अजय कुमार, लखनऊ
अयोध्या में भगवान रामलला के मंदिर निर्माण से देश-दुनिया में फैले उनके असंख्य राम भक्त काफी प्रफुल्लित हैं। ऐसा होना स्वभाविक भी है। दुनिया के किसी कोने में किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के भक्त को अपने अराध्या का मंदिर(पूजा स्थल) बनवाने के लिए इतनी लम्बी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी होगी,जितनी रामभक्तों ने की। अयोध्या में रामलला का मंदिर बनने की सभी बाधाएं दूर होने के साथ ही भारतीय जनता पार्टी की भी अयोध्या में भगवान राम का भव्य मंदिर बनाए जाने की मुहिम अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच गई। भाजपा इस मुद्दे को उछालकर राजनैतिक रूप से जितना फायदा उठा सकती थी,वह उसका उतना फायदा उठा चुकी है। 2024 के लोकसभा चुनाव आते-आते यह मुद्दा और भी ठंडा पड़ जाएगा,इस बात की उम्मीद लगाई जा सकती है।
भारतीय जनता पार्टी के लिए राम मंदिर निर्माण की मुहिम कितनी सार्थक रही,इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1980 में भारतीय जनता पाटी का गठन हुआ था और इसके बाद 1984 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को दो सीटे मिली थीं और 36 वर्षो के बाद भाजपा राम के सहारे दो से 2019 के आम चुनाव में 303 तक पहुंच गई। ( 2014 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा ने राम लहर के सहारे 282 सीटें जीत कर केन्द्र में सरकार बनाई थी।) दो बार से केन्द्र में बीजेपी के बहुमत वाली मोदी सरकार काबिज है। वैसे मोदी बीजेपी के पहले राजनेता नहीं हैं जो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं। मोदी से पहले भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी दो बार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो चुके थे। तब भाजपा के पास पूर्ण बहुमत नहीं था और उसने सामान विचारधारा वाले राजनैतिक दलों का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(राजग) बना कर सरकार बनाई थी। अटल जी पहली बार 16 मई से 1 जून 1996 तक फिर 19 मार्च 1998 से 22 मई 2004 तक भारत के प्रधानमंत्री रहे थे। उस समय भी राम लहर के चलते ही बीजेपी सत्ता में आ पाई थी।
भाजपा ने 90 के दशक में राम लला के मंदिर निर्माण की मुहिम शुरूआत की थी। यह शुरूआत भाजपा के उभार के लिए टर्निंग प्वांइट रहा तो इसी के चलते कांगे्रस नेपथ्य में चली गई। भारतीय जनता पार्टी जब राम मंदिर निर्माण के आंदोलन में कूदी थी तो उसका ध्येय किसी से छिपा नहीं था। उसका यह निर्णय शुद्ध रूप से राम मंदिर निर्माण की मुहिम को सियासी जामा पहनाने वाला था। भाजपा से पहले तक गैर राजनैतिक संगठन विश्व हिन्दू परिषद(विहिप) राम मंदिर निर्माण की ‘लड़ाई’ लड़ते हुए कांगे्रस से दो-दो हाथ कर रही थी। भारतीय जनता पार्टी मंदिर निर्माण की मुहिम में कैसे और क्यों कूदी इसकी ‘बुनियाद’ तलाशी जाए तो काफी कुछ साफ हो जाता है। कांगे्रस के देशव्यापी वर्चस्व को तोड़ने के लिए ही भाजपा ने रामलला को अपने ‘सीने’ में बैठाया था। भगवान राम के सहारे भाजपा टुकड़ों और जातिवाद में बंटी देश की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी को पार्टी के ‘बैनर तले एकजुट करना चाहती थी,जबकि कांगे्रस हिन्दुओं में बिखराव करके सियासी रोटियां सेंकने में लगी हुई थी। कांगे्रस मुस्लिम तुष्टीकरण