मैं अपने आप को परसों से रोके हुए था कि इस विषय पर कुछ भी बोलने से रोके हुए था पर आज मैं एक न्यूज चैनल पर देख रहा हूं कि राज ठाकरे और उसके गीदड़ों के बारे में कुछ न बोलूं क्योकि इलैक्ट्रोनिक मीडिया तो बस दो मिनट की एक क्लिप को दिन भर दिखा कर जब तक कुछ बवाल नहीं करवा देते । चैनल दिखा रहा है कि मुम्बई में उत्तर भारतीयों में दहशत का माहौल है लेकिन मैं आज दादर से जिस लोकल में सफ़र कर रहा था तो फ़र्स्ट क्लास से जुड़े एक डिब्बे में करीब आठ-दस लोग मिल कर एक हिन्दी भाषी फल विक्रेता को पीट रहे थे और नारे लगा रहे थे,"राज ठाकरे जिन्दाबाद ,लालू की मां की....,भइया लोगों मुम्बई छोड़ो वगैरह वगैरह..."। मैंने देखा कि इन फ़टैल लोगों ने मुंह पर रुमाल बांध रखे थे । जैसे ही गाड़ी स्टेशन पर खड़ी हुई तो मैं उन गीदड़ों की तरफ गरियाते हुए दौड़ा कि आओ सालों मुझे मारो मैं भी हिन्दी बोलने वाला हूं और स्टेशन पर खड़े एक रेलवे पुलिस वाले का डंडा छीन कर घुमाना शुरू कर दिया तो मेरा ऐसा रौद्र रूप देख कर यकीन मानिए कि न तो उस पुलिस वाले की हिम्मत हुई कि मुझसे डंडा वापिस मांगे और न ही वे गीदड़ पलटे साले इतने डरपोक हैं कि दस होकर भी भाग गये । मैने एक बार फिर देख लिया कि देश को तोड़ने वाली ताकतों के सामने अगर हम सीना तान कर खड़े हो जाएं तो वे भाग खड़े होते हैं । आप सबको याद होगा कि इससे पहले बिलकुल यही कार्ड शिवसेना ने भी चला था और अब तीन दिन से राज्य सरकार चुप्पी साधे बैठी थी ताकि जनता तक खाज ठाकरे का संदेश चला जाए और शिवसेना का परप्रान्तवादी कार्ड छिन जाए साफ समझ में आता है कि यह कांग्रेस और मनसे ने मिल कर चाल चली है । बस विद्वेष फैल गया ,कुछ दिन में यकीन करिए कि जैसे शिवसेना की उत्तर भारतीय ब्रान्च है वैसे ही लोग देखेंगे कि मनसे की भी उत्तर भारतीय ब्रान्च है और लोग फिर सब भूल कर प्यार से रहने लगेंगे तथा महाराष्ट्र को एक नया मराठी नेता मिल जाएगा जो वक्त-बेवक्त चुनाव के समय ये कार्ड चलता रहेगा । मैंने स्टेशन पर खड़े होकर चिल्ला-चिल्ला कर कहा था कि मेरा संदेश उस सुअर तक पहुंचा दो कि अगर एक बाप की औलाद है वो साला तो मुझसे आकर दो-दो हाथ करे सीधे लड़े, कमजोर गरीबों को क्यों सता रहा है ,मैं यहीं इंतजार कर रहा हूं । पुलिस वालों ने मुझे एक घंटे तक वहां रहने के बाद हाथ-पैर जोड़ कर भेज दिया । बस क्रोध का अभिनय ही काफ़ी है इन लोगों के लिये ,मेरे गुरुदेव ने कहा कि अगर क्रोध नहीं करना हो तो क्रोध का अभिनय करो और यदि समग्र अभिनय रहा तो फलदायी रहेगा । शांत रहना आवश्यक है और हर हाल में सही निर्णय करना आवश्यक है...........
कुछ समझे भाई लोग
जय भड़ास
वास्तव में यह कमीनेपन की हद है। ऐसे लोगों को अगर एक बार ठीक से लतिया दिया जाए तो जिंदगी भर के लिए हरामीपना भूल जाएंगे।
ReplyDeletebhaijan aapki dileri ki dad deta hun. housla rakhiye salon ko marenge chun chun kar. aur apne beton ki baarat mayanagri hi jayegi.
ReplyDeleteरूपेश जी आपनें भी अंतरआत्मा के आहत होने से मर्सिया पढना शुरू कर दिया,अब आप से दुष्यंत के इस शिष्य की गुजारिश है रचनातमक्ता की और ध्यान दें और जैसै ही मौका मिले दुष्यंत की साये मैं धूप पढें आपको पता चलेगा कि देश के हालातों पर सिर्फ मर्सिया ही पढा जा सकता है,जैसा आपनें पढ दिया है,और कुछ नहीं।
ReplyDeleteभाई, आपके जज्बे को सलाम. हम सब कायरों को कुछ प्रेरणा मिल जाये तो समझिए भड़ास निकालने की कुछ सार्थकता है।
ReplyDeleteअनुराग भाई, इसे मर्सिया पढ़ना नहीं बल्कि ताल ठोंक कर खड़े हो जाना कहते हैं ;शायरी लिखना और हालातों का सामना करना दो अलग-अलग बाते हैं.....
ReplyDeleteजय भड़ास
rupesh sir ke zazbe ko salaam.;
ReplyDeleterupesh sir ke zazbe ko salaam.;
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