--जेपी नारायण--
...वह रोहिणी (दिल्ली) की गलियों में दाढ़ी बढ़ाकर घूम रहा है। पहचानो उसे, मार भगाओ। वह एक शातिर मठाधीश है। कुत्ते की तो भी एक दियानतदारी होती है। मजदूरों के नाम पर उसने अपनी दुकानदारी जमा रखी है। पहचानो उसे। पहचानो। उसकी दुकान में तरह-तरह के माल है। समाजवादी माल। जनवादी माल। वह पुस्तक-फरोश क्रांतिकारिता का अलमबरदार बना छुट्टा घूम रहा है। अपने तरफदारों के बीच कहता है कि वह भूमिगत है। नक्सलवादी है लेकिन हकीकत ये है कि वह कुछ और ही कारनामो को अंजाम दे रहा है। पहचानो उसे। पहचानो!
जनवाद और समाजवाद के नाम पर हजारो कथित कामरेड ऐसे भी है जो लेबी के पैसे से कोढियों की तरह पल रहे हैं। ठाट की जिंदगी जी रहे हैं। बेटे-बेटी के शादी व्याह रचा रहे हैं। विदेशी ब्राड के कपड़े पहन कर मारुति से दिल्ली की गलियों में घूम रहे हैं। उन्हीं में एक जनाब ऐसे हैं जो मीडिया की आड़ में पुस्तक का धंधा कर रहे हैं। इन कथित क्रांतिकारियों ने अब तक हजारो लोगों को चूना लगाया है। सैकड़ो लोगो के घर-मकान बिकवा दिए। और दर्जनों लोगों के साथ ऐसा शर्मनाक कृत्य किया, जिसे सुन कर कोई भी शर्म से गड़ जाए। ऐसे लोगों को इन धंधेबाजों ने पहले तो विचारों की घुट्टी पिलाकर संगठन में शामिल किया, रूपये-पैसे दुहे, जब वह आर्थिक मदद देने लायक नहीं रहा तो निकाल बाहर किया।
----एक ऐसी ही लड़की, अपना घर-परिवार छोड़कर पति के साथ इन धंधेबाजों के चंगुल में फंस गई। इस बीच उसके पति का आर्थिक दोहन चलता रहा। इसी बीच वह लड़की प्रीगनेंट हो गई। तब तक इस दंपत्ति का भरपूर दोहन किया जा चुका था। ...और फिर उनके साथ भी वही हुआ, जो अब तक दर्जनों के साथ हो चुका था। उन्हें संगठन से खदेड़ दिया गया। वे दिल्ली की गलियों में काफी समय तक दर-दर भटकते रहे।
........कारनामा यही तक होता तो गनीमत थी। इन धंधेबाजों का एक और हैरतअंगेज कारनामा। वे क्रांति के लिए संघर्ष का नारा देते हुए शोषण का जोरदार आइडिया भी बखूबी आजमा रहे हैं। उन्होंने दिल्ली में एक ट्रांसलेशन ब्यूरो खोल रखा है। ब्यूरो में युवाओं को रोजगार के नाम पर चूसा जा रहा है। ब्यूरो के कर्ता-धर्ता प्रकाशकों से या अन्य सरकारी-गैरसरकारी संस्थानों से ट्रांसलेशन के लिए मैटर जुगाड़ लाते हैं। बेरोजगार युवा उन्हें अनूदित करते हैं। एक-एक युवक प्रति माह २५ से ३० हजार रुपये तक का काम कर देता है। उसमें छह से आठ हजार रुपये उसे पकड़ा दिए जाते हैं, बाकी रकम धंधेबाजों के जेब में चली जाती है, जिससे वे ऐशो-आराम की जिंदगी जीते हैं, समाजवाद पर लंबे-लंबे आख्यान देते हैं। और धंधेबाजों का दावा होता है कि ट्रांसलेशन ब्यूरो की लंबी कमाई क्रांति के कारोबार में लगाई जा रही है।
...उनकी करनी अनंत है, यहां कितना गिनाएं-बताएं। इन मुफ्तखोरों के आए दिन मैग्जीनों में लंबे-लंबे लेख छपते हैं। जनवाद-समाजवाद की बातें होती हैं और अंधेरे की करतूतें ऐसी कि वामपंथ गया तेल लेने।
....और तरह-तरह के रंगे-सियार वामपंथ के नाम पर १९५० के दशक से जो कुछ कर रहे हैं, नांदीग्राम जैसी पटकथाएं लिखते हुए आजकल प.बंगाल में पूंजी निवेश के लिए पाजामा खोले खड़े हैं। उनके हजारो-हजार कथित कम्युनिस्ट कार्यकर्ता फिल्ड में नित-नए कीर्तिमान रच रहे हैं। कोई इप्टा के नाम पर धंधा चला रहा है तो कोई भाकपा-माकपा के नाम पर। कोई गोली-बंदूक लेकर बीहड़ में चौथ वसूली कर रहा है तो हथियारों की तस्करी तक में लिप्त है।
इस तरह देखिए-जानिए कि कम्युनिज्म के नाम पर देश में कितना बड़ा कारोबार चल रहा है। शर्म है ऐसे कथित वामपंथियों पर, धिक्कार है उनकी काली करतूतों को। बात सियासत तक ही नहीं, एक-से-एक घाघ बुद्धिजीवी बहसों में, कविताओं, लेखों में, मंचों पर, गोष्ठियों में इस तरह नमूदार होते हैं, मानो वाह-वाह झुग्गी-झोपड़ी का क्या खूब दर्द उड़ेला है, और अपनी निजी जिंदगी में वातानुकूलित कमरों, हवाई उड़ानों के आनंद से लबरेज होते हैं। कोई स्री-विमर्श के नाम पर दिल्ली में मजे कर रहा है तो कोई एनजीओ के कारोबार में लाखों की कमाई में अस्तव्यस्त है। ....फिलहाल तो इतना ही।
-जेपी नारायण के ब्लाग बेहया (http://behaya.blogspot.com) से साभार
क्या कहें?किससे कहें? कब कहें? क्योंकर कहें? इन कुत्ते कमीने नेताओं को लीडर कहें जोकर कहें??
