3.4.08

भेंट / धूमिल

कल सुदामा पाण्डे मिले थे
हरहुआ बाजार में। खुश थे। बबूल के
बन में बसन्त से खिले थे।
फटकारते बोले, यार! खूब हो
देखते हो और कतराने लगते हो,
गोया दोस्ती न हुई चलती- फिरती हुई ऊब हो
आदमी देखते हो, सूख जाते हो
पानी देखते हो, गाने लगते हो।
वे जोर से हँसे। मैं भी हँसा।
सन्त के हाथ -बुरा आ फँसा
सोचा -
उन्होंने मुझे कोंचा। क्या सोचते हो?
रात-दिन
बेमतलब बवण्डर का बाल नोचते हो
ले- देकर एक अदद
चुप हो।



वक्त के गंजेड़ी की तरह फूँकते रहे हो
चेहरे पर चमाइन मूत गई है। इतनी फटकार
जैसे वर्षों से अपनी आँखो में थूकते रहे हो।
अरे यार, दुनिया में क्या रखा है?
खाओ-पीओ, मजा लो
विजयी बनो-विजया लो
रँगरती
ठेंगे पर चढ़े करोड़पति।

5 comments:

  1. मजा आ गया हरे भैया...चमाइन भी मुतेगी तय्यो हम लोग खुश रह कर बिंदास जिन्दगी जी लेंगे....करोर्पति लोग तुम अपनी सोचो.

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  2. पंडित जी,गहरे भावों को उकेरा है धूमिल जी ने...
    अब जरा एक बात मनीष भाई से कि जब चमाइन चेहरे पर मूतेगी तो आंखे खुली रखना है या बंद,खुश रहने का तो भड़ासियाना आधार यही होगा..
    जय जय भड़ास

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  3. adbhut hai hare bhayi. padhane ke liye aapko dhanywad.

    yashwant

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  4. हरे प्रकाश जी मस्त कविता है,
    मज़ा आ गया।

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  5. उपाध्यायजी,श्रीधूमिलजी की कविता बहुत अच्छी लगी।.बधाई। दुनिया के तनाव से छुटकारा दिलाने का विजया ही एक स्वदेशी फार्मूला है,इसी लिए चौबे लोग ठंडाई छानते वक्त कहते हैं-
    छान-छान किसी की मत मान
    तब क्या छानेगा
    जब निकल जाएगी जान?
    आप भी इसका सेवन करते रहें।
    पं.सुरेश नीरव

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