की सियासत करती थी और हिन्दुओं में अगड़े-पीछड़े की फूट डालकर कुछ जातियों को अपने साथ मिलाकर सत्ता की सीढ़िया चढ़ जाया करती थी। कांगे्रस के इसी खेल को भाजपा ने हिन्दुओं को एकजुट करके चुनौती दी,तो रामलला उसके सहारा बने। भाजपा पूरे देश में कांगे्रस के वर्चस्व को तोड़ने में लगी थी,तब ही ‘सोने पर सुहागा’ के रूप में उसे एक सुनहरा मौका तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने सरकारी नौकरियों में पिछड़ों को 52 फीसदी आरक्षण के लिए मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करके दे दिया।
90 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह द्वारा अपनी सरकार बचाने के लिए पिछड़ों को 52 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया था। इससे भाजपा को हिन्दुओं को एकजुट करके सत्ता हासिल करने की अपनी सियासी जमीन खिसकती नजर आई तो उसने (भाजपा) मंडल के खिलाफ कमंडल (अयोध्या में राम लला के मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन का चलाया जाना) पकड़ लिया। भाजपा ने मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन शुरू किया तो कई क्षेत्रीय क्षत्रपों ने मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए राम मंदिर निर्माण के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया। भाजपा को इससे और भी मजबूती मिली।
हद तो तब हो गई जब 30 अक्टूबर 1990 को मुस्लिम तुष्टीकरण की सभी सीमाएं पार करते उस समय के उत्तर प्रदेश के समाजवादी नेता और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अयोध्या में भगवान राम मंदिर के निर्माण के लिए पहुंचे निहत्थे कारसेवकों पर गोलियां चलावा दी। मुलायम सिंह ने अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाकर विवादित ढांचा (कथित बाबरी मस्जिद) तो उस समय बचा ली, लेकिन इसके बाद बीजेपी मुलायम सिंह यादव की छवि हिंदू विरोधी बनाने में सफल रही,जिसके चलते उत्तर प्रदेश से लेकर देश की सियासत हमेशा के लिए बदल गई। बीजेपी नेता अपने भाषणों में कारसेवकों पर गोली चलवाने के चलते मुलायम को ‘मुल्ला मुलायम’ कह कर संबोधित करने लगे और यह तमगा मुलायम के साथ तब तक जुड़ा रहा,जब तक वह सियासत में सक्रिय रहे। हाॅ, मुलायम ने इसका फायदा भी खूब उठाया। वह खुलकर मुस्लिमों की सियासत करते थे।
बहरहाल, कारसेवकों पर गोली चलाए जाने के कुछ महीनों बाद 1991 में लोकसभा चुनाव हुआ तो बीजेपी 85 से बढ़कर 120 सीट पर पहुंच गई। इतना ही 1991 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव हुआ तो मुलायम सिंह बुरी तरह हार गए और बीजेपी पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब रही। कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 1992 में कारसेवक एक बार फिर से अयोध्या में जुटने लगे। 6 दिसंबर 1992 को वही प्रशासन जिसने मुलायम के दौर में कारसेवकों के साथ सख्ती बरतने की सभी सीमाएं लांघ ली थीं,वह कल्याण सरकार में मूकदर्शक बना रहा और कारसेवकों ने उसी के सामने विवादित ढांचा गिरा दिया।
