सौभाग्य भी मानता हूं और अपने जीवन की एक उपलब्धि भी।
प्रभाष जोशी जी के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था कि धोती-कुरता पहनने वाला यह शख्स हिन्दी पत्रकारिता में आधुनिक और अनूठे प्रयोग भी कर सकता है और उन्हें पत्रकारिता के राष्ट्रीय फलक पर स्थापित भी कर सकता है। जब पूरा जमाना अखबारों में आठ कॉलम छापता था, तब उन्होंने छह कॉलम से पृष्ठï सजा कर अखबारों में साज-सज्जा का एक नया करिश्मा करके दिखाया। बहुत से पत्रकारों ने उनसे सीखा कि किसी के निधन का समाचार केवल रटे रटाए इसी ढांचे में नहीं लिखा जाता कि-‘फलां साहब का निधन हो गया, वे इतने वर्ष के थे और अपने पीछे ये-ये छोड़ गए है।Ó किसी के दिवंगत होने के समाचार को आत्मीयता और अंदर तक भावनाओं में डूब कर लिखने का एक नया सलीका उन्होंने दिया। उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता की नीरस हो चुकी भाषा के पुराने ढांचे को ध्वस्त किया और नए मुहावरे गढ़े। धोती-कुरते वाले इस गांधीवादी पत्रकार ने क्रिकेट पर जैसा लिखा, उसका अंदाज तो सितारा खिलाड़ी सचिन तेन्दुलकर के इस ताजा बयान से ही लगाया जा स•ता है, जिसमें उन्होंने कहा कि अपने खेल में कई सुधार उन्होंने प्रभाष जोशी को पढ़ कर किए। मैं जयपुर छोड़कर चंडीगढ़ ‘जनसत्ताÓ में गया तो मेरी नियुक्ति की औपचारिकताएं पूरी करने के लिए प्रभाष जोशी जी स्वयं दिल्ली से चंडीगढ़ आए और बड़ी गर्म जोशी से मुझे आशीर्वाद दिया। चंडीगढ़ में वे जब भी आते, संस्थान के सभी लोगों से सहज भाव से मिलते। उस दौर में ही वे एक्टीविस्ट की भूमिका में आने लगे थे और कई स्वयं सेवी संस्थाएं उनके संरक्षण में काम करने लगी। ऐसी संस्थाओं के लिए प्रभाष जी एक बड़ा सहारा थे और उनके संरक्षण में कई कार्यक्रम चंडीगढ़ में हुए। बाद में मैं जयपुर आ गया तो एक बार दिल्ली में उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया और खाना भी खिलाया। उस खाने को मैं कभी नहीं भूलता। उस समय उनमें ऐसी आत्मीयता टपक रही थी, जैसे मेरी मां मुझे खाना खिलाती थी। सभी जानते है, प्रभाष जी के सामाजिक सरोकार बहुत गहरे थे। राजस्थान से शुरू हुए ‘सूचना के अधिकारÓ की लड़ाई में वे भी एक महान नायक थे। राजस्थान कई बार आए। राज्य के कई स्थान उन्हें बहुत पसन्द थे। अलवर की सीलीसेढ़ झील उन्हें बहुत लुभाती थी। वे जब भी छुट्टी बिताने के मूड़ में होते तो झील के किनारे एकांत में बने आरटीडीसी की होटल में जा कर कुछ दिन के लिए ठहर जाते थे।
प्रभाष जी का एक प्रसंग मुझे याद आता है। मैं शाहपुरा (भीलवाड़ा) के एक कार्यक्रम में उनके साथ था। कस्बे में कोई धार्मिक यात्रा बैण्ड-बाजों के साथ निकल रही थी। गाने की आवाज कुछ ऐसी आ रही थी- ‘’है अपना दिल तो आवारा, न जाने किस पे आएगा।ÓÓ प्रभाष जी ने चौंक कर मुझसे कहा- ‘ये क्या ‘आवाराÓ फिल्म का गाना बजा रहे हैं?Ó मैंने उन्हें बताया कि गाने के बोल तो धार्मिक हैं, लेकिन इसकी धुन ‘आवाराÓ फिल्म की है। उन्होंने तत्कातल मुझसे कहा- ‘इस पर लिखा जाना चाहिए।Ó मैंने बाद में जयपुर के एक अखबार में इस फूहड़ता पर लिखा भी।
प्रभाष जी ने राजस्थान की बहुत यात्राएं की, लेकिन उनकी एक यात्रा के अधूरी रह जाने का अफसोस मुझे भी है। कभी बातचीत में मैंने उन्हें बताया था कि जयपुर तो मात्र 250 वर्ष पुराना शहर है, लेकिन इसके पड़ोस में ही ढाई हजार साल पुरानी ऐतिहासिक नगरी सांभर है, जहां खुदाई में मोहन जोदड़ो-हडप्पा के आस-पास के काल का एक पूरा नगर मिला है। ब्रिटिश कॉलोनी का नजारा और उस जमाने का बना अद्ïभूत सर्किट हाउस आज भी वहां देखा जा सकता है।
अकबर-जहांगीर से जुड़े ऐतिहासिक प्रसंग और वहां खारे पानी की झील में बिछी पटरियों पर चलने वाली छोटी ट्रेन ट्रॉलियों के बारे में भी मैंने उन्हें बताया। इससे वे इतने उत्साहित हुए कि मुझसे कहा- ‘कभी सांभर का कार्यक्रम बनाओ।Ó
उनकी व्यस्तताओं के दौर के चलते यह कार्यक्रम कभी बन नहीं पाया और यह यात्रा उनकी अधूरी ही रह गई। वैसे हमारा मलाल तो यह है कि वे जीवन यात्रा बीच में ही छोड़ कर चले गए।
उनकी अभी हमें और जरूरत थी। उनका हर चाहने वाला आज यही सोच रहा होगा कि उनकी जिंदगी का सफर अभी और चलना चाहिए था, लेकिन नियति को शायद यही मंजूर था। वे बेशक अपनी कई यात्राएं अधूरी छोडक़र चले गए, लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में वे हमेशा जीवित बने रहेंगे। हमारी यादों के सफर में वे हमेशा साथ रहेंगे।
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