‘मनभेद’ न पड़ जाए भारी
विधानसभा चुनाव के नजदीक है, लेकिन नेताओं में ‘मनभेद’ कायम है। नतीजा, सियासी गर्मी का पारा भी बढ़ने लगा है। दो विरोधी पार्टी के नेताओं में आरोप-प्रत्यारोप राजनीति में स्वाभाविक नजर आती है, लेकिन अपने ही ‘अपने’ की कब्र खोदने लगे तो फिर ‘पार्टी’ का बंटाधार होना लाजिमी है। ऐसे नजारे, चुनाव के पहले ही नजर आने लगे हैं। एक-दूसरे को निपटाने, अभी से ही सियासी गणित बिठाए जा रहे हैं। समझा जा सकता है कि ये ‘मनभेद’ कितनी भारी पड़ सकती है ? हालांकि, कहने वाले कहते हैं कि ये तब होता है, जब एक-दूसरे से कोई भी ‘खुद’ को छोटा समझना ही नहीं चाहता।
साहब की ‘पड़ोसी’ मेहरबानी...
इतना सब जानते ही हैं कि एक पड़ोसी की कितनी अहमियत होती है। सुख-दुख में वे साथ होते हैं। इस मामले में हमारे साहब, कुछ हटके हैं। उन्हें पड़ोसी से क्या और कितना लाभ मिलता है, ये तो वे ही जानें, किन्तु पड़ोसियों के जरूर बल्ले-बल्ले हैं। जब से साहब ‘वहां’ से आए हैं, तब से पड़ोसियों की आवभगत जमकर हो रही है और उन पर साहब की मेहरबानी भी जगजाहिर हो गई है। यही वजह है कि साहब के ईर्द-गिर्द ‘पड़ोसी’ मंडराते रहते हैं। कभी यही पड़ोसी, ‘यहां’ झांकने तक नहीं आते थे। लगता है, लगाव का कारण कुछ खास है। आखिर यह तो सच है कि जहां ‘गुड़’ होगा, वहां ‘मक्खी’ तो भिनभिनाएंगे ही...।
...आपका ये दिलवालापन
शिक्षा ‘सर्व’ पहुंचाने की जिस साहब पर जिम्मेदारी है, उनका दिलवालापन का क्या कहें...। उनकी समझ में तो शासन की सारी योजनाएं ही बंदरबाट के लिए बनी है। उनके ‘दिलवालेपन’ का शुरूर चढ़े तो वे शासन का ही ‘दिवाला’ निकाल दे। तभी तो चंद रूपये की नहीं, लाखों के बाद, अब वे करोड़ों के ‘खिलाड़ी’ साबित हो रहे हैं। बंदरबाट में निश्चित ही उनकी कोई सानी नहीं है, जितना कर दे, कम है। लगता है कि शासन के पैसे को वे खुद का समझते हैं, न कोई नियम, न कायदे। जहां चाहो, जैसे चाहो, अपने तरीके से खर्च कर डालो। कोई पूछने तो आएगा नहीं, जो आएगा, उन्हें भी ‘दो-चार’ देकर चलता कर दो। साहब के ‘खाओ-खिलाओ’ का पाठ खूब पढ़ा जा रहा है, यह कब तक पढ़ा जाएगा, इसकी भी खूब चर्चा जरूर हो रही है।
उनकी ‘लाइन’ का दर्द
सुरक्षा वाले एक साहब, कहा करते थे, वे कभी ‘लाइन’ में नहीं रहे। उनकी ‘चाहत’ अब पूरी हो गई है। ऐसा लगता है, जैसे अंतिम छोर में होने की वजह से कुछ ज्यादा ही बे-लगाम हो गए थे, जिसके बाद बड़े साहब ने उन पर ‘लाइन’ की लगाम डाल दी। अब उन्हें ‘लाइन’ का दर्द सालने लगा है। जहां थे, वहां के रौब के सामने लाइन का काम उन्हें रास नहीं आ रहा है। वे बड़े चिंतित हैं। अब करे तो क्या करें, बड़े साहब से मनमुटाव का नतीजा भोगना पड़ता है। खैर, वे ‘लाइन’ को काफी याद किया करते थे, इसलिए कुछ उन्हें ‘लाइन’ का मजा भी ले लेना चाहिए। फिर पता चलेगा कि लाइन में ‘मलाई’ का आनंद है या फिर वहां, जहां रहते आए हैं।
विधानसभा चुनाव के नजदीक है, लेकिन नेताओं में ‘मनभेद’ कायम है। नतीजा, सियासी गर्मी का पारा भी बढ़ने लगा है। दो विरोधी पार्टी के नेताओं में आरोप-प्रत्यारोप राजनीति में स्वाभाविक नजर आती है, लेकिन अपने ही ‘अपने’ की कब्र खोदने लगे तो फिर ‘पार्टी’ का बंटाधार होना लाजिमी है। ऐसे नजारे, चुनाव के पहले ही नजर आने लगे हैं। एक-दूसरे को निपटाने, अभी से ही सियासी गणित बिठाए जा रहे हैं। समझा जा सकता है कि ये ‘मनभेद’ कितनी भारी पड़ सकती है ? हालांकि, कहने वाले कहते हैं कि ये तब होता है, जब एक-दूसरे से कोई भी ‘खुद’ को छोटा समझना ही नहीं चाहता।
साहब की ‘पड़ोसी’ मेहरबानी...