खैर, बात 30 अक्टूबर 1990 को मुलायम सरकार द्वारा कारसेवकों पर गोली चलाने की कि जाए तो मुलायम ने इस घटना को छिपाया नहीं। उन्होंने बकायदा प्रेस के माध्यम से यह जानकारी सार्वजनिक भी की पुलिस फायरिंग में 16 कारसेवकों की मौत हो गई। इतना ही नहीं कारसेवकों पर फायरिंग की जांच के लिए बने आयोग ने भी अपनी जांच में यही निष्कर्ष निकाला कि 16 कारसेवक पुलिस की गोली से मारे गए थे, इस जांच पर किसी को विश्वास नहीं था। भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिन्दू परिषद और तमाम हिन्दूवादी संगठन भी चीख-चीख कर कह रहे थे कि 16 नहीं, सैकड़ों की संख्या में कारसेवक पुलिस फायरिंग में मरे थे,तो हजारों पुलिस की लाठियों और भगदड़ में घायल हुए थे। विश्व हिन्दू परिषद एवं भाजपा नेताओं ने आरोप लगाया था कि सरयू नदी का पानी कारसेवकों के खून से लाल हो गया था,लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि मुलायम सरकार के समय पुलिस फायरिंग में कितने कारसेवकों की मौत हुई थी, इसकी जांच कराना न तो मुलायम के बाद उत्तर प्रदेश में बनी बीजेपी की कल्याण सरकार ने उचित समझा, न ही राजनाथ सिंह से मुख्यमंत्री रहते कोई ऐसी जांच कराई जिससे यह पता चल पाता कि हकीकत में कितने कारसेवक पुलिस फायरिंग में मारे गए थे। दो बार केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बन चुकी है। मोदी सरकार को भी छह वर्ष से अधिक हो चुके हैं,लेकिन कारसेवकों की मौत का सही आकड़ा पता लगाने के लिए उसके द्वारा भी इस तरह की कोई पहल नहीं की गई,जिससे कारसेवकों की मौत का सही पता चल सके। जांच तो जांच मारे गए कारसेवकों के परिवार की केन्द्र और राज्यों की बीजेपी सरकार ने कभी सूध लेना भी उचित नहीं समझा।
यहां यह बताना जरूरी है कि भले ही आज तक पुलिस फायरिंग में मारे गए कारसेवकों की मौत के आंकडे स्पष्ट ही नहीं हुए हों,लेकिन उस वक्त घटना स्थल पर मौजूद रामजन्मभूमि थाने के तत्कालीन एसएचओ वीर बहादुर सिंह ने बाद में जरूर बताया कि कारसेवकों की मौत का जो आंकड़ा मुलायम सरकार द्वारा बताया गया था, उससे कही अधिक संख्या में कारसेवक उस घटना में मारे गए थे। उन्होंने बताया, हमें तत्कालीन मुलायम सरकार को रिपोर्ट देनी थी तो हम तफ्तीश के लिए श्मशान घाट गए, वहां हमने पूछा कि कितनी लाशें हैं जो दफनाई गई हैं और कितनी लाशों का दाह संस्कार किया गया है, तो पता चला कि 15 से 20 लाशें दफनाई गई हैं। हमने उसी आधार पर सरकार को अपना बयान दिया था। जबकि हकीकत यह थी वे लाशें कारसेवकों की थीं। एसएसओ आज भी दावे से कहते हैं उस गोलीकांड में कई लोग मारे गए थे। आंकड़े तो नहीं पता,लेकिन काफी संख्या में लोग मारे गए थे।
अच्छा होता यदि बीजेपी की केन्द्र और तमाम राज्य सरकारें मारे गए कारसेवकों की याद में किसी पुरस्कार की घोषणा कर देते। मारे गए कारसेवकों के परिवार के भरण-पोषण की व्यवस्था कर देते। ऐसा होना संभव भी है। क्योंकि तमाम सरकारें अपने वोट बैंक को खुश करने के लिए मदद के नाम पर इस तरह के कदम उठाती रही हैं। कौन भूल सकता है जब 2013 में मुजफ्फरनगर में हिंसा के बाद अखिलेश यादव ने वोट बैंक की सियासत के चलते मुसलमानों के लिए सरकारी पैसा पानी की तरह बहा दिया था। हमारे एक प्रधानमंत्री तो खुलकर कहते थे कि देश की प्राकृतिक सम्पदा पर मुसलमानों का पहला हक है,लेकिन कारसेवकों को रूसवाई के अलावा कुछ नहीं मिला, जबकि इन्हीं कारसेवकों की ‘पीठ’ पर सवाल होकर भाजपा सत्ता की ‘मलाई’ खा रही है।