ReplyDeleteजो भी हो रहा है भयानक है तो चलो मित्रों निंदा-निंदा खेलते हैं और हमारे हाथ में है ही क्या निंदा की तुतुहरी फूंकने के सिवाय.....?????
रूपेश भइया से पूरी तरह सहमत हूँ.
ReplyDeleteयशवंत भाई, कालेज के दिनों में एक बार विकल्प
ReplyDeleteनाम की संस्था ने मेरे अंदर भी एक क्रांतिकारी
ज्वाला भडकाने की नाकाम कोशिश की थी, नाकाम तो क्या कहूं उन्होने अपना काम कर ही दिया था।
बैठकों के बहाने से मेरे घर पर आना शुरु करा।
मुझसे कहा गया कि आप नये सदस्य हैं। आपको
पुराने कामरेडो से मिलवाने का इससे बेहतर
तरीका नही हो सकता है।
दरअसल वो लोग इस बहाने से १५-२० लोगो
की खेप लेकर आते थे और आये दिन चाय
नाश्ते के दौर चलते थे। कुछ हद तक तो मैने
बर्दाश्त किया लेकिन हद तो उस दिन हो गई
जब मैने इन तथाकथित भुक्खड़ कम्यूनिस्टों
से कहा कि भाई अब आप बैठक के लिये कोई
अन्य स्थान तलाश करें मै मध्यम वर्गीय
परिवार से हूं और पिता जी रिटायर हो चुके हैं
मै इन दावतो का खर्चा नही उठा सकता।
उस पर इन लोगो ने दलील दी कि हम लोग तो
अपना घर बार सब छोड छाड कर इस आंदोलन
में शामिल हैं और तुम ज़रा से खर्चे से परेशान
हो रहे हो। इस पर मुझे भी गुस्सा आ गया
और मैने सालो की गांड पर लात मार कर भगा
दिया। बाद में मैने स्वयं देखा कि ये लोग
साले एक नंबर के नशेडी, जुआ खेलने में
सिद्धहस्त और भी जाने क्या क्या शौक पाले हुए
हैं।
तो इनकी करतूतों का कोई पारावार नही है।
बेहतर है, कि इन तथाकथिर कम्यूनिस्टों से
दूरी ही बना कर रखी जाये।
ये एक भोले भाले साथी का योजनाबद्ध तरीके
से आर्थिक, मानसिक और भौतिक
संदोहन करने में कोई कोताही नही बरतते।
अंकित माथुर जैसा ही मेरा भी कालेज टाइम का अनुभव है। हां, इतना जरूर है कि सभी लोग एक जैसे नहीं होते। इनमें से कुछ वाकई ईमानदार हैं। वो शायद हम-आप जैसे लोग ही होते हैं जो कुछ खोखले हो चुके नारों के पीछे अपनी पूरी जिंदगी बिता देते हैं। मगर इतना जरूरी है कि संगठन से जुड़े तमाम कम्यूनिस्ट मुझे अवसरवादी होते और दूसरों की पीठ पर पांव रखकर चल देने वाले मिले हैं। इस तरह से ये लोग दोहरा नुकसान करते हैं, अपनी गलत नीयत से और साथ ही अपने तरीकों से एक अच्छे मकसद के प्रति बहुत से लोगों के स्वस्थ रुझान को भी चिढ़ में बदल देते हैं।
ReplyDeleteदादा ये ऐसा सत्य है जिसे ये वामपंथी ना ही स्वीकारते हैं और ना ही स्वीकारने लायक छोरते हैं , मैं मधुबनी लोकसभा का मतदाता हूँ, सदियौं से यह इलाका भाकपा किसान सेल के राष्ट्रीय अध्यक्ष कोमरेड भोगेन्द्र झा का रहा है, कहने को ये गरीब हैं, कहने को इनके घर नही हैं, पाँच बार मधुबनी के सांसद रहे , बनाये गए कोमरेड चेलों का जम कर दोहन करते रहे, जो आज किसी काम के नही रह गए हैं, कहने को किसान रहे मगर इनका संसदीय इलाका खेती मैं सबसे पिछडा , कहने को कोमरेडहैं, मगर बेटों को विदेश मैं पढाया और आज कल इनके बेटे विदोशों मैं ही सेवा दे रहे हैं।
ReplyDeleteभाई किसी से बचो या ना बचो मगर इन कोमरेडों की चुतर पे लात मार के भगाओ।
जय जय भडास.