कल तक थे नौकरी में जो लकड़ी की टाल के
कविता के आज बन रहे वो दादा फालके
मरने के बाद यार ने ऐसा किया सुलूक
जूते पहन के फिरता है वो मेरी खाल के
मीना बाजार लाएगा वो अब खरीदकर
निकला है घर से जेब में इक सिक्का डाल के
दिल में हजार वाट का जलने लगा है बल्ब
उसने पिला दीं बिजलियां शीशे में ढाल के
अच्छी भली किताब का अब तो अकादमी
करती है खूब फैसला सिक्का उछाल के
नीरव महरबां हुए यारों पर इस तरह
बकरे हों जैसे ईद पर यारो हलाल के
gajab..suresh ji..aapne sahi likha hai..sabhi bhadasi saathion ki taraf se badhai.
ReplyDeleteDilip Dugar
gajab..suresh ji..aapne sahi likha hai..sabhi bhadasi saathion ki taraf se badhai.
ReplyDeleteDilip Dugar
प्रभु श्री,आप तो हड़कम्प मचा देने वाले प्राणियों में से हैं भड़ास पर कभी भी आप के रहते नीरवता का तो सवाल ही नहीं पैदा होगा; ऐसे ही गजबनाक तरीके से शब्दजाल बनाइए मेरे प्रिय भड़ासी मकड़े राजा और हम शब्दप्रेमी मक्खी-मच्छरों को पकड़-पकड़ कर साधुवाद चूसते रहिये......
ReplyDeleteजय जय भड़ास