30 अक्टूबर 1990 को पुलिस फायरिंग में मारे गए कारेसवकों का दर्द तो उनके परिवार वाले ही बात सकते हैं। फिरभी 05 अगस्त को राम मंदिर भूमि पूजन उन 17 कार सेवकों के परिवारों के लिए खुशी का मौका लेकर आया है, जो अक्तूबर और नवम्बर 1990 में उत्तर प्रदेश पुलिस की फायरिंग में मारे गए थे। राम मंदिर न्यास ने, जो राम मंदिर निर्माण की निगरानी कर रहा है, ने 17 मृत कारसेवकों के परिवार वालों को रामजन्मभूमि पूजन समारोह में आमंत्रित किया तो यह परिवार लम्बे समय के बाद एक बार फिर सुर्खियों में आकर खुश तो हो गया, लेकिन ये चाहते हैं कि इनके प्रिय जनों के ‘बलिदान’ के एवज में सरकार इनकी आर्थिक सहायता करे।
30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या में मरने वाले कारसेवकों में एक राजेंद्र प्रसाद धारकर भी था, जो उस समय सिर्फ 17 साल का था। राजेन्द्र के भाई रवींद्र प्रसाद धारकर, जिन्हें भूमि पूजन में भाग लेने के लिए आमंत्रण पत्र मिला था, को इस बात का बेहद मलाल है कि उसका भाई राजेंद्र प्रसाद धारकर 30 अक्तूबर को फायरिंग में मारा गया था. वो कार सेवा में हिस्सा लेने गया था और वहां बहुत भीड़ जमा हो गई। पहले आंसू गैस छोड़ी गई और फिर फायरिंग हुई. वो केवल 17 साल का था, लोकिन अपने भर का कुछ करना चाहता था। कारसेवा के दौरा मारे गए राजेन्द्र के भाई ने कहा,‘ हम चाहते हैं कि कोई हमारे और हमारी स्थिति के ऊपर भी ध्यान दे। हम आज भी वैसे ही हैं जैसे पहले थे। किसी ने हमारी परेशानियों को नहीं सुना है, चाहे विधायक हो, सांसद हो या पार्षद हो. किसी ने ये देखने की जहमत नहीं उठाई कि एक शहीद का परिवार किन हालात में जी रहा है।उन्होंने कहा कि वो खुश हो जाएंगे, अगर उन्हें मंदिर परिसर के भीतर, एक दुकान लगाने की जगह मिल जाए।
इसी प्रकार सीमा गुप्ता के पिता वासुदेव गुप्ता की अयोध्या में मिठाई की दुकान थी,वह भगवा झंडा फहराने के बाद, घर लौटते हुए मारे गए थे। सीमा ने अपने दर्द को छिपाते हुए कहा, ‘हमारी सारी समस्याएं इस वास्तविकता के सामने मामूली लगती हैं, कि ये मंदिर आखरिकार बन रहा है. मेरे पिता ने मंदिर के लिए अपनी जान दे दी, और पीएम मोदी की बदौलत आज हम ये दिन देख रहे हैं।ं सीमा गुप्ता जो एक ग्रेजुएट हैं, अब एक गार्मेंट की दुकान चलाती हैं, और चाहती हैं कि सरकार उन्हें कोई नौकरी दिलाए. उन्होंने आगे कहा, ‘सड़क-चैड़ीकरण परियोजना के तहत इस दुकान को हटा दिया जाएगा. मेरे लिए जीविका का यही एक साधन है. मेरा आग्रह है कि या तो दुकान के लिए मुझे मंदिर के भीतर कुछ जगह दी जाए, या फिर कोई नौकर।.’
इसी प्रकार गायत्री देवी जो कार सेवक रमेश पाण्डे की विधवा हैं, के पति भी 30 अक्टूबर 1990 को 35 वर्ष की आयु में मारे गए थे. उन्होंने भी गुप्ता और धनकर जैसी ही इच्छा जाहिर की। उन्होंने कहा, ‘मेरे पास ज्यादा पैसा नहीं था (जब मेरे पति की मौत हुई) और फिर भी मैंने अपने बच्चों की परवरिश की. मेरे बेटे कुछ प्राइवेट काम करते हैं, जो उनके लिए काफी नहीं पड़ता। आज भी, मेरे पास आय का कोई दूसरा साधन नहीं है। जिस घर में मैं रहती हूं, किराए का है, इसलिए मैं उम्मीद करती हूं कि सरकार हमारी मदद करेगी।’
लब्बोलुआब यह है कि मारे गए कारसेवकों के परिवार के सदस्यों इस बात का बेहद मलाल है कि वह तो रूसवाई में जी रहे हैं,जबकि भाजपा उनकी पीठ पर चढ़कर मलाई मार रही है।
लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.
7.8.20
कारसेवकों को मिली रुसवाई, भाजपा ने खाई मलाई
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