जिन्हें हम इंसान बुराई मानते हैं, गंदा कहते हैं या जिनसे हमें घृणा होती है वे अलग-अलग सामाजिक परिवेशों में सापेक्षता से कदाचित भिन्न-भिन्न होती हैं। जैसे कि कुछ लोग शराब का सेवन बुरा मानते हैं कुछ लोग उसे अपवित्र और बुरा मानते हैं, कुछ लोग मांसाहार करते हैं और कुछ उसी को पैशाचिक भोजन मानते हैं कहते हैं कि यह मानवीय आहार हो ही नहीं सकता और इस विरोधाभास की हद तो तब सामने आती है जब चिकित्सा से जुड़ी बात की ओर नजर डालें, लीजिये शिवाम्बु यानि कि स्वयं का मूत्र; हिन्दुओं का एक तबका इसे "शिवाम्बु" कहता है यानि कि पवित्रतम जल और वहीं दूसरी ओर इस्लाम को मानने वाले इसे इतना अपवित्र मानते हैं कि अगर एक भी बूंद कपड़ो पर रह गयी तो अपने आपको नापाकी हालत में मानते हैं। मैं सोचती हूं कि दुनिया बनाने वाले के बारे में हमारी मजहबी किताबों में ऐसे वर्णन है जैसे कि वो कोई शख्सियत हो (अब खुदा के वास्ते कोई मुझपर ये आरोप न लगाए कि मैं इस्लामिक सोच की तौहीन करने की गुस्ताखी कर रही हूं लेकिन यदि फिर भी किसी को मेरी बात से लगता है कि इस्लाम खतरे में है तो मेहरबानी करके मेरी मौत का फ़तवा जारी करने से पहले मुझसे सभ्य इंसानो की तरह बात करे और अगर फिर भी उसे लगे कि मैं गलत हूं तो तब पत्थर उठाए ; उस पत्थर उठाने वाले शख्स से पहला सवाल इसी ब्रेकेट के अंदर कर लेती हूं कि क्या अक़ीदा जबरन पैदा करा जा सकता है?)। तमाम जगहों पर खुदा के बारे में ऐसे तरीके से लिखा है कि वह फरिश्तों से कह्ता है कि आदम को सज़्दा करो या हुजूर को जिब्राइलअलैस्सलाम जो कि एक फरिश्ते हैं आकर खुदा के पैगाम दे रहे हैं,खुदा ने हम सब को अपनी इबादत के लिये बनाया। इसका अर्थ तो बस इतना है कि हम कठपुतलियों से ज्यादा और कुछ नहीं लेकिन उसने अपने मनोरंजन के लिये ये कह दिया कि तुम्हें भले बुरे की समझ दे रहा हूं और फिर फैसले के रोज जन्नत दोज़ख का खेल होगा।
दो घटनाएं, एक बच्ची ने मेरे बालों में बड़े प्यार से बेशरम(बेहया यानि bell flower) का फूल लाकर लगा दिया,सब टीचर्स हंसती रहीं लेकिन मैंने न सिर्फ दिन भर उस फूल को बालों में लगा रहने दिया बल्कि वाशी से पनवेल तक लोकल ट्रेन में और घर तक पैदल उसे लगाए हुए ही आयी। मुझे उस बच्ची के प्यार में ईश्वरीय झलक दिखी...............
अपने बड़े भाईसाहब भूपेश जी की बेटी पुका(पूर्वा) जो सवा साल की है, मैं अक्सर उसे मिलने घर चली जाती हूं आखिर बुआ जो ठहरी। कल देखा तो भाभी किचन में कुछ काम कर रहीं हैं और पुका रानी फर्श पर बैठे हुए जोर-जोर से किलकारियां मार कर खुश हो रही है और दोनो हाथों से पानी उछाल रही है मेरे नजदीक जाते ही कुछ बूंदे मेरे चेहरे पर पड़ीं। पुका ने पेशाब कर रखा था और उसी में छप-छप करके मम्म मम्म बोल कर उसे उछाल रही थी। मुझे फिर एक बार ईश्वरीय झलक दिखी इस बच्ची की किलकारी में और अपनी पेशाब के प्रति गंदगी की धारणा ध्वस्त होती नजर आईं। मुझमें साहस नही है कि मैं अपनी बेवकूफियत को इस ईश्वरीय आनंद पर थोप कर उसे रोकूं।
भगवान की मूर्ति पर बेशरम का फूल नहीं चढ़ा सकते और पेशाब से देवप्रतिमा को स्नान नही करा सकते मुझे संदेह है कि इन बातों से ईश्वर की कोई सहमति या असहमति होती होगी या हमारे अच्छे बुरे की धारणा से उसे कोई मतलब है वो तो बस चुपचाप देख रहा है कि आप उसकी बनाई दुनिया में कितना प्रेम और आनंद बांट रहे हैं
महान मुनव्वर आपा जी,आप इतने गम्भीर मुद्दों पर लिख देती हैं वो भी एकदम नए नजरिये से कि किसी को कमेंट तक करने में हजार बार सोचना पड़ता होगा और फिर हाथ रुक ही जाते होंगे....
ReplyDeleteभगवान की कैटगरी हम लोगों ने ही तय की है। हम लोगों ने ही बताया कि ये ईश्वर हैं, ये अल्लाह हैं, ये गॉड हैं। ये बंटवारा इसलिए हुआ क्योंकि हम स्वार्थी हैं। अपनी बात अपने तरीके से मनवाने के लिए नियम बनाते हैं। भगवान ने कोई नियम नहीं बनाया। लेकिन फिर भी भगवान के नाम पर विभिन्न धर्मों के पाखंडी अपनी दुकान चला रहे हैं।
ReplyDeleteमुनव्वर आपा,
ReplyDeleteजबरदस्त लिखा है और आपकी बेबाकी बेहतरीन है. जिस मुद्दे को रूपेश भाई गंभीर बता रहे हैं दरअसल वोह हमारा आइना ही तो है, हमारे दोहरे चरित्र का प्रमाण.
वैसे भी सब से ऊपर इश्वर ही है और आपा आप कि तरह मैं भी उसी मैं विश्वास रखता हूँ. ना कि विभिन्न धर्मो के धर्मान्धों के साथ.
जय जय भडास.