इतना सब जानते ही हैं कि एक पड़ोसी की कितनी अहमियत होती है। सुख-दुख में वे साथ होते हैं। इस मामले में हमारे साहब, कुछ हटके हैं। उन्हें पड़ोसी से क्या और कितना लाभ मिलता है, ये तो वे ही जानें, किन्तु पड़ोसियों के जरूर बल्ले-बल्ले हैं। जब से साहब ‘वहां’ से आए हैं, तब से पड़ोसियों की आवभगत जमकर हो रही है और उन पर साहब की मेहरबानी भी जगजाहिर हो गई है। यही वजह है कि साहब के ईर्द-गिर्द ‘पड़ोसी’ मंडराते रहते हैं। कभी यही पड़ोसी, ‘यहां’ झांकने तक नहीं आते थे। लगता है, लगाव का कारण कुछ खास है। आखिर यह तो सच है कि जहां ‘गुड़’ होगा, वहां ‘मक्खी’ तो भिनभिनाएंगे ही...।
...आपका ये दिलवालापन
शिक्षा ‘सर्व’ पहुंचाने की जिस साहब पर जिम्मेदारी है, उनका दिलवालापन का क्या कहें...। उनकी समझ में तो शासन की सारी योजनाएं ही बंदरबाट के लिए बनी है। उनके ‘दिलवालेपन’ का शुरूर चढ़े तो वे शासन का ही ‘दिवाला’ निकाल दे। तभी तो चंद रूपये की नहीं, लाखों के बाद, अब वे करोड़ों के ‘खिलाड़ी’ साबित हो रहे हैं। बंदरबाट में निश्चित ही उनकी कोई सानी नहीं है, जितना कर दे, कम है। लगता है कि शासन के पैसे को वे खुद का समझते हैं, न कोई नियम, न कायदे। जहां चाहो, जैसे चाहो, अपने तरीके से खर्च कर डालो। कोई पूछने तो आएगा नहीं, जो आएगा, उन्हें भी ‘दो-चार’ देकर चलता कर दो। साहब के ‘खाओ-खिलाओ’ का पाठ खूब पढ़ा जा रहा है, यह कब तक पढ़ा जाएगा, इसकी भी खूब चर्चा जरूर हो रही है।
उनकी ‘लाइन’ का दर्द
सुरक्षा वाले एक साहब, कहा करते थे, वे कभी ‘लाइन’ में नहीं रहे। उनकी ‘चाहत’ अब पूरी हो गई है। ऐसा लगता है, जैसे अंतिम छोर में होने की वजह से कुछ ज्यादा ही बे-लगाम हो गए थे, जिसके बाद बड़े साहब ने उन पर ‘लाइन’ की लगाम डाल दी। अब उन्हें ‘लाइन’ का दर्द सालने लगा है। जहां थे, वहां के रौब के सामने लाइन का काम उन्हें रास नहीं आ रहा है। वे बड़े चिंतित हैं। अब करे तो क्या करें, बड़े साहब से मनमुटाव का नतीजा भोगना पड़ता है। खैर, वे ‘लाइन’ को काफी याद किया करते थे, इसलिए कुछ उन्हें ‘लाइन’ का मजा भी ले लेना चाहिए। फिर पता चलेगा कि लाइन में ‘मलाई’ का आनंद है या फिर वहां, जहां रहते आए हैं।
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